सम्भाजी
मराठा साम्राज्य के दूसरे छत्रपति राजा (1657-1690) विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
संभाजीराजे शिवाजीराजे भोंसले (14 मई 1657 – 11 मार्च 1689) मराठा साम्राज्य के द्वितीय छत्रपति राजा, लेखक, विचारक और छत्रपती शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारी थे। उन्होंने अपने अपने जीवनकाल में 121 युद्ध लड़े और सभी में विजय प्राप्त की। दक्षिण भारत में मुगलों के आक्रमणों को रोकने में संभाजी की प्रमुख भूमिक के लिये प्रसिद्ध थे।[2]
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संभाजी | |||||
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महाराजा धर्मवीर | |||||
![]() संभाजी का चित्र (17वीं शताब्दी) | |||||
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शासनावधि | 16 जनवरी 1681 – 11 मार्च 1689 | ||||
राज्याभिषेक | 16 जनवरी 1681 रायगढ़ | ||||
पूर्ववर्ती | शिवाजी | ||||
उत्तरवर्ती | राजाराम प्रथम | ||||
जन्म | 14 मई 1657[1] पुरंदर क़िला, अहमदनगर सूबा, मुग़ल साम्राज्य | ||||
निधन | 11 मार्च 1689 31 वर्ष) तुलापुर, अहमदनगर सूबा, मुग़ल साम्राज्य | (उम्र||||
जीवनसंगी | येसुबाई | ||||
संतान | भवानी बाई शाहू | ||||
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पिता | शिवाजी | ||||
माता | सईबाई | ||||
धर्म | हिन्दू धर्म |
जन्म एवं बचपन
सारांश
परिप्रेक्ष्य
शंभाजी महाराज का जन्म १४ मई १६५७ को पुरंदर के किले में। वे महान छत्रपति शिवाजी महाराज और उनकी पहली पत्नी सईबाई के पुत्र थे। जब वे ढाई साल के थे, तब उनकी मां का निधन हो गया। मां की मृत्यु के बाद शंभुराजे का पालन पोषण उनकी दादी जीजाबाई ने किया।संभाजी राजे न केवल अपनी दादी के करीब थे, बल्कि वे अपने दादा शाहजी महाराज के भी करीब थे।
जीजाबाई ने अपने पुत्र शिवाजी की तरह ही पोते शंभाजी में भी राष्ट्रप्रेम, धर्मप्रेम, हिन्दवी स्वराज, देव-देश-धर्म ओर आदर्श जीवन मूल्यों को स्थापित किया। इसके अलावा उन्होंने गणित,तर्क,भूगोल, इतिहास, पुराण, रामायण, व्याकरण आदि का ज्ञान काशीराम शास्त्री से अर्जित किया, पिता शिवाजी ने उन्हें शारीरिक प्रशिक्षण दिया।[उद्धरण चाहिए]
उन्होंने अपने उम्र के केवल 14 साल में उन्होंने बधभूषण, नखशिख, नायिकाभेद तथा सातशातक यह तीन संस्कृत ग्रन्थ लिखे थे, जो उनकी प्रखर विद्वत्ता का परिचय है।

शिवाजी महाराज के सबसे बड़े पुत्र होने के नाते, संभाजी अपने पिता द्वारा हिन्दवी स्वराज के निर्माण के लिए किए गए प्रयासों को देखते हुए बड़े हुए। मराठा साम्राज्य के राजकुमार के रूप में, संभाजी ने एक से अधिक अवसरों पर अपनी बहादुरी और सैन्य प्रतिभा साबित की। उन्होंने 16 साल की उम्र में रामनगर में अपना पहला युद्ध लड़ा और जीता और 1675-76 के दौरान उन्होंने गोवा और कर्नाटक में सफल अभियानों का नेतृत्व किया।
राज्याभिषेक
जीवूबाई, जिन्हें येसुबाई के नाम से भी जाना जाता है, संभाजी महाराज की पत्नी थीं। इस वैवाहिक गठबंधन के बाद, शिवाजी को कोंकण क्षेत्र पर नियंत्रण मिल गया। शाहू प्रथम]], संभाजी राजे ओर येसुबाई के सबसे बड़े बेटे थे। अप्रैल 1680 में शिवाजी महाराज की मृत्यु हो गई, संभाजी की सौतेली माँ सोयराबाई ने उनके सौतेले भाई राजाराम से मराठा साम्राज्य का अगला राजा बनने के लिए कहा। यह खबर सुनकर संभाजी ने पन्हाला किला और रायगढ़ किला जीत लिया। 20 जुलाई 1680 को उनका हिंदू वैदिक परंपराओं के अनुसार राज्याभिषेक किया गया और वे मराठा साम्राज्य के द्वितीय छत्रपति बन गए। राजा बनने के साथ उन्होंने "शककर्ता" ओर "हिंदवी धर्मोधारक" उपाधि धारण की। बाद में उन्होंने राजाराम, राजाराम की पत्नी जानकी बाई और सौतेली माँ सोयराबाई को नजरकैद मे रखा था। उन्होंने सोयराबाई, शिर्के परिवार के उनके समर्थकों और शिवाजी के मंत्रियों को भी उनकी हत्या की साजिश रचने के लिए मार डाला। उन्होंने नई राजमुद्रा बनवाई जिसमें लिखा था।
श्री शम्भो: शिवजात मुद्रास्य द्यौरिव राजते। यदंकसेविनी लेखा वर्तते कस्य नोपरि।।
अर्थ: भगवान शिव के भक्त और शिवाजी के पुत्र शंभाजी का राज्य आकाश तक फैला है और सभी प्रजाजनो के लिए हितकारी है।
शंभुराजे के प्रजाकल्याण के कार्य और युद्ध अभियान
सारांश
परिप्रेक्ष्य
शिवाजी महाराज की मृत्यु के तीन महीनों बाद शंभाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ , छत्रपति बनते ही उन्होंने कई प्रजा कल्याण के कार्य किए, सार्वजनिक मार्गों एवं जल निकास व्यवस्था का जीर्णोद्धार कराया, किसानों के ऊपर के कर को घटाया, प्रजा को निःशुल्क उपचार और ओषधि उपलब्ध करवाए। [उद्धरण चाहिए]
संभाजी महाराज ने अपने प्रांत में उन हिंदुओं के सीहिंदू पुनःनिर्माण समिति' के लिए एक अलग विभाग स्थापित किया था, जो पहले अन्य धर्मों में परिवर्तित हो गए थे। संभाजी महाराज के इतिहास में हरसूल गाँव के 'कुलकर्णी' नामक एक ब्राह्मण को मुगलों ने जबरन मुसलमान बना दिया था। उन्होंने हिंदू धर्म में पुनः शामिल होने की कोशिश की, लेकिन उनके गाँव के स्थानीय ब्राह्मणों ने उनकी कोई परवाह नहीं की। अंत में, कुलकर्णी ने संभाजी महाराज से मुलाकात की और उन्हें अपनी व्यथा के बारे में बताया। संभाजी महाराज ने तुरंत उनके पुनर्परिवर्तन समारोह की व्यवस्था की और उन्हें पुनः हिंदू बना दिया। संभाजी महाराज महाराज के इस नेक प्रयास ने कई धर्मांतरित हिंदुओं को वापस हिंदू धर्म में परिवर्तित होने में मदद की।[3]
छत्रपति शम्भुराज ने अपनी प्रजा की दुर्दशा को सबसे पहले रखा। उन्होंने राज्य में गरीबी और खाद्यान्न की कमी की भरपाई के लिए १६८० में औरंगजेब के खानदेश सुभा की राजधानी बुरहानपुर पर हमला किया। इस हमले में मराठों को विशाल मुगल खजाना हाथ लगा।
- खानदेश पर आक्रमण
संभाजी महाराज के इतिहास में बुरहानपुर का आक्रमण बहुत प्रसिद्ध था क्योंकि छत्रपति बनने के बाद यह संभाजी महाराज का पहला युद्ध था। इस युद्ध में २०,००० मराठा सेना ने मुगल सेना को हरा दिया और खानदेश में औरंगजेब की राजधानी को लूट लिया।
- मैसूर आक्रमण
खानदेश और बुरहानपुर में मुगलों को हराने के बाद संभाजी महाराज ने मैसूर पर आक्रमण किया। संभाजी राजा ने ई. स. १६८१ में वोडियार राजवंश के खिलाफ दक्षिणी मैसूर अभियान शुरू किया। उस समय वोडियार राजवंश के राजा थे “वोडियार चिक्कादेवराय”। चिक्कदेवराय बहुत चिड़चिड़े राजा थे। उन्होंने संभाजी महाराज के सामने आत्मसमर्पण करने के बजाय मराठा सेना पर हमला कर दिया। परिणामस्वरूप, संभाजी महाराज ने अपनी विशाल सेना के साथ जमकर युद्ध किया और युद्ध जीत कर चिक्कदेवराय को मृत्युदंड दिया।
- पुर्तगालियों पर आक्रमण
पुर्तगाली मुगलों को व्यापार में मदद करते थे और मुगलों को अपने क्षेत्र से गुजरने देते थे। संभाजी महाराज का मुख्य उद्देश्य मुगलों और पुर्तगालियों के बीच गठबंधन को तोड़ना था। इसी लिए संभाजी ने आक्रमण कर युद्ध में पुर्तगालियों को हराया, उनके किलो को ध्वस्त किया, पुर्तगाली खजाने ओर हथियारों पर कब्जा किया ओर पुर्तगाली जनरल ऑफिसरों को मृत्युदंड दिया।

इसके अलावा भी छत्रपति संभाजी महाराज ने अपने अल्प जीवनकाल में कुल १२० युद्ध लड़े और अजेय रहते हुए उन सभी युद्धों में जीत हासिल की। इतिहास में सिकन्दर जैसे बहुत कम राजा हुए जिनको हराना असंभव था ! संभाजी महाराज उन्हीं चुनिंदा राजाओं में से एक है।
गनोजी द्वारा विश्वासघात
सारांश
परिप्रेक्ष्य
संभाजी महाराज ने मुगलों को भारत से पूरी तरह से उखाड़ फेंकने की योजना बनाई। इसकी योजना और आगे की कार्यवाही के लिए संगमेश्वर में एक गुप्त बैठक बुलाई गई।
गनोजी शिर्के संभाजी महाराज के बहनोई थे, संभाजी महाराज ने उन्हें वतनदारी और जहागिरी देने से साफ इनकार कर दिया। अत: गनोजी शिर्के ने मुगलों से हाथ मिला लिया।गणोजी ने संभाजी के साथ विश्वासघात करते हुए मुगल सरदार मुकर्रबखान को सूचित किया कि संभाजी महाराज संगमेश्वर में हैं। संभाजी राजे ने अपने अभियानों में जिन गुप्त मार्गों का उपयोग किया, वे केवल मराठों को ही ज्ञात थे। गणोजी शिर्के ने मुकर्रबखां को संगमेश्वर के गुप्त मार्ग के बारे में बताया। संभाजी महाराज ने कुछ सरदारों और विश्वस्त मंत्रियों को संगमेश्वर बुलाया था। एक गुप्त बैठक के बाद गाँव वालों के आग्रह पर वे उनकी बात का सम्मान करते हुए कुछ समय तक प्रतीक्षा करने को तैयार हो गये। उन्होंने सेना को अपने साथ रायगढ़ भेजा और अपने साथ केवल २०० सैनिक, अपने मित्र और सलाहकार कवि कलश और २५ विश्वसनीय सलाहकार रखे। जैसे ही संभाजी महाराज गांव से बाहर निकल रहे थे, १०,००० मुगल सैनिकों ने उन्हें और उनके साथियों को घेर लिया। सभी साथियों और प्रमुखों ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी।
झड़प गांव में एक भयानक रक्तपात हुआ जहां संभाजी राजा की सेना ने अपनी पूरी ताकत से मुगलों की विशाल सेना का सामना किया, लेकिन अंत में १ फरवरी, १६८९ को मुगलों ने संभाजी ओर उनके मित्र कवि क्लश को धोखे से पकड़ कर बंदी बना लिया गया।
यातनाएं तथा देहत्याग
सारांश
परिप्रेक्ष्य
सबसे पहले जुल्फिकार खान सेना के साथ छत्रपति संभाजी भोसले और कवि कलश को कराड-बारामती के रास्ते बहादुरगढ़ ले गये. फिर अंतिम अंतिम दिनों में उन्हें भीमा, भामा और इंद्रायणी के त्रिवेणी संगम पर स्थित गांव तुलापुर ले जाया गया।वहां औरंगजेब ने उन दोनों के साथ बहुत अमानवीय व्यवहार किया। औरंगजेब ने संभाजी राजे और कवि कलश को जोकरों के कपड़े पेहनाकर ऊँटों पर बाँधकर उनका अपमान किया। कुछ लोगों ने पत्थर, कीचड़, गोबर आदि फेंके। शंभुराजे और कवि कलश दोनों ने अपनी आराध्य देवी का नाम “जगदंबा, जगदंबा” जपते हुए यह सब झेला।
अपमानित कृत्य के बाद, संभाजी महाराज को औरंगजेब के दरबार में ले जाया गया। वहां औरंगजेब ने अपने जीवित रहने के लिए संभाजी महाराज के सामने तीन शर्तें रखीं।
१. सभी मराठा किलों पर कब्ज़ा करें और मराठा साम्राज्य के छिपे हुए खजाने को उजागर करें
२. उन मुगल गद्दारों के नाम उजागर करें जो मुगल दरबार के अधिकारी थे
अपनी शर्तों का अस्वीकार करने के कारण औरंगज़ेब से संभाजी ओर कवि क्लश को अमानवीय यातनाएं देना शुरू कर दी।
मुग़ल सैनिक धीरे-धीरे चिमटी से कभी उनके नाखूनों को उखाड़ देते, सारे नाखून निकाल देने के बाद वे एक-एक करके अपनी उंगलियाँ काट लेते थे। अपने असहनीय दर्द के बावजूद वे औरंगज़ेब जब भी कारावास आता उसे कुछ न कुछ बोलते। हर अत्याचार के बाद, औरंगजेब ने संभाजी को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने हर बार इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। [5]
एक दिन गुस्से से औरग़ज़ेब ने उनकी जीभ काट देने का हुक्म दिया, कुछ दिन बाद उनकी त्वचा छील दी गयी, उसके बाद गरम सलाखों से उनकी आँखें निकाल दी गयी। कुछ दिन बाद एक-एक करके दोनों हाथ काट दिये गए।
अंत में, उनका सिर काट दिया गया और एक विशेष हथियार से उनका धड़ दो टुकड़ों में विभाजित कर दिया गया और सब टुकड़ों को मुगलों द्वारा तुलापुर में भीमा नदी के संगम पर फेंक दिया गया। [6]
इस प्रकार संभाजी महाराज ने अपने प्राण देकर भी अपने हिंदू धर्म ओर अपने स्वाभिमान का त्याग नहीं किया। उनके बलिदान के कारण सभी मराठा ओर दूसरे हिंदू राज्य एकजुट होकर मुगलों से लड़े। जिसके चलते थोड़े वर्षों बाद ही मुगल साम्राज्य का अंत हो गया। [उद्धरण चाहिए] शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य और हिंदू धर्म की अस्मिता की रक्षा करने के कारण ही छत्रपति संभाजी महाराज को धर्मवीर की उपाधि दी जाती है। उनकी वीरता और उच्च चरित्र आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणादाई रहेगा।
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सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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