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संचार करने का मार्ग विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
भारत के संचार माध्यम (मीडिया) के अन्तर्गत टेलीविजन, रेडियो, सिनेमा, समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, तथा अन्तरजालीय पृष्ठ आदि हैं। अधिकांश मीडिया निजी हाथों में है और बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा नियंत्रित है। भारत में 70,000 से अधिक समाचार पत्र हैं, 690 उपग्रह चैनेल हैं (जिनमें से 80 समाचार चैनेल हैं)। आज भारत विश्व का सबसे बड़ा समाचार पत्र का बाजार है।
भारत में मीडिया का विकास तीन चरणों में हुआ। पहले दौर की नींव उन्नीसवीं सदी में उस समय पड़ी जब औपनिवेशिक आधुनिकता के संसर्ग और औपनिवेशिक हुकूमत के ख़िलाफ़ असंतोष की अंतर्विरोधी छाया में हमारे सार्वजनिक जीवन की रूपरेखा बन रही थी। इस प्रक्रिया के तहत मीडिया दो ध्रुवों में बँट गया। उसका एक हिस्सा औपनिवेशिक शासन का समर्थक निकला, और दूसरे हिस्से ने स्वतंत्रता का झण्डा बुलंद करने वालों का साथ दिया। राष्ट्रवाद बनाम उपनिवेशवाद का यह दौर 1947 तक चलता रहा। इस बीच अंग्रेज़ी के साथ-साथ भारतीय भाषाओं में पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन की समृद्ध परम्परा पड़ी और अंग्रेज़ों के नियंत्रण में रेडियो-प्रसारण की शुरुआत हुई। दूसरा दौर आज़ादी मिलने के साथ प्रारम्भ हुआ और अस्सी के दशक तक चला। इस लम्बी अवधि में मीडिया के प्रसार और गुणवत्ता में ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई। उसके विभिन्न रूप भारत को आधुनिक राष्ट्र-राज्य बनाने के लक्ष्य के इर्द-गिर्द गढ़ी गयी अखिल भारतीय सहमति को धरती पर उतारने की महा-परियोजना में भागीदारी करते हुए दिखाई पड़े। इसी दौर में टीवी का आगमन हुआ। मुद्रित मीडिया मुख्यतः निजी क्षेत्र के हाथ में, और रेडियो-टीवी की लगाम सरकार के हाथ में रही।
नब्बे के दशक में भूमण्डलीकरण के आगमन के साथ तीसरे दौर की शुरुआत हुई जो आज तक जारी है। यह राष्ट्र-निर्माण और जन-राजनीति के प्रचलित मुहावरे में हुए आमूल-चूल परिवर्तन का समय था जिसके कारण मीडिया की शक्ल-सूरत और रुझानों में भारी तब्दीलियाँ आयीं। टीवी और रेडियो पर सरकारी जकड़ ढीली पड़ी। निजी क्षेत्र में चौबीस घंटे चलने वाले उपग्रहीय टीवी चैनलों और एफ़एम रेडियो चैनलों का बहुत तेज़ी से प्रसार हुआ। बढ़ती हुई साक्षरता और निरंतर जारी आधुनिकीकरण के तहत भारतीय भाषाओं के मीडिया ने अंग्रेज़ी-मीडिया को प्रसार और लोकप्रियता में बहुत पीछे छोड़ दिया। मीडिया का कुल आकार अभूतपूर्व ढंग से बढ़ा। नई मीडिया प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या में ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई। महज़ दस साल के भीतर-भीतर भारत में भी लगभग वही स्थिति बन गयी जिसे पश्चिम में ‘मीडियास्फ़ेयर’ कहा जाता है।
भारत में मीडिया के विकास के पहले चरण को तीन हिस्सों में बाँट कर समझा जा सकता है। पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में ईसाई मिशनरी धार्मिक साहित्य का प्रकाशन करने के लिए भारत में प्रिंटिंग प्रेस ला चुके थे। भारत का पहला अख़बार बंगाल गज़ट भी 29 जनवरी 1780 को एक अंग्रेज़ जेम्स ऑगस्टस हिकी ने निकाला। चूँकि हिकी इस साप्ताहिक के ज़रिये भारत में ब्रिटिश समुदाय के अंतर्विरोधों को कटाक्ष भरी भाषा में व्यक्त करते थे, इसलिए जल्दी ही उन्हें गिरफ्तातार कर लिया गया और दो साल में अख़बार का प्रकाशन बंद हो गया। हिकी के बाद किसी अंग्रेज़ ने औपनिवेशिक हितों पर चोट करने वाला प्रकाशन नहीं किया।
उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में कलकत्ता के पास श्रीरामपुर के मिशनरियों ने और तीसरे दशक में राजा राममोहन राय ने साप्ताहिक, मासिक और द्वैमासिक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ किया। पत्रकारिता के ज़रिये यह दो दृष्टिकोणों का टकराव था। श्रीरामपुर के मिशनरी भारतीय परम्परा को निम्नतर साबित करते हुए ईसाइयत की श्रेष्ठता स्थापित करना चाहते थे, जबकि राजा राममोहन राय की भूमिका हिंदू धर्म और भारतीय समाज के आंतरिक आलोचक की थी। वे परम्परा के उन रूपों की आलोचना कर रहे थे जो आधुनिकता के प्रति सहज नहीं थे। साथ में राजा राममोहन परम्परा के उपयोगी आयामों को ईसाई प्रेरणाओं से जोड़ कर एक नये धर्म की स्थापना की कोशिश में भी लगे थे। इस अवधि में मीडिया की सारवस्तु पर धार्मिक प्रश्नों और समाज सुधार के आग्रहों से संबंधित विश्लेषण और बहसें हावी रहीं।
समाज सुधार के प्रश्न पर व्यक्त होने वाला मीडिया का यह द्वि-ध्रुवीय चरित्र आगे चल कर औपनिवेशिक बनाम राष्ट्रीय के स्पष्ट विरोधाभास में विकसित हो गया और 1947 में सत्ता के हस्तांतरण तक कायम रहा। तीस के दशक तक अंग्रेज़ी के ऐसे अख़बारों की संख्या बढ़ती रही जिनका उद्देश्य अंग्रेज़ों के शासन की तरफ़दारी करना था। इनका स्वामित्व भी अंग्रेज़ों के हाथ में ही था। 1861 में बम्बई के तीन अख़बारों का विलय करके टाइम्स ऑफ़ इण्डिया की स्थापना भी ब्रिटिश हितों की सेवा करने के लिए रॉबर्ट नाइट ने की थी। 1849 में गिरीश चंद्र घोष ने पहला बंगाल रिकॉर्डर नाम से ऐसा पहला अख़बार निकाला जिसका स्वामित्व भारतीय हाथों में था। 1853 में इसका नाम बदल कर 'हिंदू पैट्रियट' हो गया। हरिश्चंद्र मुखर्जी के पराक्रमी सम्पादन में निकलने वाले इस पत्र ने विभिन्न प्रश्नों पर ब्रिटिश सरकार की कड़ी आलोचना की परम्परा का सूत्रपात किया। सदी के अंत तक एक तरफ़ तो उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय नेतृत्व का आधार बन चुका था, और दूसरी ओर स्वाधीनता की कामना का संचार करने के लिए सारे देश में विभिन्न भाषाओं में पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा था। भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता ब्रिटिश शासन को आड़े हाथों लेने में कतई नहीं चूकती थी। इसी कारण 1878 में अंग्रेज़ों ने वरनाकुलर प्रेस एक्ट बनाया ताकि अपनी आलोचना करने वाले प्रेस का मुँह बंद कर सकें। इसका भारत और ब्रिटेन में जम कर विरोध हुआ। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन हुआ जिसकी गतिविधियाँ उत्तरोत्तर मुखर राष्ट्रवाद की तरफ़ झुकती चली गयीं। भारतीय भाषाओं के प्रेस ने भी इसी रुझान के साथ ताल में ताल मिला कर अपना विकास किया। मीडिया के लिहाज़ से बीसवीं सदी को एक उल्लेखनीय विरासत मिली जिसके तहत तिलक, गोखले, दादाभाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, मदनमोहन मालवीय और रवींद्रनाथ ठाकुर के नेतृत्व में अख़बारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा था। बीस के दशक में गाँधी के दिशा-निर्देश में कांग्रेस एक जनांदोलन में बदल गयी। स्वयं गाँधी ने राष्ट्रीय पत्रकारिता में तीन-तीन अख़बार निकाल कर योगदान दिया।
लेकिन इस विकासक्रम का एक दूसरा ध्रुव भी था। अगर इन राष्ट्रीय हस्तियों के नेतृत्व में मराठा, केसरी, बेंगाली, हरिजन, नवजीवन, यंग इण्डिया, अमृत बाज़ार पत्रिका, हिंदुस्तानी, एडवोकेट, ट्रिब्यून, अख़बार-ए-आम, साधना, प्रबासी, हिंदुस्तान रिव्यू, रिव्यू और अभ्युदय जैसे प्रकाशन उपनिवेशवाद विरोधी तर्कों और स्वाधीनता के विचार को अपना आधार बना रहे थे, तो कलकत्ता का स्टेट्समैन, बम्बई का टाइम्स ऑफ़ इण्डिया, मद्रास का मेल, लाहौर का सिविल ऐंड मिलिट्री गज़ट और इलाहाबाद का पायनियर खुले तौर पर अंग्रेज़ी शासन के गुण गाने में विश्वास करता था।
मीडिया-संस्कृति का यह द्विभाजन भाषायी आधार पर ही और आगे बढ़ा। राष्ट्रीय भावनाओं का पक्ष लेने वाले अंग्रेज़ी के अख़बारों की संख्या गिनी-चुनी ही रह गयी। अंग्रेज़ी के बाकी अख़बार अंग्रजों के पिट्ठू बन गये। भारतीय भाषाओं के अख़बारों ने खुल कर उपनिवेशवादविरोधी आवाज़ उठानी शुरू कर दी। अंग्रेज़ समर्थक अख़बारों के पत्रकारों के वेतन और सुविधाओं का स्तर भारतीय भाषाओं के प्रकाशनों में कार्यरत पत्रकारों के वेतन आदि से बहुत अच्छा था। ब्रिटिश समर्थक अख़बारों को खूब विज्ञापन मिलते थे और उनके लिए संसाधनों की कोई कमी न थी। उपनिवेशवाद विरोधी अख़बारों का पूँजी-आधार कमज़ोर था। बहरहाल, अंग्रेज़ी पत्रकारिता के महत्त्व को देखते हुए जल्दी ही मालवीय, मुहम्मद अली, ऐनी बेसेंट, मोतीलाल नेहरू आदि ने राष्ट्रवादी विचारों वाले अंग्रेज़ी अख़बारों (लीडर, कॉमरेड, मद्रास स्टेंडर्ड, न्यूज, इंडिपेंडेंट, सिंध ऑब्ज़र्वर) की शुरुआत की। दिल्ली से 1923 में कांग्रेस का समर्थन करने वाले भारतीय पूँजीपति घनश्याम दास बिड़ला ने द हिंदुस्तान टाइम्स का प्रकाशन शुरू किया। 1938 में जवाहरलाल नेहरू ने अंग्रेज़ी के राष्ट्रवादी अख़बार नैशनल हैरल्ड की स्थापना की।
1826 में कलकत्ता से जुगल किशोर सुकुल ने उदंत मार्तण्ड नामक पहला हिंदी समाचार पत्र प्रकाशित किया था। हिंदी मीडिया ने अपनी दावेदारी बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पेश की जब गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप , बालमुकुंद गुप्त और अम्बिका शरण वाजपेयी ने भारत मित्र , महेशचंद्र अग्रवाल ने विश्वमित्र और शिवप्रसाद गुप्त ने आज की स्थापना की। एक तरह से यह हिंदी-प्रेस की शुरुआत थी। इसी दौरान उर्दू-प्रेस की नींव पड़ी। अबुल कलाम आज़ाद ने अल-हिलाल और अल-बिलाग़ का प्रकाशन शुरू किया, मुहम्मद अली ने हमदर्द का। लखनऊ से हकीकत, लाहौर से प्रताप और मिलाप और दिल्ली से तेज़ का प्रकाशन होने लगा। बांग्ला में संध्या, नायक, बसुमती, हितबादी, नबशक्ति, आनंद बाज़ार पत्रिका, जुगांतर, कृषक और नबजुग जैसे प्रकाशन अपने-अपने दृष्टिकोणों से उपनिवेशवाद विरोधी अभियान में भागीदारी कर रहे थे। मराठी में इंदुप्रकाश, नवकाल, नवशक्ति और लोकमान्य ; गुजराती में गुजराती पंच, सेवक, गुजराती और समाचार , वंदेमातरम्; दक्षिण भारत में मलयाला मनोरमा, मातृभूमि, स्वराज, अल-अमीन, मलयाला राज्यम, देशाभिमानी, संयुक्त कर्नाटक, आंध्र पत्रिका, कल्कि, तंति, स्वदेशमित्रम्, देशभक्तम् और दिनामणि यही भूमिका निभा रहे थे।
यहाँ एक सवाल उठ सकता है कि यह राष्ट्रीय मीडिया किन मायनों में राष्ट्रीय था? इसमें कोई शक नहीं कि ये सभी पत्र-पत्रिकाएँ ब्रिटिश शासन की विरोधी थीं, लेकिन उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन की दशा और दिशा को लेकर उनके बीच वैसे ही मतभेद थे जैसे कांग्रेस और अन्य राजनीतिक शक्तियों के बीच दिखाई पड़ते थे। ब्रिटिश प्रशासन ने 1924 में मद्रास में एक शौकिया रेडियो क्लब बनाने की अनुमति दी। तीन साल बाद निजी क्षेत्र में ब्रॉडकास्ट कम्पनी ने बम्बई और कलकत्ता में नियमित रेडियो प्रसारण शुरू किया। लेकिन साथ में शौकिया रेडियो क्लब भी चलते रहे। प्रेक्षकों की मान्यता है कि जिस तरह इन शौकिया क्लबों के कारण अंग्रेज़ों को रेडियो की बाकायदा स्थापना करनी पड़ी, कुछ-कुछ इसी तर्ज़ पर प्राइवेट केबिल ऑपरेटरों के कारण नब्बे के दशक में सरकार को टेलिविज़न का आंशिक निजीकरण करने की इजाज़त देनी पड़ी।
बहरहाल, औपनिवेशिक सरकार ने 1930 में ब्रॉडकास्टिंग को अपने हाथ में ले लिया और 1936 में उसका नामकरण ‘आल इण्डिया रेडियो’ या ‘आकाशवाणी’ कर दिया गया। हैदराबाद, त्रावणकोर, मैसूर, बड़ोदरा, त्रिवेंद्रम और औरंगाबाद जैसी देशी रियासतों में भी प्रसारण चालू हो गया। रेडियो पूरी तरह से अंग्रेज़ सरकार के प्रचारतंत्र का अंग था। सेंसरशिप, सलाहकार बोर्ड और विभागीय निगरानी जैसे संस्थागत नियंत्रक उपायों द्वारा अंग्रेज़ों ने यह सुनिश्चित किया कि उपनिवेशवाद विरोधी राजनीति के पक्ष में रेडियो से एक शब्द भी प्रसारित न होने पाये। दिलचस्प बात यह है कि यह अंग्रेज़ी विरासत भारत के आज़ाद होने के बाद भी जारी रही। अंग्रेज़ों के बाद आकाशवाणी को भारत सरकार ने उस समय तक अपना ताबेदार बनाये रखा जब तक 1997 में आकाशवाणी एक स्वायत्त संगठन का अंग नहीं बन गयी।
चूँकि भारतीय मीडिया के दोनों ध्रुवों ने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के पक्ष या विपक्ष में रह कर ही अपनी पहचान बनायी थी, इसलिए स्वाभाविक रूप से राजनीति उसका केंद्रीय सरोकार बनती चली गयी। 15 अगस्त 1947 को जैसे ही सत्ता का हस्तांतरण हुआ और अंग्रेज़ भारत से जाने के लिए अपना बोरिया-बिस्तर समेटने लगे, मीडिया और सरकार के संबंध बुनियादी तौर से बदल गये। एक तरफ़ तो अंग्रेज़ों द्वारा लगायी गयी पाबंदियाँ प्रभावी नहीं रह गयीं, और दूसरी तरफ़ ब्रिटिश शासन की पैरोकारी करने वाले ज़्यादातर अख़बारों का स्वामित्व भारतीयों के हाथ में चल गया। लेकिन इससे भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह था कि मीडिया ने राजनीतिक नेतृत्व के साथ कंधे से कंधा मिला कर आधुनिक भारतीय राष्ट्र का निर्माण करना शुरू किया। मीडिया के विकास का यह दूसरा चरण अस्सी के दशक तक जारी रहा। इस लम्बे दौर के चार उल्लेखनीय आयाम थे :
स्वतंत्र भारत में सरकार को गिराने या बदनाम करने में प्रेस ने कोई रुचि नहीं दिखाई। लेकिन साथ ही वह सत्ता का ताबेदार बनने के लिए तैयार नहीं था। उसका रवैया रेडियो और टीवी से अलग तरह का था। रेडियो-प्रसारण करने वाली 'आकाशवाणी' पूरी तरह से सरकार के हाथ में थी। 1959 में ‘शिक्षात्मक उद्देश्यों’ से शुरू हुए टेलिविज़न (दूरदर्शन) की प्रोग्रामिंग की ज़िम्मेदारी भी रेडियो को थमा दी गयी थी। इसके विपरीत शुरू से ही निजी क्षेत्र के स्वामित्व में विकसित हुए प्रेस ने सरकार, सत्तारूढ़ कांग्रेस, विपक्षी दलों और अधिकारीतंत्र को बार-बार स्व-परिभाषित राष्ट्र-हित की कसौटी पर कस कर देखा। यह प्रक्रिया उसे व्यवस्था का अंग बन कर उसकी आंतरिक आलोचना करने वाली सतर्क एजेंसी की भूमिका में ले गयी। भारतीय मीडिया के कुछ अध्येताओं ने माना भी है कि अंग्रेज़ों के बाद सरकार को दिया गया प्रेस का समर्थन एक ‘सतर्क समर्थन’ ही था।
प्रेस ने ‘राष्ट्र-हित’ की एक सर्वमान्य परिभाषा तैयार की जिसे मनवाने के लिए न कोई मीटिंग की गयी और न ही कोई दस्तावेज़ पारित किया गया। पर इस बारे में कोई मतभेद नहीं था कि उदीयमान राष्ट्र-राज्य जिस ढाँचे के आधार पर खड़ा होगा, उसका चरित्र लोकतांत्रिक और सेकुलर ही होना चाहिए। उसने यह भी मान लिया था कि ऐसा करने के लिए उत्पीड़ित सामाजिक तबकों और समुदायों का लगातार सबलीकरण अनिवार्य है। प्रेस-मालिक, प्रबंधक और प्रमुख पत्रकार अपने-अपने ढंग से यह भी मानते थे कि इस लक्ष्य को वेधने के लिए ग़रीबी को समृद्धि में बदलना पड़ेगा जिसका रास्ता वैकासिक अर्थशास्त्र और मिश्रित अर्थव्यवस्था से हो कर जाता है। स्वतंत्र भारत की विदेश नीति (गुटनिरपेक्षता और अन्य देशों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व) के प्रति भी मीडिया ने सकारात्मक सहमति दर्ज करायी।
दूसरी तरफ़ सरकार ने अपनी तरफ़ से प्रेस के कामकाज को विनियमित करने के लिए एक संस्थागत ढाँचा बनाना शुरू कर दिया। 1952 और 1977 में दो प्रेस आयोग गठित किये गये। 1965 में एक संविधानगत संस्था प्रेस परिषद् की स्थापना हुई। 1956 में 'रजिस्ट्रेशन ऑफ़ बुक्स एक्ट' के तहत प्रेस रजिस्ट्रार ऑफ़ इण्डिया की स्थापना की गयी। इन उपायों में प्रेस की आज़ादी को सीमित करने के अंदेशे भी देखे जा सकते थे, पर प्रेस ने इन कदमों पर आपत्ति नहीं की। उसे यकीन था कि सरकार किसी भी परिस्थिति में संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत मिलने वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी का उल्लंघन नहीं करेगी। संविधान में स्पष्ट उल्लेख न होने के बावजूद सर्वोच्च कोर्ट ने इस गारंटी में प्रेस की स्वतंत्रता को भी शामिल मान लिया था। लेकिन प्रेस का यह यकीन 1975 में टूट गया जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने अपने राजनीतिक संकट से उबरने के लिए देश पर आंतरिक आपातकाल थोप दिया। नतीजे के तौर पर नागरिक अधिकार मुल्तवी कर दिये गये, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और प्रेस पर पाबंदियाँ लगा दी गयीं। 253 पत्रकार नज़रबंद किये गये, सात विदेशी संवाददाता निष्कासित कर दिये गये, सेंसरशिप थोपी गयी और प्रेस परिषद् भंग कर दी गयी। भारतीय प्रेस अपने ऊपर होने वाले इस आक्रमण का उतना विरोध नहीं कर पाया, जितना उसे करना चाहिए था। किन्तु कुछ ने सरकार के सामने घुटने टेक दिये, पर कुछ ने नुकसान सह कर भी आपातकाल की पाबंदियों का प्रतिरोध किया।
उन्नीस महीने बाद यह आपातकाल चुनाव की कसौटी पर पराजित हो गया, पर इस झटके के कारण पहली बार भारतीय प्रेस ने अपनी आज़ादी के लिए लड़ने की ज़रूरत महसूस की। राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में हिस्सेदारी करने की उसकी भूमिका पहले से भी अधिक ‘सतर्क’ हो गयी। पत्रकारों की सतर्क निगाह ने देखा कि आपातकाल की पराजय के बाद भी राजनीतिक और सत्ता प्रतिष्ठान में प्रेस की स्वतंत्रता में कटौती करने की प्रवृत्ति ख़त्म नहीं हुई है। इसके बाद अस्सी का दशक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए चलाये गये संघर्षों का दशक साबित हुआ। 1982 में बिहार प्रेस विधेयक और 1988 में लोकसभा द्वारा पारित किये गये मानहानि विधेयक को राजसत्ता पत्रकारों द्वारा किये गये आंदोलनों के कारण कानून में नहीं बदल पाये। दूसरी तरफ़ इंदिरा गाँधी की सरकार द्वारा एक्सप्रेस समाचार-पत्र समूह को सताने के लिए चलाये गये अभियान से यह भी साफ़ हुआ कि किसी अख़बार द्वारा किये जा रहे विरोध को दबाने के लिए कानून बदलने के बजाय सत्ता का थोड़ा सा दुरुपयोग ही काफ़ी है।
आपातकाल के विरुद्ध चले लोकप्रिय संघर्ष के परिणामस्वरूप सारे देश में राजनीतीकरण की प्रक्रिया पहले के मुकाबले कहीं तेज़ हो गयी। लोकतंत्र और उसकी अनिवार्यता के प्रति नई जागरूकता ने अख़बारों की तरफ़ नये पाठकों का ध्यान आकर्षित किया। ये नये पाठक निरंतर बढ़ती जा रही साक्षरता की देन थे। बढ़ती हुई प्रसार संख्याओं के फलस्वरूप मुद्रित मीडिया का दृष्टिकोण व्यावसायिक और बाज़ारोन्मुख हुआ। राजनीतीकरण, साक्षरता और पेशेवराना दृष्टिकोण के साथ इसी समय एक सुखद संयोग के रूप में नई प्रिंटिंग प्रौद्योगिकी जुड़ गयी। डेक्स-टॉप पब्लिशिंग सिस्टम और कम्प्यूटर आधारित डिज़ाइनिंग ने अख़बारों और पत्रिकाओं के प्रस्तुतीकरण में नया आकर्षण पैदा कर दिया। इस प्रक्रिया ने विज्ञापन से होने वाली आमदनी में बढ़ोतरी की। अस्सी के दशक के दौरान हुए इन परिवर्तनों में सबसे महत्त्वपूर्ण था भाषायी पत्रकारिता का विकास। हिंदी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, बांग्ला, असमिया और दक्षिण भारतीय भाषाओं के अख़बारों को इस नई परिस्थिति का सबसे ज़्यादा लाभ हुआ। अस्सी का दशक इन भाषायी क्षेत्रों में नये पत्रकारों के उदय का दशक भी था। इस विकासक्रम के बाद भाषायी पत्रकारिता ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। नई सदी में राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण के आँकड़ों ने बताया कि अब अंग्रेज़ी प्रेस के हाथों में मीडिया की लगाम नहीं रह गयी है। सबसे अधिक प्रसार संख्या वाले पहले दस अख़बारों में अंग्रेज़ी का केवल एक ही पत्र रह गया, वह भी नीचे से दूसरे स्थान पर।
अस्सी के दशक में ही प्रसारण-मीडिया के लिए एक सीमा तक सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने की परिस्थितियाँ बनीं। 1948 में संविधान सभा में बोलते हुए जवाहरलाल नेहरू ने वायदा किया था कि आज़ाद भारत में ब्रॉडकास्टिंग का ढाँचा ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (बीबीसी) के तर्ज़ पर होगा। यह आश्वासन पूरा करने में स्वतंत्र भारत की सरकारों को पूरे 42 साल लग गये। इसके पीछे रेडियो और टीवी को सरकार द्वारा निर्देशित राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन के लिए ही इस्तेमाल करने की नीति थी। इस नीति के प्रभाव में रेडियो का तो एक माध्यम के रूप में थोड़ा-बहुत विकास हुआ, पर टीवी आगे नहीं बढ़ पाया। इतना ज़रूर हुआ कि 1975-76 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अमेरिका से एक उपग्रह उधार लिया ताकि देश के विभिन्न हिस्सों में 2,400 गाँवों में कार्यक्रमों का प्रसारण हो सके। इसे 'सेटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलिविज़न एक्सपेरीमेंट' (साइट) कहा गया। इसकी सफलता से विभिन्न भाषाओं में टीवी कार्यक्रमों के निर्माण और प्रसारण की सम्भावनाएँ खुलीं। फिर 1982 में दिल्ली एशियाड का प्रसारण करने के लिए रंगीन टीवी की शुरुआत हुई। इसके कारण टीवी के प्रसार की गति बढ़ी। 1990 तक उसके ट्रांसमीटरों की संख्या 519 और 1997 तक 900 हो गयी। बीबीसी जैसा स्वायत्त कॉरपोरेशन बनाने के संदर्भ में 1966 तक केवल इतनी प्रगति हो पायी कि भारत के पूर्व महालेखा नियंत्रक ए.के. चंदा के नेतृत्व में बनी कमेटी द्वारा आकाशवाणी और दूरदर्शन को दो स्वायत्त निगमों के रूप में गठित करने की सिफ़ारिश कर दी गयी। बारह साल तक यह सिफ़ारिश भी ठंडे बस्ते में पड़ी रही। 1978 में बी.जी. वर्गीज की अध्यक्षता में गठित किये गये एक कार्यदल ने 'आकाश भारती' नामक संस्था गठित करने का सुझाव दिया। साल भार बाद मई, 1979 में प्रसार भारती नामक कॉरपोरेशन बनाने का विधेयक संसद में लाया गया जिसके तहत आकाशवाणी और दूरदर्शन को काम करना था। प्रस्तावित कॉरपोरेशन के लिए वर्गीज कमेटी द्वारा सुझाये गये आकाश भारती के मुकाबले कम अधिकारों का प्रावधान किया गया था। जो भी हो, जनता पार्टी की सरकार गिर जाने के कारण यह विधेयक पारित नहीं हो पाया।
1985 से 1988 के बीच दूरदर्शन को आज़ादी का एक हल्का सा झोंका नसीब हुआ। इसका श्रेय भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी भास्कर घोष को जाता है जो इस दौरान दूरदर्शन के महानिदेशक रहे। प्रसार भारती विधेयक पारित कराने की ज़िम्मेदारी विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने 1990 में पूरी की। लेकिन प्रसार भारती गठित होते-होते सात साल और गुज़र गये। तकनीकी रूप से कहा जा सकता है कि आज दूरदर्शन और आकाशवाणी स्वायत्त हो गये हैं। लेकिन हकीकत में सूचना और प्रसारण मंत्रालय का एक अतिरिक्त सचिव ही प्रसार भारती का मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) होता है। अगर यह स्वायत्तता है तो बहुत सीमित किस्म की।
नब्बे के दशक में कदम रखने के साथ ही भारतीय मीडिया को बहुत बड़ी हद तक बदली हुई दुनिया का साक्षात्कार करना पड़ा। इस परिवर्तन के केंद्र में 1990-91 की तीन परिघटनाएँ थीं : मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों से निकली राजनीति, मंदिर आंदोलन की राजनीति और भूमण्डलीकरण के तहत होने वाले आर्थिक सुधार। इन तीनों ने मिल कर सार्वजनिक जीवन के वामोन्मुख रुझानों को नेपथ्य में धकेल दिया और दक्षिणपंथी लहज़ा मंच पर आ गया। यही वह क्षण था जब सरकार ने प्रसारण के क्षेत्र में 'खुला आकाश' की नीति अपनानी शुरू की। नब्बे के दशक में उसने न केवल प्रसार भारती निगम बना कर आकाशवाणी और दूरदर्शन को एक हद तक स्वायत्तता दी, बल्कि स्वदेशी निजी पूँजी और विदेशी पूँजी को प्रसारण के क्षेत्र में कदम रखने की अनुमति भी दी। प्रिंट मीडिया में विदेशी पूँजी को प्रवेश करने का रास्ता खोलने में उसे कुछ वक्त लगा लेकिन इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में उसने यह फ़ैसला भी ले लिया। मीडिया अब पहले की तरह ‘सिंगल-सेक्टर’ यानी मुद्रण-प्रधान नहीं रह गया। उपभोक्ता-क्रांति के कारण विज्ञापन से होने वाली आमदनी में कई गुना बढ़ोतरी हुई जिससे हर तरह के मीडिया के लिए विस्तार हेतु पूँजी की कोई कमी नहीं रह गयी। सेटेलाइट टीवी पहले केबिल टीवी के माध्यम से दर्शकों तक पहुँचा जो प्रौद्योगिकी और उद्यमशीलता की दृष्टि से स्थानीय पहलकदमी और प्रतिभा का असाधारण नमूना था। इसके बाद आयी डीटीएच प्रौद्योगिकी जिसने समाचार प्रसारण और मनोरंजन की दुनिया को पूरी तरह से बदल डाला। एफ़एम रेडियो चैनलों की कामयाबी से रेडियो का माध्यम मोटर वाहनों से आक्रांत नागर संस्कृति का एक पर्याय बन गया। 1995 में भारत में इंटरनेट की शुरुआत हुई और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अंत तक बड़ी संख्या में लोगों के निजी और व्यावसायिक जीवन का एक अहम हिस्सा नेट के ज़रिये संसाधित होने लगा। नई मीडिया प्रौद्योगिकियों ने अपने उपभोक्ताओं को ‘कनवर्जेंस’ का उपहार दिया जो जादू की डिबिया की तरह हाथ में थमे मोबाइल फ़ोन के ज़रिये उन तक पहुँचने लगा। इन तमाम पहलुओं ने मिल कर मीडिया का दायरा इतना बड़ा और विविध बना दिया कि उसके आग़ोश में सार्वजनिक जीवन के अधिकतर आयाम आ गये। इसे ‘मीडियास्फ़ेयर’ जैसी स्थिति का नाम दिया गया।
प्रिंट मीडिया में विदेशी पूँजी को इजाज़त मिलने का पहला असर यह पड़ा कि रियूतर, सीएनयेन और बीबीसी जैसे विदेशी मीडिया संगठन भारतीय मीडियास्फ़ेयर की तरफ़ आकर्षित होने लगे। उन्होंने देखा कि भारत में श्रम का बाज़ार बहुत सस्ता है और अंतराष्ट्रीय मानकों के मुकाबले यहाँ वेतन पर अधिक से अधिक एक-चौथाई ही ख़र्च करना पड़ता है। इसलिए इन ग्लोबल संस्थाओं ने भारत को अपने मीडिया प्रोजेक्टों के लिए आउटसोर्सिंग का केंद्र बनाया भारतीय बाज़ार में मौजूद मीडिया के विशाल और असाधारण टेलेंट-पूल का ग्लोबल बाज़ार के लिए दोहन होने लगा। दूसरी तरफ़ भारत की प्रमुख मीडिया कम्पनियाँ (टाइम्स ग्रुप, आनंद बाज़ार पत्रिका, जागरण, भास्कर, हिंदुस्तान टाइम्स) वाल स्ट्रीट जरनल, बीबीसी, फ़ाइनेंसियल टाइम्स, इंडिपेंडेंट न्यूज़ ऐंड मीडिया और ऑस्ट्रेलियाई प्रकाशनों के साथ सहयोग-समझौते करती नज़र आयीं। घराना-संचालित कम्पनियों पर आधारित मीडिया बिज़नेस ने पूँजी बाज़ार में जा कर अपने-अपने इनीशियल पब्लिक ऑफ़रिंग्स अर्थात् आईपीओ प्रस्ताव जारी करने शुरू कर दिये। इनकी शुरुआत पहले एनडीटीवी, टीवी टुडे, ज़ी टेलिफ़िल्म्स जैसे दृश्य-मीडिया ने की। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तर्ज़ पर प्रिंट-मीडिया ने भी पूँजी बाज़ार में छलाँग लगायी और अपने विस्तार के लिए निवेश हासिल करने में जुट गया। ऐसा पहला प्रयास ‘द डेकन क्रॉनिकल’ ने किया जिसकी सफलता ने प्रिंट-मीडिया के लिए पूँजी का संकट काफ़ी-कुछ हल कर दिया।
दूसरी तरफ़ बाज़ारवाद के बढ़ते हुए प्रभाव और उपभोक्ता क्रांति में आये उछाल के परिणामस्वरूप विज्ञापन-जगत में दिन-दूनी-रात-चौगुनी बढ़ोतरी हुई। चालीस के दशक की शुरुआत में विज्ञापन एजेंसियों की संख्या चौदह से बीस के आस-पास रही होगी। 1979-80 में न्यूज़पेपर सोसाइटी (आईएनएस) की मान्यता प्राप्त एजेंसियों की संख्या केवल 168 तक ही बढ़ सकी थी। लेकिन, भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया ने अगले दो दशकों में उनकी संख्या 750 कर दी जो चार सौ करोड़ रुपये सालाना का धंधा कर रही थीं। 1997-98 में सबसे बड़ी पंद्रह विज्ञापन एजेंसियों ने ही कुल 4,105.58 करोड़ रुपये के बिल काटे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उपभोक्ता-क्रांति का चक्का कितनी तेज़ी से घूम रहा था। विज्ञापन की रंगीन और मोहक हवाओं पर सवार हो कर दूर-दूर तक फैलते उपभोग के संदेशों ने उच्च वर्ग, उच्च-मध्यम वर्ग, समूचे मध्य वर्ग और मज़दूर वर्ग के ख़ुशहाल होते हुए महत्त्वाकांक्षी हिस्से को अपनी बाँहों में समेट लिया। मीडिया का विस्तार विज्ञापनों में हुई ज़बरदस्त बढ़ोतरी के बिना सम्भव नहीं था।
प्रिंट-मीडिया और रेडियो विज्ञापनों को उतना असरदार कभी नहीं बना सकता था जितना टीवी ने बनाया। टीवी का प्रसार भारत में देर से अवश्य हुआ, लेकिन एक बार शुरुआत होने पर उसने मीडिया की दुनिया में पहले से स्थापित मुद्रित-माध्यम को जल्दी ही व्यावसायिक रूप से असुरक्षाग्रस्त कर दिया। इस प्रक्रिया में केबिल और डीटीएच के योगदान का उल्लेख करना आवश्यक है। केबिल टीवी का प्रसार और सफलता भारतीयों की उद्यमी प्रतिभा का ज़ोरदार नमूना है। सरकार के पास चूँकि किसी सुसंगत संचार नीति का अभाव था इसलिए नब्बे के दशक की शुरुआत में बहुमंज़िली इमारतों में रहने वाली मध्यवर्गीय और निम्न-मध्यवर्गीय आबादियों में कुछ उत्साही और चतुर लोगों ने अपनी निजी पहलकदमी पर क्लोज़ सरकिट टेलिविज़न प्रसारण का प्रबन्ध किया जिसका केंद्र एक सेंट्रल कंट्रोल रूम हुआ करता था। इन लोगों ने वीडियो प्लेयरों के ज़रिये भारतीय और विदेशी फ़िल्में दिखाने की शुरुआत की। साथ में दर्शकों को मनोरंजन की चौबीस घंटे चलने वाली खुराक देने वाले विदेशी-देशी सेटेलाइट चैनल भी देखने को मिलते थे। जनवरी, 1992 में केबिल नेटवर्क के पास केवल 41 लाख ग्राहक थे। लेकिन केवल चार साल के भीतर 1996 में यह संख्या बानवे लाख हो गयी। अगले साल तक पूरे देश में टीवी वाले घरों में से 31 प्रतिशत घरों में केबिल प्रसारण देखा जा रहा था। सदी के अंत तक बड़े आकार के गाँवों और कस्बों के टीवी दर्शकों तक केबिल की पहुँच हो चुकी थी। केबिल और उपग्रहीय टीवी चैनलों की लोकप्रियता देख कर प्रमुख मीडिया कम्पनियों ने टीवी कार्यक्रम-निर्माण के व्यापार में छलाँग लगा दी। वे पब्लिक और प्राइवेट टीवी चैनलों को कार्यक्रमों की सप्लाई करने लगे।
स्पष्ट है कि केबिल और डीटीएच के कदम तभी जम सकते थे, जब पहले पब्लिक (सरकारी) और प्राइवेट (निजी पूँजी के स्वामित्व में) टेलिविज़न प्रसारण में हुई वृद्धि ने ज़मीन बना दी हो। 1982 में दिल्ली एशियाड के मार्फ़त रंगीन टीवी के कदम पड़ते ही भारत में टीवी ट्रांसमीटरों की संख्या तेज़ी से बढ़ी। पब्लिक टीवी के प्रसारण नेटवर्क दूरदर्शन ने नौ सौ ट्रांसमीटरों और तीन विभिन्न सेटेलाइटों की मदद से देश के 70 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र को और 87 % आबादी को अपने दायरे में ले लिया (पंद्रह साल में 230 फ़ीसदी की वृद्धि)। उसका मुख्य चैनल डीडी-वन तीस करोड़ लोगों (यानी अमेरिका की आबादी से भी अधिक) तक पहुँचने का दावा करने लगा। प्राइवेट टीवी प्रसारण केबिल और डीटीएच के द्वारा अपनी पहुँच लगातार बढ़ा रहा है। लगभग सभी ग्लोबल टीवी नेटवर्क अपनी बल पर या स्थानीय पार्टनरों के साथ अपने प्रसारण का विस्तार कर रहे हैं। भारतीय चैनल भी पीछे नहीं हैं और उनके साथ रात-दिन प्रतियोगिता में लगे हुए हैं। अंग्रेज़ी और हिंदी के चैनलों के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं (विशेषकर दक्षिण भारतीय) के मनोरंजन और न्यूज़ चैनलों की लोकप्रियता और व्यावसायिक कामयाबी भी उल्लेखनीय है। सरकार की दूरसंचार नीति इन मीडिया कम्पनियों को इजाज़त देती है कि वे सेटेलाइट के साथ सीधे अपलिंकिंग करके प्रसारण कर सकते हैं। अब उन्हें अपनी सामग्री विदेश संचार निगम (वीएसएनयेल) के रास्ते लाने की मजबूरी का सामना नहीं करना पड़ता।
अगस्त, 1995 से नवम्बर, 1998 के बीच सरकारी संस्था विदेश संचार निगम लिमिटेड (वीएसएनयेल) द्वारा ही इंटरनेट सेवाएँ मुहैया करायी जाती थीं। यह संस्था कलकत्ता, बम्बई, मद्रास और नई दिल्ली स्थित चार इंटरनैशनल टेलिकम्युनिकेशन गेटवेज़ के माध्यम से काम करती थी। नैशनल इंफ़ोमेटिक्स सेंटर (एनआईसीनेट) और एजुकेशनल ऐंड रिसर्च नेटवर्क ऑफ़ द डिपार्टमेंट ऑफ़ इलेक्ट्रॉनिक्स (ईआरएनयीटी) कुछ विशेष प्रकार के 'क्लोज़्ड यूज़र ग्रुप्स' को ये सेवाएँ प्रदान करते थे। दिसम्बर, 1998 में दूरसंचार विभाग ने बीस प्राइवेट ऑपरेटरों को आईएसपी लाइसेंस प्रदान करके इस क्षेत्र का निजीकरण कर दिया। 1999 तक सरकार के तहत चलने वाले महानगर टेलिफ़ोन निगम सहित 116 आईएसपी कम्पनियाँ सक्रिय हो चुकी थीं। केबिल सर्विस देने वाले भी इंटरनेट उपलब्ध करा रहे थे।
जैसे-जैसे बीएसएनएल ने अपना शुल्क घटाया, इंटरनेट सेवाएँ सस्ती होती चली गयीं। देश भर में इंटरनेट कैफ़े दिखने लगे। जुलाई, 1999 तक भारत में 114,062 इंटरनेट होस्ट्स की पहचान हो चुकी थी। इनकी संख्या में 94 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी दर्ज की गयी। नई सदी में कदम रखते ही सारे देश में कम्प्यूटर बूम की आहटें सुनी जाने लगीं। पर्सनल कम्प्यूटरों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी और साथ ही इंटरनेट प्रयोक्ताओं की संख्या भी। ई-कॉमर्स की भूमि तैयार होने लगी और बैंकों ने उसे प्रोत्साहित करना शुरू किया। देश के प्रमुख अख़बार ऑन लाइन संस्करण प्रकाशित करने लगे। विज्ञापन एजेंसियाँ भी अपने उत्पादों को नेट पर बेचने लगीं। नेट ने व्यक्तिगत जीवन की क्वालिटी में एक नये आयाम का समावेश किया। रेलवे और हवाई जहाज़ के टिकट बुक कराने से लेकर घर में लीक होती छत को दुरुस्त करने के लिए नेट की मदद ली जाने लगी। नौकरी दिलाने वाली और शादी-ब्याह संबंधी वेबसाइट्स अत्यंत लोकप्रिय साबित हुईं। वर-वधु खोजने में इंटरनेट एक बड़ा मददगार साबित हुआ। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के सहारे नेट आधारित निजी रिश्तों की दुनिया में नये रूपों का समावेश हुआ।
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