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कांदिवली के निकट उत्तरी मुंबई में मिले प्राचीन अवशेष संकेत करते हैं, कि यह द्वीप समूह पाषाण युग से बसा हुआ है।[2] मानव आबादी के लिखित प्रमाण 250 ई.पू तक मिलते हैं, जब इसे हैप्टानेसिया कहा जाता था। तीसरी शताब्दी इ.पू. में यह द्वीपसमूह मौर्य साम्राज्य का भाग बने, जब बौद्ध सम्राट अशोक महान का शासन था। कुछ आरम्भिक शताब्दियों में मुंबई के नियंत्रण से सम्बन्धित इतिहास सातवाहन साम्राज्य व इंडो-साइथियन वैस्टर्न सैट्रैप के बीच विवादित है। बाद में हिन्दू सिल्हारा वंश के राजाओं ने यहां 1343 तक राज्य किया, जब तक कि गुजरात के राजा ने उनपर अधिकार नहीं कर लिया। कुछ पुरातन नमूने, जैसे ऐलीफैंटा गुफाएं व वाल्केश्वर मंदिर में इस काल के अवशेष मिलते हैं।
1534 में, पुर्तगालियों ने गुजरात के बहादुर शाह से यह द्वीप समूह हथिया लिया। जो कि बाद में चार्ल्स द्वितीय, इंग्लैंड को दहेज स्वरूप दे दिये गये।[3] चार्ल्स से कैथरीन डे बर्गैन्ज़ा का विवाह हुआ था। यह द्वीपसमूह 1668 में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मात्र दस पाउण्ड प्रति वर्ष की दर पर पट्टे पर दे दिये गये। कंपनी ने द्वीप के पूर्वी छोर पर गहरा हार्बर मिला, जो कि उपमहद्वीप में प्रथम पत्तन स्थापन करने के लिये अत्योत्तम था। यहां की जनसंख्या 1661 की मात्र दस हजार से बढ़कर 1675 में साठ हजार हो गयी। 1687 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने मुख्यालय सूरत से स्थानांतरित कर यहां मुंबई में स्थापित किये। और अंततः नगर बंबई प्रेसीडेंसी का मुख्यालय बन गया।
सन 1817 के बाद, नगर को वृहत पैमाने पर सिविल कार्यों द्वारा पुनर्स्थापन किया गया। इसमें सभी द्वीपों को एक जुड़े हुए द्वीप में जोडने की परियोजना मुख्य थी। इस परियोजना को हॉर्नबाय वेल्लार्ड कहा गया, जो 1845 में पूर्ण हुआ, तथा पूर्ण 438 km² निकला। सन 1853 में, भारत की प्रथम यात्री रेलावे लाइन स्थापित हुई, जिसने मुंबई को ठाणे से जोड़ा। अमरीकी नागर युद्ध के दौरान, यह नगर विश्व का प्रमुख सूती व्यवसाय बाजार बना, जिससे इसकी अर्थ व्यवस्था मजबूत हुई, साथ ही नगर का स्तर कई गुणा उठा।
1869 में स्वेज नहर के खुलने के बाद से, यह अरब सागर का सबसे बड़ा पत्तन बन गया।[4] अगले तीस वर्षों में, नगर एक प्रधान नागरिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ। जो कि संरचना के विकास एवं विभिन्न संस्थानों के निर्माण से प्रेरित था। 1906 तक नगर की जनसंख्या एक बिलियन के लगभग हो चली थी, जो कि इसे तत्कालीन कलकत्ता के बाद भारत में, दूसरे स्थान पर लाती थी। बंबई प्रेसीडेंसी की राजधानी के रूप में, यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का आधार बना रहा, जिसमें 1942 में महात्मा गाँधी द्वारा छेड़ा गया भारत छोड़ो आंदोलन प्रमुख घटना रहा। 1947 में [[भारतीय स्वतंत्रता के उपरांत, यह बॉम्बे राज्य की राजधानी बना। 1950 में उत्तरी ओर स्थित सैल्सेट द्वीप के भागों को मिलाते हुए, यह नगर अपनी वर्तमान सीमाओं तक पहुंचा।
1955 के बाद, जब बॉम्बे राज्य को पुनर्व्यवस्थित किया गया और भाषा के आधार पर इसे महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में बांटा गया, एक मांग उठी, कि नगर को एक स्वायत्त नगर-राज्य का दर्जा दिया जाये। हालांकि संयुक्त महाराष्ट्र समिति के आंदोलन में इसका भरपूर विरोध हुआ, व मुंबई को महाराष्ट्र की राजधानी बनाने पर जोर दिया गया। इन विरोधोम के चलते, 105 लोग पुलिस आयरिंग में मारे भी गये और अन्ततः 1 मई, 1960 को महाराष्ट्र राज्य स्थापित हुआ, जिसकी राजधानी मुंबई को बनाया गया।
1970 के दशक के अंत तक, एक निर्माण सहसावृद्धि हुई, जिसने यहां आवक प्रवासियों की संख्या को एक बड़े अंक तक ला दिया। इससे मुंबई ने कलकत्ता को जनसंख्या में पआड़ दिया, व प्रथम स्थान लिया। इस अंतःप्रवाह ने स्थानीय मराठी लोगों के अंदर एक चिंता जगा दी, जो कि अपनी संस्कृति, व्यवसाय, भाषा के खोने से आशंकित थे।[5] बाला साहेब ठाकरे द्वारा शिव सेना पार्टी बनायी गयी, जो मराठियों कए हित की रक्षा करने हेतु बनी थी।[6] नगर का धर्म-निरपेक्ष सूत्र 1992-93 के बंबई दंगे। दंगों के कारण छिन्न-भिन्न हो गया, ज समें बड़े पैमाने पर जान व माल का नुकसान हुआ। इसके कुछ ही महीनों बाद 12 मार्च,1993 को शृंखलाबद्ध बम विस्फोटों ने नगर को दहला दिया। इनमें पूरे मुंबई में सैंकडों लोग मारे गये। 1995 में नगर का पुनर्नामकरण मुंबई के रूप में हुआ। यह शिवसेना सरकार की ब्रिटिश कालीन नामों के ऐतिहासिक व स्थानीय आधार पर पुनर्नामकरण नीति के तहत हुआ। यहां हाल के वर्षों में भी इस्लामी उग्रवादियों द्वारा आतंकवादी हमले हुए। 2006 में यहां ट्रेन विस्फोट हुए, जिनमें दो सौ से अधिक लोग मारे गये, जब कई बम मुंबई की लोकल ट्रेनों में फटे।[7]
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