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भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा धीरे-धीरे भारत में स्वयं-शासित संस्थानों को पेश करने के विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
मोंटेगू-चेम्सफोर्ड सुधार या अधिक संक्षेप में मोंट-फोर्ड सुधार के रूप में जाना जाते, भारत में ब्रिटिश सरकार द्वार धीरे-धीरे भारत को स्वराज्य संस्थान का दर्ज़ा देने के लिए पेश किये गए सुधार थे। सुधारों का नाम प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारत के राज्य सचिव एडविन सेमुअल मोंटेगू, 1916 और 1921 के बीच भारत के वायसराय रहे लॉर्ड चेम्सफोर्ड के नाम पर पड़ा। इसे भारत सरकार अधिनियम का आधार 1919 की आधार पर बनाया गया था।[1]
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प्रथम विश्व युद्ध के समय मित्र राष्ट्रों ने यह घोषणा किया था कि वे यह युद्ध विश्व में लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए तथा आत्म निर्णय के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं। इसी कारण भारतीयों ने भी ब्रिटिश सरकार को इस युद्ध में अपना पूर्ण सहयोग प्रदान किया था। लेकिन युद्ध की समाप्ति पर भारतीयों को घोर निराशा हुई, क्योंकि उन्हें कोई विशेष सुविधा प्रदान नहीं की गई। युद्ध के दौरान ही होमरूल आंदोलन आरंभ हो गया। कांग्रेस और मुस्लिम लीग में भी समझौता हो गया। अंग्रेज के उदारवादी और उग्रवादी भी आपस में मिल गए भारत से कई क्षेत्रों में क्रांतिकारी क्रियाकलाप भी आरंभ हो गया। इसी बीच महात्मा गांधी के भारत के राजनीति में प्रवेश करने से देशवासियों में एक नया आत्मविश्वास पैदा हो गया। 1909 में जो अधिनियम पारित किया गया था उसे भी भारतीय संतुष्ट नहीं थे। ऐसी परिस्थिति में भारत मंत्री मांटेगू ने ब्रिटिश संसद में घोषणा किया कि सरकार भरतीयों को प्रशासन में अधिक संख्या में सम्मिलित करें उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना चाहती है।
अतः भारत मंत्री मांटेग्यू या मांटेगू और वायसराय चेम्सफोर्ड एक सम्मिलित रिपोर्ट ब्रिटिश संसद में भेजा और उसी आधार पर संसद में 1919 ईस्वी का अधिनियम पारित किया, जिसे मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार या मांटफोर्ड सुधार कहते हैं।[2]
इस अधिनियम के द्वारा केंद्र प्रांतों के बीच शक्तियों के दायित्व को स्पष्ट रूप से बांट दिए गए। प्रतिरक्षा, विदेशी मामले,रेलवे, मुद्रा, वाणिज्य,संचार, अखिल भारतीय सेवाएं केंद्र सरकार को सौंप दिया। प्रांत विषयों को दो श्रेणियां में बांट दिया। पहला रक्षित और दूसरा हस्तांतरित। भूमि राजस्व न्याय, पुलिस, जेल, इत्यादि को रक्षित श्रेणी में रखा गया। कृषि, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि को स्थानांतरित क्षेत्र में रखा गया। रक्षित श्रेणी के कारण प्रांतों में दोहरे शासन की व्यवस्था आरंभ हुई।
केंद्रीय सरकार
1919 ई. के अधिनियम अनुसार केंद्रीय व्यवस्थापिका में दो सदन कर दिए गए। उच्च सदन को कौन्सिल ऑफ स्टेट और निम्न सदन को लेजिस्लेटिव एसेंबली कहा जाता था। उच्च सदन का कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया और निम्न सदन का कार्यकाल 3 वर्ष निर्धारित किया गया। उच्च सदन में सदस्यों की संख्या 60 रखी गयी जिसमें 33 सदस्य निर्वाचित होंगे और 27 सदस्यों को गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किया जाता था। संविधान में परिवर्तन या संशोधन का अधिकार इंग्लैंड की संसद को था। दोनों सदनों की बैठक बुलाने निलंबित करने और भंग करने का अधिकार गवर्नर जनरल को था। निम्न सदन के सदस्यों की संख्या 145 रखी गई। इसमें 103 निर्वाचित और 42 मनोनीत होते थे।
प्रांतीय सरकार
1919 के अधिनियम के अनुसार प्रांतीय व्यवस्थापिका एक सदन की बनाई गई। इसे लेजिसलेटिव काउंसिल कहा जाता था। सभा कार्यकाल 3 वर्ष निर्धारित किया गया। विभिन्न प्रांतों में सदस्यों की संख्या अलग-अलग थी। 70% सदस्य निर्वाचित होंगे और 30% गवर्नर द्वारा मनोनीत होंगे। मनोनीत सदस्य में से 20% सरकारी और 10% गैर सरकारी होंगे। प्रांतीय विषयों को रक्षित और हस्तांतरित दो श्रेणियां में बांट दिया गया। रक्षित विषयों पर नियंत्रण गवर्नर जनरल और उसकी कौंसिल को था। हस्तांतरित विषयों पर नियंत्रण मंत्रियों का होता था। इन मंत्रियों को निर्वाचित विधान परिषद के सदस्य करते थे। किसी भी विधेयक को प्रस्तुत करने से पहले गवर्नर के अनुमति लेनी पड़ती थी। गवर्नर की मंजूरी के बिना कोई भी विधेयक कानून का रूप नहीं ले सकता था। गवर्नर किसी भी विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधान परिषद में लौटा सकता था। बजट पर सदस्यों का मतदान का अधिकार था। इस प्रकार विधान परिषद के अधिकार सीमित ही थे।
गवर्नर जनरल की शक्तियां
वास्तविक प्रशासनिक शक्तियां गवर्नर जनरल के हाथों में ही केंद्रित था। गवर्नर जनरल भारत सचिव के माध्यम से ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी होता था, भारतीय जनता के प्रति नहीं। गवर्नर जनरल की कार्यकरिणी परिषद में कुछ परिवर्तन किए गए।प्रशासनिक की हर शाखा में भारतीयों के शामिल करने के बढ़ते मांग को ध्यान में रखते हुए गवर्नर जनरल की कार्यकरिणी के 6 सदस्यों में से तीन भारतीय सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान रखा गया। परंतु भारत के सदस्यों को प्रशासन के कम महत्वपूर्ण विभाग जैसे कानून, शिक्षा, श्रम, स्वास्थ्य या उद्योग आदि दिए गए। भारत के सदस्य गवर्नर जनरल के प्रति उत्तरदायी थे तथा गवर्नर जनरल भारत सचिव के माध्यम से ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था।
केंद्र में दो सदन वाली विधानसभा के निचले सदन के 145 सदस्यों में से 30 सदस्यों का चुनाव पृथक मुसलमान निर्वाचन मंडल के द्वारा चुना जाता था, जो केवल मुसलमान होंगे। सिखों को भी सांप्रदायिक राजनीति के अंतर्गत विशेषाधिकार प्रदान किए गए। सिखों को भी पृथक निर्वाचन मंडल में शामिल किया गया। मुसलमान और सिखों को जनसंख्या के आधार पर नहीं बल्कि उनके राजनीतिक महत्व के आधार पर प्रांतीय विधान मंडलों में स्थान प्रदान किया गया। मताधिकार संपत्ति विषयक योग्यता पर आधारित था। सरकार को टैक्स के रूप में एक निश्चित रकम अदा करने वाले को ही मताधिकार प्राप्त था। सन 1920 में भारत की कुल जनसंख्या 14 करोड़ 17 लाख थी, जिसमें से केवल 53 लाख लोगों को अर्थात 5% वयस्क लोगों को ही मताधिकार प्राप्त था। महिलाओं को मताधिकार नहीं दिया गया था न ही उन्हें चुनाव में खड़े होने का अधिकार था, जबकि 1918 में ब्रिटेन में महिलाओं को मताधिकार प्रदान किया गया था।
1919 ईस्वी के अधिनियम से भारतीयों को घोर निराशा हुई। यह अधिनियम भारतीयों की आशाओं और आकांक्षाओं को संतुष्ट करने में असफल रहा। अधिनियम भारतीयों की स्वशासन की मांग को पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को राजनीतिक शक्ति देने का एक बहाना बनाया लेकिन वास्तविक शक्ति अभी भी अंग्रेजों के ही हाथों में रह गई। यह अधिनियम ब्रिटिश शासन के निरंकुश स्वरूप को नहीं बदल पाया। कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने इसका विरोध किया। इस अधिनियम के बारे में मोतीलाल नेहरू ने कहा, 'ऐसा लगता है जैसे जो कुछ एक हाथ से दिया गया उसे दूसरे हाथ से ले लिया गया।' अतः भारतीयों का असंतोष चरम सीमा पर पहुंच गया। भरतीयों में इस प्रकार के असंतोष को देखकर ब्रिटिश सरकार ने उनके आंदोलनों का दमन करने के लिए एक नए हथियार का प्रयोग किया। जिसे रॉलेट एक्ट कहते हैं।
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