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बृज क्षेत्र की भाषा विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
ब्रजभाषा एक क्षेत्रीय ग्रामीण भाषा है जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड में बोली जाती है। इसके अलावा यह भाषा हरियाणा, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कुछ जनपदों में भी बोली जाती है। अन्य भारतीय भाषाओं की तरह ये भी संस्कृत से जन्मी है। इस भाषा में प्रचुर मात्रा में साहित्य उपलब्ध है। भारतीय भक्ति काल में यह भाषा प्रमुख रही।
ब्रजभाषा | |
---|---|
बृजभाषा | |
बोलने का स्थान | भारत |
तिथि / काल | 2011 जनगणना |
क्षेत्र | ब्रज |
मातृभाषी वक्ता | 16,00,000 |
भाषा परिवार |
भारोपीय
|
लिपि | देवनागरी |
भाषा कोड | |
आइएसओ 639-2 | bra |
आइएसओ 639-3 | bra |
विक्रम की १३वीं शताब्दी से लेकर २०वीं शताब्दी तक ब्रजभाषा भारत के मध्यदेश की मुख्य साहित्यिक भाषा एवं साथ ही साथ समस्त भारत की साहित्यिक भाषा थी। विभिन्न स्थानीय भाषाई समन्वय के साथ समस्त भारत में विस्तृत रूप से प्रयुक्त होने वाली हिन्दी का पूर्व रूप यह ‘ब्रजभाषा‘ अपने विशुद्ध रूप में आज भी मथुरा,आगरा,अलीगढ़,भरतपुर,करौली और धौलपुर जिलों में बोली जाती है जिसे हम 'केन्द्रीय ब्रजभाषा' भी कह सकते हैं। १९वीं शताब्दी में हिन्दी/हिन्दुस्तानी के आने के पहले ब्रजभाषा और अवधी ही उत्तर-मध्य भारत की दो प्रमुख साहित्यिक भाषाएँ थीं। ब्रजभाषा में ही अनेक भक्त कवियों ने अपनी रचनाएं की हैं जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, घनानंद, बिहारी, इत्यादि।
अपने विशुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी भरतपुर,आगरा, धौलपुर, हिण्डौन सिटी, मथुरा, अलीगढ़, हाथरस, मैनपुरी, एटा, और मुरैना जिलों में बोली जाती है। इसे हम "केंद्रीय ब्रजभाषा" के नाम से भी पुकार सकते हैं। केंद्रीय ब्रजभाषा क्षेत्र के उत्तर पश्चिम की ओर बुलंदशहर जिले की उत्तरी पट्टी से इसमें खड़ी बोली की लटक आने लगती है। उत्तरी-पूर्वी जिलों अर्थात् बदायूँ और एटा जिलों में इसपर कन्नौजी का प्रभाव प्रारंभ हो जाता है। डॉ॰ धीरेंद्र वर्मा, "कन्नौजी" को ब्रजभाषा का ही एक रूप मानते हैं। दक्षिण की ओर ग्वालियर में पहुँचकर इसमें बुंदेली की झलक आने लगती है। पश्चिम की ओर गुड़गाँव तथा भरतपुर का क्षेत्र राजस्थानी से प्रभावित है।
ब्रज भाषा आज के समय में प्राथमिक तौर पर एक ग्रामीण भाषा है, जो कि मथुरा-भरतपुर केन्द्रित ब्रज क्षेत्र में बोली जाती है। यह मध्य दोआब के इन जिलों की प्रधान भाषा है:
गंगा के पार इसका प्रचार बदायूँ, बरेली होते हुए नैनीताल की तराई, उत्तराखंड के उधम सिंह नगर जिले तक चला गया है। उत्तर प्रदेश के अलावा इस भाषा का प्रचार राजस्थान के इन जिलों में भी है:
और करौली जिले के कुछ भाग ( हिण्डौन सिटी)| जिसके पश्चिम से यह राजस्थानी की उप-भाषाओं में जाकर मिल जाती है।
हरियाणा में यह दिल्ली के दक्षिणी इलाकों में बोली जाती है- फ़रीदाबाद जिला और गुड़गाँव और मेवात जिलों के पूर्वी भाग।
कुछ लेखकों ने ब्रजभाषा नाम से उसके क्षेत्र-विस्तार का कथन किया है। 'वंश भास्कर' के रचयिता सूरजमल ने ब्रजभाषा प्रदेश दिल्ली और ग्वालियर के बीच माना है। 'तुहफतुल हिंद' के रचयिता मिर्जा खाँ ने ब्रजभाषा के क्षेत्र का उल्लेख इस प्रकार किया है "भाषा' ब्रज तथा उसके पास-पड़ोस में बोली जाती है। ग्वालियर तथा चंदवार भी उसमें सम्मिलित हैं। गंगा-यमुना का दोआब भी ब्रजभाषा का क्षेत्र है।
लल्लूजीलाल के अनुसार ब्रजभाषा का क्षेत्र "ब्रजभाषा वह भाषा है, जो ब्रज, जिला ग्वालियर, भरतपुर, बटेश्वर, भदावर, अंतर्वेद तथा बुंदेलखंड में बोली जाती है। इसमें (ब्रज) शब्द मथुरा क्षेत्र का वाचक है।' लल्लूजीलाल ने यह भी लिखा है कि ब्रज और ग्वालियर की ब्रजभाषा शुद्ध एवं परिनिष्ठित है।
ग्रियर्सन ने ब्रजभाषा-सीमाएँ इस प्रकार लिखी हैं
केलाग ने लिखा है कि राजपूताना की बोलियों के उत्तर-पूर्व, पूरे अपर दोआब तथा गंगा-यमुना की घाटियों में ब्रजभाषा बोली जाती है।
डॉ॰ धीरेन्द्र वर्मा ने ग्रियर्सन द्वारा निर्दिष्ट कन्नौजी क्षेत्र को ब्रजी के क्षेत्र से अलग नहीं माना है। अपने सर्वेक्षण के आधार पर उन्होंने कानपुर तक, ब्रजभाषी क्षेत्र ही कहा है। उनके अनुसार उत्तर प्रदेश के मथुरा, अलीगढ़, आगरा, बुलंदशहर, एटा, मैनपुरी, बदायूं तथा बरेली के जिले -- पंजाब और गुड़गाँव जिले का पूर्वी भाग -- राजस्थान में भरतपुर, धौलपुर, करौली तथा जयपुर का पूर्वी भाग -- मध्यभारत में ग्वालियर का पश्चिमी भाग ब्रजी के क्षेत्र में आते हैं। चूँकि ग्रियर्सन साहब का यह मत लेखक को मान्य नहीं कि कन्नौजी स्वतंत्र बोली है, इसलिए उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, शाहजहाँपुर, फर्रूखाबाद, हरदोई, इटावा और कानपुर के जिले भी ब्रजभाषा क्षेत्र में सम्मिलित कर लिए हैं। इस प्रकार बोली जाने वाली ब्रजभाषा का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत ठहरता है। एक प्रकार से प्राचीन मध्यदेश का अधिकांश भाग इसमें सम्मिलित हो जाता है।
इसका विकास मुख्यतः पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उससे लगते राजस्थान ,मध्य प्रदेश व हरियाणा में हुआ। मथुरा, अलीगढ़, हाथरस,आगरा, मैनपुरी, एटा, भरतपुर, हिण्डौन सिटी, धौलपुर, ग्वालियर, मुरैना, पलवल आदि इलाकों में आज भी यह मुख्य संवाद की भाषा है। इस एक पूरे इलाके में बृजभाषा या तो मूल रूप में या हल्के से परिवर्तन के साथ विद्यमान है। इसीलिये इस इलाके के एक बड़े भाग को बृजाञ्चल या बृजभूमि भी कहा जाता है।
भारतीय आर्यभाषाओं की परम्परा में विकसित होनेवाली "ब्रजभाषा" शौरसेनी अपभ्रंश की कोख से जन्मी है। जब से गोकुल वल्लभ संप्रदाय का केंद्र बना, ब्रजभाषा में कृष्ण विषयक साहित्य लिखा जाने लगा। इसी के प्रभाव से ब्रज की बोली साहित्यिक भाषा बन गई। भक्तिकाल के प्रसिद्ध महाकवि महात्मा सूरदास से लेकर आधुनिक काल के विख्यात कवि श्री वियोगी हरि तक ब्रजभाषा में प्रबन्ध काव्य तथा मुक्तक काव्य समय समय पर रचे जाते रहे।
ब्रजभाषा के क्षेत्र विस्तार की दो स्थितियाँ रहीं। प्रथम स्थिति भाषा-वैज्ञानिक इतिहास के क्रम से उत्पन्न हुई। जब पश्चिमी या मध्यदेशीय भाषा अनेक कारणों से सामान्य ब्रज-क्षेत्र की सीमाओं का उल्लंघन करने लगी, तब स्थानीय रुपों से समन्वित होकर, वह एक विशिष्ठ भाषा शैली का रूप ग्रहण करने लगी और ब्रजभाषा-शैली का एक वृहत्तर क्षेत्र बना। जिन क्षेत्रों में यह कथ्य भाषा न होकर केवल साहित्य में प्रयुक्त कृत्रिम, मिश्रित और विशिष्ट रूप में ढल गई और विशिष्ट अवसरों, संदर्भों या काव्य रुपों में रुढ़ हो गई, उन क्षेत्रों को 'शैली क्षेत्र' माना जाएगा। शैली-क्षेत्र पूर्वयुगीन भाषा-विस्तार या शैली-विस्तार के सहारे बढ़ता है। पश्चिमी या मध्यदेशी अपभ्रंश के उत्तरकालीन रुपों की विस्तृति इसी प्रकार हुई।
विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने अनेक प्रदेशों के ब्रज भाषा भक्त-कवियों की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार प्रकट की है-
पश्चिम में राजस्थान तो ब्रजभाषा शैलियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में करता ही रहा। और भी पश्चिम में गुजरात और कच्छ तक ब्रजभाषा शैली समादृत थी। कच्छ के महाराव लखपत बड़े विद्याप्रेमी थे। ब्रजभाषा के प्रचार और प्रशिक्षण के लिए इन्होंने एक विद्यालय भी खोला था।
इस प्रकार मध्यकाल में ब्रजभाषा का प्रसार ब्रज एवं उसके आसपास के प्रदेशों में ही नहीं, पूर्ववर्ती प्रदेशों में भी रहा। बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, काठियावाड़ एवं कच्छ आदि में भी ब्रजभाषा की रचनाएँ हुई।
ब्रजभाषा एक साहित्यिक एवं स्वतंत्र भाषा है और इसकी अपनी कई बोलियाँ हैं। ब्रजभाषा क्षेत्र की भाषागत विभिन्नता को दृष्टि में रखते हुए हम उसका विभाजन निम्नांकित रूप में कर सकते हैं :
(1) केंद्रीय ब्रज अर्थात् आदर्श ब्रजभाषा - अलीगढ़, मथुरा तथा पश्चिमी आगरे की ब्रजभाषा को "आदर्श ब्रजभाषा" नाम दिया जा सकता है।
(2) बुन्देली प्रभावित ब्रजभाषा - ग्वालियर के उत्तर पश्चिम में बोली जानेवाली भाषा को यह नाम प्रदान किया जा सकता है।
(3) राजस्थान की जयपुरी से प्रभावित ब्रजभाषा - यह भरतपुर तथा उसके दक्षिणी भाग में बोली जाती है।
(4) सिकरवाड़ी ब्रजभाषा - ब्रजभाषा का यह रूप ग्वालियर के उत्तर पूर्व के अंचल में प्रचलित है जहाँ सिकरवाड़ राजपूतों की बस्तियाँ पाई जाती हैं।
(5) जादोबाटी ब्रजभाषा - करौली के क्षेत्र तथा चंबल नदी के मैदान में बोली जानेवाली ब्रजभाषा को "जादौबारी" नाम से पुकारा गया है। यहाँ जादौ (यादव) राजपूतों की बस्तियाँ हैं।
(6) कन्नौजी से प्रभावित ब्रजभाषा - जिला एटा तथा तहसील अनूपशहर एवं अतरौली की भाषा कन्नौजी से प्रभावित है।
ब्रजभाषी क्षेत्र की जनपदीय ब्रजभाषा का रूप पश्चिम से पूर्व की ओर कैसा होता चला गया है, इसके लिए निम्नांकित उदाहरण द्रष्टव्य हैं :
जिला गुडगाँव में - ""तमासो देख्ने कू गए। आपस् मैं झग्रो हो रह्यौ हो। तब गानो बंद हो गयो।""
जिला बुलंदशहर में -""लौंडा गॉम् कू आयौ और बहू सू बोल्यौ कै मैं नौक्री कू जांगौ।""
जिला अलीगढ़ में - ""छोरा गाँम् कूँ आयौ औरु बऊ ते बोलौ (बोल्यौ) कै मैं नौक्री कूँ जांगो।""
जिला एटा में - ""छोरा गॉम् कूँ आओ और बऊ ते बोलो कै मैं नौक्री कूँ जाउँगो।""
इसी प्रकार उत्तर से दक्षिण की ओर का परिवर्तन द्रष्टव्य है-
जिला अलीगढ़ में -""गु छोरा मेरे घर् ते चलौ गयौ।""
जिला मथुरा में -""बु छोरा मेरे घर् तैं चल्यौ गयौ।""
जिला भरतपुर में -""ओ छोरा तू कहा कररौय।""
जिला आगरा में -""मुक्तौ रुपइया अप्नी बइयरि कूँ भेजि दयौ।""
ग्वालियर (पश्चिमी भाग) में - "बानैं एक् बोकरा पाल लओ। तब बौ आनंद सै रैबे लगो।""
जनपदीय जीवन के प्रभाव से ब्रजभाषा के कई रूप हमें दृष्टिगोचर होते हैं। किंतु थोड़े से अंतर के साथ उनमें एकरूपता की स्पष्ट झलक हमें देखने को मिलती है।
ब्रजभाषा की अपनी रूपगत प्रकृति औकारान्त है अर्थात् इसकी एकवचनीय पुंलिंग संज्ञाएँ तथा विशेषण प्राय: औकारान्त होते हैं; जैसे खुरपौ, यामरौ, माँझौ आदि संज्ञा शब्द औकारांत हैं। इसी प्रकार कारौ, गोरौ, साँवरौ आदि विशेषण पद औकारांत है। क्रिया का सामान्य भूतकालिक एकवचन पुंलिंग रूप भी ब्रजभाषा में प्रमुखरूपेण औकारान्त ही रहता है। यह बात अलग है कि उसके कुछ क्षेत्रों में "य्" श्रुति का आगम भी पाया जाता है। जिला अलीगढ़ की तहसील कोल की बोली में सामान्य भूतकालीन रूप "य्" श्रुति से रहित मिलता है, लेकिन जिला मथुरा तथा दक्षिणी बुलंदशहर की तहसीलों में "य्" श्रुति अवश्य पाई जाती है। जैसे :
"""कारौ छोरा बोलौ"" - (कोल, जिला अलीगढ़)
कन्नौजी की अपनी प्रकृति ओकारान्त है। संज्ञा, विशेषण तथा क्रिया के रूपों में ब्रजभाषा जहाँ औकारान्तता लेकर चलती है वहाँ कन्नौजी ओकारांतता का अनुसरण करती है। जिला अलीगढ़ की जलपदीय ब्रजभाषा में यदि हम कहें कि- ""कारौ छोरा बोलौ"" (= काला लड़का बोला) तो इसे ही कन्नौजी में कहेंगे कि-""कारो लरिका बोलो। भविष्यत्कालीन क्रिया कन्नौजी में तिङंतरूपिणी होती है, लेकिन ब्रजभाषा में वह कृदंतरूपिणी पाई जाती है। यदि हम "लड़का जाएगा" और "लड़की जाएगी" वाक्यों को कन्नौजी तथा ब्रजभाषा में रूपांतरित करके बोलें तो निम्नांकित रूप प्रदान करेंगे :
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि ब्रजभाषा के सामान्य भविष्यत् काल रूप में क्रिया कर्ता के लिंग के अनुसार परिवर्तित होती है, जब कि कन्नौजी में एक रूप रहती है।
इसके अतिरिक्त कन्नौजी में अवधी की भाँति विवृति (Hiatus) की प्रवृत्ति भी पाई जाती है जिसका ब्रजभाषा में अभाव है। कन्नौजी के संज्ञा, सर्वनाम आदि वाक्यपदों में संधिराहित्य प्राय: मिलता है, किंतु ब्रजभाषा में वे पद संधिगत अवस्था में मिलते हैं। उदाहरण :
उपर्युक्त वाक्यों के सर्वनाम पद "बउ" तथा "बो" में संधिराहित्य तथा संधि की अवस्थाएँ दोनों भाषाओं की प्रकृतियों को स्पष्ट करती हैं।
पश्चिम में राजस्थान तो ब्रजभाषा शैलियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में करता ही रहा ,गुजरात और कच्छ तक ब्रजभाषा शैली समादृत थी। कच्छ के महाराव लखपत बड़े विद्याप्रेमी थे। ब्रजभाषा के प्रचार और प्रशिक्षण के लिए इन्होंने एक विद्यालय भी खोला था।
संत कवियों के सगुण भक्ति के पदों की भाषा तो ब्रज या परंपरागत काव्यभाषा है, पर निर्गुनबानी की भाषा नाथपंथियों द्वारा गृहीत खड़ी बोली या सधुक्कड़ी भाषा है। प्राचीन रचनाओं में ब्रजी और खड़ी बोली के रुपों का सह-अस्तित्व मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पद-काव्यरुप के लिए ब्रजी का प्रयोग रुढ़ होता जा रहा था। नाथ और संत भी गीतों में इसी शैली का प्रयोग करते थे। सैद्धांतिक चर्चा या निर्गुन वाणी सधुक्कड़ी में होती थी।
गुजरात की आरंभिक रचनाओं में शौरसेनी अपभ्रंश की स्पष्ट छाया है। नरसी, केशवदास आदि कवियों की भाषा पर ब्रजभाषा का प्रभाव भी है और उन्होंने ब्रजी में काव्य रचना भी की है। हेमचंद्र के शौरसेनी के उदाहरणों की भाषा ब्रजभाषा की पूर्वपीठिका है। गुजरात के अनेक कवियों ने ब्रजभाषा अथवा ब्रजी मिश्रित भाषा में कविता की। भालण, केशवदास तथा अरवा आदि कवियों का नाम इस संबंध में उल्लेखनीय है। अष्टछापी कवि कृष्णदास भी गुजरात के ही थे। गुजरात में ब्रजभाषा कवियों की एक दीर्घ परम्परा है जो बीसवीं सदी तक चली आती है। इस प्रकार ब्रजभाषा, गुजराती कवियों के लिए 'निज-शैली' ही थी।
मालवा और गुजरात को एक साथ उल्लेख करने की परम्परा ब्रज के लोकसाहित्य में भी मिलती है।
ब्रजभाषा के लिए 'ग्वालियरी' का प्रयोग भी हुआ है। ब्रजभाषा शैली की सीमाएँ इतनी विस्तृत थीं कि ब्रजी और बुन्देली की संरचना प्रायः समान है। साहित्यिक शैली तो दोनों क्षेत्रों की बिल्कुल समान रही। ब्रज और बुन्देलखंड का सांस्कृतिक सम्बंध भी सदा रहा है।
सिन्ध और पंजाब में गोस्वामी लालजी का नाम आता है। इन्होंने १६२६ वि. में गोस्वामी विट्ठलनाथ का शिष्यत्व स्वीकार किया। सिंध में वैष्णव धर्म का प्रचार ब्रजभाषा में आरम्भ हुआ। लालजी ब्रजभाषा के मर्मज्ञ थे। इस प्रकार सिंध में ब्रजभाषा साहित्य की पर्याप्त उन्नति की।
पंजाब में गुरु नानक ने भी ब्रजभाषा में कविता की। आगे भी कई गुरुओं ने ब्रजभाषा में कविता रची। गुरुगोविन्द सिंह का ब्रजभाषा-कृतित्व महत्त्वपूर्ण है ही। गुरु दरबारों में व राजदरबारों में भी ब्रजभाषा के कवि रहते थे। इन कवियों में सिक्खों का विशेष स्थान है। सिख संतों ने धार्मिक प्रचार के लिए ब्रजभाषा को भी चुना ।
सार्वदेशिक शौरसेनी के प्रभाव क्षेत्र में बंगाल भी था । बल्कि यों कहना चाहिए कि पूर्वी अपभ्रंश, पश्चिम भारत से ही पूर्व में आई। अवह का प्रयोग मैथिल कोकिल विद्यापति ने कीर्तिलता में किया। इसमें मिथिला और ब्रज के रुपों का मिश्रण है। बंगाल के सहजिया-साहित्य की रचना भी मुख्यतः इसी में हुई है।
वैष्णव साधु समाज की जो भाषा बनी उसका नाम ब्रजबुलि है। इसके विकास में मुख्य रुप से ब्रजी और मैथिली का योगदान था। बंगाल के कविवृंद मैथिली, बंगाली और ब्रजभाषा के मेल से घटित ब्रजबुली शैली को अपनाने लगे। इसी भाषा में गोविन्ददास, ज्ञानदास आदि कवियों का साहित्य मिलता है। मैथिली मिश्रित ब्रजी असम के शंकरदेव के कंठ से भी फूट पड़ी। बंगाल और उत्कल के संकीर्तनों की भी यही भाषा बनी।
ब्रजभाषा शैली का प्रसार महाराष्ट्र तक दिखलाई पड़ता है। सबसे प्राचीन रुप नामदेव की रचनाओं में मिलते हैं। ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम, रामदास प्रभृति भक्त-संतों की हिंदी रचनाओं की भाषा, ब्रज और दक्खिनी हिंदी है।
मुस्लिम काल में भी शाहजी एवं शिवाजी के दरबार में रहने वाले ब्रजभाषा के कवियों का स्थान बना रहा। कवि भूषण तो ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवि थे ही।
दक्षिण में खड़ीबोली शैली का ही 'दखनी' नाम से प्रसार हुआ। इन मुस्लिम राज्यों के आश्रित साहित्यकारों ने ग्वालेरी कविता का उल्लेख बड़ी श्रद्धा के साथ किया है। तुलसीदास के समकालीन मुल्ला वजही ने सबरस में ग्वालेरी के तीन दोहे उद्धृत किए हैं। ब्रज-शैली के या ब्रज के प्रचलित दोहों का प्रयोग वजही ने बीच-बीच में किया है। दक्खिन क्षेत्र खड़ी बोली शैली के विकास का क्षेत्र था। प्रायः गद्य रचनाओं में हरियाणवी बोली का प्रयोग मिलता है, पद्य रचना में ब्रजभाषा शैली का मिश्रण है। गद्य में लिखित प्रेमगाथाओं के बीच में ब्रजभाषा शैली के दोहे प्रयुक्त मिलते हैं। ब्रजभाषा शैली का संगीत समस्त भारत में प्रसिद्ध था। केरल के महाराजा राम वर्मा, 'स्वाति-तिरुनाल' के नाम से ब्रजभाषा में कविता करते थे।
पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म हुआ। पिंगल शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है। पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से है।
रासो की भाषा को इतिहासकारों ने ब्रज या पिंगल माना है। वास्तव में पिंगल ब्रजभाषा पर आधारित एक काव्य शैली थी, यह जनभाषा नहीं थी। इसमें राजस्थानी और पंजाबी का पुट है। ओजपूर्ण शैली की दृष्टि से प्राकृत या अपभ्रंश रुपों का भी मिश्रण इसमें किया गया है। इस शैली का निर्माण तो प्राकृत पैंगलम ( १२वीं- १३वीं शती ) के समय हो गया था, पर इसका प्रयोग चारण बहुत पीछे के समय तक करते रहे। पीछे पिंगल शैली भक्ति-साहित्य में संक्रमित हो गई।
अतः स्पष्ट हो जाता है कि ब्रजभाषा भाषा व ब्रज शैली के खंड-उपखंड समस्त भारत में बिखरे हुए थे। कहीं इनकी स्थिति सघन थी और कहीं विरल।
आधुनिक युग में भारतेन्दु व उनके पिता गिरधरदास ब्रजभाषा में रचना करते थे। यहाँ से खड़ीबोली व ब्रजभाषा का मिश्र रूप प्रारम्भ हुआ जो आधुनिक हिन्दी खड़ीबोली की पूर्व भूमिका बना। १८७५ में हरिश्चंद्र चन्द्रिका में अमृतसर के कवि संतोष सिंह का कवित्त ब्रज मिश्रित हिन्दी का उदाहरण है :
आधुनिक युग में ब्रजभाषा के व्याकरण पर डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, ग्राउज, किशोरी दास वाजपेयी आदि ने बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया है, पर ब्रजभाषा व्याकरण पर सबसे पुराना काम फारसी में लिखा मिरजा खाँ का ‘तुहफत-उल-हिंद’ (अर्थ : ‘भारत का उपहार’) नामक ग्रंथ है। आजमशाह ने ब्रजभाषा सीखने के लिए इस ग्रंथ का प्रणयन मिरजा खाँ से कराया। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने इसका रचनाकाल सन् १६७५ ई. माना है। इस व्याकरण का प्रथम उल्लेख सन् १७४४ ई. में सर विलियम जोंस ने अपने लेख ‘ऑन दि म्यूजिकल मोड्स ऑव हिन्दूज’ में किया है।[1]
ब्रजभाषा | अर्थ |
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कहाँ जाय रह्यौ है, रे लल्लू! ? (लड़का से) ; कहाँ जाय रही है, रे लल्ली/छोरी ? (लड़की से) |
कहाँ जा रहे हो लल्लू/लाली(छोरी)? |
काह कर रह्यौ है? ( पुरुष से) ; काह कर रही है? (महिला से) |
क्या कर रहे हो/रही हो? |
तेरौ नाम काह है? | तुम्हारा नाम क्या है? |
चौं भईया! ओमन तुम गाँव बड़ेभरने के रहने वाले हैं? | हम्बै जी! मैं बड़ेभरने गाँव कौ ही रहबै वारौ हूँ । |
तैनें पाँत में काह खायौ? | तुमने दावत में क्या खाया? |
काह है रह्यौ है? | क्या हो रहा है? |
मोय नाँय पतौ। | मुझे नहीं पता। |
तोय काह परेशानी है या ते ? | तुझे क्या दिक्कत है इस से? |
कित कौ रहबे वारौ है तू? | कहाँ का रहने वाला तू? |
तिहारे घर को-को रहतौ है? | तुम्हारे घर कौन- कौन रहता है? |
वाय बेर-बेर में कायकूं हेला दैकैं बुला रहे हौ? | उसे बार-बार क्यों जोरसे आवाज देकर बुला रहे हो ? |
वानै कलेऊ कर लियौ काह? | उसने नाश्ता कर लिया क्या? |
और भैया! काह हाल-चाल हैं तेरे? | अरे भाई! क्या हालचाल हैं आपके? |
और बता कछु । | और कहो कुछ. |
जे ठेला वारौ केलान नैं कितेक रुपैया किलो बेच रह्यौ है । | ये ठेले वाला केलाओं को कितने रुपये किलो बेच रहा है । |
ब्रजवुड(ब्रजभाषा इंडस्ट्री) में अबही तक 4-5 फ़िल्म ही अच्छी बनी है जो देखबे-दिखाबे लाक हैं । | ब्रजवुड(ब्रजभाषा इंडस्ट्री) में में अभी तक 4-5 मूवी ही देखने-दिखाने लायक बनी हैं । |
हम कै बजे तक लौट कैं आबैगौ घर के लैं ? | हम कितने बजे तक लौट कर आ जाएंगे घर के
लिए ? |
जीवन काटनौ सुखारौ नाँय. | जिंदगी काटना आसान नहीं. |
अभाल लै ! रोटी दऊँ तो कूं? | अभी ले! रोटी दूँ तुझे? |
बेसहूर! धौरौ पेंट ज्यादा मलूक लग रह्यौ है? | पागल! सफेद पेंट ज्यादा अच्छा लग रहा है? |
राधे-राधे . | नमस्कार . |
हम्बै जी | हाँ जी । |
ओये चोट्टा! आजकल तोय चोरबे की बहौत ही बुरी टेब पड़ रही है । | ओह चोर! आजकल तुझे चुराने की बड़ी ही आदत पड़ रही है । |
वित कूं चले जाऔ । | वहाँ चले जाओ । |
नैक मो कूं नॉन दीजो थोडॉ सौ । | थोड़ा मुझे नमक देना हल्का सा । |
तेरी गाड़ी मेरे जौहरें नाँय है । | तेरी गाड़ी मेरे पास नहीं है । |
जे बस कहाँ ठौरी कूं जाय रही है? | ये बस किस जगह के लिए जा रही है? |
ज्यादा लपर-लपर मत बोलै। | अधिक मत बोलो। |
इतकूं आऔ। | यहाँ आओ। |
पल्लंग कूं है जाऔ। | उस तरफ हो जाइये। |
खानौ खाय लै। | खाना खा लो। |
नैक मोहु कूं दियो । | थोड़ा मुझे भी देना । |
जामे नमक ज्यादा है। | इसमें बहुत नमक है। |
चौं रे! चम्पू तैनैं कछु ज्यादा ही तेल टांट पै मल दियौ है। | क्यों रे! चम्पू तुमने कुछ ज्यादा ही तेल सिर पर रगड़ दिया है। |
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