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हीर रांझा (पंजाबी भाषा: ہیر رانجھا, ਹੀਰ ਰਾਂਝਾ) पंजाब की चार प्रसिद्ध प्रेम-कथाओं में से एक है। इसके अलावा बाक़ी तीन मिर्ज़ा-साहिबा, सस्सी-पुन्नुँ और सोहनी-माहीवाल हैं। इस कथा के कई वर्णन लिखे जा चुके हैं लेकिन सब से प्रसिद्ध बाबा वारिस शाह का क़िस्सा हीर-राँझा है। दामोदर दास अरोड़ा, मुकबाज़ और अहमद गुज्जर ने भी इसके अपने रूप लिखे हैं।
हीर पंजाब के झंग शहर में जट्ट की सियाल उपजाति के एक अमीर जट्ट परिवार में पैदा हुई एक बहुत सुन्दर लड़की थी। धीदो चनाब नदी के किनारे तख़्त हज़ारा नामक गाँव के एक गरीब धानक जाति मैं चार लड़कों में सबसे छोटा था। वह अपने पिता का प्रिय बेटा था इसलिए जहाँ उसके भाई खेतों में मेहनत करते थे, राँझा बाँसुरी (पंजाबी में 'वंजली') बजाता आराम की ज़िन्दगी बसर कर रहा था। जब उसकी भाभियों ने उसे खाना देने से इनकार कर दिया तब वह घर छोड़कर निकल पड़ा और चलते-चलते हीर के गाँव पहुँच गया। वहाँ उसे हीर से प्यार हो गया। हीर ने उसे अपने पिता की गाय-भैसें चराने का काम दिया। राँझे की बाँसुरी सुनकर वह मुग्ध हो गई और उस से प्यार कर बैठी। वह एक-दूसरे से छुप-छुप कर मिलने लगे। एक दिन उन्हें हीर का ईर्ष्यालु चाचा, कैदो देख लेता है और हीर के माता-पिता को बता देता है। हीर के पिता (चूचक) और माता (मलकी) ज़बरदस्ती हीर की शादी एक सैदा खेड़ा नाम के आदमी से कर देते हैं।
राँझे का दिल टूट जाता है और वह जोग लेने के लिए बाबा गोरखनाथ के प्रसिद्ध डेरे, टिल्ला जोगियाँ चला जाता है। गोरखनाथ के चेले अपने कान छिदाकर बालियाँ पहनने के कारण कानफटे कहलाते हैं। राँझा भी कान छिदाकर 'अलख निरंजन' का जाप करता पूरे पंजाब में घूमता है। आख़िरकर एक दिन वह हीर के ससुराल वाले गाँव पहुँच जाता है। हीर-राँझा दोनों हीर के गाँव आ जाते हैं जहाँ हीर के माँ-पिता उन्हें शादी करने की इजाज़त दे देते हैं लेकिन हीर का चाचा कैदो उन्हें ख़ुश देखकर जलता है। शादी के दिन कैदो हीर के खाने में ज़हर डाल देता है। यह ख़बर सुनकर राँझा उसे बचाने दौड़ा आता है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। राँझा दुखी होकर उसी ज़हरीले लड्डू को खा लेता है और हीर के बग़ल में दम तोड़ देता है। उन्हें हीर के शहर, झंग में दफ़नाया जाता है और हर तरफ़ से लोग उनके मज़ार पर आकर उन्हें याद करते हैं।[1]
दामोदर कवि, अकबर के राज्यकाल में जिया और अपने को हीर के पिता चूचक का मित्र बताया करता था और कहता था कि यह सब मेरी आँखों देखी घटना है। दामोदर (१५७२ ई॰) के बाद पंजाबी साहित्य में लगभग ३० किस्से "हीर" या "हीर राँझा" नाम से उपलब्ध हैं जिनमें गुरदास (१६०७), अहमद गुज्जर (१७९२), गुरु गोविंदसिंह (१७००), मियाँ चिराग अवान (१७१०), मुकबल (१७५५), वारिस शाह (१७७५), हामिदशाह (१८०५), हाशिम, अहमदयार, पीर मुहम्मद बख्श, फजलशाह, मौलाशाह, मौलाबख्श, भगवानसिंह, किशनसिंह आरिफ (१८८९), संत हजारासिंह (१८९४) और गोकुलचंद शर्मा के किस्से सर्वविदित हैं, किंतु जो प्रसिद्धि वारिसशाह की कृति को प्राप्त हुई वह किसी अन्य कवि को नहीं मिल पाई। नाटकीय भाषा, अलंकारों और अन्योक्तियों की नवीनता, अनुभूति की विस्तृति, आचार व्यवहार की आदर्शवादिता, इश्क मजाज से इश्क हकीकी की व्याख्या, वर्णन और भाव का ओज इत्यादि इनके किस्से की अनेक विशेषताएँ हैं। इसमें बैत छंद का प्रयोग अत्यंत सफलतापूर्वक हुआ है। ग्रामीण जीवन के चित्रण, दृश्यवर्णन, कल्पना और साहित्यिकता की दृष्टि से मुकबल का "हीर राँझा" वारिस की "हीर" के समकक्ष माना जा सकता है।
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