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ग़ोरी राजवंश या ग़ोरी सिलसिला (फ़ारसी: سلسله غوریان, अंग्रेज़ी: Ghurids), जो अपने-आप को शनसबानी राजवंश (شنسبانی, Shansabānī) बुलाया करते थे, एक मध्यकालीन राजवंश था जिसने अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, पश्चिमोत्तर भारत (दिल्ली तक), ख़ुरासान और आधुनिक पश्चिमी चीन के शिनजियांग क्षेत्र के कई भागों पर ११४८-१२१५ ईसवी काल में राज किया। यह राजवंश ग़ज़नवी राजवंश के पतन के बाद उठा था। यह राजवंश अफ़ग़ानिस्तान के ग़ोर प्रान्त में केन्द्रित था और इतिहासकारों का मानना है कि इसका राजपरिवार ताजिक मूल का था।
غوریان / شنسبانی ग़ोरियान / शनसबानी ग़ोरी राजवंश | |||||
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राजधानी | फ़िरोज़कोह हेरात ग़ज़नी (११७० का दशक-१२१५) लाहौर (शीतकालीन) | ||||
भाषाएँ | फ़ारसी (राजभाषा) | ||||
धार्मिक समूह | सुन्नी इस्लाम | ||||
शासन | साम्राज्य | ||||
सुलतान | |||||
- | ११४८-११५७ | अला-उद-दीन जहानसोज़ | |||
- | ११५७-१२०२ | ग़ियास-उद-दीन ग़ोरी | |||
- | १२०२-१२०६ | मुहम्मद ग़ोरी | |||
- | १२०६-१२१० | क़ुतुब-उद-दीन ऐबक | |||
ऐतिहासिक युग | मध्यकालीन | ||||
- | स्थापित | ११४८ | |||
- | अंत | १२१५ | |||
आज इन देशों का हिस्सा है: | आधुनिक देश
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ग़ोरी राजवंश की सर्वप्रथम राजधानी ग़ोर प्रान्त का फ़िरोज़कोह शहर था लेकिन बाद में हेरात बन गया। इसके अलावा ग़ज़नी और लाहौर को भी राजधानियों की तरह इस्तेमाल किया जाता था, विशेषकर सर्दियों में। दिल्ली का प्रसिद्द क़ुतुब मीनार इसी वंश के क़ुतुब-उद-दीन ऐबक का बनवाया हुआ है, जिसने दिल्ली सल्तनत की स्थापना भी की।[1] इस राजवंश के पतन के बाद ईरान में ख़्वारेज़्म शाह राजवंश और उत्तर भारत में दिल्ली सल्तनत के ग़ुलाम राजवंश (जिसे ममलूक राजवंश भी कहते हैं) ने इसकी जगह ली।
मध्य १२वीं सदी से पहले ग़ोरी सरदार १५० सालों तक ग़ज़नवियों और सलजूक़ों के अधीन रहे। इस काल के अंत तक ग़ज़नवी स्वयं सलजूक़ों के अधीन हो चुके थे।[2]
११४८-११४९ में क़ुतुब-उद-दीन नामक एक स्थानीय ग़ोरी नेता किसी पारिवारिक झगड़े के बाद शरण लेने जब ग़ज़ना आया तो ग़ज़नवी शासक बहराम शाह ने उसे ज़हर देकर मार डाला। बदलें में एक दूसरे ग़ोरी सरदार अला-उद-दीन हुसैन ने ग़ज़ना पर हमला करा और उसे ७ दिनों तक लूटा और जलाकर राख कर डाला। इसके बाद उसे 'जहानसोज़' के नाम से जाना जाने लगा, जिसका मतलब 'जहान/विश्व में आग लगाने वाला' होता है। इसके साथ ही ग़ज़नवी साम्राज्य ख़त्म होने लगा।[3]
ग़ज़नवियों ने सलजूक़ों की सहायता से ग़ज़नी पर दोबारा नियंत्रण कर लिया लेकिन जल्द ही उसे कुछ ओग़ुज़ तुर्कमानी झुंडों को खो बैठे जो स्वयं पूर्वोत्तर दिशा से अपनी ज़मीनें कारा-ख़ितान ख़ानत को खोकर यहाँ आ धमके थे। ११५२ में अला-उद-दीन जहानसोज़ ने सलजूक़ों को कर देने से मना कर दिया और फ़िरोज़कोह से फ़ौजें बढ़ाई लेकिन सलजूक़ों के शासक, सुलतान अहमद संजर, ने उसे हरा दिया। सुलतान संजर ने अला-उद-दीन को कुछ देर बंदी बनाकर रखा लेकिन फिर रिहा कर दिया। ११६१ में अला-उद-दीन जहानसोज़ का देहांत हो गया और उसका बेटा सैफ़-उद-दीन ग़ोरी शासक बना। अपने मरने से पहले अला-उद-दीन जहानसोज़ ने अपने दो भतीजों - शहाब-उद-दीन (जो आमतौर पर मुहम्मद ग़ोरी कहलाता है) और ग़ियास-उद-दीन - को क़ैद कर रखा था लेकिन सैफ़-उद-दीन ने उन्हें रिहा कर दिया।[4]
सलजूक़ों ने जब इस क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया था जो उन्होंने सैफ़-उद-दीन की पत्नी के ज़ेवर भी ले लिए थे। गद्दी ग्रहण करने के बाद एक दिन सैफ़-उद-दीन ने किसी स्थानीय सरदार को यह ज़ेवर पहने देख लिया और तैश में आकर उसे मार डाला। जब मृतक के भाई को कुछ महीनो बाद मौक़ा मिला तो उसने सैफ़-उद-दीन को बदले में भाला मरकर मार डाला। इस तरह सैफ़-उद-दीन का शासनकाल केवल एक वर्ष के आसपास ही रहा।[4] ग़ियास-उद-दीन नया शासक बना और उसके छोटे भाई शहाब-उद-दीन ने उसका राज्य विस्तार करने में उसकी बहुत वफ़ादारी से मदद करी। शहाब-उद-दीन (उर्फ़ मुहम्मद ग़ोरी) ने पहले ग़ज़ना पर क़ब्ज़ा किया, फिर ११७५ में मुल्तान और उच पर और फिर ११८६ में लाहौर पर। जब उसका भाई १२०२ में मरा तो शहाब-उद-दीन मुहम्मद ग़ोरी सुलतान बन गया।
१२०६ में आधुनिक पाकिस्तान के झेलम क्षेत्र में नदी के किनारे मुहम्मद ग़ोरी को खोखर नामक क़बीले के (उस समय हिन्दू) लोगों ने अपने ऊपर हुए हमलों का बदला लेने के लिए मार डाला।[5] मुहम्मद ग़ोरी का कोई बेटा नहीं था और उसकी मौत के बाद उसके साम्राज्य के भारतीय क्षेत्र पर उसके प्रीय ग़ुलाम क़ुतुब-उद-दीन ऐबक ने दिल्ली सल्तनत स्थापित करके उसका विस्तार करना शुरू कर दिया। उसके अफ़ग़ानिस्तान व अन्य इलाक़ों पर ग़ोरियों का नियंत्रण न बच सका और ख़्वारेज़्मी साम्राज्य ने उनपर क़ब्ज़ा कर लिया। ग़ज़ना और ग़ोर कम महत्वपूर्ण हो गए और दिल्ली अब क्षेत्रीय इस्लामी साम्राज्य का केंद्र बन गया। इतिहासकार सन् १२१५ के बाद ग़ोरी साम्राज्य को पूरी तरह विस्थापित मानते हैं।
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