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राजपूत महाराणा मेवाड़ विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
राणा हम्मीर सिंह (1314–78), या हम्मीरा जो १४वीं शताब्दी में भारत के राजस्थान के मेवाड़ के एक योद्धा या एक शासक थे।[1] १३वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत ने गुहिलों की सिसोदिया राजवंश की शाखा को मेवाड़ से सत्तारूढ़ कर दिया था, इनसे पहले गुहिलों की रावल शाखा का शासन था जिनके प्रथम शासक बप्पा रावल थे और अंतिम रावल रतन सिंह थे। मेवाड़ राज्य के इस शासक को 'विषम घाटी पंचानन'(सकंट काल मे सिंह के समान) के नाम से जाना जाता है, राणा हम्मीर को विषम घाटी पंचानन की संज्ञा राणा कुम्भा ने कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति में दी।
राणा हम्मीर सिंह | |
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राणा | |
मेवाड़ के राणा | |
शासनावधि | 1326–1364 (38 वर्ष) |
उत्तरवर्ती | क्षेत्र सिंह |
जन्म | 1314 |
निधन | 1364 (50 साल) |
जीवनसंगी | सोंगरी |
राजवंश | सिसोदिया |
पिता | अरी सिंह शाक्य |
माता | उर्मिला |
सीसोद गाँव के ठाकुर राणा हम्मीर सिसोदिया वंश के प्रथम शासक थे, तथा इन्हें मेवाड़ का उद्धारक कहा जाता है। राणा हम्मीर आरिसिंह के पुत्र तथा लक्ष्मणसिंह के पौत्र हैं, जिन्होंने अपनी सैन्य क्षमता के आधार पर मेवाड़ के खैरवाड़ा (उदयपुर) नामक स्थान को मुख्य केंद्र बनाया। राजस्थान के इतिहास में राणा हम्मीर ने चित्तौड़ से मुस्लिम सत्ता को उखाड़ने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। मेवाड़ की विषम परिस्थितियों के होते हुए भी इन्होंने चित्तौड़ पर विजयश्री प्राप्त की। इस प्रकार 1326 ई. में राणा हम्मीर को पुनः चित्तौड़ प्राप्त हुआ। इसी कारण राणा हम्मीर को विषम घाटी पंचानन के नाम से जाना जाता है।
हम्मीर इनके अलावा सिसोदिया राजवंश जो कि गुहिल वंश की ही एक शाखा है क्योंकि वे प्रजनक भी बन गए थे, इसके बाद सभी महाराणा सिसोदिया राजवंश के ही रहे।
हम्मीर ने चित्तौड़ पर विजय करने के कई प्रयास किए, लेकिन असफल रहे, जिसके कारण उनके संसाधन कम हो गए और उनके कई सिपाही भी छोड़ चले गए। हम्मीर, अपने आदमियों को आराम देने और फिर से संगठित होने की इच्छा से, आक्रमण को बंद कर और अपने शेष सिपाहियों के साथ द्वारका की तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े। रास्ते में, उन्होंने गुजरात में चारणों के खोड़ गाँव में डेरा डाला, जहाँ एक देवी आई बिरवड़ी रहती थीं, जिन्हें हिंगलाज का अवतार माना जाता था। हम्मीर ने उनसे आशीर्वाद की याचना की और अपनी चित्तौड़ पर आक्रमण की असफलताओं का वर्णन किया, जिस पर देवी ने उन्हें मेवाड़ लौटने और एक और हमले की तैयारी करने की सलाह दी। हम्मीर ने जवाब दिया कि उसके पास अब एक और हमला करने के लिए सैनिक क्षमता नहीं है। देवी बिरवड़ी ने उसे आश्वासन दिया कि उनका पुत्र बारूजी उसकी की सहायता के लिए मेवाड़ आयेगा। इन शब्दों ने महाराणा पर गहरी छाप छोड़ी जो तुरंत कैलवाड़ा लौट आए।[2]
कुछ ही दिनों में, बारूजी जो घोड़ों के एक धनी व्यापारी थे, अपने 500 घोड़ों के एक बड़े कारवां के साथ केलवाड़ा पहुंचा, जहां हम्मीर ने डेरा डाला था।[3][4]
अपने शासन को व्यवस्थित करने की आवश्यकता में, मालदेव ने राणा हम्मीर के साथ अपनी बेटी सोंगारी की शादी की व्यवस्था की। खिलजी को यह वैवाहिक संबंध पसंद नहीं आया और उसने मालदेव से चित्तौड़गढ़ वापस ले लिया और उसे मेड़ता दे दिया। इसने हम्मीर को मेवाड़ से खिलजी की सेना को खदेड़ने के लिए प्रयास करने के लिए प्रेरित किया। हम्मीर और उनके चारण सहयोगियों ने हमला किया और वे चित्तौड़गढ़ हासिल करने में सफल रहे।[5]
चित्तौड़ पर सफलतापूर्वक विजय करने के बाद, राणा हम्मीर ने बारुजी की समय पर सैन्य सहायता के लिए उन्हें मेवाड़ साम्राज्य के प्रोलपात पाटवी (बारहठ) का पद प्रदान किया, जो उनके भावी पीढ़ी के वंशजों को उत्तराधिकार में मिला।[5][6]
जब हम्मीर का शाशन चित्तौड़ में दृढ़ हो गया, उसने बिरवड़ी जी को वहाँ आमंत्रित किया और उन्हें बहुत सम्मान और आदर से किले में स्वागत किया। उनकी प्राणोत्सर्ग पर, महाराणा ने उनके सम्मान में चित्तौड़गढ़ दुर्ग में एक मंदिर बनवाया, जो आज भी कायम है और इसे अन्नापूर्णा मंदिर के नाम से जाना जाता है।[2] राणा हम्मीर के शासनकाल में दिल्ली के सुल्तान मौहम्मद बिन तुगलक ने मेवाड़ पर आक्रमण किया। दोनों के बीच सिंगोली नामक स्थान पर युद्ध लड़ा गया जिसे सिंगोली का युद्ध कहा जाता है। जिसमें हम्मीर सिंह ने तुगलक सेना को हराया और मुहम्मद बिन तुगलक को बंदी बना लिया। वर्तमान में सिंगोली नामक स्थान उदयपुर में स्थित है। इस युद्ध के बाद मेवाड़ में राणा हम्मीर के दिन सामान्य रहे तथा 1364 ई. में इनकी मृत्यु हो गयी।
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