Remove ads
विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
वेदांग ज्योतिष ज्योतिष के प्राचीन ग्रन्थ हैं। ज्योतिष, वेद के छः अङ्गों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्द) में से एक है। वर्तमान समय में 'वेदांग ज्योतिष' के नाम से तीन ग्रन्थ माने जा सकते हैं, पहला- ऋग्वेदाङ्गज्योतिष, दूसरा- यजुर्वेदाङ्गज्योतिष और तीसरा अथर्ववेदाङ्गज्योतिष।
वेदांगज्योतिष कालविज्ञापक शास्त्र है। माना जाता है कि ठीक तिथि नक्षत्र पर किये गये यज्ञादि कार्य फल देते हैं अन्यथा नहीं। कहा गया है कि-
चारो वेदों के पृथक् पृथक् ज्योतिषशास्त्र थे। उनमें से सामवेद का ज्यौतिषशास्त्र अप्राप्य है, शेष तीन वेदों के ज्यौतिष शास्त्र प्राप्त होते हैं।
इनमें ऋक् और यजुः ज्याेतिषाें के प्रणेता लगध नामक आचार्य हैं। अथर्व ज्याेतिष के प्रणेता का पता नहीं है। सामवेद ज्योतिष नाम का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि सामवेद और अथर्ववेद दोनों के लिए अथर्ववेद ज्योतिष नाम का ग्रन्थ ही है। ऋग्वेद ज्योतिष और यजुर्वेद ज्योतिष में लगभग साठ-सत्तर प्रतिशत साम्य है। तीस से चालीस प्रतिशत श्लोकों में भिन्नता है।
पीछे सिद्धान्त ज्याेतिष काल मेें ज्याेतिषशास्त्र के तीन स्कन्ध माने गए- सिद्धान्त, संहिता और होरा। इसीलिये इसे ज्योतिषशास्त्र को 'त्रिस्कन्ध' कहा जाता है। कहा गया है –
वेदांगज्याेतिष, सिद्धान्त ज्याेतिष है, जिसमें सूर्य तथा चन्द्र की गति का गणित है। वेदांगज्योतिष में गणित के महत्त्व का प्रतिपादन इन शब्दों में किया गया है-
इससे यह भी प्रकट होता है कि उस समय 'गणित' और 'ज्योतिष' समानार्थी शब्द थे ।[1]
वेदांगज्याेतिष में वेदाें जैसा (शुक्लयजुर्वेद २७।४५, ३०।१५) ही पाँच वर्षाें का एक युग माना गया है (याजुष वेदाङ्गज्याेयोतिष ५)। वर्षारम्भ उत्तरायण, शिशिर ऋतु और माघ अथवा तपस् महीने से माना गया है (याजुष वे.ज्याे. ६)। युग के पाँच वर्षाें के नाम- संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर और वत्सर हैं। अयन दाे हैं- उदगयन और दक्षिणायन। ऋतु छः हैं- शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् और हेमन्त। महीने बारह माने गए हैं - तपः (माघ), तपस्य (फाल्गुन), मधु (चैत्र), माधव (वैशाख), शुक्र (ज्येष्ठ), शुचि (आषाढ), नभः (श्रावण), नभस्य (भाद्र), इष (आश्विन), उर्ज (कार्तिक), सहः (मार्गशीर्ष) और सहस्य (पाैष)। महीने शुक्लादि कृष्णान्त हैं। अधिकमास शुचिमास अर्थात् आषाढमास में तथा सहस्यमास अर्थात् पाैष में ही पड़ता है, अन्य मासाें में नहीं। पक्ष दाे हैं- शुक्ल और कृष्ण। तिथि शुक्लपक्ष में १५ और कृष्णपक्ष में १५ माने गए हैं। तिथिक्षय केवल चतुर्दशी में माना गया है। तिथिवृद्धि नहीं मानी गई है। १५ मुहूर्ताें का दिन और १५ मुहूर्ताें की रात्रि माने गये हैं।
यजुर्वेद के ज्योतिष के चार संस्कृत भाष्य तथा व्याख्या भी प्राप्त होते हैं:
वेदांगज्याेतिष के अर्थ की खाेज में जनार्दन बालाजी माेडक, शंकर बालकृष्ण दीक्षित, लाला छाेटेलाल बार्हस्पत्य, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक का भी याेगदान है।
टीकाकार सोमाकर के काल के विषय में पता नहीं चल पाया है। सोमाकर की दो विस्तृत टीकाएँ हैं- एक बृहत् टीका है और दूसरी सङ्क्षिप्त टीका है। विस्तृत टीका के आदि में उनका उल्लेख है और अन्त में "शेषकृत वेदाङ्ग ज्योतिष समाप्त" ऐसा लिखा है। सोमाकर की दूसरी टीका पहली टीका का ही एक संक्षिप्त रूप प्रतीत होता है, उसमें आरम्भ में सोमाकर का उल्लेख भी है और अन्त में शेषकृत पद भी नहीं है। सोमाकर की टीका में कोई विशेष विचार नहीं किया गया है। कुछ श्लोक सरल हैं, उनके अर्थ सोमाकर ने लिखे और कुछ श्लोकों के अर्थ कठिन हैं, उन्हें छोड़ दिए।
ज्योतिष शास्त्र के अन्य विद्वानों ने भी वेदाङ्गज्योतिष के विषय में विचार नहीं किया, यह एक अलग प्रकार का ग्रन्थ है, इसलिए अन्य ग्रन्थों में भी इसका सन्दर्भ नहीं देखा गया। प्राचीन होने के कारण ज्योतिष शास्त्र के इतिहास की दृष्टि से वेदाङ्गज्योतिष का विचार अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
प्रोफेसर थीबो ने ज्योतिष शास्त्र पर विचार करने के समय वेदाङ्गज्योतिष को महत्व दिया और उनका अंग्रेजी अनुवाद किया। यह 1879-80 की घटना है। प्रोफेसर थीबो ने अपने अंग्रेजी अनुवाद में सोमाकर से अधिक लोगों की ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से व्याख्या लिखी। शङ्करवालकृषण दीक्षित के अनुसार कैलाशवासी कृष्णशास्त्री गोडबोले ने भी इसकी व्याख्या लिखने का प्रयास किया था, लेकिन सोमाकर और प्रोफेसर थीबो के द्वारा लिखी गई व्याख्या के अतिरिक्त उन्होंने अधिक श्लोकों की व्याख्या नहीं की। कैलाशवासी जनार्दन बालाजी मोडक ने भी 1825 ईस्वी में ऋग् ज्योतिष और यजुर्वेद ज्योतिष का मराठी अनुवाद कर प्रकाशित करवाया। उन्होंने उपरिलिखित विद्वानों द्वारा की गई व्याख्याओं के अतिरिक्त भी कुछ विचार प्रस्तुत किये और उसके बाद शङ्करवालकृष्ण दीक्षित जी ने सात-आठ अधिक श्लोकों की व्याख्या की।[2]
आजकल वेदाध्यायी ब्राह्मण केवल ऋग्वेद ज्योतिष का पाठ वेदाङ्गज्योतिष के रूप में करते हैं। यजुर्वेदाङ्गज्योतिष का और अथर्ववेदाङ्गज्योतिष का पाठ वेदाङ्ग के रूप में करने की परम्परा प्रायः नहीं है।
वेदाङ्गज्योतिष में "कालज्ञानं प्रवक्ष्यामि लगधस्य महात्मनः" लिखा है। पाश्चात्य विद्वान् लगध को लगढ और कोई कोई लाट भी कहते हैं। लगध के विषय में कुछ कहना तो कठिन है, लेकिन लगढ को लाट कहना काल की दृष्टि से सर्वथा अनुचित है, क्योंकि लाट का समय इस्वी सन् के बाद 5वीं शताब्दी है। ऋग्वेदाङ्ग ज्योतिष में पञ्चवर्षात्मक युग के पाँचों संवत्सरों के नामों का उल्लेख न होना आश्चर्य की बात है। लेकिन सोमाकर ने आठवें श्लोक की व्याख्या में गर्ग के वचन का उल्लेख किया है जिसमें पञ्चसंवत्सरात्मक युग का थोड़ा वर्णन है। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में संवत्सरों के नाम और उनके अधिपति लिखे हैं, जो गर्ग के द्वारा लिखे हुए अधिपतियों से कुछ भिन्न हैं। गर्ग ने इद्वत्सर का स्वामी मृत्यु को माना है जबकि वराह मिहिर ने इद्वत्सर का स्वामी रुद्र को माना है।
करण ग्रन्थों के प्रारम्भ में जैसे सर्वप्रथम अहर्गण साधन करते हैं, उसी प्रकार यहाँ पर्वगण साधन किया गया है। इसमें दो पर्व बराबर एक चान्द्रमास माना गया है और इन चान्द्रमासों के बाद एक अधिमास की बात कही गई है।
वेदांग ज्योतिष में वज्र गुणन नियम (Rule of three) देखिये-
Seamless Wikipedia browsing. On steroids.
Every time you click a link to Wikipedia, Wiktionary or Wikiquote in your browser's search results, it will show the modern Wikiwand interface.
Wikiwand extension is a five stars, simple, with minimum permission required to keep your browsing private, safe and transparent.