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प्राचीन भारत में दार्शनिक एवं धार्मिक वाद-विवाद, चर्चा या प्रश्नोत्तर को शास्त्रार्थ (शास्त्र + अर्थ) कहते थे। इसमें दो या अधिक व्यक्ति किसी गूढ़ विषय के असली अर्थ पर चर्चा करते थे।
किसी विषय के सम्बन्ध में सत्य और असत्य के निर्णय हेतु परोपकार के लिए जो वाद-विवाद होता है उसे शास्त्रार्थ कहते हैं। शास्त्रार्थ का शाब्दिक अर्थ तो शास्त्र का अर्थ है , वस्तुतः मूल ज्ञान का स्रोत शास्त्र ही होने से प्रत्येक विषय के लिए निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए शास्त्र का ही आश्रय लेना होता है अतः इस वाद-विवाद को शास्त्रार्थ कहते हैं जिसमे तर्क,प्रमाण और युक्तियों के आश्रय से सत्यासत्य निर्णय होता है | शास्त्रार्थ और डिबेट (debate) में बहुत अन्तर है। शास्त्रार्थ विशेष नियमों के अंतर्गत होता है,अर्थात ऐसे नियम जिनसे सत्य और असत्य का निर्णय होने में आसानी हो सके इसके विपरीत डिबेट में ऐसे पूर्ण नियम नहीं होते | शास्त्रार्थ में महर्षि गौतम कृत न्यायदर्शन द्वारा प्रतिपादित विधि ही प्रामाणिक है |
शास्त्रार्थ का इतिहास लाखों वर्षो पुराना है , इतिहास कि दृष्टि से हम शास्त्रार्थ के इतिहास को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं-
वैदिक काल में एक से बढ़कर एक विद्वान ऋषि थे , उस काल में भी भी शास्त्रार्थ हुआ करता था , वैदिक काल में ज्ञान अपनी चरम सीमा पर था , उस काल में शास्त्रार्थ का प्रयोजन ज्ञान कि वृद्धि था क्यों कि उस काल कोई भ्रम नहीं था , ज्ञान के सूर्य ने धरती को प्रकाशित कर रखा था , उस काल शास्त्रार्थ प्रतियोगिताएं होती थी, न सिर्फ ऋषि अपितु ऋषिकाएँ भी एक से बढ़कर एक शास्त्रार्थ महारथी थी। वैदिक काल के शास्त्रार्थ-
आधुनिक काल में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अनेक स्थानों पर जाकर विद्वानों से शास्त्रार्थ किया।
जहाँ शास्त्रार्थ मौखिक हुए हैं वहां लिखित शास्त्रार्थ भी हुए है , शास्त्रार्थ के अनेकों खंडन मंडन साहित्य उपलब्ध है।
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