ख़िलाफ़त आन्दोलन
भारत में तुर्की के खलीफ़ा के समर्थन में आन्दोलन / From Wikipedia, the free encyclopedia
खिलाफत आन्दोलन[1] (मार्च 1927-जनवरी 1928) मार्च 1919में बम्बई में एक खिलाफत समिति का गठन किया गया था। मोहम्मद अली और शौकत अली बन्धुओ के साथ-साथ अनेक मुस्लिम नेताओं ने इस मुद्दे पर संयुक्त जनकार्यवाही की सम्भावना तलाशने के लिए महात्मा गांधी के साथ चर्चा शुरू कर दी। सितम्बर 1920
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में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में महात्मा गांधी ने भी भाग लिया। यह आंदोलन सन् 1919 में लखनऊ से शुरू हुआ था।.[2]जिससे शायद भारत कभी उबर नहीं सका। खिलाफत का उद्देश्य तुर्की में खलीफा पद की पुन: स्थापना को समर्थन देना था। ऐसे में मोहनदास करमचंद गाँधी को लगा कि खिलाफत को समर्थन देना, मुस्लिमों को उनके साथ असहयोग आंदोलन में जोड़ देगा। उन्हें ये भी लगा कि अगर खलीफा के समर्थन में मुस्लिमों का साथ दिया गया तो वो बड़ी भारी तादाद में राष्ट्रीय आंदोलन में हालाँकि, इसके बाद मोपला मुसलमानों की कट्टरता थी जिसने 10,00,000 हिंदुओं के नरसंहार, सैंकड़ों हिंदू महिलाओं के बलात्कार और हिंदू मंदिरों के विध्वंस को अंजाम दिया। मालाबार नरसंहार के दौरान मोपला मुस्लिम अंधाधुंध हिंदुओं को मार रहे थे वो भी बेहद बर्बर ढंग से। एक वाकया है जिसके अनुसार 25 सितंबर 1921 को 38 हिंदुओं का बेरहमी से सिर कलम किया गया था और उनकी खोपड़ी कुएँ में फेंक दी गई थी। ये बात दस्तावेजों में भी दर्ज है कि जब मालाबार के तत्कालीन जिलाधिकारी इलाके में गए तो कई हिंदू कुएँ से मदद के लिए गुहार लगा रहे थे।
मालाबार अकेला ऐसा नरसंहार नहीं था जब हिंदुओं को मौत के घाट उतारा गया। तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर दीवान बहादुर सी गोपालन नायर ने अपनी पुस्तक में सांप्रदायिक संघर्ष की 50 से अधिक ऐसी घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया है, जब मालाबार के मुसलमानों ने हिंदुओं पर अत्याचार किए थे। ऐसे इतिहास के बावजूद, उस समय कम से कम कहने के लिए तो भारतीय नेतृत्व की प्रतिक्रिया शर्मनाक थी। मोहनदास करमचंद गाँधी ने मालाबार मुसलमानों के खिलाफत आंदोलन को इस उम्मीद में निर्विवाद समर्थन दिया था कि यह मुसलमानों को ‘राष्ट्रवादियों’ में बदल देगा, जिसके परिणामस्वरूप वे हिंदुओं के साथ ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ेंगे।