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बैरागियों के चार संप्रदाय में से एक वल्लभ सम्प्रदाय के संस्थापक विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
वल्लभाचार्य महाप्रभु (1479-1531 CE), जिन्हें वल्लभ, महाप्रभु, महाप्रभुजी और विष्णुस्वामी या वल्लभ आचार्य के नाम से भी जाना जाता है, भगवान कृष्ण के अवतार हैं, एक हिंदू भारतीय संत और दार्शनिक भी हैं जिन्होंने ब्रज में वैष्णववाद के कृष्ण-केंद्रित पुष्टिमार्ग थी , और शुद्ध अद्वैत (शुद्ध गैर-द्वैतवाद) का वेदांत दर्शन संप्रदाय की स्थापना की । आप वैश्वानर अग्नि स्वरूप है। आप वेदशास्त्र में पारंगत थे। वर्तमान में इसे वल्लभसम्प्रदाय या पुष्टिमार्ग सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।[1][2]
श्री वल्लभाचार्य जी महाप्रभु | |
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जन्म |
27 अप्रैल 1479 चम्पारण्य |
मृत्यु |
26 जून 1531 (आयु 52) बनारस (इस समय उत्तर प्रदेश में है) |
धर्म | हिन्दू |
दर्शन | शुद्धाद्वैत, पुष्टिमार्ग |
आप सम्पूर्ण सनातन हिन्दु धर्म के जगद्गुरु आचार्य और पुष्टिमार्ग वल्लभ संप्रदाय भक्ति परंपरा और शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद (वेदांत दर्शन) के जगद्गुरु आचार्य और संस्थापक हैं, जिसकी स्थापना उन्होंने वेदांत दर्शन की अपनी व्याख्या के बाद की थी। आप वेदव्यास विष्णुस्वामी संप्रदाय के जगद्गुरु आचार्य हैं,[2] और चार पारंपरिक वैष्णव संप्रदायों में से रुद्र संप्रदाय के प्रमुख जगद्गुरु आचार्य हैं।[3][4]
वल्लभाचार्य जी का जन्म एक वैदिक तेलुगु तैलंग वेलनाड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आपके पिता सोमयाजी दीक्षित श्रीलक्ष्मण भट्टजी और माताश्री देवी इल्लमागारुजी भट्टजी है [8] वल्लभ नाम का शाब्दिक अर्थ है प्रिय या प्रेमी, और यह विष्णु और कृष्ण का एक नाम है।
वल्लभाचार्य जी ने एक बच्चे के रूप में ही वेदों, स्मृतियो, वेदांगो, उपवेदों, उपनिषदों, पुराणों और षट दर्शनो, वेदान्त, आगमों, वैष्णव तंत्रो, बाह्य जैन बौद्ध चरवाकआदि विचारो, काव्य साहित्य एवं तदुक्त कलाए का अध्ययन किया| आपको लोग बालसरस्वती वाक्यपति बुलाने लगे| फिर 20 वर्षों में पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में यात्रा की। [8] वे भक्ति भक्ति आंदोलन के महत्वपूर्ण नेताओं में से एक बन गए। वल्लभाचार्य की मां इल्लम्मा गारू थीं, जो विजयनगर साम्राज्य के शासकों की सेवा करने वाले एक पारिवारिक पुजारी की बेटी थीं।[5]
आपने तपस्या, सन्यास आर वैराग्य के जीवन को खारिज कर दिया और सुझाव दिया कि भगवान कृष्ण के प्रति प्रेमपूर्ण भक्ति के माध्यम से, कोई भी गृहस्थ मोक्ष, भगवद कृपा, गोलोक में भगवद सेवा और भगवद धाम प्राप्त कर सकता है - एक ऐसा विचार जो पूरे भारत में प्रभावशाली हो गया।[6]
उन्होंने कई ग्रंथों को लिखा जेसे ब्रह्मसूत्र अनुभाष्य (ब्रह्म सूत्र पर आप का भाष्य), षोडश ग्रंथ या सोलह 'स्तोत्र' (ट्रैक्ट्स) और भागवत महापुराण पर श्री सुबोधिनी जी टीका, पूर्व कांड जैमिनी धर्मसूत्रो पर भाष्य, तत्वार्थदीप निबंध, गायत्री भाष्य, मधुराष्टक आदि लेकिन ये सूची इन्हीं तक सीमित नहीं,।
वल्लभाचार्य के लेखन और कीर्तन रचनाएँ शिशु कृष्ण और यशोदा (बिना शर्त मातृ प्रेम) के साथ उनके बचपन की शरारतों पर ध्यान केंद्रित करती हैं, साथ ही एक युवा कृष्ण की अच्छाई (ईश्वरीय कृपा) की सुरक्षा और राक्षसों और बुराइयों पर उनकी जीत, सभी रूपक और प्रतीकात्मकता के साथ। ][7]
उनकी विरासत को उनके पुष्टिमार्ग वल्लभ सम्प्रदाय के वंशज आचार्यों और उनके शिष्यो ने अच्छी तरह से संरक्षित किया गया है| और विशेष रूप से भारत के मेवाड़ क्षेत्र में नाथद्वारा और द्वारकाधीश मंदिर में उनके प्रत्यक्ष वंशजों के साथ सबसे - महत्वपूर्ण कृष्ण तीर्थस्थल हैं।[8]
महाप्रभु वल्लभाचार्य के सम्मान में भारत सरकार ने सन 1977 में एक रुपये मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया था।
वल्लभाचार्य का आविर्भाव विक्रम संवत् 1535, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्रीलक्ष्मणभट्टजी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से हुआ। यह स्थान वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर के निकट चम्पारण्य है।
श्रीरूद्रसंप्रदाय के जगद्गुरु श्रीविल्वमंगलाचार्यजी द्वारा आप अष्टादशाक्षर गोपालमन्त्र की दीक्षा दी थी तथा श्रीविल्वमंगलाचार्यजी द्वारा आप वल्लभाचार्य महाप्रभु को श्रीरूद्र वेदव्यास विष्णुस्वामी संप्रदाय का जगद्गुरु आचार्य तिलक साम्राज्याभिषेक किया गया। त्रिदण्ड वैष्णव सन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्रतीर्थ से प्राप्त हुई। विवाह श्री देवभट्टजी की कन्या श्री महालक्ष्मी से हुआ और यथासमय दो पुत्र हुए- श्री गोपीनाथ व श्रीविट्ठलनाथ हुए। भगवत्प्रेरणावश वे ब्रज में गोकुल पहुंचे और तदनन्तर ब्रजक्षेत्र स्थित गोवर्धन पर्वत पर अपनी गद्दी स्थापित कर शिष्य पूरनमल खत्री के सहयोग से उन्होंने संवत् 1576 में श्रीनाथ जी के भव्य मंदिर का निर्माण कराया। वहां विशिष्ट सेवा-पद्धति के साथ लीला-गान के अंतर्गत श्रीराधाकृष्ण की मधुरातिमधुर लीलाओं से संबंधित रसमय पदों की स्वर-लहरी का अवगाहन कर भक्तजन निहाल हो जाते।[9][10]
श्रीवल्लभाचार्यजी के मतानुसार तीन स्वीकार्य तत्त्व हैं- ब्रह्म, जगत् और जीव। ब्रह्म के तीन स्वरूप वर्णित हैं- आधिदैविक, आध्यात्मिक एवं अंतर्यामी रूप। अनंत दिव्य गुणों से युक्त पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को ही परब्रह्म स्वीकारते हुए उनके मधुर रूप एवं लीलाओं को ही जीव में आनंद के आविर्भाव का स्रोत माना गया है। जगत् ब्रह्म की लीला का विलास है। संपूर्ण सृष्टि लीला के निमित्त ब्रह्म की आत्म-कृति है। जगत सत्या है और अहंता ममतात्मक संसार मिथ्या हैं| जीव ब्रह्म का अंश है और अनेकानेक नाना जीव है| जगत प्रपंच का कभी नाश नही होता, यह प्रापंचिक जगत आविर्भाव तिरोभाव शाली है| [9]
भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह को पुष्टि कहा गया है। भगवान के इस विशेष अनुग्रह से उत्पन्न होने वाली भक्ति को 'पुष्टिभक्ति' कहा जाता है। जीवों के तीन प्रकार हैं- पुष्टि जीव जो भगवान के अनुग्रह पर निर्भर रहते हुए नित्यलीला में प्रवेश के अधिकारी बनते हैं), मर्यादा जीव [जो वेदोक्त विधियों का अनुसरण करते हुए भिन्न-भिन्न लोक प्राप्त करते हैं] और प्रवाह जीव [जो जगत्-प्रपंच में ही निमग्न रहते हुए सांसारिक सुखों की प्राप्ति हेतु सतत् चेष्टारत रहते हैं]।
भगवान् श्रीकृष्ण भक्तों के निमित्त व्यापी वैकुण्ठ में [जो विष्णु के वैकुण्ठ से ऊपर स्थित है] नित्य क्रीड़ाएं करते हैं। इसी व्यापी वैकुण्ठ का एक खण्ड है- गोलोक, जिसमें यमुना, वृन्दावन, निकुंज व गोपियां सभी नित्य विद्यमान हैं। भगवद्सेवा के माध्यम से वहां भगवान की नित्य लीला-सृष्टि में प्रवेश ही जीव की सर्वोत्तम गति है।
प्रेमलक्षणा भक्ति उक्त मनोरथ की पूर्ति का मार्ग है, जिस ओर जीव की प्रवृत्ति मात्र भगवद्नुग्रह द्वारा ही संभव है। श्री मन्महाप्रभु वल्लभाचार्यजी के पुष्टिमार्ग [अनुग्रह मार्ग] का यही आधारभूत सिद्धांत है। पुष्टि-भक्ति की तीन उत्तरोत्तर अवस्थाएं हैं-प्रेम, आसक्ति और व्यसन। मर्यादा-भक्ति में भगवद्प्राप्ति शमदमादि साधनों से होती है, किंतु पुष्टि-भक्ति में भक्त को किसी साधन की आवश्यकता न होकर मात्र भगवद्कृपा का आश्रय होता है। मर्यादा-भक्ति स्वीकार्य करते हुए भी पुष्टि-भक्ति ही श्रेष्ठ मानी गई है। यह भगवान में मन की निरंतर स्थिति है। पुष्टिभक्ति का लक्षण यह है कि भगवान के स्वरूप की प्राप्ति के अतिरिक्त भक्त अन्य किसी फल की आकांक्षा ही न रखे। पुष्टिमार्गीय जीव की सृष्टि भगवत्सेवार्थ ही है- भगवद्रूप सेवार्थ तत्सृष्टिर्नान्यथा भवेत्। प्रेमपूर्वक भगवत्सेवाभक्ति का यथार्थ स्वरूप है-भक्तिश्च प्रेमपूर्विकासेवा। भागवतीय आधार (कृष्णस्तु भगवान स्वयं) पर भगवान कृष्ण ही सदा सर्वदासेव्य, स्मरणीय तथा कीर्तनीय हैं-
ब्रह्म के साथ जीव-जगत् का संबंध निरूपण करते हुए उनका मत था कि जीव ब्रह्म का सदंश[सद् अंश] है, जगत् भी ब्रह्म का सदंश है। अंश एवं अंशी में भेद न होने के कारण जीव-जगत् और ब्रह्म में परस्पर अभेद है। अंतर मात्र इतना है कि जीव में ब्रह्म का आनंदांश आवृत्त रहता है, जबकि जड़ जगत में इसके आनन्दांश व चैतन्यांश दोनों ही आवृत्त रहते हैं।
श्रीशंकराचार्य के अद्वैतवाद केवलाद्वैत के विपरीत श्रीवल्लभाचार्य के अद्वैतवाद में माया का संबंध अस्वीकार करते हुए ब्रह्म को कारण और जीव-जगत को उसके कार्य रूप में वर्णित कर तीनों शुद्ध तत्वों का ऐक्य प्रतिपादित किए जाने के कारण ही उक्त मत शुद्धाद्वैतवाद कहलाया (जिसके मूल प्रवर्तक आचार्य श्री विष्णुस्वामीजी हैं)।
श्री वल्लभाचार्य ने अनेक भाष्यों, ग्रंथों, नामावलियों, एवं स्तोत्रों की रचना की है, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित ये सोलह सम्मिलित हैं, जिन्हें ‘षोडश ग्रन्थ’ के नाम से जाना जाता है –
१. यमुनाष्टक
२. बालबोध
३. सिद्धान्त मुक्तावली
४. पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेद
५. सिद्धान्तरहस्य
६. नवरत्नस्तोत्र
७. अन्तःकरणप्रबोध
८. विवेकधैर्याश्रय
९. श्रीकृष्णाश्रय
१०. चतुःश्लोकी
११. भक्तिवर्धिनी
१२. जलभेद
१३. पंचपद्यानि
१४. संन्यासनिर्णय
१५. निरोधलक्षण
१६. सेवाफल
आपका शुद्धाद्वैत का प्रतिपादक प्रधान दार्शनिक ग्रन्थ है - अणुभाष्य [ब्रह्मसूत्र भाष्य अथवा उत्तरमीमांसा]। इनके अतिरिक्त आप द्वारा प्रणीत कई अन्य ग्रन्थ, जैसे - ‘तत्वार्थदीपनिबन्ध’, ‘पुरुषोत्तम सहस्रनाम’, ‘पत्रावलम्बन’, ‘पंचश्लोकी’, पूर्वमीमांसाभाष्य, भागवत पर सुबोधिनी टीका आदि भी प्रसिद्ध हैं। ‘मधुराष्टक’ स्तोत्र में आपने भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप, गुण, चरित्र, लीला आदि के माधुर्य को अत्यंत मधुर शब्दों और भावों से निरूपित किया है।
मान्यताएं:-
महाप्रभु वल्लभाचार्य के षोडश ग्रंथों पर श्री हरिराय जी, श्री कल्याण राय जी, श्री पुरुषोत्तम जी, श्रीरघुनाथ जी आदि अनेक विद्वानों द्वारा संस्कृत भाषा में टीकाएं उपलब्ध हैं। सर्वसाधारण के लिए भाषा की जटिलता के कारण ग्रंथों और टीकाओं के मर्म को समझना कठिन रहा है, किन्तु श्री वल्लभाचार्य के ही एक विद्वान वंशज गोस्वामी राजकुमार नृत्यगोपालजी ने प्रत्येक ग्रन्थ की समस्त टीकाओं को न केवल एक जगह संकलित किया है, बल्कि पुष्टिमार्ग के भक्तों तथा अनुयायियों के लाभ के लिए उनका हिंदी अनुवाद भी सुलभ कराया है। क्लिष्ट टीकाओं के हिंदी अनुवाद के साथ अधिक स्पष्टता के लिए उन्होंने प्रत्येक ग्रन्थ पर अपनी स्वयं की टीका भी की है। ये सभी टीकाएँ सोलह पुस्तकों के रूप में छपी हैं। निम्न तालिका में श्री वल्लभाचार्य के ग्रंथों की संग्रहीत टीकाओं के साथ ही श्री राजकुमार नृत्यगोपालजी की टीका का उल्लेख है।[11] उपेन्द्र नाथ राय द्वारा लिखित ग्रन्थ 'वार्ता साहित्य और इतिहास'[12] इस सन्दर्भ में प्रमुख पुस्तक है।
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श्री वल्लभाचार्यजी के चौरासी शिष्यों के अलावा अनगिनत भक्त, सेवक और अनुयायी थे। उनके पुत्र श्रीविट्ठलनाथजी (गुसाईंजी) ने बाद में उनके चार प्रमुख शिष्यों - भक्त सूरदास, कृष्णदास, परमानन्ददास और कुम्भनदास, तथा अपने स्वयं के चार शिष्यों - नन्ददास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी तथा चतुर्भुजदास, जो सभी श्रेष्ठ कवि तथा कीर्तनकार भी थे, का एक समूह स्थापित किया जो “अष्टछाप” कवि के नाम से प्रसिद्ध है। सूरदासजी की सच्ची भक्ति एवं पद-रचना की निपुणता देख अति विनयी सूरदासजी को भागवत् कथा श्रवण कराकर भगवल्लीलागान की ओर उन्मुख किया तथा उन्हें श्रीनाथजीके मन्दिर की कीर्त्तन-सेवा सौंपी। उन्हें तत्व ज्ञान एवं लीला भेद भी बतलाया- श्रीवल्लभगुरू तत्त्व सुनायो लीला-भेद बतायो [सूरसारावली]। सूर की गुरु के प्रति निष्ठा दृष्टव्य है- भरोसो दृढ इन चरनन केरो। श्रीवल्लभ-नख-चंद्र-छटा बिनु सब जग मांझ अंधेरो॥ श्रीवल्लभके प्रताप से प्रमत्त कुम्भनदासजी तो सम्राट अकबर तक का मान-मर्दन करने में नहीं झिझके- परमानन्ददासजी के भावपूर्ण पद का श्रवण कर महाप्रभु कई दिनों तक बेसुध पड़े रहे। मान्यता है कि उपास्य श्रीनाथजी ने कलि-मल-ग्रसित जीवों का उद्धार हेतु श्रीवल्लभाचार्यजी को दुर्लभ आत्म-निवेदन-मन्त्र प्रदान किया और गोकुल के ठकुरानी घाट पर यमुना महारानी ने दर्शन देकर कृतार्थ किया।
विक्रम संवत् 1587, आषाढ शुक्ल तृतीया (सन 1531) को उन्होंने अलौकिक रीति से इहलीला संवरण कर सदेह प्रयाण किया, जिसे 'आसुरव्यामोह लीला' कहा जाता है। वैष्णव समुदाय उनका चिरऋणी है।
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