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भारत एवं पाकिस्तान के बीच लड़ा गया दूसरा युद्ध विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
१९६५ का भारत-पाक युद्ध उन मुठभेड़ों का नाम है जो दोनों देशों के बीच अप्रैल १९६५ से सितम्बर १९६५ के बीच हुई थी। इसे कश्मीर के दूसरे युद्ध के नाम से भी जाना जाता है। भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू और कश्मीर राज्य पर अधिकार के लिये बँटवारे के समय से ही विवाद चल रहा है। १९४७ में भारत-पाकिस्तान के बीच प्रथम युद्ध भी कश्मीर के लिये ही हुआ था। इस लड़ाई की शुरूआत पाकिस्तान ने अपने सैनिकों को घुसपैठियों के रूप में भेज कर इस उम्मीद में की थी कि कश्मीर की जनता भारत के खिलाफ विद्रोह कर देगी[10]। इस अभियान का नाम पाकिस्तान ने युद्धभियान जिब्राल्टर रखा था। पांच महीने तक चलने वाले इस युद्ध में दोनों पक्षों के हजारों लोग मारे गये। इस युद्ध का अंत संयुक्त राष्ट्र के द्वारा युद्ध विराम की घोषणा के साथ हुआ और ताशकंद में दोनों पक्षों में समझौता हुआ।
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भारत और पाकिस्तान के बीच १९६५ का युद्ध | |||||||
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भारत पाक युद्ध का भाग | |||||||
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योद्धा | |||||||
सेनानायक | |||||||
एस राधाकृष्णन (भारत के राष्ट्रपति) लाल बहादुर शास्त्री |
अयूब खान मूसा खान टिक्का खान नूर खान नासिर अहमद खान | ||||||
शक्ति/क्षमता | |||||||
700,000 इन्फैंट्री 700+ विमान 720 टैंक |
260,000 इन्फैंट्री 280 विमान 756 टैंक | ||||||
मृत्यु एवं हानि | |||||||
तटस्थ आकलन[2][3]
भारतीय दावा
पाकिस्तानी दावा
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तटस्थ आकलन[2]
पाकिस्तानी दावा'
भारतीय दावा
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इस लड़ाई का अधिकांश हिस्सा दोनों पक्षों की थल सेना ने लड़ा। कारगिल युद्ध के पहले कश्मीर के विषय में कभी इतना बड़ा सैनिक जमावड़ा नहीं हुआ था। युद्ध में पैदल और बख्तरबंद टुकड़ियों ने वायुसेना की मदद से अनेक अभियानों में हिस्सा लिया। दोनो पक्षो के बीच हुए अनेक युद्धों की तरह इस युद्ध की अनेक जानकारियां दोनों पक्षों ने सार्वजनिक नहीं की है।
भारत और पाकिस्तान के १९४७ में हुए बटवारे के समय से ही भारत और पाकिस्तान के बीच कई मुद्दो पर तनातनी चल रही थी हालांकि जम्मू और कश्मीर का मुद्दा इसमे सबसे बड़ा था पर अन्य सीमा विवाद भी थे इनमे सबसे प्रमुख कच्छ का रण, जो कि एक बंजर इलाका है, के बटवारे पर था। २० मार्च १९६५ में पाकिस्तान के द्वारा जानबूझ[11] कर कच्छ के रण में झडपें शुरू कर दी गयी। शुरू में इनमे केवल सीमा सुरक्षा बल ही शामिल थे पर बाद में दोनो देशों की सेना भी युद्ध में शामिल हो गयी[11] १ जून १९६५ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री हैरोल्ड विल्सन ने दोनो पक्षो के बीच लड़ाई रुकवा कर इस विवाद को हल करने के लिये एक निष्पक्ष मध्यस्थ न्यायालय की स्थापना कर दी। इस न्यायालय ने (जिसका निर्णय तो बाद में १९६८ में आया पर रुख पहले ही स्पष्ट हो चुका था) कच्छ के रन की करीब ९०० वर्ग किलोमीटर जगह पाकिस्तान को दे दी। हालांकि पाकिस्तान का दावा ३५०० वर्ग किलोमीटर पर था। [12]।
कच्छ के रन में मिली सफलता से उत्साहित पाकिस्तान के राजनेताओं खासकर तत्कालीन विदेशमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो ने राष्ट्र्पति और सेनाध्यक्ष जनरल अयूब खान पर दबाव डाला कि वे कश्मीर पर हमले का आदेश दे। भारत उस समय चीन[13] से युद्ध हार चुका था और उनका मानना था कि भारत उस समय युद्ध करने की स्थिति में नहीं था। इसके अलावा भुट्टो और उनके विचार से सहमत अन्य जनरलो याह्या खान और टिक्का खान का यह भी मानना था कि कश्मीर की जनता भारत से आजाद होकर पाकिस्तान से विलय की इच्छुक है और सैनिको को घुसपैठियों के वेश में भेजने पर उनके समर्थन में विद्रोह कर देगी। आखिर जनरल अयूब खान दबाव में आ गये और उन्होने गुप्त सैनिक अभियान ऑपरेशन जिब्राल्टर[14] का आदेश दे दिया। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य कश्मीर की जनता में विद्रोह भड़काना और भारतीय संचारतंत्र एवं परिवहन व्यवस्था को नुकसान पहुचाना था। पाकिस्तान के घुसपैठियों को जल्दी ही पहचान लिया गया और विद्रोह करने के बजाय जनता ने उनकी सूचना भारतीय सैनिकों को दे दी और यह अभियान पूर्णतः विफल हो गया था।
५ अगस्त १९६५ को २६००० से ३०००० के बीच पाकिस्तानी सैनिकों ने कश्मीर की स्थानीय आबादी की वेषभूषा में नियंत्रण रेखा को पार कर भारतीय कश्मीर में प्रवेश कर लिया। भारतीय सेना ने स्थानीय आबादी से इसकी सूचना पाकर १५ अगस्त को नियंत्रण रेखा को पार किया।[13]।
शुरुआत में भारतीय सेना को अच्छी सफलता मिली। उसने तोपखाने की मदद से तीन महत्वपूर्ण पहाड़ी ठिकानो पर कब्जा जमा लिया। पाकिस्तान ने टिथवाल, उरी और पुंछ क्षेत्रों में महत्वपूर्ण बढत कर ली पर १८ अगस्त को पाकिस्तानी अभियान की ताकत में काफी कमी आ गयी थी। भारतीय अतिरिक्त टुकड़िया लाने में सफल हो गये और भारत ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में ८ किलोमीटर अंदर घुस कर हाजी पीर पर कब्जा कर लिया। इस कब्जे से पाकिस्तान सकते में आ गया। अभियान जिब्राल्टर के घुसपैठिये सनिकों का रास्ता भारतीयों के कब्जे में आ गया था और अभियान विफल हो गया। यही नहीं, पाकिस्तान की कमान को लगने लगा कि पाकिस्तानी कश्मीर का महत्वपूर्ण शहर मुजफ्फराबाद अब भारतीयो के कब्जे में जाने ही वाला है। मुजफ्फराबाद पर दबाव कम करने के लिये पाकिस्तान ने एक नया अभियान ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम शुरू किया।
१ सितम्बर १९६५ को पाकिस्तान ने ग्रैंड स्लैम नामक एक अभियान के तहत सामरिक द्रुष्टी से महत्वपूर्ण शहर अखनूर जम्मू और कश्मीरपर कब्जे के लिये आक्रमण कर दिया। इस अभियान का उद्देश्य कश्मीर घाटी का शेष भारत से संपर्क तोड था ताकि उसकी रसद और संचार वय्वस्था भंग कर दी जाय। पाकिस्तान के इस आक्रमण के लिये भारत तैयार नहीं था और पाकिस्तान को भारी संख्या में सैनिको और बेहतर किस्म के टैंको का लाभ मिल रहा था। शुरूवात में भारत को भारी क्षती उठानी पड़ी इस पर भारतीय सेना ने हवाई हमले का उपयोग किया इसके जवाब में पाकिस्तान ने पंजाब और श्रीनगर के हवाई ठिकानो पर हमला कर दिया। युद्ध के इस चरण में पाकिस्तान अत्यधिक बेहतर स्थिती में था और इस अप्रत्याशित हमले से भारतीय खेमे में घबराहट फैल गयी थी। अखनूर के पाकिस्तानी सेना के हाथ में जाने से भारत के लिये कश्मीर घाटी मे हार का खतरा पैदा हो सकता था। ग्रैंड स्लैम के विफल होने की दो वजहे थी सबसे पहली और बड़ी वजह यह थी कि पाकिस्तान की सैनिक कमान ने जीत के मुहाने में पर अपने सैनिक कमांडर को बदल दिया ऐसे में पाकिस्तानी सेना को आगे बढने में एक दिन की देरी हो गयी और उन २४ घंटो में भारत को अखनूर की रक्षा के लिये अतिरिक्त सैनिक और सामान लाने का मौका मिल गया खुद भारर्तीय सेना के स्थानीय कमांडर भौचक्के थे कि पाकिस्तान इतनी आसान जीत क्यों छोड़ रहा है। एक दिन की देरी के बावजूद भारत के पश्चिमी कमान के सेना प्रमुख यह जानते थे कि पाकिस्तान बहुत बेहतर स्थिती में है और उसको रोकने के लिये उन्होने यह प्रस्ताव तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल चौधरी को दिया कि पंजाब सीमा में एक नया मोर्चा खोल कर लाहौर पर हमला कर दिया जाय। जनरल चौधरी इस बात से सहमत नहीं थे लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शाष्त्री ने उनकी बात अनसुनी कर इस हमले का आदेश दे दिया।
भारत ने ६ सितम्बर को अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा को पार कर पश्चिमी मोर्चे पर हमला कर युद्ध की आधिकारिक शुरूवात कर दी[15]। ६ सितम्बर को भारत की १५वी पैदल सैन्य इकाई ने द्वितीय विश्व युद्ध के अनुभवी मेजर जनरल प्रसाद के नेत्रत्व में इच्छोगिल नहर के पश्चिमी किनारे में पाकिस्तान के बड़े हमले का सामना किया। इच्छोगिल नहर भारत और पाकिस्तान की वास्तविक सीमा थी। इस हमले में खुद मेजर जनरल प्रसाद के काफिले पर भी हमला हुआ और उन्हे अपना वाहन छोड़ कर भागना पड़ा। भारत ने प्रतिआअक्रमण में बरकी गांव के समीप नहर को पार करने में सफलता अर्जित कर ली। इससे भारतीय सेना लाहौर के हवाई अडडे पर हमला करने की सीमा में पहुच गयी इसके परिणामस्वरूप अमेरिका ने अपने नागरिकों को लाहौर से निकालने के लिये कुछ समय के लिये युद्धविराम की अपील की। इसी बीच पाकिस्तान ने लाहौर पर दबाव को कम करने के लिये खेमकरण पर हमला कर उस पर कब्जा कर लिया बदले में भारत ने बेदियां और उसके आस पास के गावों पर हमला कर दिया।
६ सितम्बर को लाहौर पर हमले में भारतीय सेना के प्रथम पैदल सैन्य खन्ड (इनफैंट्री डिविजन) के साथ द्वितीय बख्तरबंद उपखन्ड (ब्रिगेड) के तीन टैंक दस्ते शामिल थे। वे तुरंत ही सीमा पार करके इच्छोगिल नहर पहुच गये पाकिस्तानी सेना ने पुलियाओं पर रक्षा दस्ते तैनात कर दिये जिन पुलो को बचाया नहीं जा सकता था उनको उड़ा दिया गया पाकिस्तान के इस कदम से भारतीय सेना का आगे बढना रुक गया। जाट रेजीमेंट की एक इकाई 3 जाट ने नहर पार करके डोगराई और बातापोर पर कब्जा कर लिया[16]। उसी दिन पाकिस्तानी सेना ने बख्तरबंद इकाई और वायुसेना की मदद से भारतीय सेना की १५वे खन्ड पर बड़ा प्रतिआक्रमण किया हालाकि इससे ३ जाट को मामूली नुकसान ही हुआ लेकिन १५वे खन्ड को पीछे हटना पड़ा और उसके रसद और हथियारो के वाहनो को काफी क्षती पहुची। भारतीय सेना के बड़े अधिकारियो को जमीनी हालात की सही जानकारी नहीं थी अतः उन्होने इस आशंका से कि ३ जाट को भी भारी नुकसान हुआ है उसे पीछे हटने का आदेश दे दिया इससे ३ जाट के कमान आधिकारी को बड़ी निराशा हुई[17] और बाद में उन्हे डोगराई पर फिर कब्जा करने के लिये बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।
८ दिसम्बर १९६५ को ५ मराठा लाईट इनफ़ैन्ट्री का एक दस्ता रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण कस्बे मुनाबाव में तैनात राजस्थान सैन्य बल कॊ मजबूती प्रदान करने के लिये भेजा गया। उनको पाकिस्तानी सेना के पैदल द्स्ते को आगे बढने से रोकने का आदेश मिला था पर वे केवल अपनी चौकी की रक्षा ही कर पाये पाकिस्तानी सेना के तोपखाने से हुई भारी बमबारी और हवाई और पैदल सैन्य आक्रमण के बीच ५ मराठा के जवानो ने बड़ी वीरता का परिचय दिया परिणाम स्वरूप आज उस चौकी कॊ मराठा हिल के नाम से जाना जाता है। ५ मराठा की मदद के लिये भेजे गये ३ गुरखा और ९५४ भारी तोपखाना का दस्ता पाकिस्तानी वायु सेना के भारी हमले के कारण पहुच नहीं पाया और रसद ले कर बारमेर से आ रही ट्रैन भी गर्दा रोड रेल अड्डे के पास हमले का शिकार हो गयी १० सितम्बर को मुनाबाओ पर पाकिस्तान का कब्जा हो गया।[18]
९ सितम्बर के बाद की घटनाओं ने दोनो देशों की सेनाओ के सबसे गर्वित खन्डो का दंभ चूर चूर कर दिया। भारत के १ बख्तरबंद खन्ड जिसे भारतीय सेना की शान कहा जाता था ने सियालकोट की दिशा में हमला कर दिया। छाविंडा में पाकिस्तान की अपेक्षाकृत कमजोर ६ बख्तरबंद खन्ड ने बुरी तरह हरा दिया भारतीय सेना को करीब करीब १०० टैंक गवाने पड़े और पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा। इससे उत्साहित होकर पाकिस्तान की सेना ने भारतीयों पर प्रतिआक्रमण कर दिया और भारतीय सीमा में आगे घुस आयी। अपने अंतिम आक्रामक के लिये पाकिस्तान अपने पहला बख़्तरबंद डिवीजन और 11वाँ इन्फैन्ट्री डिवीजन के साथ अमृतसर पर कब्जे के इरादे से खेमकरण पर हमला कर दिया। उनके अनुसार अमृतसर के बाद जालंधर और फिर राष्ट्रपति अयूब खान की तरफ से आये बयान के अनुसार दिल्ली अगला लक्ष्य होता।[19] पाकिस्तानी सेना खेमकरण से आगे बढती ही कि असल उत्तर गाँव (पंजाबी: ਆਸਲ ਉਤਾੜ)[20]) के पास भारत का चौथा माउंटेन डिवीजन, 7 माउंटेन ब्रिगेड, 62 माउंटेन ब्रिगेड, शेरमेन टैंक से सुसज्जित डेक्कन हॉर्स, अपने अन्य डिवीजन के साथ युद्ध के लिये खडा था। और यहाँ इन दोनों के बीच दुसरें विश्वयुध्द के बाद सबसे बड़ी टैंक की लड़ाई लड़ी गई, जिसमें पाकिस्तान कि जबरदस्त हार हुई। उसनें अपने 97 टैंक खो दिये, जिसमें 72 पैटन टैंक शामिल थे; इसके अलावा 32 टैंक चलती हालत में कब्जा कर लिया गया।[19] जहाँ इससे पहले आगे चल रही पाकिस्तानी सेना असल उत्तर के युध्द में हारने से भारत के पक्ष में युद्ध का संतुलन झुक गया।[19] इसके बाद यह जगह अमेरिका में बने पैटन नाम के पाकिस्तानी टैंको के ऊपर पैटन नगर के नाम से जाना जाने लगा। इस लड़ाई के बाद पाकिस्तान की पहली बख्तरबंद डिवीजन को वापस सियालकोट भेज दिया गया जहाँ फिर उसने युद्ध में आगे भाग नहीं लिया।
इस समय तक युद्ध में ठहराव आ गया था और दोनो देश अपने द्वारा जीते हुए इलाको की रक्षा में ज्यादा ध्यान दे रहे थे। लड़ाई में भारतीय सेना के ३००० और पाकिस्तानी सेना के ३८०० जवान शहीद हो चुके थे। भारत ने युद्ध में ७१० वर्ग किलोमीटर इलाके में और पाकिस्तान ने २१० वर्ग किलोमीटर इलाके में कब्जा कर लिया था। भारत के क्ब्जे में सियालकोट, लाहौर और कश्मीर के उपजाऊ इलाके थे,[21] जबकि पाकिस्तान के कब्जे में सिंध और छंब के बंजर इलाके थे। [22]
इस युद्ध में आजादी के बाद पहली बार भारतीय वायु सेना (आईएएफ) एवं पाकिस्तानी वायु सेना (पीएएफ) के विमानों ने एक दुसरे का मुकाबला किया। इससे पहले इन दोनों वायु-सेनाओं ने १९४० के दशक में प्रथम कश्मीर युद्ध में हिस्सा लिया था जिसमें कि १९६५ युद्ध की तुलना में इनका योगदान बहुत कम और केवल परिवहन तक ही सीमित था।
भारतीय वायु सेना के पास बड़ी संख्या में हॉकर हंटर, भारत में निर्मित फॉलैंड नैट, दे हैविलैंड वैंपायर, इ इ कैनबरा बमवर्षक और मिग-21 की एक स्क्वाड्रन थी। पाकिस्तानी वायु सेना के फाडटर प्लेन थे- 102 F-86F सैबर और 12 F-104 स्टारफाइटर, और 24 B-57 कैनबरा बमवर्षक। संघर्ष के दौरान भारत और पाकिस्तान वायु सेनाओं का अनुपात 5:1 था।[23] हलांकि युद्ध में दोनों वायुसेनाएं समान थीं, क्योंकि चीन के युद्ध में प्रवेश करने की संभावना से बचने के लिए अधिकतर भारतीय वायु सेना पूर्व की ओर तैनात थी।[24]
पाकिस्तानी विमान ज्यादातर अमेरिकी थे, जबकि भारत के पास सोवियत व यूरोपीय विमानों का मिला जुला बेड़ा था। ऐसा बहुत प्रसारित था कि पाकिस्तान के अमेरिकी विमान भारत के विमानों से बेहतर हैं, लेकिन किछ विशेषज्ञों के अनुसार यह सही नहीं था क्योंकि भारतीय वायु सेना के मिग 21, हॉकर हंटर और फॉलैंड नैट फाइटर की परफॉर्मेंस उनके प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के F-86 सैबर से बेहतर थी।[25] युद्ध में पाकिस्तान की नं० १९ स्क्वाड्रन का नेतृत्व करने वाले एयर कमांडर (सेवानिवृत्त) सज्जाद हैदर के अनुसार- हालाँकि भारतीय वायुसेना के वैंपायर फाइटर विमान F-86 सैबर के मुकाबले पुराने और कमज़ोर थे, लेकिन हंटर विमान शक्ति एवं गति दोनों में ही उनसे बेहतर थे।[26]
भारतीयों के अनुसार F-86 छोटे से फॉलैंड नैट (Folland Gnat) के सामने कमज़ोर था जिसके कारण इन विमानों को "सैबर नाशक" कहा जाने लगा था।[27] पाकिस्तान वायुसेना का F-104 स्टारफाइटर उपमहाद्वीप में उस समय का सबसे तेज गति का फाइटर विमान था और उसे प्रायः "पाकिस्तान वायुसेना का गर्व" कहा जाता था। लेकिन सज्जाद हैदर के अनुसार वे विमान इस सम्मान के लायक नहीं थे क्योंकि ये "४०,००० फीट से अधिक की ऊंचाई पर उड़ने वाले सोवियत बमवर्षकों को रोकने व मुकाबला करने के उ्देश्य" से बने थे, ना कि कम ऊँचाई पर तेज तर्रार फाइटर विमानों के साथ लड़ने के लिये। अतः ये उस समय के माहौल के उपयुक्त नहीं थे।"[28] भारतीय वायुसेना स्टारफाइटर की वजह से चिंतित थी,[28] किंतु लड़ाई में ये उतने प्रभावी साबित नहीं हुए जितने कि कहीं अधिक धीमे किंतु कहीं अधिक फुर्तीले,फॉलैंड नैट फाइटर।[29][30] फिर भी सैबर और नैट्स के बीच चले द्वंद युद्ध में सुपरसोनिक गति के साथ, सैबर कही ज्यादा सफल रहा।
दोनों देशों ने लड़ाई में हुए नुकसान के एक-दूसरे के विपरीत दावे किए हैं तथा कुछ ही तटस्थ सूत्रों ने उनका सत्यापन किया है। पाकिस्तानी वायुसेना का दावा था कि उसने भारत के 104 विमान गिराए और अपने 19 विमान खोए, जबकि भारतीय वायुसेना ने दावा किया कि उन्होंने पाकिस्तान के 73 विमान गिराए और अपने 35 विमान खोए।[31] एक तटस्थ स्रोत के अनुसार, युद्ध समाप्ति के शीघ्र बाद ही हुई एक परेड में पाकिस्तानी वायुसेना ने 86 F-86 सैबर, 10 F-104 स्टारफाइटर, और 20 B-57 कैनबरा विमान उड़ाए जिससे कि भारतीय वायुसेना का 73 पाकिस्तानी विमान गिराने का दावा गलत प्रतीत होता है, जो कि उस समय पाकिस्तान की लड़ाकू विमानों की लगभग संपूर्ण प्रथम पंक्ति थी। [32]
पाकिस्तान वायुसेना के केवल एक स्क्वाड्रन को खोने के दावों को, भारतीय सूत्रों ने नकारते हुए बताया है कि, पाकिस्तान ने शुरूआती युद्ध के 10 दिनों के भीतर ही इंडोनेशिया, इराक, ईरान, तुर्की और चीन से अतिरिक्त विमान हासिल करने की मांग की थी।
स्वतंत्र सूत्रों के अनुसार, पीएएफ ने कुछ 20 विमान खो दिए थे जबकि भारतीयों ने 60-75 विमान खो दिये थे। पाकिस्तान ने युद्ध की समाप्ति तक अपनी 17 प्रतिशत अग्रिम पंक्ति की ताकत खो दी, जबकि भारत का नुकसान 10 प्रतिशत से भी कम था। इसके अलावा, यह अनुमान लगाया गया है कि यदि संघर्ष तीन सप्ताह तक और चलती तो पाकिस्तानी नुकसान में 33 प्रतिशत की और बढ़ोतरी होती और भारत का नुकसान 15 प्रतिशत होता।
1965 के युद्ध में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद टैंकों के सबसे बड़े युद्ध लड़े गए। . At the beginning of the war, the Pakistani Army had both a numerical advantage in tanks, as well as better equipment overall.[33] Pakistani armour was largely American-made; it consisted mainly of Patton M-47 and M-48 tanks, but also included many M4 Sherman tanks, some M24 Chaffee light tanks and M36 Jackson tank destroyers, equipped with 90 mm guns.[34] The bulk of India's tank fleet were older M4 Sherman tanks; some were up-gunned with the French high velocity CN 75 50 guns and could hold their own, whilst some older models were still equipped with the inferior 75 mm M3 L/40 gun. Besides the M4 tanks, भारत fielded the British-made Centurion Tank Mk 7, with the 105 mm Royal Ordnance L7 gun, and the AMX-13, PT-76, and M3 Stuart light tanks. Pakistan fielded a greater number and more modern artillery; its guns out-ranged those of the Indian artillery, according to Pakistan's Major General T.H. Malik.[35]
At the outbreak of war in 1965, Pakistan had about 15 armoured cavalry regiments, each with about 45 tanks in three squadrons. Besides the Pattons, there were about 200 M4 Shermans re-armed with 76 mm guns, 150 M24 Chaffee light tank and a few independent squadrons of M36B1 tank destroyers. Most of these regiments served in Pakistan's two armoured divisions, the 1st and 6th Armoured divisions – the latter being in the process of formation.
The Indian Army of the time possessed 17 cavalry regiments, and in the 1950s had begun modernizing them by the acquisition of 164 AMX-13 light tanks and 188 Centurions. The remainder of the cavalry units were equipped with M4 Shermans and a small number of M3A3 Stuart light tanks. India had only a single armoured division, the 1st 'Black Elephant' Armoured Division, also called 'Fakhr-i-Hind' ('Pride of India'), which consisted of the 17th Cavalry (The Poona Horse), the 4th Hodson's Horse, the 16th 'Black Elephant' Cavalry, the 7th Light Cavalry, the 2nd Lancers, the 18th Cavalry and the 62nd Cavalry, the two first named being equipped with Centurions. There was also the 2nd Independent Armoured Brigade, one of whose three regiments, the 3rd Cavalry, was also equipped with Centurions.
Despite the qualitative and numerical superiority of Pakistani armour,[36] Pakistan was outfought on the battlefield by India, which made progress into the Lahore-Sialkot sector, whilst halting Pakistan's counteroffensive on Amritsar.;[37][38] they were sometimes employed in a faulty manner, such as charging prepared defenses during the defeat of Pakistan's 1st Armoured Division at Assal Uttar.
Although India's tank formations experienced same results, भारत's attack at the Battle of Chawinda, led by its 1st Armored Division and supporting units, was brought to a grinding halt by the newly raised 6th Armoured Division (ex-100th independent brigade group) in the Chawinda sector. The Indians lost 120 tanks at Chawinda.[39] One true winner to emerge was India's Centurion battle tank, with its 105 mm gun and heavy armour, which proved superior to the overly complex Pattons and their exaggerated reputations.[38] However, in the Sialkot sector outnumbered Pattons performed exceedingly well in the hands of the 25th Cavalry and other regiments of the 6th Armoured Division, which exacted a disproportionately heavy toll of Centurions from the Poona Horse and Hodson's Horse. The Indian Army has made much of the fact that some of its Centurions survived repeated hits; yet have failed to point out that the majority of tanks in the Sialkot sector were Shermans whose guns were inadequate even in 1944. Neither the Indian nor Pakistani Army showed any great facility in the use of armoured formations in offensive operations, whether the Pakistani 1st Armoured Division at Asal Uttar or the Indian 1st Armoured Division at Chawinda. In contrast, both proved adept with smaller forces in a defensive role such a the 2nd Armoured Brigade at Asal Uttar and the 25th Cavalry at Chawinda, where they defeated their better equipped but clumsier foes
The navies of India and Pakistan did not play a prominent role in the war of 1965, although Pakistani accounts dispute this.[40] On September 7, a flotilla of the Pakistani Navy carried out a small scale bombardment of the Indian coastal town and radar station of Dwarka, which was 200 miles (300 km) south of the Pakistani port of Karachi. Codenamed Operation Dwarka, it did not fulfill its primary objective of disabling the radar station and there was no immediate retaliatory response from India. Later, some of the Indian fleet sailed from Bombay to Dwarka to patrol the area and deter further bombardment. Foreign authors have noted that the "insignificant bombardment"[41] of the town was a "limited engagement, with no strategic value."[40]
According to some Pakistani sources, one submarine, PNS Ghazi, kept the Indian Navy's aircraft carrier INS Vikrant besieged in Bombay throughout the war. Indian sources claim that it was not their intention to get into a naval conflict with Pakistan, and wished to restrict the war to a land-based conflict.[42] Moreover, they note that the Vikrant was in dry dock in the process of refitting. Some Pakistani defence writers have also discounted claims that the Indian Navy was bottled up in Bombay by a single submarine, instead stating that 75% of the Indian Navy was under maintenance in harbour.[43]
The Pakistan Army launched a number of covert operations to infiltrate and sabotage Indian airbases.[44] On September 7, 1965, the Special Services Group (SSG) commandos were parachuted into enemy territory. According to Chief of Army Staff General Musa Khan, about 135 commandos were airdropped at three Indian airfields(Halwara, Pathankot and Adampur). The daring attempt proved to be an "unmitigated disaster".[44] Only 22 commandos returned to Pakistan as planned, 93 were taken prisoner (including one of the Commanders of the operations, Major Khalid Butt), and 20 were killed in encounters with the army, police or civilians[45] The reason for the failure of the commando mission is attributed to the failure to provide maps, proper briefings and adequate planning or preparation[46]
Despite failing to sabotage the airfields, Pakistan sources claim that the commando mission affected some planned Indian operations. As the Indian 14th Infantry Division was diverted to hunt for paratroopers, the Pakistan Air Force found the road filled with transport, and destroyed many vehicles.[47]
India responded to the covert activity by announcing rewards for captured Pakistani spies or paratroopers.[48] Meanwhile, in Pakistan, rumors spread that India had retaliated with its own covert operations, sending commandos deep into Pakistan territory,[46] but these rumors were later determined to be unfounded.[49]
अपनी और दूसरे की हानि के बारे में भारत और पाकिस्तान दोनों ने बिल्कुल बेमेल दावे किए। दोनों देशों के दावों की संक्षिप्त सारणी इस प्रकार है
भारत का दावा[50] | पाकिस्तान का दावा[51] | स्वतंत्र स्रोत[13][52] | |
---|---|---|---|
हताहत | – | – | 3,000 भारतीय सैनिक, 3,800 पाकिस्तानी सैनिक |
Combat flying effort | 4,073+ combat sorties | 2,279 combat sorties | |
वायुयानों का नुकसान | 35 भारतीय वायु सेना (आधिकारिक), 73 पाकिस्तानी वायु सेना.अन्य स्रोत[53] based on the Official Indian Armed Forces History[54] put actual IAF losses at 30 including 19 accidents (non combat sortie rate is not known) and PAF's combat losses alone at 43. | 19 PAF, 104 IAF | 20 PAF, Pakistan claims India rejected neutral arbitration.[55][56] |
Aerial victories | 17 + 3 (post war) | 30 | – |
टैंक नष्ट | 128 भारतीय टैंक, 152 पाकिस्तानी टैंक पकड़े, 150 पाकिस्तानी टैंकनष्ट. Officially 471 Pakistani tanks destroyed and 38 captured[उद्धरण चाहिए] | 165 पाकिस्तानी टैंक[57] | |
भूमिक्षेत्र विजित | 1,500 mi2 (3,885 km2) पाकिस्तानी भूमि | 250 mi² (648 km²) भारतीय भूमि | भारत के पास 710 वर्ग मील mi²(1,840 किमी²) पाकिस्तानी भूमि और पाकिस्तान के पास 210 वर्ग मील (545 वर्ग किमी) भारतीय भूमि |
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