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वाष्पयान या भाप का इंजन एक प्रकार का उष्मीय इंजन है जो कार्य करने के लिये जल-वाष्प का प्रयोग करता है। भाप के इंजन अधिकांशतः वाह्य दहन इंजन होते हैं जिसमें रैंकाइन चक्र (Rankine cycle) नामक उष्मा-चक्र (heat cycle) काम में लाया जाता है। कुछ वाष्पयान सौर उर्जा, नाभिकीय उर्जा या जिओथर्मल उर्जा से भी चलते हैं।
वैसे तो भाप के इंजन का इतिहास बहुत पुराना है (कोई दो हजार वर्ष)। किन्तु पहले की युक्तियाँ शक्ति उत्पादन की दृष्टि से व्यावहारिक नहीं थीं। बाद में इनकी डिजाइन में बहुत सुधार हुआ जिससे ये औद्योगिक क्रान्ति के समय यांत्रिक शक्ति के प्रमुख स्रोत बनकर उभरे। यद्यपि अब भाप से चलने वाली रेलगाड़ियाँ एवं अन्य मशीने कालकवलित हो चुकीं हैं किन्तु पूरे संसार की विद्युत-शक्ति का लगभग आधी शक्ति आज भी वाष्प टर्बाइनों की सहायता से उत्पन्न किया जा रहा है।
भाप इंजन बनाने के यत्न का सबसे प्राचीन उल्लेख अलेक्जैंड्रिया के हीरो के लेखों में मिलता है। हीरो उस विख्यात अलैक्जैंड्रीय संप्रदाय (300 ई.पू.-400 ई। सन्) schwör bei koranका सदस्य था जिसमें टोलेमी, यूक्लिड, इरेटोस्थनीज जैसे तत्कालीन विज्ञान के महारथी सम्मिलित थे। हीरो ने अपने लेख में एक ऐसी युक्ति का वर्णन किया है जिसमें एक बंद बाक्स में वायु गर्म की जाती थी और एक नली के मार्ग से नीचे पानी भरे बर्तन की ओर फैलती थी। इसमें बर्तन का पानी दूसरी नली में चढ़ता था और एक नकली फुहारा बन जाता था। फिर इसके बाद इस संबंध में कहीं कोई विवरण नहीं मिलता है।
1606 ई. में, हीरो से लगभग 2,000 वर्ष बाद, नेपोलियन अकादमी के संस्थापक और तत्कालीन यूरोप में विज्ञान के अग्रणी नेता मार्क्सेव देला पोर्ता ने हीरो के फुहारेवाले प्रयोग में हवा की जगह भाप का उपयोग किया। उन्होंने यह भी सुझाया कि किसी बर्तन को पानी से भरने के लिए यदि उसे एक नली द्वारा पानी से किसी तालाब से संबंधित कर दिया जाय और तब उस बर्तन में भाप भरकर फिर उसे ऊपर से पानी के द्वारा ठंडा किया जाय तो भीतर की भाप संघनित होकर निर्वात उत्पन्न करेगी और उसकी जगह तालाब से पानी बर्तन में भर जाएगा।
1698 ई. में मार्क्सेव देला पोर्ता के इस सुझाव का उपयोग टामस सेवरी ने पानी चढ़ाने की एक मशीन में किया। इस प्रकार सेवरी पहला व्यक्ति था जिसने व्यावसायिक उपयोग का एक भाप इंजन बनाया, जिसका उपयोग खदानों में से पानी उलीचने और कुओं में से पानी निकालने में हुआ।
सेवरी के इंजन के आविष्कार के बाद भाप इंजन का अगला चरण न्यूकोमेन इंजन का आविष्कार था। इसका आविष्कार टामस न्यूकोमेन (1663-1729 ई.) ने किया। इस इंजन का खदानों और कुओं से पानी निकालने में 50 वर्षों तक उपयोग होता रहा। इसका ऐतिहासिक महत्व भी है, क्योंकि इसी से जेम्स वाट के आविष्कारों का मार्ग खुला। इस इंजन में पहली बार सिलिंडर और पिस्टन का उपयोग किया गया जो अब तक भाप इंजनों में प्रयुक्त किए जाते हैं।
न्यूकामेन इंजन में भाप केवल निर्वात उत्पन्न करने के काम आती है। पिस्टन उठाने का काम, जिससे पानी चढ़ता है, वायुमंडलीय दाब करता है। लेकिन भाप को केवल संघनित करने में बहुत ईंधन व्यर्थ खर्च होता है।
जेम्स वाट का महत्वपूर्ण कार्य भाप इंजन को सर्वश्रेष्ठ रूप देना है जिससे मनुष्य की शक्ति दस गुनी बढ़ गई और व्यावसायिक क्षेत्र में बृहद् परिवर्तन हो गया।
जेम्स वाट ग्लासगो में एक चतुर वैज्ञनिक यंत्ररचयिता थे और 1763 में ग्लासगो विश्वविद्यालय के भौतिकी के प्रोफेसर से उन्हें एक न्यूकामेन इंजन की मरम्मत का ओदश मिला जो कभी ठीक न चलता था। मरम्मत करके समय वाट को ध्यान आया कि इसमें ईंधन बुरी तरह से व्यर्थ हो जाता है। विचारशील स्वभाव के वाट ने इससे श्रेष्ठ मशीन बनाने का विचार प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार उन्होंने अनेक अन्वेषण किए और यंत्र बनाए, जिनसे भाप इंजन को उसका वर्तमान स्वरूप प्राप्त हुआ और वह उद्योग और सभ्यता की प्रगति में शक्तिशाली साधन बना। इतिहास ==
वैसे तो भाप के इंजन का इतिहास बहुत पुराना है (कोई दो हजार वर्ष)। किन्तु पहले की युक्तियाँ शक्ति उत्पादन की दृष्टि से व्यावहारिक नहीं थीं। बाद में इनकी डिजाइन में बहुत सुधार हुआ जिससे ये औद्योगिक क्रान्ति के समय यांत्रिक शक्ति के प्रमुख स्रोत बनकर उभरे। यद्यपि अब भाप से चलने वाली रेलगाड़ियाँ एवं अन्य मशीने कालकवलित हो चुकीं हैं किन्तु पूरे संसार की विद्युत-शक्ति का लगभग आधी शक्ति आज भी वाष्प टर्बाइनों की सहायता से उत्पन्न किया जा रहा है।
भाप इंजन बनाने के यत्न का सबसे प्राचीन उल्लेख अलेक्जैंड्रिया के हीरो के लेखों में मिलता है। हीरो उस विख्यात अलैक्जैंड्रीय संप्रदाय (300 ई.पू.-400 ई। सन्) schwör bei koranका सदस्य था जिसमें टोलेमी, यूक्लिड, इरेटोस्थनीज जैसे तत्कालीन विज्ञान के महारथी सम्मिलित थे। हीरो ने अपने लेख में एक ऐसी युक्ति का वर्णन किया है जिसमें एक बंद बाक्स में वायु गर्म की जाती थी और एक नली के मार्ग से नीचे पानी भरे बर्तन की ओर फैलती थी। इसमें बर्तन का पानी दूसरी नली में चढ़ता था और एक नकली फुहारा बन जाता था। फिर इसके बाद इस संबंध में कहीं कोई विवरण नहीं मिलता है।
1606 ई. में, हीरो से लगभग 2,000 वर्ष बाद, नेपोलियन अकादमी के संस्थापक और तत्कालीन यूरोप में विज्ञान के अग्रणी नेता मार्क्सेव देला पोर्ता ने हीरो के फुहारेवाले प्रयोग में हवा की जगह भाप का उपयोग किया। उन्होंने यह भी सुझाया कि किसी बर्तन को पानी से भरने के लिए यदि उसे एक नली द्वारा पानी से किसी तालाब से संबंधित कर दिया जाय और तब उस बर्तन में भाप भरकर फिर उसे ऊपर से पानी के द्वारा ठंडा किया जाय तो भीतर की भाप संघनित होकर निर्वात उत्पन्न करेगी और उसकी जगह तालाब से पानी बर्तन में भर जाएगा।
1698 ई. में मार्क्सेव देला पोर्ता के इस सुझाव का उपयोग टामस सेवरी ने पानी चढ़ाने की एक मशीन में किया। इस प्रकार सेवरी पहला व्यक्ति था जिसने व्यावसायिक उपयोग का एक भाप इंजन बनाया, जिसका उपयोग खदानों में से पानी उलीचने और कुओं में से पानी निकालने में हुआ।
सेवरी के इंजन के आविष्कार के बाद भाप इंजन का अगला चरण न्यूकोमेन इंजन का आविष्कार था। इसका आविष्कार टामस न्यूकोमेन (1663-1729 ई.) ने किया। इस इंजन का खदानों और कुओं से पानी निकालने में 50 वर्षों तक उपयोग होता रहा। इसका ऐतिहासिक महत्व भी है, क्योंकि इसी से जेम्स वाट के आविष्कारों का मार्ग खुला। इस इंजन में पहली बार सिलिंडर और पिस्टन का उपयोग किया गया जो अब तक भाप इंजनों में प्रयुक्त किए जाते हैं।
न्यूकामेन इंजन में भाप केवल निर्वात उत्पन्न करने के काम आती है। पिस्टन उठाने का काम, जिससे पानी चढ़ता है, वायुमंडलीय दाब करता है। लेकिन भाप को केवल संघनित करने में बहुत ईंधन व्यर्थ खर्च होता है।
जेम्स वाट का महत्वपूर्ण कार्य भाप इंजन को सर्वश्रेष्ठ रूप देना है जिससे मनुष्य की शक्ति दस गुनी बढ़ गई और व्यावसायिक क्षेत्र में बृहद् परिवर्तन हो गया।
जेम्स वाट ग्लासगो में एक चतुर वैज्ञनिक यंत्ररचयिता थे और 1763 में ग्लासगो विश्वविद्यालय के भौतिकी के प्रोफेसर से उन्हें एक न्यूकामेन इंजन की मरम्मत का ओदश मिला जो कभी ठीक न चलता था। मरम्मत करके समय वाट को ध्यान आया कि इसमें ईंधन बुरी तरह से व्यर्थ हो जाता है। विचारशील स्वभाव के वाट ने इससे श्रेष्ठ मशीन बनाने का विचार प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार उन्होंने अनेक अन्वेषण किए और यंत्र बनाए, जिनसे भाप इंजन को उसका वर्तमान स्वरूप प्राप्त हुआ और वह उद्योग और सभ्यता की प्रगति में शक्तिशाली साधन बना।
भाप इंजन के निम्नलिखित मुख्य प्रकार हैं :
एकक्रिया इंजन में भाप पिस्टन के एक ही ओर कार्य करती है एवं द्विक्रिया इंजन में भाप पिस्टन के दोनों ओर कार्य करती है। यदि इन दोनों प्रकार के इंजनों में अन्य सभी अवस्थाएं समान हों, तो द्विक्रिया इंजन द्वारा प्राप्त शक्ति दूसरे प्रकार के इंजन द्वारा प्राप्त शक्ति की दूनी होती है। यही कारण है कि इन दिनों एकक्रिया इंजन कम ही व्यवहार में लाया जाता है।
सिलिंडर की धुरी के ऊर्ध्वाधर या क्षैतिज होने के अनुसार इंजन ऊर्ध्वाधर या क्षैतिज कहा जाता है। क्षैतिज इंजन ऊर्ध्वाधर इंजन से अधिक जगह घेरता है। ऊर्ध्वाधर प्रकार के इंजन में घर्षण आदि कम होता है, जिसके कारण यह क्षैतिज इंजन की तुलना में अधिक दिन तक चल सकता है।
भाप इंजन की चाल वस्तुत: इसके क्रैंक शैफ्ट (crank shaft) परिक्रमण (revolutions) प्रति मिनट की चाल होती है। चार फुट पिस्टन स्ट्रोक (piston storke) एवं 80 परिक्रमण प्रति मिनटवाले इंजन में औसत पिस्टन चाल 640 फुट प्रति मिनट होगी। यह इंजन निम्न चाल इंजन कहा जाएगा। साधारणत: 100 परिक्रमण प्रति मिनट की चाल से कम चाल पर चलनेवाले इंजन को निम्न चाल इंजन कहते हैं एवं 250 परिक्रमण प्रति मिनट की चाल से अधिक चाल पर चलनेवाले इंजन को उच्च चाल इंजन कहते हैं। 100 और 250 परिक्रमण प्रति मिनट के बीच की चाल पर चलनेवाले इंजन को "मध्यम चाल इंजन" (medium speed engine) कहते हैं। उच्च चाल इंजन की सबसे बड़ा गुण यह है कि समान शक्ति के लिए यह बहुत ही छोटे आकार का होता है। उच्च चाल के कारण भाप भी कम ही खर्च होती है, क्योंकि इस प्रकार के इंजन में भाप और सिलिंडर के बीच ऊष्मा स्थानांतरण (heat transfer) में बहुत ही कम समय लगता है।
असंघनन इंजन वह भाप इंजन है जिससे भाप का निकास (exhaust) सीधे वायुमंडल में होता है एवं इसके लिए सिलिंडर में भाप की दाब वायुमंडल की दाब से कभी कम नहीं होनी चाहिए। संघनन इंजन में भाप कार्य करने के बाद संघनित्र में प्रवेश करती है एवं वह वहाँ वायुमंडल की दाब पर जल में परिवर्तित हो जाती है। संघनित्र का व्यवहार करने से भाप अधिक कार्य कर पाती है।
सरल इंजन में प्रत्येक सिलिंडर बॉयलर से सीधे भाप पाता है एवं सीधे वायुमंडल या संघनित्र में निकास (exhaust) करता है। संयोजी इंजन में भाप एक सिलिंडर में, जिसे उच्च दाब सिलिंडर कहते हैं, कुछ हद तक प्रसारित होती है और उसके बाद उससे कुछ बड़े सिलिंडर में, जिसे निम्न दाब सिलिंडर कहते हैं, प्रवेश करती है एवं यहाँ प्रसार की क्रिया पूर्ण होती है। बहुधा निम्न दाब सिलिंडर संघनित्र में निकास करता है। प्रसार तीन या चार सिलिंडर में भी हो सकता है एवं इन इंजनों को त्रिप्रसार इंजन (triple expansion engine) या चतुष्प्रसार इंजन (quadruple expansion engine) कहते हैं।
ऊष्मा इंजन की अधिकतम दक्षता (T1-T2)/T1 होती है जिसमें T1 और T2 ऊष्मा इंजन चक्र (heat engine cycle) में अधिकतम एवं न्यूनतम ताप हैं। इससे पता चलता है कि इंजन की दक्षता इन दोनों तापों पर निर्भर करती है। भांप इंजन की दक्षता उतनी ही बढ़ती जाएगी जितनी (T1) का मूल्य बढ़ेगा एवं (T2) का मूल्य घटेगा। (T1) के मूल्य को बढ़ाने के लिए बायलर से निकल कर इंजन में आनेवाली भाप की दाब को बढ़ाना होगा, क्योंकि भाप की दाब जितनी ही अधिक होगी (T1) का मूल्य उतना ही बढ़ेगा। (T1) को बढ़ाने का एक और उपाय है। वह है भाप को अतितापित (superheat) करना। अतितापक का बॉयलर में व्यवहार करके भाप का अधिताप बढ़ाया जाता है। (T2) के मान को कम करने के लिए संघनित्र (condenser) का व्यवहार करना आवश्यक हो जाता है। संघनित्र में ठंढे जल द्वारा भाप जल में परिवर्तित की जाती है। अत: अच्छे संघनित्र में (T2) का मान ठंढे जल के ताप के बराबर हो सकता है। इससे पता चलता है कि भाप इंजन में अधिक दाब एवं अतितप्त भाप द्वारा कार्य कराने से एवं कार्य कराने के बाद भाप को संघनित्र में प्राप्य ठंढे जल के ताप के बराबर ताप पर जल में परिवर्तित करने से इंजन अधिक दक्ष होगा।
बॉयलर से भाप उच्च दाब पर भापपेटी (steam chest) में प्रवेश करती है। पिस्टन जैसे ही स्ट्रोक (stroke) के अंत में पहुँचता है, उसी समय वाल्व चलता है, जिसमें भापद्वार (steam port) खुल जाता है एवं भाप सिलिंडर में प्रवेश करती है। भाप की दाब द्वारा धक्का दिए जाने से पिस्टन आगे बढ़ता हे। इसे अग्र स्ट्रोक (forward stroke) कहते हैं। पिस्टन की चाल द्वारा क्रैंक, क्रैंक शाफ्ट एवं उत्केंद्रक (eccentric) चलते हैं। उत्केंद्रक के चलने से द्वार कुछ और अधिक खुल जाता है। सिलिंडर में भाप तब तक प्रवेश करती रहती है जब तक द्वार एकदम बंद नहीं हो जाता। इस समय विच्छेद (cut off) होता है एवं इसके बाद सिलिंडर में भाप का संभरण (supply) नही हो पाता। सिलिंडर में आई हुई भाप अब प्रसारित होती है एवं इस प्रसार में भाप का आयतन बढ़ जाता है एवं दाब कम हो जाती है। इसी प्रकार के समय भाप कार्य करती है। अग्र स्ट्रोक के अंत में वाल्व भापद्वार को निकास की ओर खोल देता है, जिससे भाप निर्मुक्त होती है। निकली हुई भाप की दाब पश्च दाब (back pressure) के बराबर हो जाती है। निर्मोचन होने के कुछ क्षण के बाद पिस्टन पीछे की ओर लौटता है एवं इसे प्रत्यावर्तन स्ट्रोक (return stroke) कहते हैं। इस स्ट्रोक में लौटते समय पिस्टन सिलिंडर में बची हुई भाप का निकास करता जाता है। जब पिस्टन इस स्ट्रोक के अंत पर पहुँचता है, वाल्व निकास द्वार को बंद कर देता है, जिससे भाप का प्रवाह बंद हो जाता है। सिलिंडर शीर्ष और पिस्टन के बीच कुछ भाप बच जाती है, जो निर्मुक्त नहीं हो पाती है। फिर चक्र की पुनरावृत्ति होती है।
द्विक्रिया इंजन में इसी से सदृश चक्र की क्रिया सिलिंडर की दूसरी ओर होती है।
रैंकिन चक्र एक सैद्धांतिक चक्र है, जिसके अनुसार भाप इंजन कार्य करता है।
गति नियामक का मुख्य कार्य इंजन की गति का नियमन करना है। भाप इंजन के गति-नियामक इन दो तरीकों में से एक ही सहायता से परिभ्रमण की गति स्थिर रख पाता है:
शक्ति की माँग के अनुसार भाप की दाब को बढ़ाकर या घटाकर इंजन की गति का नियमन करनेवाले गतिनियामक को अवरोध गतिनियामक (throttling governor) कहते हैं। गतिनियामक एक अवरोध वाल्व को चलाता है, जो मुख्य भाप नली में रखा होता है। इस प्रकार के गतिनियामकों में मुख्य गतिपालक कंदुक गतिनियामक (fly ball governor) होता है। वाल्व संतुलित प्रकार का होता है, अर्थात् भापदाब द्वारा परिणामी बल (resultant force) शून्य होता है। जब इंजन की गति बढ़ती है, गतिनियामक कंदुकों के परिभ्रमण की गति में भी वृद्धि हो जाती है, जिससे केंद्रापसारी (centrpetal force) बल बढ़ जाता है। बल की यह वृद्धि उन्हें गुरुत्वाकर्षणबल एवं नियंत्रण कमानी के विरुद्ध बाहर चलने का बाध्य करती है। इसके चलते वाल्व कुछ अंश में बंद हो जाता है। वाल्व द्वारा अवरोध होने पर पिस्टन पर कार्य करनेवाली भाप की दाब में कमी हो जाती है, जिसके कारण उत्पन्न शक्ति भी कम हो जाती है। एवं इंजन की गति में कमी होने के कारण वाल्व कमानी ऊपर उठ जाती है एवं इंजन की गति में कमी होने के कारण वाल्व कमानी ऊपर उठ जाती है एवं पिस्टन पर कार्य करनेवाली भाप की दाब में वृद्धि हो जाती है, जिसके फलस्वरूप गति बढ़कर सामान्य गति पर आ जाती है। अवरोध गति-नियामक द्वारा नियमित भाप इंजन में प्रयोग के बाद यदि इंजन में प्रति घंटे व्यवहृत भाप की तौल को अश्वशक्ति के साथ आँका जाए, तो एक सरल रेखा प्राप्त होगी। यह संबंध सर्वप्रथम विलिअन ने पाया था। अत: इन्हीं के नाम पर इसे "विलिअन की रेखा" (Willian's Line) कहते हैं।
गतिपालकचक्र को ईषा के साथ चाभी के द्वारा अटकाया जाता है।
निम्न गतिवाले भारवाहक जलपोतों (ships) में बड़े नोदक (propellers) लगाए जाते हैं एवं ये नोदक प्रति मिनट 80 परिक्रमण करते हैं। इस तरह के जहाजों में भाप इंजन बहुत ही उपयुक्त हैं। उच्च गति पर चलनेवाले जहाजों में भाप इंजन की जगह भाप टरबाइन का व्यवहार किय जा रहा है। समुद्रयान में व्यवहार में लाए जानेवाले भाप इंजन में त्रिप्रसार प्रकार के इंजन प्रसिद्ध हैं। समुद्रयान इंजन सर्वदा पृष्ठ संघनक (surface conderser) द्वारा युक्त होता है, जिसमें पीतल की नलिकाएँ लगी रहती हैं। पंप के द्वारा समुद्र का जल संघनित्र में लाया जाता है। समुद्र के जल से ही संघनित्र में आई हुई भाप का संघनन होता है। यद्यपि आजकल समुद्रयानों में अंतर्दहन इंजन, भाप टरबाइन एवं गैस टरबाइन व्यवहार में लाया जा रहा है, फिर भी कुछ खास अवस्थाओं में भाप इंजन का व्यवहार अत्यंत आवश्यक हो जाता है।
रिचर्ड ट्रेविथिक ने भाप इंजन का सर्वप्रथम उपयोग रेल इंजन के निर्माण में किया। किंतु आर्थिक कठिनाई के कारण उनका प्रयास सफल न हो पाया। अंतत: जार्ज और राबर्ट स्टीवेंसन (पिता और पुत्र) को ही एक सफल रेल इंजन चित्र 7 बनाकर उससे 1829 ई. में लोवरपुल और मैनचेस्टर के बीच रेलगाड़ी चलाने का श्रेय प्राप्त हुआ। जलयानों के लिए भाप इंजन का प्रथम उपयोग 1812 ई. में राबर्ट पुलटन ने किया था।
साधारण रेल इंजन में क्षैतिज भाप इंजन का व्यवहार होता है। यह इंजन रेल इंजन बॉयलर (locomotive boiler) के पास ठोस आधार पर लगा रहता है। प्राय: सभी रेल इंजनों में संघनित्र नहीं रहता है। कार्य करने के बाद भाप को सीधे वायुमंडल में छोड़ दिया जाता है। इस तरह के इंजन दो प्रकार के होते है:
आधुनिक डिज़ाइन में इन दोनों प्रकारों को जोड़ दिया जाता है, अर्थात् कुछ सिलिंडर इंजन के फ्रेम के अंदर रहते हैं एवं कुछ सिलिंडर बाहर रहते हैं।
जेम्स वाट के भाप इंजन में अनेक परिवर्तन किए गए हैं, यद्यपि प्रमुख सिद्धांत अभी भी वही है। परिवर्तनों की आवश्यकता भाप इंजन के अनेकानेक कायों में प्रयुक्त होने के कारण हुई। वाट ने भाप इंजन में निम्न दाब काम में लिए थे क्योंकि उन्हें विस्फोट का डर था। लेकिन आजकल सर्वत्र उच्च दाब इंजन ही प्रयुक्त किए जाते हैं क्योंकि इनकी दक्षता भी निम्न दाब इंजन की अपेक्षा अधिक होती है।
आधुनिक इंजन के संघनित्र में अनेक नलियाँ होती हैं जिनमें एक पंप द्वारा शीतल जल प्रवाहित कराया जाता है। एक और पंप भाप के संघनन से बने पानी और हवा को निकालने के लिए लगा होता है।
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