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अति प्राचीन काल से ही चिकित्सा के दो प्रमुख विभाग चले आ रहे हैं - कायचिकित्सा (Medicine) एवं शल्यचिकित्सा (Surgery)। इस आधार पर चिकित्सकों में भी दो परंपराएँ चलती हैं। एक कायचिकित्सक (Physician) और दूसरा शल्यचिकित्सक (Surgeon)। यद्यपि दोनों में ही औषधो पचार का न्यूनाधिक सामान्यरूपेण महत्व होने पर भी शल्यचिकित्सा में चिकित्सक के हस्तकौशल का महत्व प्रमुख होता है, जबकि कायचिकित्सा का प्रमुख स्वरूप औषधोपचार ही होता है।
आयुर्वेद में भी धन्वंतरि संप्रदाय, या सुश्रुत संप्रदाय, शल्यचिकित्सा के प्रतीक हैं जबकि आत्रेय संप्रदाय या चरक संप्रदाय कायचिकित्सा के प्रतीक हैं। इसी प्रकार पश्चिम में भी जालीनूस (Galenus) के समय में केवल औषध प्रयोग करनेवालों, अर्थात् कायचिकित्सकों, को मेडिमी (Medice) और शस्त्रक्रिया करनेवालों को चिररजी और ब्लडनेरारी कहते थे। ऐतिहासिक एवं शास्त्रीय पर्यांलोचन के दृष्टिकोण से भारत में इस विज्ञान को चार प्रमुख कालों में विभक्त किया जा सकता है :
(1) आयुर्वेदिक काल,
(2) यूनानी काल,
(3) अरबी, यूनानी एवं
(4) पश्चिमी काल (1200 ई. से 1500 ई. तथा उसके बाद का उन्नत आधुनिक काल)।
शास्त्रीय प्रमाणों से शल्यचिकित्सा का मूल स्रोत वेदों में मिलता है, जहाँ इंद्र, अग्नि और सोम देवता के बाद स्वर्ग के दो वैद्यों अश्विनीकुमारों की गणना की गई है। इनके कायचिकित्सा एवं शल्यचिकित्सा संबंधी दोनों प्रकार के कार्य मिलते हैं। शरीर की व्याधियों को दूर करने के लिए तथा अंगभंग की स्थिति में नवीन आंखें एवं नवीन अंग प्रदान करने के लिए अश्विनीकुमारों की प्रार्थना की गई है। गर्भाशय को चीरकर गर्भ को बाहर निकालने तथा मूत्रवाहिनी, मूत्राशय एवं वृक्कों में यदि मूत्र रुका हो, तो उसे वहाँ से शल्य कर्म या अन्य प्रकार से बाहर निकालने का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार अथर्ववेद में क्षत, विद्रधि, व्रण, टूटी या कटी अस्थियों को जोड़ने, कटे हुए अंग को ठीक करने, पृथक् हुए मांस मज्जा को स्वस्थ करनेवाली ओषधि से प्रार्थना की गई है। रक्तस्राव के लिए पट्टी बाँधने, अपची (गले की ग्रंथि का एक रोग) के लिए वेधन छेदन आदि उपचारों का उल्लेख मिलता है। भगवान बुद्ध के काल में जीवक नामक चिकित्सक द्वारा करोटि एवं उदरगत बड़े शल्यकर्म सफलतापूर्वक किए जाने का वर्णन है।
शल्यक्रिया से सम्बन्धित अन्य प्रसंग है- दधीचि के सिर को हटाकर उसकी जगह घोड़े के सिर का प्रत्यारोपण और फिर उसे हटाकर असली सिर लगा देना, ऋज्राष्वड की अंधी आँखों में रोशनी प्रदान करना, यज्ञ के कटे सिर को पुनः सन्धान करना, श्राव का कुष्ठ रोग दूर कर उसे दीर्धायु प्रदान करना, कक्षीवान् को पुनः युवक बनाना, वृद्ध च्यवन को पुनः यौवन देना, वामदेव को माता के गर्भ से निकालना आदि।
सुसंगठित एवं शास्त्रीय रूप से आयुर्वेदीय शल्यचिकित्सा की नींव इंद्र के शिष्य धन्वंतरि ने डाली। धन्वंतरि के शिष्य सुश्रुत ने इस शास्त्र को सर्वांगोपांग विकसित कर व्यवहारोपयोगी स्वरूप दिया। उस समय भी शल्य का क्षेत्र सामान्य कायिक शल्यचिकित्सा था और ऊर्ध्वजत्रुगत रोगों एवं शल्यकर्म (अर्थात् नेत्ररोग, नासा, कंठ, कर्ण आदि के रोग एव तत्संबंधी शल्यकर्म) का विचार अष्टांग आयुर्वेद के शालक्य नामक शाखा में पृथक् रूप से किया जाता था।
इसी प्रकार पश्चिम में असीरिया, बेबिलोनिया एवं मिस्र के बाद यूनान और रोम में सभ्यता एवं अन्य ज्ञान विज्ञान के साथ चिकित्साविज्ञान तथा तदंतर्गत शल्यचिकित्सा का विकास हुआ। ई. पू. 301 में मिस्र देश में शल्यतंत्र उन्नत अवस्था में था। मिस्र देश में भूगर्भ से मिले शवों के शरीर में कपालभेद के संधान के चिह्र मिलते हैं। प्रारंभ में रोम नगर के सभी चिकित्सक सिकंदिरिया या उसके पूर्व के निवासी थे। केलसस का "डी मेडिसिना", जो ईसवी सन् 29 में प्रसिद्ध हुआ, पूर्णतया ग्रीक प्रणाली का था। उक्त महाग्रंथ आठ खंडों में है। सातवें खंड में शल्यशास्त्र और छठे खंड के छठे अध्याय में और सातवें खंड के सातवें अध्याय में नेत्ररोगों का विवेचन है। इस महाग्रंथ में वर्णित अर्म (अग्रीस रोमन टेरिजियम्) पोथकी तथा मोतियाबिंद (cataract) की शल्यचिकित्सा बहुत कुछ सुश्रुत से मिलती जुलती है।
जालीनूस ने जो एक प्रकार से यूनानी परंपरा का अंतिम विद्वान् चिकित्सक था, अनेक बड़े बड़े ग्रंथ चिकित्सा शास्त्र पर लिखे। उसके ग्रंथ सारे ग्रीक वैद्यक के विश्वकोश हैं। पश्चिमी काल के पूर्ववर्ती युग (700 ई से 1,200 ई.) में अरबों ने चिकित्सा विज्ञान का दीपक प्रज्वलित किया और शल्यचिकित्सा में भी प्रशंसनीय उन्नति की, जिसका प्रभाव स्पेन तक था। इसी ज्ञान को आधार मानकर आधुनिक शल्यचिकित्सा आज पराकाष्ठा पर पहुँच रही है। अबुल कासिम जहरावी का प्रसिद्ध ग्रंथ, अत्तसरीफ, यूरोप में शल्यतंत्र की उन्नति की आधारभूत नींव है। आधुनिक शल्यचिकित्सा की अद्भुत उन्नति की प्रधान कारण उत्तम चेतनाहर एवं संवेदनाहर ओषधियों (anaesthetics) तथा विश्वसनीय रक्तस्तंभक द्रव्य (haemostatics), पूतिरोधी एवं प्रतिजैविक पदार्थ की सुलभता है, जिनकी सुविधा विक्त युगों में प्राय: नहीं सी थी। अतएव विचारकों के लिए यह एक नितांत जिज्ञासापूर्ण विषय बना रहा कि इन साधनों के अभाव में प्राचीन लोग गंभीर स्वरूप के शल्यकर्म (operation) कैसे करते थे।
आधुनिक उन्नत शल्यचिकित्सा का आरंभ यूरोपीय देशों में जर्राही के रूप में हुआ, जिससे प्रधानत: हस्तकर्म द्वारा साधारण शल्यचिकित्सा (minor surgery), यथा अस्थिभंग (fracture) संधिच्युति (dislocation) की दक्षता, दाँत उखाड़ना तथा उक्त क्रियाओं एवं क्षतोपयोगी मलहम (ointment), गुदावस्ति (enema) तथा रेचक आदि के निर्माण एवं प्रयोग आदि का ही समावेश होता था। समाज में भी कायचिकित्सक इस कार्य को हीन दृष्टि से देखते थे। इसी के परिणामस्वरूप मध्यकालीन युग में फ्रांस, जर्मनी तथा इंग्लैंड में नापित सर्जनों (barber surgeons), व्रण चिकित्सकों (wound surgeons) एव जर्राह भेषजज्ञ (surgeon apothecaries) की उत्पत्ति हुई। इंग्लैंड में पहले शल्यकर्म हज्जाम या नापित के व्यवसाय के साथ मिला हुआ था। हेनरी अष्टम के शासन काल में सर्जन या शल्यचिकित्सकों के संगठन में बार्बर (जर्रांह) संविधानिक मान्यता द्वारा सम्मिलित थे और दोनों के स्वरूपभेद को स्पष्ट करने के लिए इनके कार्यक्षेत्र का स्पष्टीकण विधान द्वारा किया गया था। नाई को केवल रक्तमोक्षण तथा दाँत उखाड़ना आदि साधारण शल्यकर्म की आज्ञा थी और सर्जन के लिए बार्बर के व्यावसायिक कर्म निषिद्ध थे। विकास एवं उन्नति के साथ सन् 1745 में जॉर्ज द्वितीय के शासनकाल में उक्त दोनों समुदाय पूर्णत: पृथक् होकर, दो मित्र संघों में संगठित हुए। आज का रॉयल कॉलेज ऑव सर्जन इसी का विकसित रूप है।
18वीं शताब्दी से शल्यचिकित्सोपयोगी शास्त्रों यथा शरीररचना-विज्ञान, शरीर-क्रिया-विज्ञान एवं क्रियात्मक (operative) शल्यचिकित्सा आदि के विकास के साथ साथ शल्यचिकित्सा में भी तीव्रतापूर्वक विकास, सुधार एवं उन्नति होने लगी, जिससे कायचिकित्सा की भाँति समाज में शल्यचिकित्सा के लिए भी समान बढ़ने लगा। किंतु शल्यकर्म में वेदना एवं शस्त्रकर्मोत्तर पूति (surgical infection), इन दो महान कठिनाइयों के कारण शल्यचिकित्सा की सफलता बहुत कुछ सीमित रही। पैस्ट्यर नामक रसायनज्ञ द्वारा बैक्टीरिया एवं तज्जन्य विशिष्ट उपसर्ग का संबंध प्रमाणित किए जाने पर, उसके सिद्धांतों से प्रेरणा लेकर 1867 ई. में जोसेफ लिस्टर द्वारा प्रतिरोधी शल्यकर्म (antiseptic surgery) के अनुसंधान एवं तत्पश्चात् संज्ञाहर एवं संवेदनाहर द्रव्यों तथा साधनों के आगमन के साथ, आधुनिक उन्नत शल्यचिकित्सा का प्रारंभ हुआ। इस प्रकार वैज्ञानिकों द्वारा शल्यचिकित्सा की आधाभूत कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद, उसमें दिनोंदिन सुधार होने लगा और सन् 1930 के बाद से तो संवेदनाहरण एक स्वतंत्र विज्ञान निश्चेतनाविज्ञान (Anesthesiology) के रूप में विकसित हो गया है और आज प्राय: सभी प्रकार की शरीर एवं रोग स्थिति तथा शल्यकर्म के अनुरूप संज्ञा हरण एवं संवेदनाहरण उपकरण, द्रव्य एवं साधन उपलब्ध है। इनके कारण होनेवाले उपद्रवों एवं तत्संबंधी अन्य ज्ञातव्य का भी पर्याप्त अध्ययन किया जा चुका है। लिस्टेरियन ऐंसिसेटिक सर्जरी की दिशा में भी इसी प्रकार की उन्नति आज उपलब्ध सल्फावर्ग एवं ऐंटिबायोटिक वर्ग जैसी ओषधियों के कारण हो गई है। इससे शल्यकर्मोत्तर पूतिदोष (sepsis) एवं संक्रमण (infection) तथा तज्जन्य उपद्रवों एवं दुष्परिणामों का प्रतिशत नगण्य हो गया है। इसके प्रत्यक्ष लाभ का अनुभव द्वितीय महायुद्ध एवं कोरिया युद्ध में हुआ, जबकि पहले के युद्धों की अपेक्षा घायलों का समय से शल्योपचार होने पर, संक्रमण एवं पूतिजन्य दुर्घटनाएँ अपेक्षाकृत अत्यंत कम हुईं। उक्त साधनोन्नति के परिणामस्वरूप आज बड़े से बड़े शल्यकर्म पहले की अपेक्षा अधिक विश्वास एवं निश्चितता से किए जाते हैं। यही नहीं, शल्यकर्मोत्तर उपचार (post operative care), जो पहले नितांत सतर्कता एवं चिंता का विषय हुआ करता था, आज उपलब्ध साधनों के कारण अत्यंत सुकर हो गया है।
शल्यचिकित्सा में संक्षोभ (surgical shock) भी एक विशिष्ट एवं महत्व का विषय है। संक्षोभ में त्वचा का रंग फीका पड़ जाता है तथा यह स्वेदक्लेद्य एवं स्पर्श में ठंढी मालूम होती है। प्राय: इसका मुख्य कारण हृदय का अपना वास्तविक दोष न होकर, बाह्य या आंतरिक रुधिरस्रावजन्य, रक्त-परिमाण-क्षीणता होती है, जिससे हृदय की रुधिरक्षेपणशक्ति सामान्य होने पर भी धमनियों का रुधिरसंभरण हीन कोटि का होता है। युद्ध में ग्राहतों में यह स्थिति प्राय: पाई जाती है। अब ऐसी स्थिति में रक्त की तत्कालपूर्ति रुधिराधान द्वारा, अथवा अन्य स्थानापन्न उपायों यथा सगदाबी लवणजल (normal saline) के शिरांत: प्रवेश आदि द्वारा की जाती है। अब बड़े स्थानों में समृद्ध रुधिर बैंक (blood bank) की व्यवस्था भी है, जहाँ से प्रत्येक रोगी के उपयुक्त रुधिर तत्काल प्राप्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य स्थानापन्न द्रव्य (substitules) भी सुलभ हैं।
शल्यचिकित्सा की सफलता एवं शल्यकर्म में अभीष्ट की उपलब्धि के लिए, यथासमय आवश्यक यंत्रशस्त्र एवं अन्य उपकरणों की सुलभता अपना विशिष्ट महत्व रखती है। उपकरणों के प्रयोग में शल्यचिकित्सक का हस्तकौशल सर्वप्रमुख है, क्योंकि सभी शल्यकर्म सर्जन के हस्तकौशलाधीन हैं। शल्यकर्म के क्षेत्र, स्वरूप एवं तत्संबंधी क्रियाओं की नानाविधिरूपता है। ऐतिहासिक युगों के साथ साथ यंत्र और उपकरणों के निर्माण हेतु प्रयुक्त पदार्थों में भी सुधार होता रहा और संप्रति अच्छे शल्यचिकित्सोपयोगी यंत्र उपलब्ध हैं, जिनमें रोगाणुनाशन एवं निर्जीवाणुकरण की शोधन प्रक्रियाओं का कोई कुप्रभाव नहीं पड़ता। चिकित्सा विज्ञान के अन्य अंगों के विकास तथा आधारभूत वैज्ञानिक विषयों एवं धातुकर्म तथा औषधनिर्माण आदि अन्य तकनीकी विज्ञानों की उन्नति एवं विकास के साथ साथ, इन उपकरणों में भी अद्भुत सुधार किए जा रहे हैं। सफलतापूर्वक शल्यकर्म एवं अन्य शल्य प्रक्रियाओं के लिए आवश्यक साजसज्जा से युक्त ऑपरेशन थिएटर एवं उसी से संलग्न निर्जीवाणुकरण, ड्रेंसिग एवं शल्यकर्मोत्तर तत्काल देखरेख के हेतु रोगी को रखने एवं तत्संबंधी अन्य आवश्यकताओं की भी व्यवस्था होनी चाहिए। संप्रति इस दिशा में भी पर्याप्त सुधार हो गया है।
वर्तमान काल में रेडियॉलॉजी (Radiology) एवं न्यूक्लियर मेडिसिन के विकास ने भी शल्यचिकित्सा की प्रगति में पर्याप्त सहायता की है। ऐक्स किरण चित्रण द्वारा अब अंत:स्थित, शल्य, विकृति एवं शल्यकर्मोपयुक्त स्थल का निर्धारण निश्चित रूपेण एवं सुगमता से कर लिया जाता है। विशेषत: विकलांगचिकित्सा एवं अस्थिभंगचिकित्सा में ऐक्स किरण प्रधान सहायक होता है। न्युक्लियर मेडिसिन भौतिकविदों (nuclear physicists) ने भी अनेक महत्वपूर्ण तत्वों की खोज की है, जिनका विशिष्ट उपयोग कायचिकित्सा में भी किया जाता है। इस प्रकार आधारभूत विज्ञानों (basic sciences) एवं चिकित्सा विज्ञान के अन्य विभागों की उन्नति के साथ शल्यचिकित्सा ने भी अत्यंत विकसित होकर, विशेष विभाग के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त कर लिया है, जैसे नेत्ररोग विज्ञान (Ophthalmology), नासा-कर्ण-कंठ रोग विज्ञान (E. N. T. Surgery), विकलांग चिकित्सा (Orthopaedics), प्लास्टिक शल्यचिकित्सा (Plastic Surgery), उरोगत शल्यचिकित्सा (Thoracic Surgery), मूत्रसंस्थानी शल्यचिकित्सा, तंत्रिका शल्यचिकित्सा (Neuro-surgery), स्त्रीरोग विज्ञान (Gynaecology), दंतरोग विज्ञान (Dental Surgery) आदि। विभिन्न देशों में इनके विशेष प्रशिक्षण के लिए अधिकृत संस्थान एवं विशेषज्ञों की संस्थाएँ स्थापित हो गई हैं, जो प्रशिक्षण का नियंत्रण करती हैं तथा विशेषज्ञ के रूप में चिकित्सा करने का अधिकार प्रदान करती हैं, जैसे इंग्लैंड का रॉयल कॉलेज ऑव गाइनिर्कांलाजी, रॉयल कॉलेज ऑव सर्जन्स, अमरीकन कॉलेज ऑव सर्जन्स आदि। परीक्षणात्मक शल्यचिकित्सा (Experimental Surgery) भी वर्तमान युग की एक देन है।
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