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जैन कवि विमलदेव सूरि जैन रामकथा के आदि कवि के रूप में प्रख्यात हैं। प्राकृत भाषा में रचित इनकी रचना पउम चरियं जैन रामकथा का आदि काव्य माना जाता है।
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जैन पुराण की परंपरा लगभग विक्रम की तीसरी सदी से मानी गयी है। इस प्रकार का सर्वप्रथम काव्य विमलदेव सूरि के पउमचरियं को माना गया है।[1] यह प्राकृत में रचित महाकाव्य है, जिसमें पद्मप्रभ अर्थात् रामचन्द्र की कथा वर्णित है।
विमल सूरि ने अपनी कृति की समाप्ति का समय विक्रम संवत् ६० में सूचित किया है, जिसे डॉ० विंटरनिट्ज सही मानते हैं, किंतु अन्य बहुत से विद्वान उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। जर्मन विद्वान् डॉक० हर्मन जैकोबी ने इस ग्रंथ का सर्वप्रथम संपादन किया था और इसके संपादकीय में अपना यह मत प्रकट किया था कि इस ग्रंथ में प्राकृत भाषा का जो स्वरूप प्रकट हुआ है तथा उसमें कहीं-कहीं जिन विशेष शब्दों का प्रयोग हुआ है उससे यह रचना विक्रम की प्रथम शताब्दी की नहीं बल्कि उसकी तीसरी-चौथी शताब्दी की प्रतीत होती है। इसी प्रकार डॉ० वुलनर के मतानुसार यह ग्रंथ अपनी कुछ शब्द-रचना से अपभ्रंश काल को संकेतित करता है। इस ग्रंथ के छंदों का अध्ययन करने वाले विद्वान् पंडित केशवलाल ध्रुव का मत भी डॉ० वुलनर के मत की तरह ही है। तात्पर्य यह है कि कवि विमल सूरि रचित काव्य के रचनाकाल के संबंध में संदेह और विवाद है। कुवलयमाला के रचयिता उद्योतन सूरि ने अपनी रचना में आचार्य रविषेण तथा पउमचरियं का भी उल्लेख किया है। कुवलयमाला विक्रम संवत् ८३५में पूर्ण हुई थी। इसलिए निश्चित तौर पर यह ज्ञात होता है कि पउमचरियं विक्रम संवत ८३५ से पहले की रचना है।
आचार्य रविषेण रचित पद्मपुराण तथा विमल सूरि रचित पउमचरियं का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले विद्वानों के मत में भी विवाद रहा है परंतु पंडित नाथूराम प्रेमी तथा हीरालाल जैन जैसे विद्वान पउमचरियं को ही मूल ग्रंथ मानते हैं तथा यह मत प्रकट करते हैं कि आचार्य रविषेण ने इस प्राकृत ग्रंथ का ही पद्मपुराण के रूप में पल्लवित अनुवाद किया है।[2]
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