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रमन प्रभाव फोटोन कणों के लचीले वितरण के बारे में है। इसकी खोज प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक श्री सी वी रमन ने की थी। रमन प्रभाव के अनुसार, जब कोई एकवर्णी प्रकाश द्रवों और ठोसों से होकर गुजरता है तो उसमें आपतित प्रकाश के साथ अत्यल्प तीव्रता का कुछ अन्य वर्णों का प्रकाश देखने में आता है। 1930 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार चन्द्रशेखर वेंकटरमन को उनके इस खोज के लिए प्रदान किया गया था।
रमन की पूरी शिक्षा-दीक्षा भारत में ही हुई। स्वयं २०० रु. का स्पेक्ट्रममापी अभिकल्पित कर, केवल लगन, परिश्रम और एकनिष्ठ अनुसंधन के बल पर इतनी महत्वपूर्ण खोज कर सके। शुरू में रमन ने सूर्य के प्रकाश को बैंगनी फिल्टर से गुजार कर प्राप्त बैंगनी प्रकाश किरण पुन्ज को द्रव से गुजारा। निर्गत प्रकाश पुंज मुख्यतः तो बैंगनी रंग का ही था, परन्तु इसे हरे फिल्टर से गुजारने पर इसमें बहुत कम परिमाण में हरी किरणों का अस्तित्व भी देखने में आया। रमन प्रभाव रासायनिक यौगिकों की आंतरिक संरचना समझने के लिए भी महत्वपूर्ण है। यह प्रभाव वैज्ञानिकों के लिए काफी महत्वपूर्ण खोज है। राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के दिन भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विज्ञान के गतिविधियों कों बढ़ावा देने वाले कार्यकमो का आयोजन किया जाता है।
60 से ज्यादा विभिन्न द्रवों पर प्रयोग दोहराने के बाद यह सुनिश्चित हो गया कि सभी द्रव रमन स्पेक्ट्रम दर्शाते हैं। द्रव बदलने से केवल उससे प्रकीर्णित स्पेक्ट्रमी रेखा का रंग बदलता है। अभी तक के प्रयोगों में सिर्फ देखकर प्रभाव की पुष्टि की जा रही थी। किन्तु रमन जानते थे कि जब तक रमन-रेखाओं की तरंगदैर्ध्यों और उनकी आपेक्षिक तीव्रता का मापन नहीं किया जाएगा तब तक न तो प्रभाव की संतोषजनक व्याख्या की जा सकेगी और न ही वैज्ञानिक जगत में मान्यता प्राप्त होगी। इसके लिए उन्होंने एक क्वार्टज स्पेक्ट्रोग्राफ का उपयोग किया, जिसके परिमाणात्मक परिणाम मार्च 31, 1928 के इन्डियन जर्नल ऑफ फिजिक्स में प्रकाशित हुए।
यह एक अद्भुत प्रभाव है, इसकी खोज के एक दशक बाद ही 2000 रासायनिक यौगिकों की आंतरिक संरचना निश्चित की गई थी। इसके पश्चात् ही क्रिस्टल की आंतरिक रचना का भी पता लगाया गया। रमन प्रभाव के अनुसार प्रकाश की प्रकृति और स्वभाव में तब परिवर्तन होता है जब वह किसी पारदर्शी माध्यम से निकलता है। यह माध्यम ठोस, द्रव और गैसीय, कुछ भी हो सकता है। यह घटना तब घटती है, जब माध्यम के अणु प्रकाश ऊर्जा के कणों को प्रकीर्णित कर देते हैं। यह उसी तरह होता है जैसे कैरम बोर्ड पर स्ट्राइकर गोटियों को छितरा देता है। फोटोन की ऊर्जा या प्रकाश की प्रकृति में होने वाले अतिसूक्ष्म परिवर्तनों से माध्यम की आंतरिक अणु संरचना का पता लगाया जा सकता है।
रमन एक अत्यन्त उत्साही, परिश्रमी, और मेधवी व्यक्ति थे। 19 वर्ष की आयु में उन्होंने प्रथम श्रेणी में प्रथम रहते हुए भौतिकी में एम.ए. किया और वित्त सेवाओं की प्रतियोगी परीक्षा में सफल होकर कलकत्ता में उपमहालेख अधिकरी बन गए। कुछ कर गुजरने की चाह और विज्ञान के प्रति रूचि ने उन्हें महेन्द्र लाल सरकार द्वारा स्थापित विज्ञान अनुसंधन संस्था इन्डियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन ऑफ साइंसेज से जोड़ दिया। वे दिन भर अपने दायित्व का निर्वाह करने में व्यस्त रहते और शाम से देर रात तक प्रयोगशाला में। उनका प्रारंभिक कार्य वाद्य यंत्रों की कार्यप्रणाली से जुड़े विज्ञान के अन्वेषण से संबद्ध रहा। रमन का विज्ञान के प्रति समर्पण इतना तीव्र था कि 1917 में जब उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिकी के पालित प्रोफेसर बनाए जाने का प्रस्ताव मिला तो अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर लगभग आधी तन्खाह पर उन्होंने इस पद को स्वीकार कर लिया। रमन की संपूर्ण शिक्षा भारत में ही हुई थी और अभी तक दुनिया के अन्य वैज्ञानिकों के साथ उनका संपर्क पुस्तकों और अंतरराष्ट्रीय शोधपत्रिकाओं में छपे लेखों के माध्यम से ही था।
1921 में पहली बार एक अध्ययन यात्रा पर उन्हें विदेश जाने का अवसर मिला। पानी के जहाज से यात्रा करते समय सागर के नीले-नीले जल ने उनका ध्यान आकर्षित किया। लार्ड रैले ने आकाश के नीले रंग की सफल व्याख्या वायुकणों से प्रकाश-विकीर्णन के आधार पर की थी किन्तु सागर जल का नीला रंग उन्होंने आकाश का जल में प्रतिबिम्व मान लिया था। रमन को यह व्याख्या स्वीकार्य नहीं थी। उनको लगता था कि जो सिद्धांत वायु के नीले रंग के लिए उत्तरदायी था वही जल के नीले रंग के लिए भी होना चाहिए, इसलिए, अपनी वापसी यात्रा में उन्होंने एक जेबी स्पेक्ट्रममापी अपने साथ रखा। एस.एस. नरकुंडा नामक जलयान पर यात्रा के दौरान उन्होंने ग्लेशियरों और जल से प्रकीर्णन के कुछ प्रयोग इस यंत्र की सहायता से किए। भारत पहुंचते-पहुंचते उन्हें विश्वास हो गया कि उनका विचार सही था। उन्होंने 'नेचर (पत्रिका) को एक छोटा लेख इस संबंध में भेजा और युवा वैज्ञानिकों के अपने दल के साथ प्रकाश-प्रकीर्णन संबंधी अपने प्रयोगों में लीन हो गए। 7 वर्ष के अथक परिश्रम और सैकड़ों द्रवों एवं ठोसों से प्रकाश-प्रकीर्णन का अध्ययन करने के बाद आखिर 28 फरवरी, 1928 को उन्होंने रमन प्रभाव की घोषणा की। 1987 से भारत में यह दिन राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
रमन प्रभाव की उपयुक्त व्याख्या केवल क्वांटम सिद्धांत के आधार पर की जा सकती है, जहां एकवर्णी (निश्चित तरंगदैर्ध्य के) प्रकाश पुंज को ऊर्जा युक्त कणों (अथवा फोटोनों) के प्रवाह के रूप में देखा जाता है। ये फोटॉन जब माध्यम (माना वायु) के कणों से टकराते हैं तो उनमें या तो प्रत्यास्थ संघट्ट होता है जिससे अनिवार्यतः आपतित आवृत्ति की ही तरंगें उत्सर्जित होती हैं (रेले प्रकीर्णन) या फिर अप्रत्यास्थ संघट्ट होता है जिससे आपतित विकिरणों से अधिक तरंगदैर्ध्य (या कम आवृत्ति) की स्पेक्ट्रमी रेखाएं (स्टॉक रेखाएं) भी प्राप्त हो सकती हैं और कम तरंगदैर्ध्य (या अधिक आवृत्ति) की स्पेक्ट्रमी रेखाएं (एण्टी स्टॉर्क रेखाएं) भी। अप्रत्यास्थ संघट्ट से प्राप्त विकिरणों का प्रक्रम रमन प्रकीर्णन कहलाता है और इसके परिणामस्वरूप प्राप्त स्पेक्ट्रमी रेखाएं 'रमन रेखाएं' कहलाती हैं।
भौतिकीविदों का प्रभावी औजार शुरूआती दौर में रमन प्रभाव का उपयोग भौतिकीविदों द्वारा शोध अध्ययनों में किया गया। पहले 7 वर्षों में इस प्रभाव को आधार बना कर 700 से अधिक वैज्ञानिक शोध पत्र प्रस्तुत किए गए। एक ओर सैद्धांतिक भौतिकी की दृष्टि से इस प्रभाव ने क्वांटम भौतिकी को सुदृढ़ आधार प्रदान करने का कार्य किया तो वहीं दूसरी ओर प्रायोगिक भौतिकविदों को क्रिस्टलों और अणुओं की संरचनाओं के अध्ययन के लिए एक अत्यन्त दक्ष, सरल तकनीक प्रदान की। फिर धीरे-धीरे भौतिकविदों की इस नई तकनीक में रूचि कम होने लगी। पर तब तक रसायनज्ञों के बीच एक विश्लेषणात्क औजार के रूप में यह तकनीक लोकप्रिय होने लगी थी।
रसायनज्ञों के औजार के रूप में प्रत्येक पदार्थ का अपना विशिष्ट स्पेक्ट्रम होता है। अतः पदार्थ को नष्ट किए बिना मिश्रणों का भी रासायनिक विश्लेषण इस तकनीक द्वारा किया जा सकता था और पदार्थ कार्बनिक हो या अकार्बनिक उसके हस्ताक्षर रमन स्पेक्ट्रम में पहचाने जा सकते थे। साथ ही स्पेक्ट्रमी रेखाओं की तीव्रता की तुलना से उनके सापेक्ष परिमाण की उपस्थिति का आकलन भी किया जा सकता था। यह एक व्यापक तकनीक थी और इसका उपयोग द्रवों के अतिरिक्त गैसों और ठोसों के लिए भी किया जा सकता था।
किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सुग्राही संसूचकों और इलेक्ट्रॉनिकी में हुए विकास के कारण वैज्ञानिकों को अवरक्त स्पेक्ट्रममिति रमन स्पेक्ट्रममिति से सरल लगने लगी और रमन प्रभाव के अनुप्रयोगों की ओर रूझान कुछ कम हुआ। किंतु लेसर की खोज के बाद 1960 से रमन प्रभाव फिर से वैज्ञानिक अन्वेषकों में लोकप्रिय हो गया।
रमन प्रभाव के संसूचन में सबसे कठिन समस्या यह थी कि रमन रेखाएं बहुत क्षीण होती थीं इसलिए उनके संसूचन के लिए अत्यंत तीव्र प्रकाश स्रोत की आवश्यकता थी। लेसर ने न केवल ऐसा अत्यंत तीव्र प्रकाश स्रोत प्रदान किया वरन प्रकीर्णित प्रकाश में ऐसे नए प्रभाव प्रवर्तित किए जिन्होंने रमन स्पेक्ट्रममिति में नए आयाम जोड़ दिए। परिणामस्वरूप रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी के अनेक परिवर्त्त विकसित हुए। इनमें जिन मूल संकल्पनाओं का उपयोग किया गया है उनमें सुग्राहिता वृद्धि के लिए पृष्ठवर्धित रमन, स्थानिक विभेदन में सुधार के लिए रमन माइक्रोस्कोपी और अत्यंत विशिष्ट सूचना प्राप्ति के लिए रेजोनेंस रमन मुख्य हैं। इन संकल्पनाओं के समाकलन से अनेक भिन्न-भिन्न रमन स्पेक्ट्रम तकनीकें विकसित की गई हैं।
फुरियर रूपांतरण तकनीकों और डॉटा प्रबंधन के लिए कम्प्यूटरों का अनुप्रयोग जुड़ जाने के बाद 1980 के दशक के उत्तरार्ध से व्यावसायिक रमन स्पेक्ट्रममापी उपलब्ध हो गए और अब कोई भी क्षेत्र रमन प्रभाव के अनुप्रयोगों से अछूता नहीं रहा है।
जहां भी सैंपल को बिना क्षति पहुंचाए, द्रुतगति से पदार्थ विशेष के कुछ कण पहचान कर निष्कर्ष निकाले जा सकते हों, वहां रमन प्रभाव सबसे अधिक प्रभावी तकनीक प्रदान करता है। अभिनव रमन स्पेक्ट्रममिति के कुछ अनुप्रयोग नीचे दिए गए हैं :
समय के साथ रमन प्रभाव के अनुप्रयोग बढ़ते जा रहे हैं और यह 21वी शताब्दीं में रमन प्रभाव की विरासत के महत्त्व को दर्शाता है।
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