हेनरी फेयोल
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हेनरी फेयोल (Henri Fayol ; 29 जुलाई 1841 – 19 नवम्बर 1925) फ्रांस के खनन इंजीनियर तथा प्रबन्ध-सिद्धान्तकार थे। उन्होने व्यवसाय प्रशासन का सामान्य सिद्धान्त विकसित किया जिसका 20वीं सदी के प्रारम्भ में व्यापक प्रभाव था। फेयोल एवं उनके सहकर्मियों ने इस सिद्धान्त का विकास वैज्ञानिक प्रबन्धन के सिद्धान्त के विकास से स्वतंत्र रूप से एवं लगभग उसी काल में किया। प्रबन्धन के आधुनिक संकल्पना के विकास में सबसे प्रभावी योगदान करने वालों में फेयोल का नाम अग्रणी है।
प्रबन्ध की क्लासिकल विचारधारा के विकास में फेयॉल के प्रशासनिक सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण कड़ी का काम करते हैं। जहाँ फ्रेडरिक विंस्लो टेलर कारखाने में कर्मशाला स्तर पर श्रेष्ठतम कार्य पद्धति की रचना करने, दिन का उचित कार्य, विभेदात्मक मजदूरी प्रणाली, एवं क्रियात्मक फोरमैनशिप के रूप कार्य करने में क्रांति लाने में सफल रहा वहीं हेनरी फेयॉल ने समझाया कि प्रबंधक का क्या कार्य है एवं इसे पूरा करने के लिए किन सिद्धान्तों का पालन किया जाएगा। कारखाना प्रणाली में यदि श्रमिक की कार्य क्षमता का महत्त्व है, तो प्रबंधक की कुशलता का भी उतना ही महत्त्व है। फेयॉल के योगदान को प्रबंध की कुशलता में सुधार में उसके सिद्धांतों के प्रभाव जो वर्तमान में भी हैं के रूप में समझना चाहिए।
हेनरी फेयॉल इस्तानबुल के सीमावती क्षेत्र में १८४१ में हुआ था। उसके पिता भी सिविल इंजीनियर थे और गलाता पुल के निर्माण के सम्बन्ध में वहाँ नियुक्त किए गये थे। फेयोल का परिवार १८४७ में फ्रांस लौट आया।
फ्रांस आकर फेयोल 1860 में सैंट ऐटेने की खनन अकादमी से खनन इंजीनियरिंग में स्नातक हुए। 19 वर्षीय इंजीनियर ने खनन कंपनी ‘कम्पेने डी कमैन्टरी फोरचम्बीन डीकैजे विल्ले’ की स्थापना की तथा 1888 से 1918 तक प्रबंध निदेशक के पद पर रहे। उसके सिद्धांत उत्पादन संगठन के प्रतियोगी उद्यम जो जिसे अपनी उत्पादन लागत को नियंत्रण में रखना होता है के संदर्भ में प्रयुक्त किए जाते हैं। फेयॉल पहला व्यक्ति था जिसने प्रबंध के चार कार्य निर्धारित किए- नियोजन, संगठन, निदेशन एवं नियंत्रण करना। फेयॉल के अनुसार किसी औद्योगिक इकाई के कार्यों को इस प्रकार बाँटा जा सकता था-तकनीकी, वाणिज्यिक, वित्तीय, सुरक्षा, लेखाकर्म, एवं प्रबंधन। उसने यह सुझाव दिया कि एक प्रबंधक में जो गुण होने आवश्यक हैं, वे हैं-शारीरिक, नैतिक, शैक्षणिक, ज्ञान एवं अनुभव। उसका मानना था कि प्रबंध का वह सिद्धांत जो संगठन के प्रचालन का सुधार में सहायक हो सकते हैं, जिसकी क्षमता की कोई सीमा नहीं है।
अधिकांश रूप से अपने स्वयं के अनुभव के आधार पर उसने प्रशासन की अवधारणा को विकसित किया। उसके द्वारा प्रतिपादित 14 सिद्धांतों पर 1917 में प्रकाशित पुस्तक ‘एडमिनिस्ट्रेशन इंडस्ट्रेली एट जैनेरेली', में विस्तार से चर्चा की गई थी। 1949 में यह अंग्रेजी में ‘जनरल एंड इंडस्ट्रीयल मैनेजमेंट’ के शीर्षक से प्रकाशित हुआ। उसके योगदान के कारण उसे ‘सामान्य प्रबंध का जनक’ कहा जाता है।
फेयॉल के प्रबंध के 14 सिद्धांत नीचे दिए गए हैं-
कार्य विभाजन को करने के लिए कार्य को छोटे-छोटे भागों में विभक्त किया जाता है। प्रत्येक कार्य हेतु एक योग्य व्यक्ति आवश्यकता होती है जो प्रशिक्षित विशेषज्ञ हो। इस प्रकार से कार्य विभाजन से विशिष्टीकरण होता है। फेयॉल के अनुसार,
व्यवसाय में कार्य को अधिक कुशलता से पूरा किया जा सकता है, यदि उसे विशिष्ट कार्यों में विभाजित कर दिया गया है तथा प्रत्येक कार्य विशिष्ट अथवा प्रशिक्षित कर्मचारी ही करता है। इससे उत्पादन अधिक प्रभावी ढंग से एवं कुशलता से होता है। इस प्रकार से एक कंपनी में अलग-अलग विभाग हैं, जैसे वित्त, विपणन, उत्पादन एवं मानव संसाधन विकास आदि। प्रत्येक में कार्य करने के लिए विशेषज्ञ होते हैं जो मिलकर कंपनी के उत्पादन एवं विक्रय का लक्ष्य प्राप्त करते हैं। फेयॉल के अनुसार कार्य विभाजन का सिद्धांत सभी क्रियाओं में चाहे वह प्रबंधकीय हों या तकनीकी, समान रूप से लागू किया जाना चाहिए।
फेयॉल के अनुसार ‘अधिकार आदेश देने एवं आज्ञा पालन कराने का अधिकार है, जबकि उत्तरदायित्व अधिकार का उप-सिद्धांत है। अधिकार दो प्रकार का होता है अधिकृत जो कि आदेश देने का अधिकार है एवं व्यक्तिगत अधिकार जो कि प्रबंधक का व्यक्तिगत अधिकार है।’
अधिकार औपचारिक एवं अनौपचारिक दोनों होता है। प्रबंधक को अधिकार और उसके समान उत्तरदायित्व की आवश्यकता होती है। अधिकार एवं उत्तरदायित्व में समानता होनी चाहिए। संगठन को प्रबंधकीय शक्ति के दुरुपयोग से बचाव की व्यवस्था करनी चाहिए। इसके साथ-साथ प्रबंधक के पास उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए आवश्यक अधिकार होने चाहिए। उदाहरण के लिए, एक विक्रय प्रबंधक को क्रेता से सौदा करना होता है। वह देखता है कि ग्राहक को 60 दिन के उधार की सुविधा दे दें तो शायद सौदा हो जाए और कंपनी को शुद्ध 50 करोड़ रुपए का लाभ होगा। माना कंपनी प्रबंधक को 40 दिन के उधार देने का अधिकार देती है। इससे स्पष्ट होता है कि अधिकार एवं दायित्व में समानता नहीं है। इस मामले में कंपनी के हित को ध्यान में रखते हुए प्रबंधक को 60 दिन के उधार देने का अधिकार मिलना चाहिए। इस उदाहरण में प्रबंधक को 100 दिन के लिए उधार देने का अधिकार भी नहीं मिलना चाहिए क्योंकि यहाँ इसकी आवश्यकता ही नहीं है। एक प्रबंधक को वैध आदेश का जानबूझ कर पालन न करने पर अधीनस्थ को सजा देने का अधिकार होना चाहिए लेकिन साथ ही अधीनस्थ को भी अपनी स्थिति स्पष्ट करने का पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए।
अनुशासन से अभिप्राय संगठन के कार्य करने के लिए आवश्यक नियम एवं नौकरी की शर्तों के पालन करने से है। फेयॉल के अनुसार अनुशासन के लिए प्रत्येक स्तर पर अच्छे पर्यावेक्ष, स्पष्ट एवं संतोषजनक समझौते एवं दंड के न्यायोचित विधान की आवश्यकता होती है। माना कि, प्रबंध एवं श्रमिक संघ के बीच समझौता हुआ है जिसके अनुसार कंपनी को हानि की स्थिति से उबारने के लिए कर्मचारियों ने बिना अतिरिक्त मजदूरी लिए अतिरिक्त घंटे कार्य करने का समझौता किया है। प्रबंध ने इसके बदले में उद्देश्य के पूरा हो जाने पर कर्मचारियों की मजदूरी वृद्धि का वायदा किया है। यहाँ अनुशासन का अर्थ है कि श्रमिक एवं प्रबंधक दोनों ही अपने-अपने वायदों को एक दूसरे के प्रति किसी भी प्रकार के द्वेष भाव के पूरा करेंगे।
फेयॉल के अनुसार प्रत्येक कर्मचारी का केवल एक ही अधिकारी होना चाहिए। यदि कोई कर्मचारी एक ही समय में दो अधिकारियों से आदेश लेता है तो इसे आदेश की एकता (unity of command) के सिद्धांत का उल्लंघन माना जाएगा। आदेश की एकता के सिद्धांत के अनुसार किसी भी औपचारिक संगठन में कार्यरत व्यक्ति को एक ही अधिकारी से आदेश लेने चाहिए एवं उसी के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। फेयॉल ने इस सिद्धांत को काफी महत्त्व दिया। उसको ऐसा लगा कि यदि इस सिद्धांत का उल्लंघन होता है तो ‘अधिकार प्रभावहीन हो जाता है, अनुशासन संकट में आ जाता है, आदेश में व्यवधान पड़ जाता है एवं स्थायित्व को खतरा हो जाता है।’ यह फेयॉल के सिद्धांतों से मेल खाता है। इससे जो कार्य करना है उसके संबंध में किसी प्रकार की भ्रांति नहीं रहेगी। माना कि एक विक्रयकर्ता को एक ग्राहक से सौदा करने के लिए कहा जाता है तथा उसे विपणन प्रबंधक 10 प्रतिशत की छूट देने का अधिकार देता है। लेकिन वित्त विभाग का आदेश है कि छूट 5 प्रतिशत से अधिक नहीं दी जाए। यहाँ आदेश की एकता नहीं है। यदि विभिन्न विभागों में समन्वयन है तो इस स्थिति से बचा जा सकता है।
संगठन को सभी इकाईयों को समन्वित एवं केंद्रित प्रयत्नों के माध्यम से समान उद्देश्यों की ओर अग्रसर होना चाहिए। गतिविधियों के प्रत्येक समूह जिनके उद्देश्य समान हैं उनका एक ही अध्यक्ष एवं एक ही योजना होनी चाहिए। यह कार्यवाही की एकता एवं सहयोग को सुनिश्चित करेगा। उदाहरणार्थ एक कंपनी मोटर साईकल एवं कार का उत्पादन कर रही है। इसके लिए उसे दो अलग-अलग विभाग बनाने चाहिए। प्रत्येक विभाग की अपनी प्रभारी योजना एवं संसाधन होने चाहिए। किसी भी तरह से दो विभागों के कार्य एक दूसरे पर आधारित नहीं होने चाहिए।
फेयॉल के अनुसार संगठन के हितों को कर्मचारी विशेष के हितों की तुलना में प्राथमिकता देनी चाहिए। कंपनी में कार्य करने में प्रत्येक व्यक्ति का कोई न कोई हित होता है। कंपनी के भी अपने उद्देश्य होते हैं। उदाहरण के लिए, कंपनी अपने कर्मचारियों से प्रतियोगी लागत (वेतन) पर अधिकतम उत्पादन चाहेगी। जबकि कर्मचारी यह चाहेगा कि उसे कम-से-कम कार्य कर अधिकतम वेतन प्राप्त हो। दूसरी परिस्थिति में एक कर्मचारी कुछ न कुछ छूट चाहेगा जैसे वह कम समय काम करे, जो किसी भी अन्य कर्मचारी को नहीं मिलेगी। सभी परिस्थितियों में समूह/कंपनी के हित, किसी भी व्यक्ति के हितों का अधिक्रमण करेंगे। क्योंकि कर्मचारियों एवं हितोधिकारियों के बड़े हित किसी एक व्यक्ति के हितों की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। उदाहरण के लिए विभिन्न हिताधिकारी जैसे कि स्वामी, अंशधारी, लेनदार, देनदार, वित्तप्रदाता, कर अधिकारी, ग्राहक एवं समाज के हितों का, किसी एक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के एक छोटे समूह, जो कंपनी पर दवाब बनाना चाहते हैं कि हितों के लिए कुर्बानी नहीं दी जा सकती। एक प्रबंधक इसे अपने अनुकरणीय व्यवहार से सुनिश्चित कर सकता है। उदाहरण के लिए उसे कंपनी/कर्मचारियों के बड़े सामान्य हितों की कीमत पर व्यक्ति/परिवार के लाभ के लिए अपने अधिकारों के दुरुपयोग के प्रलोभन में नहीं पड़ना चाहिए। इससे कर्मचारियों की निगाहों में उसका सम्मान बढ़ेगा एवं कर्मचारी भी समान व्यवहार करेंगे।
कुल प्रतिफल (Remuneration) एवं क्षतिपूर्ति कर्मचारी एवं संगठन दोनों के लिए ही संतोषजनक होना चाहिए। कर्मचारियों को इतनी मजदूरी अवश्य मिलनी चाहिए कि कम-से-कम उनका जीवन-स्तर तर्कसंगत हो सके। लेकिन साथ ही यह कंपनी की भुगतान क्षमता की सीमाओं में होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में प्रतिफल न्यायोचित होना चाहिए। इससे अनुकूल वातावरण बनेगा एवं कर्मचारी तथा प्रबंध के बीच संबंध भी सुमधुर रहेंगे। इसके परिणाम स्वरूप कंपनी का कार्य सुचारू रूप से चलता रहेगा।
निर्णय लेने का अधिकार यदि केंद्रित है तो इसे केंद्रीकरण कहेंगे जबकि अधिकार यदि एक से अधिक व्यक्तियों को सौंप दिया जाता है तो इसे ‘विकेंद्रीकरण’ कहेंगे। फेयॉल के शब्दों में अधीनस्थों का विकेंद्रीकरण के माध्यम से अंतिम अधिकारों को अपने पास रखने में संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है। केंद्रीकरण की सीमा कंपनी की कार्य परिस्थितियों पर निर्भर करेगी। सामान्यतः बड़े संगठनों में छोटे संगठनों की तुलना में अधिक विकेंद्रीकरण होता है। उदाहरण के लिए, हमारे देश में पंचायतों को गाँवों के कल्याण के लिए सरकार द्वारा प्रदत्त निधि के संबंध में निर्णय लेने एवं उनको व्यय करने के अधिक अधिकार दिए हैं। यह राष्ट्रीय स्तर पर विकेंद्रीकरण है।
किसी भी संगठन में उच्च अधिकारी एवं अधीनस्थ कर्मचारी होते हैं। उच्चतम पद से निम्नतम पद तक की औपचारिक अधिकार रेखा को ‘सोपान शृंखला’ (scaler chain) कहते हैं। फ्रेयॉल के शब्दों में संगठनों में अधिकार एवं संप्रेषण की शृंखला होनी चाहिए जो ऊपर से नीचे तक हो तथा उसी के अनुसार प्रबंधक एवं अधीनस्थ होने चाहिए।
आइए एक स्थिति को देखें जिसमें एक अध्यक्ष है जिसके अधीन दो अधिकार शृंखलाएँ हैं। एक में ‘ख’ ‘ग’ ‘घ’ ‘घ’ ‘च’ तथा दूसरे में ‘छ’, ‘ज’, ‘झ’, ‘ञ', एवं ‘त’ हैं। यदि ‘घ’ को ‘ण’ से संप्रेषण करना है तो उसे घ, घ, ग, ख, क, छ, ज, झ, ञ के मार्ग से चलना होगा। क्योंकि यहाँ सोपान शृंखला के सिद्धांत का पालन हो रहा है। फेयॉल के अनुसार औपचारिक संप्रेषण में सामान्यतः इस शृंखला का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। यदि कोई आकस्मिक स्थिति है तो घ सीधे ञ से समतल संपर्क के द्वारा संपर्क साधे सकता है जैसा चित्र में दर्शाया गया है। यह छोटा मार्ग है तथा इसका प्रावधान इसीलिए किया गया है कि संप्रेषण में देरी न हो। व्यवहार में आप देखते हैं कि कंपनी में कोई श्रमिक सीधा मुख्य कार्यकारी अधिकारी से संपर्क नहीं कर सकता। यदि उसे आवश्यकता है भी तो सभी औपचारिक स्तर अर्थात् फोरमैन अधीक्षक, प्रबंधक, निदेशक आदि को विषय से संबंधित ज्ञान होना चाहिए। केवल आकस्मिक परिस्थितियों में ही एक श्रमिक मुख्य कार्यकारी अधिकार से संपर्क कर सकता है।
फेयॉल के अनुसार, अधिकतम कार्य कुशलता के लिए लोग एवं सामान, उचित समय पर उचित स्थान पर होने चाहिए। व्यवस्था (order) का सिद्धांत कहता है कि प्रत्येक चीज (प्रत्येक व्यक्ति) के लिए एक स्थान तथा प्रत्येक चीज (प्रत्येक व्यक्ति) अपने स्थान पर होनी चाहिए। तत्वतः इसका अर्थ है व्यवस्था। यदि प्रत्येक चीज के लिए स्थान निश्चित है तो तथा यह उस स्थान पर है तो व्यवसाय कारखाना की क्रियाओं में कोई व्यवधान नहीं पैदा होगा। इससे उत्पादकता एवं क्षमता में वृद्धि होगी।
फेयॉल के शब्दों में, सभी कर्मचारियों के प्रति निष्पक्षता को सुनिश्चित करने के लिए सद्बुद्धि एवं अनुभव की आवश्यकता होती है। इन कर्मचारियों के साथ जितना संभव हो सके निष्पक्ष व्यवहार करना चाहिए। प्रबंधकों के श्रमिकों के प्रति व्यवहार में यह सिद्धांत दयाभाव एवं न्याय पर जोर देता है। फेयॉल यदा-कदा बल प्रयोग को अनियमित नहीं मानता है। बल्कि उसका कहना है कि सुस्त व्यक्तियों के साथ सख्ती से व्यवहार करना चाहिए जिससे कि प्रत्येक व्यक्ति को यह संदेश पहुँचे कि प्रबंध की निगाहों में प्रत्येक व्यक्ति बराबर है। किसी भी व्यक्ति के साथ लिंग, धर्म, भाषा, जाति, विश्वास अथवा राष्ट्रीयता आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। व्यवहार में हम अवलोकन करते हैं कि आजकल बहुराष्ट्रीय कंपनियों में विभिन्न राष्ट्रीयता के लोग भेदभाव रहित वातावरण में साथ-साथ काम करते हैं। इन कंपनियों में प्रत्येक व्यक्ति को उन्नति के समान अवसर प्राप्त होते हैं। तभी तो हम पाते हैं कि रजत गुप्ता जैसी भारतीय मूल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मैकिन्से इन्कोर्पाेरेशन जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के मुखिया बने। अभी हाल ही में भारत में जन्मे अमेरिकावासी अरुण सरीन ब्रिटेन की बड़ी टेलीकॉम कंपनी के वोडाफोन लि. के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बने हैं।
फेयॉल के अनुसार संगठन की कार्यकुशलता को बनाए रखने के लिए कर्मचारियों की आवर्त को न्यूनतम किया जा सकता है। कर्मचारियों का चयन एवं नियुक्ति उचित एवं कठोर प्रक्रिया के द्वारा की जानी चाहिए। लेकिन चयन होने के पश्चात् उन्हें न्यूनतम निर्धारित अवधि (tenure) के लिए पद पर बनाए रखना चाहिए। उनका कार्यकाल स्थिर होना चाहिए। उन्हें परिणाम दिखाने के लिए उपयुक्त समय दिया जाना चाहिए। इस संदर्भ में किसी भी प्रकार की तदर्थता कर्मचारियों में अस्थिरता असुरक्षा पैदा करेगी। वह संगठन को छोड़ना चाहेंगे। भर्ती, चयन एवं प्रशिक्षण लागत ऊँची होगी। इसीलिए कर्मचारी के कार्यकाल की स्थिरता व्यवसाय के लिए श्रेष्ठकर रहती है।
फेयॉल का मानना है कि,कर्मचारियों को सुधार के लिए अपनी योजनाओं के विकास एवं उनको लागू करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। पहल क्षमता का अर्थ है- स्वयं अभिप्रेरणा की दिशा में पहला कदम उठाना। इसमें योजना पर विचार कर फिर उसको क्रियांवित किया जाता है। यह एक बुद्धिमान व्यक्ति के लक्षणों में से एक है। पहल-क्षमता को प्रोत्साहित करना चाहिए लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अपने आपको कुछ भिन्न दिखाने के लिए कंपनी की स्थापित रीति-नीति के विरुद्ध कार्य करें। एक अच्छी कंपनी वह है जिसमें कर्मचारी द्वारा सुझाव पद्धति हैं जिसके अनुसार उस पहल-क्षमता सुझावों को पुरस्कृत किया जाता है जिनके कारण लागत/समय में ठोस कमी आए।
फेयॉल के अनुसार, प्रबंधन को कर्मचारियों में एकता एवं पारस्परिक सहयोग की भावना को बढ़ावा देना चाहिए। प्रबंध के सामूहिक कार्य को बढ़ावा देना चाहिए, विशेष रूप से बड़े संगठनों में। क्योंकि ऐसा न होने पर उद्देश्यों को प्राप्त करना कठिन हो जाएगा। इससे समन्वय की भी हानि होगी। सहयोग की भावना के पोषण के लिए प्रबंधक को कर्मचारियों से पूरी बातचीत में ‘मैं’ के स्थान पर ‘हम’ का प्रयोग करना चाहिए। इससे समूह के सदस्यों में पारस्परिक विश्वास एवं अपनेपन की भावना पैदा होगी। इससे जुर्माने की आवश्यकता भी न्यूनतम हो जाएगी।
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