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मिस्र की संस्कृति का हजारों वर्षों की लिखित इतिहास प्राप्त होता है। प्राचीन मिस्र विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक थी। एक सहस्राब्दी तक मिस्र की अत्यन्त जटिल और स्थिर संस्कृति बनी रही। इसने यूरोप, मध्य एशिया तथा अफ्रीका की परवर्ती संस्कृतियों को प्रभावित किया। फैरोकाल के उपरान्त मिस्र यूनानवाद (Hellenism) के प्रभाव में आया, उसके बाद लघु काल के लिये ईसाइयत के प्रभाव में तथा अन्त में इस्लामी संस्कृति के प्रभाव में आ गया।
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मिस्री शासन व्यवस्था पूर्णत: धर्मतांत्रिक थी। मिस्री नरेश सूर्यदेव रे के प्रतिनिधि होने के कारण स्वयं देवता माने जाते थे। मृत्यु के बाद उनकी पूजा उनके पिरेमिड के सामने बने मंदिर में होती थी। यह विश्वाास कालांतर में इतना दृढ़ हो गया कि चौथी शताब्दी ई० पू० में सिकंदर को भी अपने को एमन-रे का पुत्र घोषित करके मिस्री जनता को संतुष्ट करना पड़ा था। उनके प्रजाजन उनका नाम तक लेने से झिझकते थे, इसलिये इन्हें प्राय: 'अच्छा देवता' अथवा 'पेर ओ' (बाइबिल का फेरओ) कहा जाता था। राज्य की आय का एक बहुत बड़ा भाग उनके हरम और परिवार के भरण-पोषण पर व्यय किया जाता था। सिद्धांतत: वे राज्य के सर्वेसर्वा होते थे। वे न केवल राज्याध्यक्ष होते थे वरन् सर्वोच्च, सेनापति, सर्वोच्च पुजारी और सर्वोच्च न्यायाधीश भी होते थे। लेकिन व्यवहार में सामंतो, पुरोहितों, प्रभावशाली पदाधिकारियों और चहेती महारानियाँ की इच्छाएँ तथा राज्य की परंपराएँ उनकी निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थीं। वे कानून के निर्माता न होकर उसके संरक्षक माने जाते थे। फेरओं के बाद राज्य का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति प्रधान मंत्री था। वह राज्य का प्रधान वास्तुकार, प्रधान न्यायाधीश और राजाभिलेख संग्रहालय का अध्यक्ष होता था। तीसरे वंश के तीन मंत्री इम्होतेप, केगेग्ने तथा टा:होतेप ने अपने ज्ञान के बल पर अतुल कीर्ति अर्जित की। मिस्री राज्य का एक अन्य महत्वपूर्ण पदाधिकारी 'प्रधान कोषाध्यक्ष' था। वह संपूर्ण देश की वित्त व्यवस्था को नियंत्रित रखता था। शासकीय सुविधा के लिये मिस्र लगभग ४० प्रांतों में विभाजित था। ये वास्तव में वे प्राचीन राज्य थे जिनको एकीकृत करके प्रथम वंश के पहले दो राज्य---उत्तरी और दक्षिणी--स्थापित किए गए थे। लेकिन अब इन पर स्वतंत्र राजाओं के स्थान पर फेरओ द्वारा नियुक्त गवर्नर राज्य करते थे। मध्य राज्य युग में प्रांतीय गवर्नरों तथा सामंतों की शक्ति विशेष रूप से बढ़ी और साम्राज्य युग में सम्राट की।
मिस्री समाज पाँच वर्गो में विभाजित था : राजपरिवार, सामंत, पुजारी, मध्यमवर्ग तथा सर्फ और दास। भूमि सिद्धांतत: फेरओ के हाथ में थी। व्यवहार में उसने इसे अधिकांशत: पुजारियों, पुराने राजाओं के वंशजों और सामंतों में विभाजित कर दिया था। उनकी बड़ी-बड़ी जागीरों में दास और सर्फ काम करते थे। मध्यम वर्ग में लिपिक, व्यापारी, कारीगर और स्वतंत्र किसान सम्मिलित थे। प्राचीन राज्य युग में सबसे अधिक प्रतिष्ठा राजपरिवार, सामंतो और पुजारियों की थी। मध्य राज्य युग में सामंतों के साथ मध्यम वर्ग को महत्व मिला तथा साम्राज्य युग में सैनिक वर्ग को। वर्ग व्यवस्था आश्चर्यजनक रूप से लचीली थी। हर व्यक्ति कोई भी पेशा अपना सकता था। केवल राजपरिवार के सदस्य इस अधिकार से वंचित थे। सर्फ भी प्राय: उच्च पदों पर पहुंच जाते थे। लेकिन उच्च और निम्न वर्ग के लोगों के रहन सहन में भारी अंतर था। धनी लोग विशाल हवादार भवनों में रहते थे और निर्धन गंदे मोहल्ले की छोटी छोटी झोपड़ियों में।
समाज की इकाई परिवार था। विध्यनुसार प्रत्येक व्यक्ति की केवल एक पत्नी हो सकती थी और उसी की संतान को परिवारिक संपत्ति उत्तराधिकार में मिलती थी। फेरओ भी इस नियम के अपवाद नहीं थे। लेकिन समृद्ध पुरुष अनेक उपपत्नियाँ रखते थे। मिस्री समाज के प्रत्येक वर्ग में भाई बहिन के विवाह की प्रथा थी, इसलिये पति पत्नी में बाल्यावस्था से ही स्नेह संबंध रहता था। समाज में स्त्रियों को अत्यंत प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। मैक्समूलर के अनुसार किसी अन्य जाति ने स्त्रियों को उतना उच्च वैधानिक सम्मान प्रदान नहीं किया जितना मिस्रियों ने। मिस्रियों के आर्थिक जीवन का आधार कृषिकर्म था। वे मुख्यत: गेहूँ, जौ, मटर, सरसों, अंजीर, खजूर, सन तथा अंगूर और अन्य अनेक फलों की खेती करते थे। मिस्र में कृषिकर्म, अपेक्षया आसान था। बिना हल चलाए भी मिस्री किसान कई फसलें पैदा कर सकते थे। सिंचाई व्यवस्था का आधार नील नदी थी। किसानों को उपज का १० से २० प्रतिशत भाग कर के रूप में देना होता था। कर, खाद्यान्न आदि के रूप में दिए जाते थे। दूसरा प्रमुख उद्यम पशु-पालन था। उनके प्रमुख पालतू पशु थे गाय, भेड़, बकरी और गधा। असीरिया और नूबिया से वे देवदारु, हाथीदाँत और आबनूस का आयात करते थे और इनसे अपने फेरओ और सामंतों के लिये बहुमूल्य फर्नीचर बनाते थे। वे कई प्रकार के जलपोत बनाने की कला में भी कुशल थे। चमड़े और खालों से वे भाँति भाँति के वस्त्र और ढाल इत्यादि तथा पेपाइरस पौधे से कागज, हलकी नावें, चप्पलें, चटाईयाँ और रस्सियाँ आदि बनाते थे। उत्तम कोटि के लिनन वस्त्रों की बहुत माँग थी। मिस्रियों के इन उद्योग धंधों को झाँकी उनके रिलीफ चित्रों में सुरक्षित है।
मिस्र निवासी अति प्राचीन काल से बहुदेववादी थे। उन्होंने अपने देवताओं की कल्पना प्राय: मनुष्यों अथवा पशुपक्षियों अथवा मिलेजुले रूप में की। उनके अधिकांश देवता प्राकृतिक शक्तियों के दैवी रूप थे। सूर्य, चंद्र तथा नील नदी को ही नहीं वरन् झरनों, पर्वतों, पशुपक्षियों, लताकुंजों, वृक्षों और विविध वनस्पतियों तक को वे दैवी शक्ति से अभिहित मानते थे। आकाश की कल्पना उन्होंने नूत नाम की दैवी अथवा हथौर नाम की दैवी गौ के रूप में की थी। मेंफिस का प्रमुख देवता टा: किसी प्राकृतिक शक्ति का दैवीकरण न होकर कलाओं और कलाकारों का संरक्षक था। सूर्य की उपासना मिस्र में लगभग सभी जगह विभिन्न नामों और रूपों में होती थी। उत्तरी मिस्र में उसकी पूजा का मुख्य केन्द्र ओन (यूनानियों का हेलियोपोलिस) नाम का स्थान था। यहाँ उसे रे कहा जाता था और उसकी कल्पना पश्चिम की ओर गमन करते हुए वृद्ध पुरुष के रूप में की गई थी। थीबिज में उसका नाम एमन था। दक्षिणी मिस्र में उसका प्रमुख केन्द्र एडफू नामक स्थान था। वहाँ उसकी उपासना बाज पक्षी के रूप में होरुस नाम से होती थी। संयुक्त राज्य की स्थापना होने पर सूर्य के इन विभिन्न रूपों को अभिन्न माना जाने लगा और उसका संयुक्त नाम एमन-रे लोकप्रिय हो गया। उसका प्रतीक 'पक्षयुक्त सूर्चचक्र' मिस्र का राजचिह्न था। मिस्रियों के विश्वास के अनुसार सबसे पहले उसी ने फेरओं के रूप में शासन किया था। सूर्यदेव के आकाशगामी हो जाने पर पृथ्वी पर उसके प्रतिनिधि फेरओं राज्य करने लगे। इनमें सबसे पहला स्थान ओसिरिस को दिया गया है। यद्यपि कहीं-कहीं उसको सूर्य का पुत्र भी कहा गया है, तथापि वह मूलत: नील नदी, पृथ्वी की उर्वर शक्ति तथा हरीतिमा का दैवीकरण प्रतीत होता है। एक नरेश के रूप में वह अत्यंत परोपकारी और न्यायप्रिय सिद्ध हुआ। शासनकार्य में उसे अपनी बहिन और पत्नी आइसिस से बहुत सहायता मिली। उसके दुष्ट भ्राता सेत ने उसकी धोखे से हत्या कर दी। बाद में आइसिस ने होरुस नामक पुत्र को जन्म दिया। उसका पालन-पोषण उसने मुहाने वाले प्रदेश में गुप्त रूप से किया। युवावस्था प्राप्त करने के बाद होरुस ने घोर संघर्ष करके सेत को पराजित किया और अपने पिता के अपमान और वध का प्रतिशोध लिया।
मध्य राज्य युग में ओसिरिस का महत्व बहुत बढ़ा और यह माना जाने लगा कि प्रत्येक मृतात्मा परलोक में ओसिरिस के न्यायालय में जाती है। वहाँ औसिरिस अपने ४२ अधीन न्यायाधीशों की सहायता से उसके कर्मो की जाँच करता है। जो मृतात्माएँ इस जाँच में खरी उतरती थीं उन्हें यारूलोक में स्वर्गीय सुखों का उपभोग करने के लिये भेज दिया जाता था और जिनका पार्थिव जीवन दुष्कर्मों से परिपूर्ण होता था उन्हें घोर यातनाएँ दी जाती थीं।
साम्राज्य युग में पुजारी वर्ग अत्यंत धनी और सत्ताधारी हो गया। इससे मध्य राज्य युग में धर्म और सदाचार में जो घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हुआ था वह टूट गया। अब स्वयं धर्म के संरक्षक भोग-विलास का जीवन व्यतीत करने लगे। 'देवताओं' के मनोरंजक के हेतु नियुक्त देवदासियाँ वस्तुत: उनका ही मनोरंजन करती थीं। अब उन्होंने मृतकों को परलोक का भय दिखाकर यह दावा करना शुरू किया कि अगर वे चाहें तो अपने जादू के जोर से पापिष्ठों को भी स्वर्ग दिला सकते हैं। इतना ही नहीं, वे खुले आम ऐसे पापमोचक प्रमाणपत्र बेचते थे। इन प्रमाणपत्रों की तुलना मध्यकालीन यूरोप में ईसाई पादरियों द्वारा बेचे जानेवाले पापमोचक प्रमाणपत्रों (इंडल्जेंसेज) से की जा सकती है। मिस्री धर्म की यह वह अवस्था थी जब १३७५ ई० पू० में अमेनहोतेप चतुर्थ मिस्र का अधीश्वर बना। उसने प्रारंभ से ही पुजारी वर्ग में फैले भ्रष्टाचार और राजनीति पर उनके अवांछनीय प्रभाव का विरोध किया और एटन नामक एक नये देवता की उपासना को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया। उसकी प्रशंसा में उसने अपना नाम भी अख्नाटन रख लिया। एटन मूलत: सूर्यदेव रे का ही नाम था। लेकिन अख्नाटन ने उसे केवल मिस्र का ही नहीं, समस्त विश्व का एकमात्र देवता बताया। क्योंकि एटन निराकार था, इसलिये अख्नाटन ने उसकी मूर्तियाँ नहीं बनवाईं। लेकिन जनसाधारण उसकी महिमा को हृदयंगम कर सके, इसलिये उसने 'सूर्यचक्र' को उसका प्रतीक माना। एटन की उपासना में न बहुत अधिक चढ़ावे की आवश्यकता थी, न जटिल कर्मकांड, तंत्रमंत्र और पुजारियों की भीड़ की। केवल हृदय से एटन के आभार को मानना और उसकी स्तुति करते हुए श्रद्धा के प्रतीक रूप कुछ पत्र, पुष्प और फल चढ़ाना पर्याप्त था। उसके परलोकवाद में नरक की कल्पना नहीं मिलती क्योंकि वह यह सोच भी नहीं सकता था कि दयालु पिता एटन किसी को नारकीय पीड़ाएँ दे सकता है।
अख्नाटन ने प्रारंभ में अन्य देवताओं के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार किया किंतु पुजारियों के उग्र विरोध पर उसने अन्य देवताओं के मंदिरों को बंद करवा दिया। उनके पुजारियों को निकाल दिया, अपनी प्रजा को केवल एटन की पूजा करने का आदेश दिया और सार्वजनिक स्मारकों पर लिखे हुए सब देवताओं के नाम मिटवा दिए। लेकिन अख्नाटन के विचार और कार्य उसके समय के अनुकूल नहीं थे। इसलिये उसकी मृत्यु के साथ उसका धर्म भी समाप्त हो गया। उसके बाद, उसके दामाद तूतेनखाटन ने पुराने धर्म को पुन: प्रतिष्ठित किया, पुजारियों के अधिकार लौटा दिए और अपना नाम बदलकर तूतेनखामेन रख लिया।
मिस्र की प्राचीन लिपि चित्राक्षर लिपि (हाइरौग्लाइफिक) कही जाती है। 'हाइरोग्लाइफ' यूनानी शब्द है। इसका अर्थ है 'पवित्र चिह्न'। इस लिपि में कुल मिलाकर लगभग २००० चित्राक्षर थे। इनमें कुछ चित्रों में मनुष्य की विभिन्न आकृतियाँ आदि है। ये चिह्न तीन प्रकार के हैं: भावबोधक, ध्वनिबोधक तथा संकेतसूचक। चित्राक्षरों को बनाते समय वस्तुओं के यथार्थ रूप को अंकित करने का प्रयास किया जाता था, इसलिये इसे लिखने में बहुत समय लगता था। इस कठिनाई को दूर करने के लिये प्रथम वंश के शासनकाल में ही मिस्रियों ने एक प्रकार की द्रुत अथवा घसीट (हाइरेटिक) लिपि का विकास कर लिया था। मिस्रियों ने प्राचीन राज्य युग में २४ अक्षरों की एक वर्णमाला का आविष्कार करने में भी सफलता प्राप्त की थी। उन्होंने वर्णमाला को भावबोधक और घ्वनिबोधक चित्रोें से सहायक रूप में प्रयुक्त किया, स्वतंत्र माध्यम के रूप में नहीं। आठवीं श्ताब्दी ई० पू० के लगभग मिस्रियों ने 'हाइरेटिक लिपि' से भी शीघ्रतर लिखी जानेवाली लिपि का आविष्कार किया जिसे 'डिमाटिक' कहा जाता है। यह एक प्रकार की शार्टहैंड लिपि कही जा सकती है।
मिस्र में प्राचीन राज्य काल से ही पेपाइरस (नरकुल के गूदे से बना कागज) लिखने का सामान्य साधन था। चर्मपत्रों को तथा मृद्भांडों के टुकड़ों को भी लिखने के लिये काम में लाया जाता था। उन पर चित्राक्षर नरकुल की लेखनी से भी बनाए जाते थे और ब्रुश से भी।
मिस्री साहित्य प्रकृत्या व्यावहारिक था। उनकी अधिकांश कृतियाँ ऐसी हैं जो किसी न किसी व्यावहारिक उद्देश्य की पूर्ति करने के लिये लिखी गई थीं। इसीलिये वे महाकाव्यों, नाटकों और यहाँ तक कि साहित्यक दृष्टि से आख्यानों की भी रचना कभी नहीं कर पाए। उनके जिन आख्यानों की चर्चा की गई है, वे सब साम्राज्य युग के अंत तक केवल जनकथाओं के रूप में प्रचलित थे। उनको कभी पृथक् साहित्यिक कृतियों के रूप में लिपिबद्ध नहीं किया गया। पिरेमिड युग की विशिष्ट धार्मिक रचनाएँ पिरेमिड टेक्सट्स हैं। इनमें मृतक संस्कार में काम आने वाले वे मंत्र, पूजागीत और प्रार्थनाएँ आदि सम्मिलित हैं जिन्हें मृत फेरओ के पारलौकिक जीवन को संकट रहित करने के लिये उसके पिरेमिडों की भित्तियों पर उत्कीर्ण कर दिया जाता था। इनसे ही कालांतर में 'कॉफिन टेक्सट्स' तथा 'बुक ऑव दि डेड' का विकास हुआ। शेष साहित्य भी प्रकृत्या व्यावहारिक है। उदाहरणार्थ इम्होतेप, केगेम्ने तथा टा:होतेप इत्यादि मंत्रियों ने अपने अनुभवजनित ज्ञान को लेखबद्ध किया। ये कृतियाँ 'नीतिग्रंथ' कहलाती हैं। मध्य राज्ययुगीन रचनाओं में 'मुखर कृषक का आवेदन', 'इपुवेर की भविष्यवाणी' 'एमेनम्हेत का उपदेश' तथा 'वीणावादक का गान' प्रमुख हैं तथा साम्राज्ययुगीन कृतियों में अख्नाटन के स्तोत्र।
विज्ञान के केवल उन्हीं क्षेत्रों में मिस्रियों की रुचि थी जिनकी व्यावहारिक जीवन में आवश्यकता पड़ती थीं। जिज्ञासा के सीमित होने के बावजूद उन्होंने कुछ क्षेत्रों में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की। उदाहरणार्थ उन्होंने ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति का काफी सही अंदाज करके आकाश का मानचित्र बना लिया था। सौर पंचांग का आविष्कार उनकी महत्वपूर्ण सफलता थी। गणित के मुख्य नियम जोड़, घटाना और भाग व्यापार और प्रशासन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये काफी पहले आविष्कृत हो चुके थे। लेकिन गुणा से वे अंत तक अपरिचित रहे। इसका काम वे जोड़ से चलाते थे। शून्य और दशमलव विधि से भी वे अपरिचित थे। बीजगणित और रेखागणित की प्राथमिक समस्याओं को हल करना उन्हें आ गया था, लेकिन विषम चतुर्भुज का क्षेत्रफल निकालने में दिक्कत का अनुभव करते थे। वृत्त, अर्द्धगोलाक और सिलिंडर का क्षेत्रफल निकालने में काफी सफलता प्राप्त कर ली थी। भवनों की आधारयोजना बनाने में वे असाधारण रूप से कुशल थे। उनके कारीगर स्तंभों और मेहरातों के प्रयोग से परिचित थे। चिकित्साशास्त्र में भी उन्होंने पर्याप्त प्रगति कर ली थी।
मिस्रियों के लिये कला उनके राष्ट्रीय जीवन को अभिव्यक्त करने का माध्यम थी। इसका सर्वोत्तम प्रमाण उनके पिरेमिड हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि मिस्री नरेशों ने इन्हें राज्य की आर्थिक व्यवस्था बिगड़ने पर जनता को रोजगार देने के लिये बनवाया था। लेकिन यह असंभव लगता है। जिस समय ये पिरेमिड बनाए गए थे मिस्र समृद्ध देश था, इसलिये इनका निर्माण आर्थिक संगठन के दौर्बल्य का कारण माना जा सकता है, परिणाम नहीं। वास्तव में मिस्रियों ने पिरेमिडों की रचना अपने राज्य और उसके प्रतीक फेरओं की अनश्वरता और गौरव को अभिव्यक्त करने के लिये की थी। अगर फेरओं अमर थे तो उनकी मृत देह की सुरक्षा और उसके निवास के हेतु उनकी महत्ता के अनुरूप विशाल और स्थायी समाधियों का निर्माण आवश्यक था। हेरोडोटस के अनुसार गिजेह के 'विशाल पिरेमिड' को एक लाख व्यक्तियों ने बीस साल में बनाया था। यह तेरह एकड़ भूमि में बना है और ४८० फुट ऊँचा तथा ७५५ फुट लंबा हैं। इसमें ढाई ढाई टन भार के २३ पाषाणखंड लगे हैं। ये इतनी चतुरता से जोड़े गए हैं कि कहीं कहीं तो जोड़ की चौड़ाई एक इंच के हजारवें भाग से कम है।
साम्राज्य युग में मिस्री वास्तुकला का प्रदर्शन मंदिरों का निर्माण में हुआ। पिरेमिडों के समान ये मंदिर भी प्राय: कठोरतम पाषाण से बनाए गए है और अत्यंत विशाल है। कानार्क का मंदिर संभवत: विश्व का विशालतम भवन है। यह १३०० फुट (लगभग चौथाई मील) लंबा है। इसका मध्यवर्ती कक्ष १७० फुट लंबा और ३३८ फुट चौड़ा है। इसकी छत छह पंक्तियों में बनाए गए १३६ स्तंभों पर टिकी है जिनमें मध्यवर्ती बारह स्तंभ ७९ फुट ऊँचे हैं और उनमें से प्रत्येक के शीर्षभाग पर सौ व्यक्ति खड़े हो सकते हैं। मिस्री नूबिया में निर्मित आबू सिंबेल का मंदिर वस्तुत: एक गुहामंदिर है। यह १७५ फुट लंबा और ९० फुट ऊँचा है। इसके मध्यवर्ती कक्ष की छत २० फुट ऊँचे ८ स्तंभों पर आधारित है जिनके साथ ओसिरिस की १७ फुट ऊँची मूर्तियाँ बनी है। लक्सोर का मंदिर अमेनहोतेप तृतीय ने बनवाया था। किंतु वह इसे पूरा नहीं कर पाया।
वास्तुकला के समान विशालता, सुदृढ़ता और रूढ़िवादिता भी मिस्री मूर्तिकला की विशेषताएँ थीं। राजाओं की मूर्तियाँ अधिकांशत: कठोर पाषाण से विशाल आकार और भाव-विहीन मुद्रा में बनाई जाती थीं। उन्हें प्राय: कुर्सी पर पैर लटका कर मेरुदंड को सीधा किये और हाथों को जाँघों पर रखे बैठने की मुद्रा में अथवा हाथ लटकाए बायाँ पैर आगे बढ़ाकर चलने की मुद्रा में दिखाया गया है। थटमोस तृतीय और रेमेसिस द्वितीय की मूर्तियाँ तो आकाश को छूती लगती है। खेफे के पिरेमिड के सामने स्थित विशाल 'स्फिक्स्' नामक मूर्ति संभवत: विश्व की विशालतम मूर्ति है। इसका शरीर सिंह का है और सिर फेरओ खफ्रे का। इन सबसे भिन्न हैं अख्नाटन के काल में बनी कुछ मूर्तियाँ जिनमें स्वयं अख्नाटन और उसकी रानी नफ्रोेतीति की मूर्तियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। इसके निर्माता कलाकार पुरानी परंपराओं के बंधनों से मुक्त थे। ऐसी कुछ मूर्तियाँ सामान्य जनों की भी मिली हैं। इनमें काहिरा संग्रहालय में सुरक्षित प्राचीन राज्य के एक ओवरसियर की काष्ठ की प्रतिमा, जिसका केवल सिर अवशिष्ट है, बहुत प्रसिद्ध है। यह 'शेख की मूर्ति' नाम से विख्यात है। लूब्रे संग्रहालय की 'लिपिक की मूर्ति' भी अत्यंत प्राणवान् प्रतीत होती है।
मिस्र में मंदिरों और मस्तबाओं (समाधियों) में रिलीफ चित्र बनाने वाले कलाकारों की भी बहुत माँग थी। ऐसी मूर्तियाँ बनाते समय अंकित वस्तु की लंबाई चौड़ाई तो आसानी से दिखा दी जाती थी, लेकिन मोटाई अथवा गोलाई दिखाने में दिक्कत होती थी। इसलिये उनके रिलीफ चित्रों में काफी अस्वाभाविकता आ गई है। लेकिन इस दोष के बावजूद मिस्री रिलीफ चित्र दर्शनीय हैं और प्राचीन मिस्री सभ्यता और रीति रिवाजों पर ज्ञानवर्द्धक प्रकाश डालते हैं।
मिस्र की चित्रकला के अधिकांश नमूने नष्ट हो चुके है, लेकिन जो शेष हैं, धार्मिक और राजनीतिक रूढ़ियों से अप्रभावित लगते हैं। ऐसा लगता है, मिस्र में चित्रकला का जन्म पिरेमिड युग में हो जाने पर भी विकास काफी बाद में हुआ। इसलिये यह कला धर्म की परिधि से बाहर रह गई। मिस्री चित्रकला के उपलब्ध नमूनों में सर्वोत्तम अख्नाटन के समय के हैं। चित्रकला के अतिरिक्त साम्राज्ययुगीन मिस्री अन्य अनेक ललित कलाओें में भी दक्ष हो चुके थे। तूतेनखामेन की १९२२ ई० में उत्खनित समाधि से अब से लगभग ३३०० वर्ष पूर्व छोड़े गए बहुमूल्य काष्ठ, चर्म और स्वर्ण निर्मित फर्नीचर उपकरण, आबनूस और हस्तिदंत खचित बाक्स, स्वर्ण और बहुमूल्य पाषाणों से सज्जित रथ, स्वर्णपत्रमंडित सिंहासन, श्वेत पाषाण के सुंदर भांड तथा जरी के सुंदर शाही वस्त्र, उपलब्ध हुए हैं। इनसे साम्राज्ययुगीन मिस्र की कला की प्रगति और वैभव का पता चलता है।
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