हज़रतबल

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हज़रतबल

हज़रतबल (درگاہ حضرت بل, दरगाह हज़रतबल) भारत के जम्मू व कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर में स्थित एक प्रसिद्ध दरगाह है। मान्यता है कि इसमें इस्लाम के नबी, पैग़म्बर मुहम्मद, का एक दाढ़ी का बाल रखा हुआ है, जिस से लाखों लोगों की आस्थाएँ जुड़ी हुई हैं। कश्मीरी भाषा में 'बल' का अर्थ 'जगह' होता है, और हज़रतबल का अर्थ है 'हज़रत (मुहम्मद) की जगह'। हज़रतबल डल झील की बाई ओर स्थित है और इसे कश्मीर का सबसे पवित्र मुस्लिम तीर्थ माना जाता है।[1] फ़ारसी भाषा में 'बाल' को 'मू' या 'मो' (مو) कहा जाता है, इसलिए हज़रतबल में सुरक्षित बाल को 'मो-ए-मुक़द्दस' या 'मो-ए-मुबारक' (पवित्र बाल) भी कहा जाता है।

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दरगाह हज़रतबल
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दरगाह हज़रतबल

इतिहास

सारांश
परिप्रेक्ष्य

हज़रतबल को लेकर यह मान्यता है कि पैग़म्बर मुहम्मद के वंशज सय्यद अब्दुल्लाह सन् १६३५ में मदीना से चलकर भारत आये और आधुनिक कर्नाटक राज्य के बीजापुर क्षेत्र में आ बसे। अपने साथ वह इस पवित्र केश को भी लेकर आये। जब सय्यद अब्दुल्लाह का स्वर्गवास हुआ तो उनके पुत्र, सय्यद हामिद, को यह पवित्र केश विरासत में मिला। उसी काल में मुग़ल साम्राज्य का उस क्षेत्र पर क़ब्ज़ा हो गया और सय्यद हामिद की ज़मीन-सम्पत्ति छीन ली गई। मजबूर होकर उन्हें यह पवित्र-वस्तु एक धनवान कश्मीरी व्यापारी, ख़्वाजा नूरुद्दीन एशाई को बेचनी पड़ी। व्यापारी द्वारा इस लेनदेन के पूरा होते ही इसकी भनक मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब तक पहुँच गई, जिसपर यह बाल नूरुद्दीन एशाई से छीनकर अजमेर शरीफ़ में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर भेज दिया गया और व्यपारी को बंदी बना लिया गया। कुछ अरसे बाद औरंगज़ेब का मन बदल गया और उसने बाल नूरुद्दीन एशाई को वापस करवाया और उसे कशमीर ले जाने की अनुमति दे दी। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और नूरुद्दीन एशाई ने कारावास में ही दम तोड़ दिया था। पवित्र बाल उनके शव के साथ सन् १७०० में कश्मीर ले जाया गया जहाँ उनकी पुत्री, इनायत बेगम, ने पवित्र वस्तु के लिये दरगाह बनवाई। इनायत बेगम का विवाह श्रीनगर की बान्डे परिवार में हुआ था इसलिये तब से इसी बान्डे परिवार के वंशज इस पवित्र केश की निगरानी के लिये ज़िम्मेदार हो गये।[2]

२६ दिसम्बर १९६३ को, जब जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे, यह समाचार आया कि हज़रतबल से केश ग़ायब हो गया है। यह बात तेज़ी से फैली और कश्मीर व देश के अन्य हिस्सों में एक तनाव का वातावरण पैदा हो गया। श्रीनगर में लाखों की तादाद में लोग सड़को पर उतर आये और अफ़वाहें फैलने लगीं। केश की खोज के लिये एक आवामी ऐक्शन कमेटी का गठन हुआ। ३१ दिसम्बर को नहरू ने इस बात को लेकर राष्ट्र के नाम रेडियो संदेश दिया और लाल बहादुर शास्त्री को खोज पूरा करने के लिये श्रीनगर भेजा। ४ जनवरी १९६४ को केश फिर से मिल गया।[3]

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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