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मदीना राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले मुहम्मद और मक्का की कुरैश जनजाति के बीच संधि विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
सुलह हुदैबिया या हुदैबियाह की संधि (अंग्रेज़ी: Treaty of Hudaybi) एक घटना थी जो इस्लामी पैगंबर मुहम्मद के समय में हुई थी। यह जनवरी 628 में मदीना राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले मुहम्मद और मक्का की क़ुरैश जनजाति के बीच एक महत्वपूर्ण संधि थी। इसने दो शहरों के बीच तनाव कम करने में मदद की, 10 साल की अवधि के लिए शांति की पुष्टि की और मुहम्मद के अनुयायियों को अधिकृत किया कि अगले वर्ष एक शांतिपूर्ण तीर्थ यात्रा(हज, उमरा) पर लौटने के लिए, जिसे बाद में प्रथम तीर्थयात्रा उमरा के रूप में जाना गया। यह समझौता इस्लाम के लिए एक महान विजय थी।[1] [2]
इस्लामी इतिहास के अनुसार एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने स्वप्न में देखा कि आप अपने सहाबा के साथ मक्का गए हैं और वहाँ उम्रह किया है। पैग़म्बर ने यह (स्वप्न) एक ईश्वरीय संकेत समझा जिसका अनुसरण करना नबी (सल्ल.) के लिए ज़रूरी था। (अतः आप) ने बिना झिझक अपना स्वप्न सहाबा को सुनाकर यात्रा की तैयारी शुरू कर दी।
1400 सहाबी नबी (सल्ल.) के साथ इस अत्यन्त ख़तरनाक सफ़र पर जाने के लिए तैयार हो गए। ज़ी क़ादा सन् 6 हिजरी के आरम्भ में यह मुबारक क़ाफ़िला उमरा के लिए मदीना से चल पड़ा। कुरैश के लोगों को नबी के इस आगमन ने बड़ी परेशानी में डाल दिया। ज़ी-क़ादा का महीना उन प्रतिष्ठित महीनों में से था जो सैकड़ों वर्ष से अरब में हज और दर्शन के लिए मान्य समझे जाते थे। इस महीने में जो क़ाफ़िला एहराम बांधकर हज या उमरे के लिए जा रहा हो उसको रोकने का किसी को अधिकार प्राप्त न था। कुरैश के लोग इस उलझन में पड़ गए कि यदि हम मदीना के इस क़ाफ़िले पर आक्रमण करके इसे मक्का में प्रवेश करने से रोकते हैं तो पूरे देश में इसपर शोर मच जाएगा। लेकिन यदि मुहम्मद (सल्ल.) को इतने बड़े क़ाफ़िले के साथ सकुशल अपने नगर में प्रवेश करने देते हैं तो पूरे देश में हमारी हवा उखड़ जाएगी और लोग कहेंगे कि हम मुहम्मद से भयभीत हो गए। अन्ततः बड़े सोच-विचार के पश्चात् यह फैसला किया कि किसी क़ीमत पर भी इस क़ाफ़िले को आपके नगर में प्रवेश करने नहीं देना है।
जब आप उसफ़ान के स्थान पर पहुँचे (गुप्तचर ने) आपको सूचना दी कि कुरैश के लोग पुरी तैयारी के साथ जीतुवा के स्थान पर पहुंच रहे हैं और ख़ालिद बिन वलीद को उन्होंने दो सौ सवारों के साथ कुराउल ग़मीम की ओर आगे भेज दिया है, ताकि वे आपका रास्ता रोके। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने यह सूचना पाते ही तुरन्त रास्ता बदल दिया और एक दुर्गम मार्ग से बड़ी कठिनाइयों के साथ हुदैबिया के स्थान पर पहुँच गए जो ठीक हरम की सीमा पर पड़ता था। (अब कुरैश ने आपके पास अपनी दूत भेजकर इस बात की कोशिश की कि आप मक्का में दाखिल होने के इरादे से बाज़ आ जाएँ। किन्तु वे अपने इस दौत्य प्रयास में असफल रहे।) नबी (सल्ल.) ने स्वयं अपनी ओर से हज़रत उसमान (रजि.) को दूत बनाकर मक्का भेजा और उनके द्वारा कुरैश के सरदारों को यह संदेश दिया कि हम युद्ध के लिए नहीं बल्कि दर्शन के लिए कुरबानी के जानवर साथ लेकर आए हैं। तवाफ़ (काबा की परिक्रमा) और क़ुरबानी करके वापस चले जाएँगे, किन्तु वे लोग न माने और हज़रत उसमान (रजि.) को मक्का ही में रोक लिया।
इस बीच यह ख़बर उड़ गई कि हज़रत उसमान (रजि.) क़त्ल कर दिए गए हैं और उनके वापस न आने से मुसलमानों को विश्वास हो गया कि यह ख़बर सच्ची है। अब तदधिक धैर्य का कोई अवसर न था। अतएव अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने अपने सभी साथियों को एकत्र किया और उनसे इस बात पर बैअत ली (अर्थात प्रतिज्ञाबद्ध किया) कि अब यहाँ से हम मरते दम तक पीछे न हटेंगे। यह वह बैअत है जो 'बैअत रिज़वान' के नाम से इस्लामी इतिहास में प्रसिद्ध है। तत्पश्चात् यह मालूम हुआ कि हज़रत उसमान (रजि.) के मारे जाने की ख़बर ग़लत थी।
मुहम्मद और उनके अनुयायियों ने मक्का के बाहर डेरा डाला, और मुहम्मद मक्का के दूतों से मिले, जो मक्का में तीर्थयात्रियों के प्रवेश को रोकना चाहते थे। बातचीत के बाद, दोनों पक्षों ने युद्ध के बजाय कूटनीति के माध्यम से मामले को सुलझाने का फैसला किया और एक संधि तैयार की गई।[3]
कुरैश की ओर से सुहैल बिन अम्र की अध्यक्षता में एक प्रतिनिधिमंडल भी सन्धि की बातचीत करने के लिए नबी के कैम्प में पहुँच गया। दीर्घ कथोपकथन के पश्चात् जिन शर्तों पर सन्धिपत्र लिखा गया वे ये थीं:
1) दस वर्ष तक दोनों पक्षों के मध्य युद्ध बन्द रहेगा, और एक-दूसरे के विरुद्ध गुप्त या प्रत्यक्ष कोई कार्रवाई न की जाएगी।
2) इस बीच कुरैश का जो व्यक्ति अपने अभिभावक की अनुमति के बिना, भागकर मुहम्मद (सल्ल.) के पास जाएगा, उसे आप वापस कर देंगे और आपके साथियों में से जो व्यक्ति कुरैश के पास चला जाएगा उसे वे वापस न करेंगे।
3) अरब के क़बीलों में से जो क़बीला भी दोनों पक्षों में से प्रतिज्ञाबद्ध होकर किसी एक के साथ होकर इस सन्धि में सम्मिलित होना चाहेगा, उसे इसका अधिकार प्राप्त होगा।
4) मुहम्मद (सल्ल.) इस वर्ष वापस जाएँगे और अगले वर्ष वे उमरा (दर्शन) के लिए आकर मक्का में ठहर सकते हैं। शर्त यह है कि परतलों (पट्टों) में केवल एक-एक तलवार लेकर आएँ और युद्ध का कोई सामान साथ न लाएँ, इन तीन दिनों में मक्का निवासी उनके लिए नगर ख़ाली कर देंगे (ताकि किसी टकराव की नौबत न आए।) किन्तु वापस जाते हुए उन्हें यहाँ के किसी व्यक्ति को अपने साथ ले जाने का अधिकार प्राप्त न होगा।
जिस समय इस सन्धि की शर्ते निर्णित हो रही थीं,हज़रत उमर सहित मुसलमानों की पूरी सेना अत्यन्त विकल थी। कोई व्यक्ति भी उन निहित उद्देश्यों को नहीं समझ रहा था जिन्हें दृष्टि में रखकर नबी (सल्ल.) ये शर्ते स्वीकार कर रहे थे। कुरैश इसे अपनी सफलता समझ रहे थे और मुसलमान इसपर बेचैन थे कि हम आख़िर ये हीन शर्ते क्यों स्वीकार कर लीं।[4]
इस्लाम में संधि बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह मदीना में इस्लामी राज्य की अप्रत्यक्ष मान्यता थी। संधि ने उन मुसलमानों को भी अनुमति दी जो अभी भी मक्का में सार्वजनिक रूप से इस्लाम का अभ्यास कर रहे थे। इसके अलावा, जैसा कि मुसलमानों और बहुदेववादियों के बीच अब कोई निरंतर संघर्ष नहीं था, कई लोगों ने इस्लाम को एक नई रोशनी में देखा, जिसके कारण कई और लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। इसके अलावा, हुदैबियाह की संधि[5] ने मुसलमानों के साथ संधियों के उपयोग के माध्यम से, अन्य जनजातियों पर विजय प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया। यह संधि एक उदाहरण के रूप में भी कार्य करती है कि इस्लाम केवल तलवार से नहीं फैला था क्योंकि मुहम्मद के पास एक सेना थी जो मक्का पर हमला कर सकती थी, लेकिन
मुहम्मद ने शांति संधि करने का विकल्प चुना। बहुदेववादियों द्वारा संधि तोड़ने के बाद, उन्होंने मक्का पर चढ़ाई की और बहुदेववादियों पर विजय प्राप्त की।[6]
संधि के बारे में कुरआन की सूरा अल-फ़तह की पहली आयत, जिसका अर्थ है, "वास्तव में हमने आपको एक स्पष्ट जीत दी है" (कुरान 48:1)
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