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अनुहरण (मिमिकरी / mimicry) उस बाहरी समानता को कहते हैं जो कुछ जीवों तथा अन्य जीवों या आसपास की प्राकृतिक वस्तुओं के बीच पाई जाती है, जिससे जीव को छिपने में सुगमता, सुरक्षा अथवा अन्य कोई लाभ प्राप्त होता है। ऐसा बहुधा पाया जाता है कि कोई जंतु किसी प्राकृतिक वस्तु के इतना सदृश होता है कि भ्रम से वह वही वस्तु समझ लिया जाता है। भ्रम के कारण उस जंतु की अपने शुत्रओं से रक्षा हो जाती है। इस प्रकार के रक्षक सादृश्य के अनेक उदाहरण मिलते हैं। इसमें मुख्य भाव निगोपन का होता है। एक जंतु अपने पर्यावरण (एनवायरनमेंट) के सदृश होने के कारण छिप जाता है। गुप्तपाषाण (क्रिष्टोलिथोड्स) जति का केकड़ा ऐसा चिकना, चमकीला, गोल तथा श्वेत होता है कि उसका प्रभेद समुद्र के किनारे के स्फटिक के रोड़ों से, जिनके बीच वह पाया जाता है, नहीं किया जा सकता। ज्यामितीय शलभ (जिऑमेट्रिकल माथ्स) इल्लियों (कैटरपिलरों) का रूपरंग उन पौधों की शाखाओं और पल्लवों के सदृश होता है, जिनपर वे रहते हैं।
डंठल की आकृति की होने के कारण बहुधा इसके शत्रु धोखे में पड़े रहते हैं।
यह सादृश्य इस सीमा तक पहुँच जाता है कि मनुष्य की आँखों को भी भ्रम हो जाता है। रक्षक सादृश्य छझिन नामक प्राणियों में प्रचुरता से पाया जाता है। ये इतने हरे और पर्णसदृश होते हैं कि पत्तियों के बीच वे पहचाने नहीं जा सकते। इसका एक सुंदर उदाहरण पत्रकीट (फ़िलियम, वाकिंग लीफ़) है। इसी प्रकार अनेक तितलियाँ भी पत्तों के सदृश होती हैं। पर्णचित्र पतंग (कैलिमा पैरालेक्टा) एक भारतीय तितली है। जब यह कहीं बैठती है और अपने परों को मोड़ लेती है, तो उसका एक सूखा पता जैसा मालूम होता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक पर के ऊपर (तितली के बैठने पर परों की मुड़ी हुई अवस्था में) एक मुख्य शिरा (वेन) दिखाई पड़ती है जिससे कई एक पार्श्वीय लघु शिराएँ निकलती हैं। यह पतों की मध्यनाड़ी तथा पार्श्वीय लघुनाड़ियों के सदृश होते हैं। परों पर एक काला धब्बा भी होता है, जो किसी कृमि के खाने से बना हुआ छिद्र जान पड़ता है। कुछ भूरे रंग और भी धब्बे होते हैं जिनसे पत्ती के उपक्षय होता है।
पत्ती की आकृति की होने के कारण इसकी जान बहुधा बच जाती है।
उपरिलिखित उदाहरणों में निगोपन का उद्देश्य शत्रुओं से बचने अर्थात् रक्षा का है। किंतु निगोपन का प्रयोजन आक्रमण भी होता है। ऐसे अभ्याक्रामी सादृश्य के उदाहरण मांसाहरी जंतुओं में मिलते हैं। कुछ मांसाहरी जंतु अपने पर्यावरण के सदृश होने के कारण पार्श्वभूमि में लुप्त हो जाते हैं और इस कारण आने भक्ष्य जंतुओं को दिखाई नहीं पड़ते। कई एक मकड़े ऐसे होते हैं जो फूलों पर रहते हैं और जिनके शरीर का रंग फूलों के रंग से इतना मिलता-जुलता हैं, कि वे उनके मध्य बड़ी सुगमता से लुप्त हो जाते हैं। वे कीट जो उन पुष्पों पर जाते हैं, इन मकड़ों को पहचान नहीं पाते और इनके भोज्य बन जाते हैं।
प्राकृतिक वस्तुओं, जैसे जड़ों तथा पत्तों, से जंतुओं के सादृश्य को भी कुछ प्राणिविज्ञ अनुहरण ही समझते हैं, किंतु अधिकांश जीववैज्ञानिक अनुहरण को एक पृथक् घटना समझते हैं। वे किसी जंतुजाति के कुछ सदस्यों के एक भिन्न जंतु जाति के सदृश होने को ही अनुहरण कहते हैं। कई एक ऐसे जंतु जो खाने में अरुचिकर अथवा विषैले होते हैं और छेड़ने पर हानिकारक हो सकते हैं, चटक रंग के होते हैं तथा उनके शरीर पर विशेष चिह्न रहते हैं। इसलिए उनके शत्रु उनको तुरंत पहचान लेते हैं और उन्हें नहीं छेड़ते। कुछ ऐसे जंतु, जिनके पास रक्षा का कोई विशेष साधन नहीं होता। इन हानिकारक और अभ्याक्रामी जंतुओं के समान ही चटक रंग के होते हैं तथा उनके शरीर पर भी वैसे ही चिह्न होते हैं और धोखे में उनसे भी शत्रु भागते हैं : उदाहरण:, कई एक अहानिकर जाति के सर्प प्रवालसर्पों (कोरल स्नेक्स) की भाँति रंजित तथा चिह्नित होते हैं; इसी प्रकार कुछ अहानिकर भृंग (बीटल) देखने में बुरे (ततैया, वास्प) के सदृश होते हैं और कुछ शलभ मधुमक्खी के सदृश होते हैं और इस प्रकार उनके शत्रु उन्हें नहीं पकड़ते।
अरुचिकर और विषैले जंतुओं के शरीर पर के चिह्न तथा रंगों की शैली और उनके चटक रंग का उद्देश्य चेतावनी देना है। उनके शत्रु कुछ अनुभव के पश्चात् उनपर आक्रमण करना छोड़ देते हैं। अन्य जातियों के सदस्य जो ऐसी हानिकर जातियों के रंग रूप की नकल करते हैं, हानिकर समझकर छोड़ दिए जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि अनुहरण और रक्षक सादृश्य में आमूल भेद है। रक्षकसादृश्य किसी जंतु का किसी ऐसी प्राकृतिक वस्तु या फल अथवा पत्ते के सदृश होना है, जिनमें उनके शत्रुओं का किसी प्रकार का आकर्षण नहीं होता। इसका संबंध निगोपन से है। इसके होना है जो अपने हानिकर होने की चेतावनी अहपने अभिदृश्य चिह्नों द्वारा शत्रुओं को देती हैं। अनुहरण करनेवाले जंतु छिपते नहीं, प्रत्युत वे चेतावनीसूचक रंग रूप धारण कर लेते हैं।
यद्यपि अनुहरण अनेक श्रेणी के जंतुओं में पाया जाता है, जैसे मत्स्य (पिसीज़); सरीसृप (रेप्टिलिआ); पक्षिवर्ग (एवीज़); स्तनधारी (मैमेलिया) इत्यादि में, तो भी इसका अनुसंधान अधिकतर कीटों में ही हुआ है।
प्राणिविज्ञ बेट्स को अमेज़न नदी के प्रदेशों में शाकतितील वंश (पाइरिनी) की कुछ ऐसी तितलियाँ मिलीं जो इथामिइनीवंश की तितलियों के सदृश थीं। वालेस को पूर्वी प्रदेशों की कुछ तितलियों के संबंध में भी ऐसा ही अनुभव हुआ। पैपिलियो पौलिटैस तितली की मादाएँ तीन प्रकार की होती हैं। कुछ तो नर तितली के ही रंगरूप की होती हैं, कुछ पैपिलयो अरिस्टोलोकिआई के सदृश होती हैं और कुछ पैपलियो हैक्टर के सदृश होती हैं और उसी देश में पाई जानेवाली अनेक प्रकार की विभिन्न तितलियों से मिलती-जुलती हैं। इन घटनाओं से यह ज्ञात होता है कि वे तितलियाँ जो अपने हिंसकों के लिए अरुचिकर भोजन नहीं हैं (जैसे शाक-तितील-वंश की तितलियाँ, पैपिलियो पौलीटैस, पैपिलियो डारडैनस, इत्यादि), उन तितलियों का रंगरूप धारण कर लेती हैं जो अपने शत्रुओं को खाने में अरुचिकर ज्ञात होती हैं (जैसे इथोमिइनी वंश की तितलियाँ, पैपिलियो अरिस्टोलाकिआई, पैपिलियो हैक्टर, इत्यादि)।
प्राणिविज्ञों का कहना है कि अरुचिकर तितलियों के पंखों का चटक रंग अभिदृश्य चिहृ तथा विशेष चित्रकारी उनके पित्रैकों (जीन्सं) पर प्राकृतिक चुनाव के प्रभाव के कारण विकसित हुई है। उनके चिह्न ऐसे हैं कि उनके शत्रु उनको सहज में ही पहचान लेते हैं और अनुभव के पश्चात् इन तितलियों को अरुचिकर जानकर इन्हें मारना बंद कर देते हैं। जीवन संघर्ष में इन आकृतिओं का सदैव ही विशेष मूल्य रहा है, क्योंकि से इस संघर्ष में रक्षा के साधन थे। इसी कारण ये विकसित हुए। रुचिकर तितलियों के पंखों पर भी अरुचिकर तितलियों के पंखों के सदृश चिह्नों और चित्रकारी का विकास प्राकृतिक चुनाव के प्रभाव के कारण ही हुआ, क्योंकि रंग रूप की अनुकृति जीवन संघर्ष में उनकी रक्षा का साधन हो सकती थी। सारांश यह कि अनुहरण के विकास का कारण प्राकृतिक चुनाव है।
तितलियों के कुछ अनुवंश ऐसे हैं जिनका अन्य वंश की तितलियाँ अनुहरण करती हैं। ये हैं राजतगानुवंश (डैमेआइनी) तथा ऐक्रिआइनी पुरानी दुनिया में और इथोमिइनी तथा हेलीकोनिनी नई दुनिया में। नई दुनिया में कुछ राजपतंगानुवंश की और अनेक ऐक्रिआइनी अनुवंश की तितलियाँ भी ऐसी ही हैं। फिलिपाइन टापुओं की तितली हैस्टिया लिडकोनो श्वेत और श्याम रंग की होती है और इसके पंख कागज के समान होते हैं। फिलिपाइन की एक दूसरी तितली पैलिलियों ईडियाइडीज़ इसका रूप धारण करती है। इसी प्रकार तितली ऊप्लीआज़ मिडैमस का अनुहरण पैपिलियो पैराडोक्सस करती है। अफ्रीका में राजपतंगानुवंश की तितलियाँ कम होती हैं, तब भी वे तितलियाँ, जिनका अन्य तितलियाँ अनुहरण करती हैं, इसी अनुवंश की हैं। ये ऐमोरिस प्रजाति की होती हैं। ये तितलियाँ काली होती हैं और काली पृष्ठभूमि पर श्वेत और पीले चिह्न होते हैं। डैनेअस प्लैक्सीप्पस का अनुहरण बैसिलार्किया आरकिप्पस करती हैं। डैनेअस प्लैक्सीप्पस और उसका अनुहरण करनेवाले उत्तरी अमरीका हैं और यहाँ से ही वे अफ्रीका और अमेरिका पहुँची हैं। इन प्र्व्रााजी तितलियों का रूप तथा आकार पूर्वी डैनेआइनी अनुवंश की तितलियों का सा होता है और उत्तरी अमरीका और अफ्रीका की तितलियों की कुछ जातियाँ उनका अनुहरण करती हैं।
यह देखा गया है कि नर की अपेक्षा मादा अधिक अनुहरण करती है। जब नर और मादा दोनों ही अनुहरण करते हैं तो मादा नर की अपेक्षा अनुकृत के अधिक समान होती है (अनुकृत=वह जिसका अनुहरण किया जाए)। इस संबंध में यह स्मरण रखने योग्य बात है कि मादा तितली में नर की अपेक्षा परिर्वनशक्यता अधिक पाई जाती है। स्पष्ट है कि मादा में परिवर्तनशक्यता अधिक होने के कारण, प्राकृतिक चुनाव का कार्य अधिक सुगम हो जाता है और परिणाम अधि संतोषजनक होता है, अर्थात् अनुकारी अधिक मात्रा में अनुकृत से समान होता है।
उपरिलिखित उदाहरण बेट्सियन अनुहरण के हैं। यह नाम इसलिए पड़ा है कि इसे सर्पप्रथम बेट्सि ने ज्ञात किया था। परंतु इस वेषण के पश्चात् इसी से संबंधित एक और विचित्र घटना का ज्ञान प्राणिविज्ञों को हुआ। यह देखा गया कि कुछ भिन्न-भिन्न, अरुचिकर तथा हानिकर जातियों की तितलियों के रंग, रूप, आकार भी एक समान हैं। यह स्पष्ट है कि जो जातियाँ स्वयं अरुचिकर और हानिकर हैं उन्हें किसी दूसरी हानिकर जाति की नकल करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह देखा गया कि इथोमिइनी और हेलिकोनिनी अनुवंश की तितलियाँ, जो दोनों ही अरुचिकर कहते हैं, क्योंकि इसकी संतोषजनक व्याख्या फ़िट्स मुलर ने की। मुलर ने बताया है कि इस प्रकार के अनुहरण में जितनी जातियों की तितलियाँ भाग लेती हैं उन सबको जीवनसघंर्ष में लाभ होता है। यह स्पष्ट है कि तितलियों के शुत्रओं द्वारा इस बात का अनुभव प्राप्त करने में कि अमुक रूप रंग की तितलियाँ हानिकर हैं, बहुत सी तितलियों की जान जाती हैं। जब कई एक अरुचिकर जाति की तितलियाँ एक समान रंग या रूप धारण कर लेती हैं तो शत्रुओं की शिक्षा के लिए अनिवार्य जीवनाश कई जातियों में बँट जाता है और किसी एक जाति के लिए जीवनहानि की मात्रा कम होती है।
वालेस के अनुसार प्रत्येक अनुहरण में पाँच बातें होनी चाहिए। यह निम्नलिखित हैं:
(१) अनुकरण करनेवाली जाति उसी क्षेत्र में और उसी स्थान पर पाई जाए जहाँ अनुकृत जाति पाई जाती है।
(२) अनुकरण करनेवाले अनुकृत से अधिक असुरक्षित हों।
(३) अनुकरण करनेवाले अनुकृत से संख्या में कम हों।
(४) अनुकरण करनेवाले अपने निकट संबंधियों से भिन्न हों।
(५) अनुकरण सदैव बाह्य हो। यह कभी आंतरिक संरचनाओं तक न पहुँचे।
पहली बात की अधिकांश स्थितियों में पूर्ति हो जाती हैं, पंरतु सदैव नहीं। ऐरगिन्निस हाइपबिंयस नामक तितली डानाइस प्लैक्सिप्पस का रूप घारण करती है। दोनों ही लंका में मिलती हैं, किंतु भिन्न-भिन्न स्थानों पर। यह कहा जाता है कि इसका कारण यह है कि इनके शत्रु प्रव्राजी पक्षी हैं, जो एक स्थान दूसरे स्थान को जाते रहते हैं और एक जगह प्राप्त अनुभव का प्रयोग दूसरी जगह कर सकते हैं। इसी प्रकार हाइपोलिम्नस मिसिप्पस नामक तितली अफ्रीका, भारत ओर मलाया में मिलती है। इसके नर का अनुहरण अथाइमा पैकटेटा और लिमेनाइटिस ऐल्बोमैकुलटा करती हैं, किंतु ये दोनों जातियाँ चीन में पाई जाती हैं। इसकी व्याख्या भी इसी बात पर आश्रित है कि इनके शत्रु प्र्व्रााजी पक्षी हैं। दूसरे नियम की भी लगभग सभी स्थितियों में पूर्ति होती है।
तीसरे नियम की पूर्ति कुछ स्थितियों में ही होती है, सदैव नहीं। पैपिलियों पौलीटैस अपने अनुकृत की दोनों जातियों की अपेक्षा संख्या में अधिक होती हैं। इसी प्रकार आरकोनिआस टेरिआस नामक तितली और स्थिति की व्याख्या इस आधार पर की जाती है कि ये घटनाएँ बेट्सियन अनुहरण की नहीं, मुलेरियन अनुहरण की हैं।
अनुहरण करनेवाली तितलियों पर जनन संबंधी कुछ प्रयोग भी किए गए हैं। पैपिलियो पौलीटैस का अनुकारी रूप एक जोड़ा पित्रैक (जीन) के कारण विकसित होता है, जो साधारण पित्रैंको को दबा देता है। यह नर में भी वर्तमान रहता है, किंतु इसका प्रभाव नर में विद्यमान एक अन्य दमनकारी पित्रैक के कारण अनुहरण नहीं है। उनके मतानुसार ऐसा सादृश्य एक स्थान के रहनेवाले वंशों में पर्यावरण (एनवायरनमैंट) या लैंगिक चुनाव के प्रभाव से, अथवा मानसिक अनुभव के प्रतिचार (रेसपौंस) के कारण उत्पन्न हो जाता है। पर इन आधारों पर अंतर्वशीय सादृश्य की सब घटनाओं की व्याख्या नहीं की जा सकती।
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