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विधुत ऊर्जा का जल, वायु, गैस या किसी ईंधन ( जैसे - कोयला, तेल, नाभिकीय पदार्थ इत्यादि) को जलाकर उत्पाद विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
उर्जा के अन्य स्रोतों से विद्युत शक्ति का निर्माण विद्युत उत्पादन कहलाता है। व्यावहारिक रूप में विद्युत् शक्ति का उत्पादन, विद्युत् जनित्रों (generators) द्वारा किया जाता है। विद्युत उत्पादन के मूलभूत सिद्धान्त की खोज अंग्रेज वैज्ञानिक माइकेल फैराडे ने 1820 के दशक के दौरान एवं 1830 के दशक के आरम्भिक काल में किया था। तार की एक कुण्डली को किसी चुम्बकीय क्षेत्र में घुमाकर विद्युत उत्पन्न करने की माइकेल फैराडे की मूल विधि आज भी उसी रूप में प्रयुक्त होती है।
विद्युत का उत्पादन जहाँ किया जाता है उसे बिजलीघर कहते हैं। बिजलीघरों में विद्युत-यांत्रिक जनित्रों के द्वारा बिजली पैदा की जाती है जिसे किसी किसी अन्य युक्ति से घुमाया जाता है, इसे मुख्यघूर्णक या प्रधान चालक (प्राइम मूवर) कहते हैं। प्राइम मूवर के लिये जल टर्बाइन, वाष्प टर्बाइन या गैस टर्बाइन हो सकती है। विद्युत शक्ति, जल से, कोयले आदि की उष्मा से, नाभिकीय अभिक्रियाओं से, पवन शक्ति से एवं अन्य कई विधियों से पैदा की जाती है।
विद्युत् शक्ति के लिए, वस्तुत:, तीन संघटक आवश्यक हैं :
(1) चालक, जो व्यावहारिक रूप में एक निर्धारित व्यवस्था के अनुसार योजित संवाहक समूह होता है,
(2) चुंबकीय क्षेत्र, व्यावहारिक रूप में एक कुंडली में विद्युत् धारा प्रवाहित करके प्राप्त किया जाता है और
(3) चालक समूह को चुंबकीय क्षेत्र में घुमाने की व्यवस्था, जिसका तात्पर्य है यांत्रिक ऊर्जा का प्रावधान।
वस्तुत:, यही यांत्रिक ऊर्जा, विद्युत् ऊर्जा के रूप में परिवर्तित होती है और ऊर्जा अविनाशिता नियम का प्रतिपादन करती है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर किसी भी विद्युत् जनित्र के तीन मुख्य अवयव होते हैं :
1. चालकों को धारण करनेवाले आर्मेचर (armature) की, जो सामन्यत: नरम लोहे के पटलित स्तरों का बना होता है, परिधि के चारों ओर खाँचे बने होते हैं, जिनमें चालन कुंडलियाँ रखी जाती हैं। चालकों को एक निश्चित व्यवस्था के अनुसार योजित किया जाता है, जिसे आर्मेचर कुंडलन (Armature winding) कहते हैं।
2. क्षेत्र कुंडली - इसमें धारा के प्रवाहित होने पर चुंबकीय क्षेत्र की उत्पत्ति होती है।
3. यांत्रिक शक्ति का संभारक - यह साधारणतया एक प्रधान चालक होता है। यह जल का टरबाइन, भाप का टरबाइन, भाप का इंजन, अथवा डीजल इंजन में से कोई भी हो सकता है।
धारा के प्ररूप के अनुसार विद्युत् जनित्र, मुख्यत:, दो प्ररूप के होते हैं : दिष्ट धारा जनित्र (D.C. generator) और प्रत्यावर्ती धारा जनित्र (A.C. generator)। यद्यपि मूलत: दोनों के मूल सिद्धांत एक ही होते हैं, परंतु बनावट के दृष्टिकोण से उनमें काफी अंतर होता है। दिष्ट धारा जनित्र में चुंबकीय क्षेत्र अचल क्षेत्र कुंडलियों द्वारा उत्पन्न किया जाता है और आर्मेचर पर आरोपित चालक तंत्र घूर्णन करता है। इस प्रकार, चुंबकीय अभिवाह को काटने से उसमें एक वोल्टता जनित होती है। वस्तुत:, वोल्टता के जनन के लिए यह आवश्यक नहीं कि चालक में ही गति हो। यह भी हो सकता है कि चालकतंत्र स्थिर हो और चुंबकीय अभिवा उनको काटता हुआ जाएगा इसका तात्पर्य यह है कि चुंबकीय क्षेत्र गतिशील हो और चालक अपने स्थान पर ही रहे। किसी भी प्रकार से चालक तथा चुंबकीय क्षेत्र में आपेक्षिक गति होना आवश्यक है, जिससे चालक में वोल्टता जनित हो सके। वस्तुत:, दोनों विधियाँ ही व्यावहारिक है और प्रत्यावर्ती धरा जनित्रों में, जिन्हें प्रत्यावर्तित्र (Alternator) भी कहते हैं, चालक समूह अचल होता है और उसे स्टैटर (Stator) कहते हैं। चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करनेवाले ध्रुव और कुंडली घूर्णी भाग होते हैं और उन्हें रोटर (Rotor) कहते हैं। आर्मेचर को अचल रखने का मुख्य लाभ यह है कि इस प्रकार सापेक्षतया उच्चतर वोल्टता जनित की जा सकती है। उच्च वोल्टता जनन के लिए या तो चालक की संख्या बढ़ानी पड़ती है, अथवा घूर्णनवेग, या दोनों ही। चालक की संख्या बढ़ाने से आर्मेचर का आकार बहुत बढ़ जाता है और उसके घूर्णी भाग होने के कारण अपकेंद्री बल इतना बढ़ जाएगा कि संरचना के दृष्टिकोण से चालकों को अपने स्थानों पर स्थिर रखना भी एक समस्या हो जाएगी। बड़े आकार के घूर्णी भाग बनावट के दृष्टिकोण से उपयुक्त नहीं होते और न उनका वेग ही बहुत अधिक बढ़ाया जा सकता है। अत:, घूर्णी आर्मेचर वाले जनित्रों में उच्च वोल्टता जनित करना परिसीमित हो जाता है, परंतु यदि अचल हो, तो उसका आकार भी बड़ा बनाया जा सकता है और अपकेंद्री बल का भी प्रश्न नहीं उठता। साथ ही जनित धारा को स्थिर संस्पर्शकों (contacts) से ले जाना होता है, जो बहुत सुगम हो जाता है। घूर्णी आर्मेचरों में जनित धारा को कूर्चो द्वारा ही बाहरी परिपथ में ले जाया जा सकता है। क्षेत्र के रोटर होने में समस्या इतनी जटिल नहीं होती, क्योंकि उसमें प्रवाहित होनेवाली उत्तेजक धारा (exciting current), सापेक्षतया, बहुत कम होती है। उत्तेजन केवल दिष्ट धारा से ही संभव है और प्रत्यावर्ती धारा जनित्रों में क्षेत्र उत्तेजन के लिए दिष्ट धारा संभारक का होना आवश्यक है, जो सामान्यत: इसी शैफ़्ट (shaft) पर आरोपित एक छोटे से दिष्ट धारा जनित्र द्वारा, जिसे उत्तेजक (exciter) कहते हैं, प्रावधान किया जाता है।
आर्मेचर चालकों में चुंबकीय क्षेत्र के सापेक्ष, आपेक्षिक गति के कारण जनित होनेवाली वोल्टता, वस्तुत: प्रत्यावर्ती प्ररूप की होती है। किसी भी क्षण पर इसका परिमाण चुंबकीय क्षेत्र के चालकों की सापेक्ष स्थिति पर निर्भर करता है। दिष्ट धारा जनित्र के आर्मेचर में भी इसी प्रकार की वोल्टता प्रेरित होती है, पर एक दिक्परिवर्तक (commutator) द्वारा उसे बाहरी परिपथ में अदिष्ट धारा के रूप में प्राप्त किया जाता है। दिक् परिवर्तक आर्मेचर के साथ उसी ईषा (shaft), पर आरोपित होता है और आर्मेचर चालक निश्चित व्यवस्था के अनुसार उसके ताम्र खंडों (copper segments) से योजित होते हैं। धारा के दिक्परिवर्तक से बाहरी परिपथ में ले जाने के लिए बुरुशों (brushes) का प्रावधान होता है, जो साधारणतया कार्बन के होते हैं और बुरुश धारक (brush holder) में लगे होते हैं।
जहाँ तक यांत्रिक शक्ति का प्रश्न है, वह चाहे तो किसी टरबाइन से अथवा इंजन से प्राप्त की जा सकती है, या नदी के बहते हुए पानी से, जिसमें असीम शक्ति का भंडार निहित है। प्रयत्न तो किया जा रहा है कि समुद्र के ज्वार भाटे में निहित ऊर्जा को तथा ज्वालामुखी पर्वतों में छिपी हुई असमी शक्ति के भंडारों को भी काम में लाया जाए। परमाण्वीय शक्ति का उपयोग तो विद्युत् उत्पादन के लिए शीघ्रता से बढ़ रहा है और बहुत से बड़े बड़े परमाण्वीय बिजलीघर बनाए गए हैं, परंतु अभी तक, मुख्यत:, तीन प्रकार के बिजली घर ही सामान्य हैं : पन, भाप एवं डीज़ल इंजन चालित।
पनबिजलीघर ऐसे स्थानों में बनाए जाते हैं जहाँ किसी नदी में सुगमतापूर्वक बाँध बाँधकर पर्याप्त जल एकत्रित किया जा सके और उसे आवश्यकतानुसार ऊँचाई से नलों द्वारा गिराकर जल टरबाइन चलाए जा सकें। ये टरबाइन, विद्युत जनित्रों के प्रधान चालक होते हैं। पर्वतो से बहनेवाली नदियों में असीम जलशक्ति निहित होती है। ऐसे बिजलीघर बनाने के लिए पहले सारे क्षेत्र का सर्वेक्षण किया जाता है और सबसे उपयुक्त ऐसा स्थान खोजा जाता है जहाँ न्यूनतम परिश्रम और लागत से यथासंभव बड़ा बाँध बनाया जा सके। ऐसे बिजलीघरों की लागत बहुत अधिक होती है, पर उनका प्रचालन व्यय (operating cost) बहुत कम होता है। ऐसे बिजलीघरों की स्थापना, मुख्यत:, उपयुक्त स्थान पर निर्भर करती है। यह हो सकता है कि ये बिजलीघर उद्योग स्थल से बहुत दूर हों। ऐसी दशा में बहुत लंबी संचरण लाइनें भी बनानी पड़ सकती हैं। अतएव ऐसे बिजलीघरों के निर्माण का अर्थऔचित्य सिद्ध करने के लिए संचरण दूरी तथा उसकी सज्जा का विचार रखना भी आवश्यक है।
भाप चालित बिजलीघरों में भाप से चलनेवाले टरबाइन होते हैं। भाप इंजनों का उपयोग तो अब व्यावहारिक रूप में पुरानी बात हो गई है। भाप टरबाइन, साधारणतया, उच्च वेग पर चालन करते हैं और संतत प्रचालन के लिए बनाए जाते हैं। अधिकांश टरबाइनों में उच्च दबाव पर भाप प्रयुक्त की जाती है, जिसके लिए उच्च दबाव के वाष्पित्र (boilers) की आवश्यकता होती है। 600 पाउंड प्रति वर्ग इंच का दबाव अब सामान्य हो गया है और आधुनिक टरबाइन तो इससे भी अधिक दबाव पर प्रचालन करने के लिए बनाए जा रहे हैं। टरबाइन भी अब इस क्षेत्र में सफलतापूर्वक प्रयुक्त होने लगे हैं। टरबाइन की रचना में नित्य नए शोध हो रहे हैं जिससे भाप चालित बिजलीघरों की दक्षता और भी अधिक बढ़ाई जा सके।
आजकल परमाण्वीय बिजलीघरों की स्थापना में अधिक ध्यान दिया जा रहा है। परमाण्वीय बिजलीघर बहुत से देशों में बनाए गए हैं और उनकी बड़ी बड़ी योजनाएँ बनाई जा रही हैं। ब्रिटेन, अमरीका तथा रूस में पिछले 10 वर्षों में बहुत बड़े बड़े परमाण्वीय बिजलीघर बनाए गए हैं और बहुत से बनाए जा रहे हैं। इनका मुख्य लाभ यह है कि ये भार केंद्रो के सन्निकट बनाए जा सकते हैं, जिससे लंबी संचरण लाइनों की आवश्यकता नहीं रहती। इसके अतिरिक्त, ईंधन की मात्रा अत्यंत कम होने के कारण, परिवहन व्यय तथा उसकी समस्या नहीं रहती। परंतु इनका प्रतिष्ठापन व्यय सापेक्षतया अधिक होता है और फिर इनकी प्रचालन प्रणाली अभी तक शोध का विषय है। प्रणालियों में नित्य नए अनुसंधान के कारण इनकी स्थापना का निश्चय बहुत ही विवादास्पद है। जो प्रणाली आज से पाँच साल पहले अपनाई जाती थी, वह अब गई बीती बात हो चुकी है। दूसरे, इन्हें केवल बड़े रूप में बनाना ही आर्थिक तथा प्राविधिक रूप से उचित हो सकता है। उत्पादित की गई सारी शक्ति का उपयोग उसी स्थल पर हो जाना साधारणतया संभव नहीं होता। यह अवश्य महत्वपूर्ण है कि शक्ति के दूसरे स्रोत निरंतर समाप्त होते जा रहे हैं, अथवा कहा जा सकता है कि उनमें से अधिकांश अंतत: समाप्त होने को हैं। अनुमान के अनुसार यदि संसार में कोयले की खपत इसी प्रकार होती रही, तो वर्तमान कोयले की खानें संसार को अधिकतम 200 वर्ष तक कोयला देती रह सकती हैं। इसी प्रकार तेल की उत्पत्ति के विषय में भी कहा जा सकता है। जलविद्युत् भंडार अवय ही समाप्त होनेवाला नहीं है, परंतु ये भंडार सामान्यत: उपयोग स्थलों से बहुत दूर हैं। उदाहरणत:, ब्रह्मपुत्र नदी के जल में, भारत की सीमा में प्रवेश करने के स्थल पर, लगभग 35 लाख किवा. शक्ति की क्षमता है। पर प्रथम तो वहाँ बिजलीघर की स्थापना करना इतना सुगम नहीं और दूसरे यह स्थान उपयोग स्थलों से लगभग 500 मील दूर है। भारत में लगभग 40व्109 टन कोयला होने का अनुमान है और जलविद्युत् शक्ति, जिसका उपलब्ध होना संभव है, लगभग 40व्106 किवा. है। ये आँकड़े काफी आशापद प्रतीत होते हैं, परंतु यदि हमारा स्तर भी अमरीका तथा दूसरे गतिशील देशों के समान हो और प्रति मनुष्य उतन ही विद्युत् की खपत हो, तो इतनी शक्ति भी हमारे लिए बहुत अपर्याप्त होगी। ऐसी दशा में यह स्वाभाविक है कि परमाण्वीय शक्ति का उपयोग किया जाए।
छोटे नगरों, अथवा छोटे उद्योगों के वैयक्तिक संभरणों, के लिए डीज़ल इंजनों का भी उपयोग किया जाता है। ये सेट अधिकतर कम क्षमता के होते हैं। ये पनबिजलीघरों एवं तापीय बिजलीघरों (कोयले का प्रयोग करनेवाले) की तरह बड़े आकारों में नहीं बनाए जा सकते तथा इनसे उत्पादित विद्युत् शक्ति का प्रति यूनिट मूल्य भी सापेक्षतया कहीं अधिक होता है, परंतु छोटे संभरणों के लिए वे बहुत ही उपयोगी होते हैं। इन्हें आसानी से चलाया जा सकता है और कुछ ही मिनटों में भार लेने के अनुकूल हो जाते हैं। इस कारण ये अतिरिक्त (standby) संचायक के रूप में बहुत उपयोगी होते हैं। डीज़ल चालित बिजलीघरों को भी, जो आर्थिक रूप से मँहगे होने के कारण बंद कर दिए गए हैं, अतिरिक्त संचायक के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है।
डीज़ल इंजन का स्थान आजकल गैस टरबाइन ले रहा है। गैस टरबाइन की दक्षता इनकी अपेक्षा कहीं अधिक होती है और वे बड़े आकारों में भी निर्मित किए जा सकते हैं, परंतु वे बहुत अधिक ताप एवं दबाव पर प्रचालन करते हैं। अधिक दक्षता के लिए और भी ऊँचे ताप पर प्रचालन करना आवश्यक है और अभी ऐसे पदार्थों का निर्माण संभव नहीं हो पाया है जिनका उपयोग गैस टरबाइनों के निर्माण में व्यावहारिक रूप से किया जा सके। अत: गैस टरबाइन विद्युत्शक्ति के उत्पादन में बहुत सामान्य नहीं हो पाया है।
प्रकृति में विद्युत्शक्ति के असीम साधन विद्यमान हैं। उपर्युक्त जाने माने साधनों के अतिरिक्त, कुछ ऐसे साधन भी हैं जिनकी ओर पिछले ५० वर्षों में ही मनुष्य का ध्यान आकर्षित हुआ है। समुद्र के ज्वार-भाटे में अपरिमित शक्ति विद्यमान है। फ्रांस एवं ब्रिटेन में इस शक्ति का भी विद्युत् उत्पादन के लिए उपयोग किया गया है। समुद्री ज्वार के समय नदी के मुहाने की ओर बढ़ते हुए पानी को एक ओर खुलनेवाले बाँध द्वारा घिरे जलाशय में भर लिया जाता है। ज्वार के समय जलाशय में पानी भर जाने के बाद, भाटे के समय, वह समुद्र में वापस नहीं जाने दिया जाता। फिर तो इस जलाशय के पानी का कम ऊँचे शीर्षवाले बिजलीघर की भाँति ही जलविद्युत् जनन के लिए उपयोग किया जा सकता है। ऐसे बिजलीघरों में नलिकाएँ एवं टरबाइन का रनर ऐसी धातु, सामान्यत: काँसा (bronze), का होना चाहिए जिसपर समुद्र का खारा पानी रासायनिक प्रतिक्रिया न कर सके। भारत में भी ज्वार भाटा बिजलीघर बनाने की योजना बनाई जा रही है और अगले 20 वर्षों में ऐसे बिजलीघरों के सामान्य हो जाने का सहल ही अनुमान किया जा सकता है।
भूतापीय उर्जा: शक्ति का दूसरा असीम साधन ज्वालामुखी पर्वतों के अंतस्तल में निहित भयंकर ताप है। यदि इस अंतस्तल को छेदकर उसकी गरम गैस का बिजलीघर के वाष्पित्रों में प्रयुक्त किया जा सके, तो सहज ही अपरिमित शक्ति का भंडार खुल जाएगा। न्यूज़ीलैंड में ऐसे बिजलीघर को क्रियात्मक रूप दिया गया है। वहाँ 30 ग्.ज़्. का एक बिजलीघर ज्वालामुखी की शक्ति का उपयोग कर रहा है। इटली एवं जापान में भी ऐसे बिजलीघरों की योजना बनाई जा रही है और इस प्रकार अभी तक जो ज्वालामुखी अपनी भयंकरता के लिए ही प्रसिद्ध थे, अब उपयोगिता के क्षेत्र में भी अग्रगण्य हो जाएँगे।
सौर उर्जा: सूर्य भी विद्युत्शक्ति का असीम साधन है। अभीतक तो केवल प्रयोगात्मक रूप में ही इसे विद्युत्शक्ति के उत्पादन के लिए प्रयोग किया गया है, परंतु सहारा एवं अरब के रेगिस्तानों की चिलचिलाती धूप में सौर बिजलीघर बनाने की योजनाएँ बनाई जा रही है और आशा की जा सकती है कि यह भविष्य में सबसे महत्वपूर्ण साधन बन जाएँगे।
पवन उर्जा: हवा का उपयोग अभी तक केवल चक्की चलाने एवं कुएँ से पानी निकालने के लिए ही हुआ है। परंतु जर्मनी एवं हॉलैंड के कुछ दूरस्थ इलाको में इसका उपयोग छोटे जनित्र का चलाने के लिए भी किया गया है, जिससे विद्युत्शक्ति उत्पन्न हो सकती है। हवा के बहने की अनिश्चितता के कारण, इसका उपयोग सामान्य नहीं हो पाया है, परंतु दूरस्थ इलाको के लिए हवा से चलनेवाले छोटे सयंत्र उपयोगी हो सकते हैं।
वस्तुत: बिजली की माँग दिनो दिन बढ़ती जा रही है और मनुष्य को नित्य नए साधनों की खोज है, जिससे इस बढ़ती हुई माँग का पूरा किया जा सके।
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