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गुजराती भाषा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से एक है और इसका विकास शौरसेनी प्राकृत के परवर्ती रूप 'नागर अपभ्रंश' से हुआ है। गुजराती भाषा का क्षेत्र गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ के अतिरिक्त महाराष्ट्र का सीमावर्ती प्रदेश तथा राजस्थान का दक्षिण पश्चिमी भाग भी है। सौराष्ट्री तथा कच्छी इसकी अन्य प्रमुख बोलियाँ हैं। हेमचंद्र सूरि ने अपने ग्रंथों में जिस अपभ्रंश का संकेत किया है, उसका परवर्ती रूप 'गुर्जर अपभ्रंश' के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अनेक साहित्यिक कृतियाँ मिलती हैं। इस अपभ्रंश का क्षेत्र मूलत: गुजरात और पश्चिमी राजस्थान था और इस दृष्टि से पश्चिमी राजस्थानी अथवा मारवाड़ी, गुजराती भाषा से घनिष्ठतया संबद्ध है।
गुजराती साहित्य में दो युग माने जाते हैं-
गुर्जर या श्वेतांवर अपभ्रंश की कृतियों को गुजराती की आद्य कृतियाँ माना जा सकता है। ये प्राय: जैन कवियों की लोकसाहित्यिक शैली में निबद्ध रचनाएँ हैं। रास, फाग तथा चर्चरी काव्यों का प्रभूत साहित्य हमें उपलब्ध है, जिनमें प्रमुख भरतबाहुबलिरास, रेवंतदास, थूलिभद्दफाग, नेमिनाथचौपाई आदि हैं। इसके बाद भी 13वीं 14वीं सदी की कुछ गद्य रचनाएँ मिलतीं हैं, जो एक साथ जूनी गुजराती और जूनी राजस्थानी की संक्रांतिकालीन स्थिति का परिचय देती हैं। वस्तुत: 16वीं सदी तक, मीराबाई तक, गुजराती और पश्चिमी राजस्थानी एक अविभक्त भाषा थी। इनका विपाटन इसी सदी के आसपास शुरू हुआ था।
प्राचीन गुजराती साहित्य का इतिहास विशेष समृद्ध नहीं है। आरंभिक कृतियों में श्रीधर कवि का ‘रणमल्लछंद’ (1390 ई. ल.) है, जिसमें ईडर के राजा रणमल्ल और गुजरात के मुसलमान शासक के युद्ध का वर्णन है। दूसरी कृति पद्मनाभ कवि का कान्हड़देप्रबन्ध (1456 ई.) है, जिसमें जालौर के राजा कान्हड़दे पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण और युद्ध का वर्णन है। यह काव्य वीररस की सुन्दर रचना है और गुजराती साहित्य के आकर ग्रंथों में परिगणित होता है। इन्हीं दिनों मध्ययुगीन सांस्कृतिक जागरण की लहर गुजरात में भी दौड़ पड़ी थी, जिसके दो प्रमुख प्रतिनिधि नरसी मेहता और भालण कवि हैं। नरसी का समय विवाद्ग्रस्त है, पर अधिकांश विद्वानों के अनुसार ये 15वीं सदी के उत्तराद्ध में विद्यमान थे। इनकी कृष्णभक्ति के विषय में अनेक किंवदंतिया प्रचलित हैं। नरसी मेहता गुजराती पदसाहित्य के जन्मदाता हैं जिसमें निश्चल भक्तिभावना की अनुपम अभिव्यक्ति पाई जाती है। भालण कवि का समय भी लगभग यही माना जाता है। इन्होंने रामायण, महाभारत और भागवत के पौराणिक इतिवृत्तों को लेकर अनेक काव्य निबद्ध किए और गरबासाहित्य को जन्म दिया। वात्सल्य और श्रृंगार के चित्रण में भालण सिद्धहस्त माने जाते हैं। पद साहित्य और आख्यान काव्यों की इन दोनों शैलियों ने मध्ययुगीन गुजराती साहित्य को कई कवि प्रदान किए हैं। प्रथम शैली का अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तित्व मीराबाई (16वीं सदी) हैं जिनपर नरसी का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। हिंदी और राजस्थानी की तरह मीराबाई के अनेक सरस पद गुजराती में पाए जाते हैं जो नरसी के पदों की भाँति ही गुजराती जनता में लोकगीतों की तरह गाए जाते हैं। आख्यान काव्यों की शैली का निर्वाह नागर, केशवदास, मधुसूदन व्यास, गणपति आदि कई कवियों में मिलता है, किंतु इसका चरमपरिपाक प्रेमानंद में दिखाई पड़ता है।
प्रेमानन्द भट्ट (17वीं शती) गुजराती भक्ति साहित्य के सर्वोच्च कवि माने जाते हैं। वे बड़ौदा के नागर ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे और संस्कृत, हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं के अच्छे जानकार थे। प्रेमानन्द ने रामायण, महाभारत, भागवत और मार्कण्डेयपुराण के कई आख्यानों पर काव्य निबद्ध किए जिनकी संख्या 50 से ऊपर है। ये गुजराती के सर्वप्रथम नाटककार भी हैं, जिनकी तीन नाट्य कृतियाँ हैं। भावगांभीर्य के साथ साथ अलंकृत शैली इनकी विशेषता है। इन्हीं के ढंग पर और कवियों ने भी पौराणिक आख्यान लिखे, जिनमें शामल भट्ट के अनेक काव्य, मुकुंद का भक्तमाल, देवीदास का रुक्मिणीहरण, मुरारी का ईश्वर विवाह उल्लेखनीय है। प्रेमानन्द के ही समसामयिक भक्त कवि अखों (17वीं शती) हैं जो अहमदाबाद के सोनार थे। कबीर की तरह इन्होंने धर्म के मिथ्या पाखंड, जातिप्रथा और वर्णव्यवस्था पर कटु व्यंग्य किया है। इनके दार्शनिक, भक्तिपरक तथा सुधारवादी दोनों तरह के पद मिलते हैं।
ऊपर कहा जा चुका है कि भालण कवि ने एक विशेष काव्यशैली का विकास किया था- गरबा शैली। यह शैली मूलत: नृत्यपरक लोकगीतों से संबद्ध है। इस शैली में 18वीं सदी में देवी देवताओं से संबद्ध अनेक भक्तिपरक स्तुतिगीत लिखे गए। गरबी कवियों का अलग संप्रदाय ही चल पड़ा, जिसमें ब्राह्मण, भाट, पाटीदार सभी तरह के लोग मिलेंगे। प्रमुख गरबी कवियों में बल्लभ भट्ट, प्रीतमदास, धीरोभक्त, नीरांत भक्त औरभोजा भक्त हैं। इस शैली का चरम परिपाक गरबी सम्राट, दयाराम (1767-1852 ई.) के गीतों में मिलता है। दयाराम शृंगाररसपरक गीति काव्य के सर्वश्रेष्ठ मध्ययुगीन गुजराती कवि हैं, जिन्होंने सरल और सरस शैली में मधुर भावों की अभिव्यंजना की है। गुजराती में इनकी 48 रचनाएँ मिलती हैं। इसके अतिरिक्त संस्कृत, हिंदी, मराठी, पंजाबी और उर्दू में भी इन्होंने समान रूप से काव्यरचना की हैं।
मध्ययुगीन गुजराती साहित्य के विकास में स्वामीनारायण संप्रदाय का भी काफी हाथ रहा है। इस संप्रदाय के संस्थापक सहजानन्द रामानन्द की शिष्यपरम्परा में आते हैं। कच्छ और गुजरात में इस संप्रदाय के साधुओं का काफी प्रभाव रहा है। दार्शनिक तथ्य, भक्तिभावना और सामाजिक पाखण्ड की भर्त्सना इन साधु कवियों के विषय हैं। इस संप्रदाय के प्रमुख कवि ब्रह्मानन्द हैं जिनके कई ग्रंथ और आठ हजार फुटकर पद मिलते हैं। अन्य कवियों में मुक्तानंद, मंजुकेशानंद और देवानन्द का नाम लिया जा सकता है।
वैसे तो जूनी गुजराती में कुछ गद्य कृतियाँ मिलती हैं, पर मध्ययुगीन गुजराती में गद्यशैली का प्रौढ़ विकास नहीं हो पाया था। गुजराती पद्य के विकास में अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं की तरह ईसाई पादरियों का भी हाथ रहा है। 19वीं सदी के प्रथम चरण में बाइबिल का गुजराती गद्य में अनुवाद प्रकाशित हुआ और ड्रमंड ने 1808 ई. में गुजराती का सर्वप्रथम व्याकरण लिखा। गुजराती में नई चेतना का प्रादुर्भाव जिन लेखकों में हुआ, उनमें पादरी जर्विस, नर्मदाशंकर, नवलराय तथा भोलानाथ आते हैं। नर्मद या नर्मदाशंकर (1833-1886 ई0) गुजराती मध्यवर्गीय चेतना के अग्रदूत हैं, ठीक वैसे ही जैसे हिंदी में भारतेंदु। समय की दृष्टि से भी ये भारतेंद्रु के समसामयिक थे तथा उन्हीं की तरह सर्वतोमुखी प्रतिभा से समन्वित थे। इनकी गद्यबद्ध आत्मकथा ‘मारी हकीकत’ पुराने कवियों की संपादित कृतियाँ और आलोचनाएँ, संस्कृत ‘शाकुंतल’ का गुजराती अनुवाद और अनेक सुधारवादी कविताएँ हैं। आधुनिक गुजराती काव्य को नए साँचे में ढालनेवाले पहले कवि नर्मद ही हैं जिन्होंने नए सांस्कृतिक जागरण, राष्ट्रीय भावना और सुधारवादी उदात्तता को वाणी दी हैं। इनकी वैचारिक काव्यशैली के आगे पुराने भक्त कवि सामान्य दिखाई पड़ते हैं। नर्मद पाश्चात्य काव्यशैली से पूरी तरह परिचित थे। भारतेंदु की तरह ही वे कर्मठ साहित्यिक थे, जिन्होंने अनेक नए कवियों और लेखकों को प्रेरित और संगठित किया। संपादन और आलोचना के क्षेत्र में भी नर्मद का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। साथ ही वे गुजराती के प्रथम निबंधकार, नाटककार और आत्मचरित्र लेखक माने जाते हैं। नर्मद के समसामयिक कवि दलपतराम (1820-1898 ई.) की रचनाएँ भी सामाजिक, नीतिपरक तथा राष्ट्रीय विषयों से संबद्ध हैं। सरल, प्रसादगुण-युक्त शैली में अपन काव्य को उपस्थित कर देना दलपतराम की विशेषता है। यद्यपि इनकी शैली नर्मद की अपेक्षा गद्यवत अधिक है, तथापि व्यावहारिकता कहीं अधिक पाई जाती है।
नर्मद और दलपतराम अनेक परवर्ती कवियों के आदर्श रहे हैं। सवितानारायण, मणिलाल द्विवेदी, बालशंकर कंथारिया, कलापी आदि सभी पर इनका प्रभाव मिलेगा। इस काल के सर्वश्रेष्ठ कवि काठियावाड़ के ठाकुर सुरसिंह जी गोहेल (1874-1913 ई.) थे, जो ‘कलापी’ उपनाम से कविता करते थे। ये सच्चे कविहृदय व्यक्ति थे, जिनकी प्रत्येक पंक्ति में अनुभूति की तीव्रता विद्यमान है। उन्मुक्त प्रेम, प्रकृतिवर्णन, तथा स्वच्छंद रोमानी भावना का निसर्ग प्रवाह कलापी की कविता में है। इनका काव्यसंग्रह ‘कलापी नो केकारव’ है। शैली तथा छंदोविधान के क्षेत्र में ये नए प्रयोगों के जन्मदाता हैं। गुजराती में इन्होंने अनेक ‘गजले’ भी लिखी हैं, जो ‘गजलिस्तान’ नामक संग्रह में संकलित हैं। श्री कंथारिया ने फारसी कवि हाफिज की गजलों का गुजराती काव्यानुवाद प्रस्तुत किया है तथा अन्य मुक्तक रचनाएँ भी लिखी हैं। गुजराती काव्य को परंपरावादी प्रवृत्तियों से मुक्त कर स्वच्छंदवादी प्रवृत्तियों की ओर अग्रसर करने में इन कवियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। गुजराती के परवर्ती रोमैंटिक कवियों में नरसिंहराव दिबेटिया, फरदुनजी मरजबान, रामजी मेरबानजी मलबारी, हरिलाल ध्रुव तथा फ्रामजी खबरदार प्रमुख हैं। इनमें श्री दिवेटिया कवि के अतिरिक्त गुजराती साहित्य के अधिकरी विद्वान भी थे और इन्होंने ‘गुजराती भाषा और साहित्य’ पर बंबई विश्वविद्यालय में विल्सन फाइलालॅजिकल व्याख्यान दिए थे। कविता के क्षेत्र में ये अंग्रेजी रोमैंटिक कवियों से विशेष प्रभावित हैं। खबरदारजी की कविताओं में प्रधानत: देशभक्ति और दार्शनिक विषयों की ओर झुकाव मिलता है।
रोमैंटिक काव्यधारा का विकास बलवंतराय, दामोदर खुशालदास बोरादकर, मणिशंकर रतनजी भट्ट तथा नानालाल में मिलता है। ये सभी कवि पाश्चात्य काव्यशैली से प्रभावित हैं। इन कवियों में नाना लाल अग्रगण्य हैं, जो गुजराती कवि दलपतराम के पुत्र थे। कवि तथा नाटककार दोनों रूपों में इन्होंने विशिष्ट ख्याति अर्जित की है। प्रबंध काव्य, खंड काव्य तथा मुक्तक काव्य तीनों शैलियों में इनकी रचनाएँ मिलती हैं, जिनमें प्रमुख ‘कुरु क्षेत्र’ महाकाव्य है। गुजराती में मुक्त छंद के सर्वप्रथम प्रयोक्ता भी ये ही हैं। नव्य गुजराती कविता पर समसामयिक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा साहित्यिक परिवर्तनों का काफी प्रभाव पड़ा है। गांधीवादी कवियों में सर्वश्रेष्ठ ब. क. ठाकुर हैं, जिन्होंने नए विषयों के प्रयोग के साथ साथ अतुकांत छंद की तरह प्रवाही पद्य का प्रयोग तथा व्यावहारिक भाषा का उपयोग किया है। इन्होंने गुजराती में कई सॉनेट (चतुर्दशपदियाँ) भी लिखे हैं। ठाकुर का प्रभाव उमाशंकर जोशी, रामानरायण पाठक, कृष्णलाल श्रीधराणी आदि कवियों पर मिलेगा। आधुनिक गुजराती कवियों पर एक ओर साम्यवादी विचारधारा का और दूसरी ओर बिंबवादी कवियों का प्रभाव पड़ा है। प्रयोगवादी ढंग के गुजराती कवियों में राजेंद्र शाह और दिनेश कोठारी प्रमुख हैं, जिन्होंने भाषा, छंद और काव्य के साथ नए प्रयोग किए हैं।
गुजराती नाटक साहित्य विशेष समृद्ध नहीं है। नर्मदाशंकर ने ‘शाकुंतल’ का अनुवाद किया था और रणछोड़ भाई ने कुछ संस्कृत तथा अंग्रेजी नाटकों का। रणछोड़ भाई ने कई मौलिक पौराणिक तथा सामाजिक नाटक भी लिखे। अन्य परवर्ती नाटककारों में दलपतराम, नवलराय, नानालाल तथा सर रमणभाई आते हैं। सामाजिक कथावस्तु को लेकर लिखनेवाले आधुनिक नाटककार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, चंद्रवदन मेहता और धनसुखलाल मेहता हैं। इधर श्रीधराणी, उमाशंकर जोशी तथा बटुभाई उमरवाडिया ने एकांकी भी लिखे हैं।
यही स्थिति गुजराती निबंध साहित्य की भी है। पहले निबंधलेखक नर्मद हैं। नर्मद के समय ही गुजराती पत्रकारिता का उदय हुआ था और नवलराय ने ‘गुजरात शाळापत्र’ का प्रकाशन आरंभ किया। इन्होंने समालोचना और निबंध के क्षेत्र में भी काफी काम किया। विवेचनात्मक तथा व्यक्तिव्यंजक दोनों तरह के निबंध लिखे जाने लगे पर गुणात्मक प्रौढ़ि की दृष्टि से केवल आनंदशंकर बापूभाई ध्रुव, नरसिंह राव दिवेटिया, काका कालेलकर, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, रामनारायण पाठक, केशवलाल कामदार और उमाशंकर जोशी की ही कृतियों का संकेत किया जा सकता है। आलोचनात्मक लेखों के क्षेत्र में केशवलाल ध्रुव, मनसुखलाल झावेरी, उमाशंकर जोशी तथा डॉ॰ भोगीलाल सांडेसरा ने महत्वपूर्ण योग दिया हैं। संस्मरण तथा रेखाचित्र के गुजराती लेखकों में मुंशी तथा उनकी पत्नी लीलावती मुंशी, गांधीवादी विचारक काका कालेलकर और गांधीजी के अनन्य सहयोगी महादेव भाई की परिगणना की जाती है।
गुजराती कथा साहित्य अपेक्षाकृत विशेष समृद्ध है। उपन्यास साहित्य का प्रारंभ श्री नंदशंकर तुलजाशंकर के उपन्यास ‘करणघेलो’ (1868 ई.) से होता है। ऐतिहासिक उपन्यासों की जो परंपरा महीपतराम, अनंतराम त्रीकमलाल और चुन्नीलाल वर्धमान ने स्थापित की, उसका चरम परिपाक कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के ऐतिहासिक उपन्यासों में मिलता है। पृथ्वीवल्लभ, जय सोमनाथ, गुजरात नो नाथ, पाटण नी प्रभुत्व, भगवान परशुराम, लोपामुद्रा, भगवान कौटिल्य उनकी प्रशस्त कृतियाँ हैं। इनके पूर्व इस क्षेत्र में इच्छाराम सूर्यराम देसाई ने भी काफी ख्याति प्राप्त कर ली थी, जिनका स्पष्ट प्रभाव मुंशी जी पर दिखाई पड़ता है। मुंशीजी ने पौराणिक, ऐतिहासिक उपन्यासों के अतिरिक्त सामाजिक उपन्यास भी लिखे हैं। सामाजिक उपन्यासों के क्षेत्र में रमणलाल देसाई का विशेष स्थान है। राष्ट्रीय आंदोलन से संबंद्ध इनके दो उपन्यास ‘दिव्यचक्षु’ और ‘भारेला अग्नि’ तथा भारतीय ग्रामीण जीवन की समस्याओं से संबंद्ध, चार भागों में प्रकाशित महती कृति ‘ग्रामलक्ष्मीकोण’ ने काफी ख्याति प्राप्त की है। गुजरात के लोकजीवन और लोकसाहित्य को उपन्यासों के साँचे में ढालने का स्तुत्य प्रयास झवेरचंद मेघाणी ने किया, जो गुजराती लोकसाहित्य के विशेषज्ञ भी थे। अन्य सामाजिक उपन्यासलेखकों में गोवर्धनराम त्रिपाठी, पन्नालाल पटेल और धूमकेतु ने विशेष ख्याति अर्जित की है। श्री त्रिपाठी तथा अन्य दोनों लेखकों पर यथार्थवादी उपन्यासकला का प्रभाव भी मिलेगा। कथासाहित्य के दूसरे अंश कहानी ‘गोवालणी’ के प्रकाशन से माना जाता है। इसके बाद तो विष्णुप्रसाद त्रिवेदी, अमृतलाल पंढियार और चंद्रशंकर पंड्या की कई कहानियाँ प्रकाशित हुईं। आधुनिक कहानी लेखकों में मुंशी, रमणलाल देसाई, गुणवंतराय आचार्य, धूमकेतु तथा गुलाबदास ब्रोकर विशेष प्रसिद्ध है। धूमकेतु तथा गुलाबदास ब्रोकर ने कहानी की तकनीक को अत्याधुनिक बनाया है। आज का गुजराती कथा साहित्य और काव्य विशेष रूप से भारतीय समाज के सभी पहलुओं का अंकन कर भारतीय युगचेतना के वाणी देने में अपना समुचित योग दे रहा है।
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