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वेलुपिल्लई प्रभाकरण (२६ नवंबर, १९५४-१८ मई, २००९) लिट्टे के नेता था। १९७५ के आसपास लिट्टे के गठन के बाद से वो दुनिया के सबसे ताकतवर गुरिल्ला लड़ाकाओं के प्रमुख के रूप में जाना जाता था। १८ मई २००९ को श्रीलंका की सेना ने उन्हें मारने का दावा किया है।[1]
वेलुपिल्लई प्रभाकरण | |
---|---|
जन्म |
26 नवम्बर 1954 वाल्वेटीथुराई, सीलोन द्वीप[2][3][4] |
मौत |
18 मई 2009 54 वर्ष) मुल्लातीवु, श्रीलंका | (उम्र
मौत की वजह | 18 मई, 2009 को SASF . नामक एक आंदोलन द्वारा उनकी हत्या कर दी गई थी[5] |
राष्ट्रीयता | ईलम तमिल |
पेशा | लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम आंदोलन के नेता |
जीवनसाथी | मतिवातानी (1984–2009) † |
बच्चे |
चार्ल्स एंथनी (1989–2009) †[6] बालचंद्रन (1997–2009) †[8] |
माता-पिता | थिरुवेंगिदम वेलुपिल्लई, पार्वतीयम्मालि |
आपराधिक मुकदमें | 1996 में कोलंबो सेंट्रल बैंक बम विस्फोट |
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प्रभाकरण का जन्म २६ नवम्बर १९५४ को श्रीलंका के जाफना द्वीप के समुद्रतटीय नगर वेलवेत्तिथुरई में हुआ था। वह अपने माता-पिता की चौथी और सबसे छोटी संतान था। प्रभाकरण पढ़ाई में औसत दर्जे का था। बचपन में उसका स्वभाव शर्मीला और किताबों से चिपके रहने वाले बच्चे के रूप में था। श्रीलंका में पृथक ईलम की मांग को लेकर पिछले तीन दशक तक निर्मम आंदोलन चलाने वाला वेलुपिल्लई प्रभाकरण एक पक्का लड़ाका था, लेकिन उसके विरोधी उसे एक ऐसे महत्वाकांक्षी के रूप में देखते थे जिसने असंतुष्टों को कभी सहन नहीं किया। 'थंबी' (छोटा भाई) के रूप में कुख्यात प्रभाकरण एक सरकारी अधिकारी की चौथी संतान था, जिसने बचपन में ही स्कूल छोड़ दिया था।
प्रभाकरण, नेपोलियन व सिंकदर महान से बहुत प्रभावित था और उसने उनकी कई किताबों को पढ़ा था। एक साक्षात्कार में प्रभाकरण ने इसका खुलासा किया था। इनके अलावा प्रभाकरण सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह से भी बहुत प्रभावित था। ये दोनों भारतीय नेता ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हिंसक संघर्ष में विश्वास रखते थे।
राजनीति, रोजगार और शिक्षा में तमिलों के साथ भेद-भाव से आहत प्रभाकरण ने राजनीतिक बैठकों में भाग लेना शुरू किया और मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण प्राप्त किया।। श्री लंका में तमिल हिन्दू ,तमिल मुसलमान और ईसाई जो कि अल्पसंख्यकः है और बौद्ध (सिंहली) बहुसंख्यक रहते हैं। आज तक श्री लंका में तमिल हिन्दुओ को वोट डालने तक का अधिकार नहीं मिला हुआ है। यहाँ तक कि श्री लंका के सविधान में साफ़ तौर पर लिखा है कि तमिल हिन्दू दूसरे दर्जे के नागरिक है। तमिल हिन्दुओ पर अत्याचारो की कोई सीमा नहीं हैं । भयानक रूप से 1983 में सिंहली सरकार की मिलिभगत से सरकार समर्थित सिंहली उग्रपंथियों के साथ मिल कर प्रायोजित रुप से दंगे भडकाये गयें जिसमे़ तमिलो का बेशर्मी से कत्लेआम किया गया होगा, तमिलों की सम्पत्तियों मे आग लगायी गयी,बेहिचक लुटपाट की गई जिसकी पक्की खुफिया खबर भारत-सरकार को अपनी खुफिया एजेंसियों (RAW) द्वारा हुई कि किस प्रकार श्रीलंका सरकार स्वयं ही तमिल जनता के खिलाफ दंगे-फसाद मारकाट मे षडयन्त्रकारी भुमिका निभा रही हैं ! इस हिंसा में उग्रवादी सिंहली संगठन जेवीपी (जनता विमुक्ति पेरुमुना) सरकारी मदद से तमिलो पर अत्याचार करती रही ।
इसी अत्याचार के विरोध में वेल्लुपिल्लै प्रभाकरन ने लिट्टे {लिबरसन टाइगर ऑफ़ तमिल ईलम } की स्थापना की । हिन्दू तमिलो के सामने सिर्फ दो ही रास्ते बच गय थे, एक सिंहलीयों के अत्याचारो का शिकार बनकर बुजदिल कि मौत मरो और दुसरा रास्ता स्वाभिमान के खातिर जान की बाजी लगाकर लड़ते हुए आजादी प्राप्त कर अपने आजाद तमिल-ईलम राष्ट्र की स्थापना कर दों । हिन्दू तमिलो ने दूसरा रास्ता चुना और प्रभाकरन का साथ देते हुए श्री लंका की सिंहली सरकार और सिंहली सेना के साथ युद्ध छेड़ दिया। शुरुवाती दशको में लिट्टे को जबरदस्त कामयाबी मिली और आंशिक रूप से श्री लंका ने हार तक मान ली थी। हिंसा के रास्ते चल पडे प्रभाकरन को भारत के तमिलनाडु राज्य से भारी-भरकम सहायता मिली । जहां भारत सरकार और श्रीलंका सरकार के बीच हुए समझौते को श्रीलंकाई तमिलों के एक तत्कालीन शक्तिशाली उग्रवादी संगठन ईपीआरएलएफ (पदमनाभन) ने मंजुर कर तमिल बहुल वडक्कु माहक्कानम राज्य में वरदराजन पेरुमाल को मुख्यमंत्री मनोनीत कर दिया वही प्रभाकरन का लिट्टे इस समझौते के खिलाफ अड गया और भारत-श्रीलंका समझोते को नकारते हुए तमाम अन्य श्रीलंकाई तमिल संगठनों की तरह ई पी आर एल एफ के मुखिया पदमनाभन को तमिलनाडु के तत्कालिन मद्रास (चैन्नै) में हमला करवा कर मार डाला । इस हमले मे दो महिलाओं सहित छः-सात ई पी आर एल एफ पदाधिकारियों को गोलियो से भून डाला गया ! उस समय ई पी आर एल एफ लिट्टे से भी बडा संगठन था जो कि समझौते मे शामिल हो गया था क्योकि पहले तीन-चार तमिल संगठनो को भारत सरकार (इदिरा गांधी) ने ही तमाम सुविधाये दी थी यहां तक कि उनके लडाको को भारत मे कई स्थानों पर केम्प लगाकर ट्रेनिंग की छुट दी गई ! तब १९९१ मार्च मे लिट्टे के आत्मघाती हमलों से परेशान भारतीय सेना जब वतन-वापसी कर रही थी तब वडक्कु माक्कानम राज्य के नये-नये बने मुख्यमंत्री वरदराजन पेरुमाल भी अपने सुप्रीमों पदमनाभन की प्रभाकरन लिट्टे के हाथों हत्या से खौफ खा कर शांति-सेना के साथ ही अपने परिवार सहित भाग कर भारत आ गये और उनमे प्रभाकरन का इतना भय रहा कि वे परिवार सहित भारत के राजस्थान राज्य में अपने वतन से चार हजार किलोमिटर दूर बीस सालों तक एक तरह से निर्वासित और खुफिया जीवन जीते रहे जब तक कि २००९ मे प्रभाकरन और लिट्टे के खात्मे की खबर नही आई ! २००९ मे बीस साल बाद वे स्वदेश लौटे , ऐसा था प्रभाकरन के डर का आभा मण्डल ! प्रभाकरन और लिट्टे को भले दुनिया सिर्फ श्रीलंकाई तमिलों का संगठन मानती हो मगर इस संगठन के गठन की भुमिका से लेकर संगठन के एक-एक नियम-कानून संरचना समेत तमाम कार्यवाहियों तक की नींव भारत के तमिलनाडु से संचालित होती रही । क्योकि पहले लिट्टे की श्रीलंका मे कोई खास पहचान नही थी और उससे पहले ही बेहत्तर राजनैतिक समझ और मजबूत इच्छाशक्ति के साथ आम तमिलों मे जबरदस्त समर्थन वाले ४-५ संगठन थे जो तमिलो के सक की लडाई बखुबी लड भी रहे थे ! लिट्टे और प्रभाकरन को शुरुआती खादपानी तमिलनाडु मे मिला जहां प्रभाकरन पहले से रह कर श्रीलंका मे अपनी गतिविधिया चला रहा था । तात्कालिक हालात ऐसे थे कि इंदिरा गांधी के नेतृत्ववाली भारत की केन्द्र सरकार से एमजीआर से अच्छे संबंध थे और राज्य मे एमजीआर की सरकार थी । प्रभाकरन का संगठन तब वर्सस्व मे पीछे था और लिट्टे के पास हथियारो तक का टोटा था !तभी लिट्टे के संस्थापक सदस्यों में से एक दिलिपन द्वारा भारतीय शांति सेना के खिलाफ एक सफल अहिंसक आजीवन धरना दिया जिसे जनता मे इतना समर्थन मिला कि लिट्टे बच्चे-बच्चे की जुबान पर स्थापित हो गया । तब से प्रभाकरन को द्रमुक के साथ-साथ एमजीआर द्वारा भी भरपुर तन-मन-धन पुरा सहयोग मिला और एमजीआर के सरकारी सहयोग के कारण ही प्रभाकरन ने इसका उपयोग करते हुए अंतराष्ट्रीय स्तर पर हथियार समेत अन्य सप्लाई संपर्क स्थापित कर लिये और फिर प्रभाकरन ने श्रीलंका के सभी अन्य तमिल उग्रवादी संगठनो को खत्म कर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। उसके बाद प्रभाकरन ने पीछे मुडकर नही देखा और अपने संघर्ष को नयी-नयी ऊंचाइयों तक ले जाते हुए आखिर २००९ मे श्रीलंकाई सेना के हाथो मारा गया ! मगर तमिल प्रजा को न तो अपना स्वयं का तमिलईलम देश ही दिलवा सका न राजीव गांधी श्रीलंका सरकार समझौते के अधिकार ही दिलवा सका और श्रीलंका के हिंदु तमिल लोग आज भी उसी अवस्था मे पुनः पहुच गये हैं जहां से उन्होंने आंदोलनो का रास्ता अख्तियार किया था ! यानी 40 साल तक का तमिल हिंदुओं का संघर्ष पुनः मिट्टी मे मिल गया और आज वे सचमुच ही बहुत-बहुत दुखी और तमाम मानवाधिकारों से वंचित हो कर दोयम दर्जे के ही नागरिक हैं और सिंहली सरकार पर निर्भर हैं । आज भी श्री लंका में तमिल हिन्दुओ कि स्थिति अति दयनीय है।
श्रीलंका के पूर्वोत्तर क्षेत्र में एक छोटे से कस्बे में थंबी का उदय हुआ और तमिलों के लिए अलग 'गृहभूमि' की मांग को पूरा करने के लिए उसने १९७२ में कुछ युवकों के एक समूह के साथ 'तमिल न्यू टाइगर' की शुरुआत की। उसने इस समूह का नेतृत्व किया। १९७५ में इस समूह का नाम बदल कर लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम [लिट्टे] रख दिया गया। यह गुट बदनाम वेल्लिकाडे कारागार नरसंहार के बाद और आक्रामक हो गया। इस नरसंहार में अलगाववादी नेता कुट्टमनि और जगन को सेना ने मार दिया था।
प्रभाकरण के नेतृत्व में विश्व पहले आत्मघाती दस्ते से परिचित हुआ, जिसका शिकार भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी हुए।
प्रभाकरण की पहचान एक निर्भीक छापामार लड़ाके के रूप में थी। हमेशा असलहों व वर्दी से लैस रहने वाला प्रभाकरण शीघ्र ही तमिल विद्रोहियों का प्रेरणास्रोत बन कर उभरा।
समर्थकों के लिए स्वतंत्रता सेनानी तथा अन्य लोगों के लिए दुर्दात लड़ाके के रूप में कुख्यात प्रभाकरण आतंकवाद, हत्या और संगठित अपराध के लिए १९९० से इंटरपोल और अन्य संगठनों को वांछित था।
प्रभाकरण स्वयं वार्ता की मेज पर बात करने की बजाए युद्धक्षेत्र में होना पसंद करता था, इसीलिए जब नार्वे की मध्यस्थता में वर्ष २००२ में संघर्ष विराम हुआ तो इसका उपयोग प्रभाकरण ने लिट्टे को संगठित करने के लिए किया। परंतु संघर्ष विराम टिकाऊ साबित नहीं हुआ और वर्ष २००३ से वर्ष २००८ के बीच प्रभाकरण को कई झटके लगे। वर्ष २००४ में कभी प्रभाकरण का दाहिना हाथ माने जाने वाले कर्नल करुणा उससे अलग हो गया। दो वर्ष बाद एलटीटीई की राजनीतिक शाखा के प्रमुख एंटन बालासिंघम की लंदन में मृत्यु हो गई। बालासिंघम कैंसर से पीड़ित था। नवंबर २००७ में सेना की बमबारी में वरिष्ठ तमिल विद्रोही नेता एसपी तमिलचेल्वम मारा गया।
बहुसंख्यक सिंहली शासन के विरुद्ध लड़ाई लड़े रहे प्रभाकरण को तमिल, स्वतंत्रता सेनानी मानते थे, वहीं दूसरी ओर श्रीलंकाई सरकार और सेना उसे एक क्रूर हत्यारा मानती थी, जिसके लिए मानव जीवन का कोई मूल्य नहीं था। वर्ष १९७५ में उन पर जाफना के मेयर की हत्या का आरोप लगा। तमिल विद्रोहियों की ओर से ये पहली बड़ी कार्रवाई थी।
तमिल ईलम के संघर्ष में अनेक सिंहली और तमिल नेताओं समेत ७० हजार से अधिक लोगों ने प्राण गँवाए गई। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी इसी आतंकवाद की भेंट चढ़ गए। प्रभाकरण सिंहली नेताओं राष्ट्रपति प्रेमदास, दामिनी दिशानायके [यूएनपी के राष्ट्रपति पद उम्मीदवार] और रंजन विजयरत्ने तथा उदारवादी तमिल नेताओं अप्पापिल्लई, अमिरतालिंगम, योगेश्वरन और उनकी पत्नी तथा विदेश मंत्री लक्षमण कादिरगामर की हत्या का उत्तरदायी था। उसने अपने लड़कों को भी नहीं छोड़ा। इसमें पीएलओटीई नेता उमा महेश्वरन, टीईएलओ के सिरी सबरतिनम, ईपीआरएलएफ के पद्मनाभ और चेन्नई के उसके १४ सहयोगियों के अतिरिक्त लिट्टे का असंतुष्ट नेता मथैया भी शामिल है।
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