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खगोलिकी में कोई भी ग्रह दूर से देखे जाने पर अपने पितृ तारे (जिसके इर्द-गिर्द वह कक्षा या ऑरबिट में हो) की कांति के सामने लगभग अदृश्य होता है। उदाहरण के लिए हमारा सूर्य हमारे सौर मंडल के किसी भी ग्रह से एक अरब गुना से भी अधिक चमक रखता है। वैसे भी ग्रहों की चमक केवल उनके द्वारा अपने पितृतारे के प्रकाश के प्रतिबिम्ब से ही आती है और पितृग्रह की भयंकर चमके के आगे धुलकर ग़ायब-सी हो जाती है। यही कारण है कि बहुत ही कम मानव-अनवेषित बहिर्ग्रह (यानि हमारे सौर मंडल से बाहर स्थित ग्रह) सीधे उनकी छवि देखे जाने से पाए गए हैं। इसकी बजाय लगभग सभी ज्ञात बहिर्ग्रह परोक्ष विधियों से ढूंढे गए हैं, और खगोलज्ञों ऐसी विधियों का तीव्रता से विस्तार कर रहे हैं।[1]
इन विधियों के प्रयोग से कम-से-कम एक बहिर्ग्रह सफलतापूर्वक ढूंढा जा चुका है।
यह विधि रेडियल वेग विधि (radial velocity method), डॉप्लर विधि (doppler method) और डगमग विधि (wobble method) के तीन नामों से जाती जाती है।
जब कोई ग्रह अपने पितृतारे की परिक्रमा करता है तो वह भी अपने पितृतारे पर एक गुरुत्वाकर्षक प्रभाव डालता है, जिस से वह तारा भी उस तारा-ग्रह समूह के संहतिकेन्द्र (सेन्टर ऑफ़ ग्रैविटी) की परिक्रमा करता है। कोई भी तारा हमारे सौर मंडल के सापेक्ष किसी वेग से हिल रहा होता है, और यह वेग उस तारे के वर्णक्रम में डॉप्लर प्रभाव द्वारा हुए खिसकाव से मापा जा सकता है। इस वेग में उस तारे की परिक्रमा से एक रेडियल वेग (त्रिज्या वेग) भी जुड़ जाता है और हम इसे उस तारे के वेग में डगमगाहट (उतार-चढ़ाव) द्वारा देख सकते हैं। अगर उस तारे के सौर मंडल में एक से अधिक ग्रह मौजूद हो तो उसके कुल वेग में उन सभी ग्रहों के प्रभाव से मिश्रित रेडियल वेग दिखता है जिसे हम गणित के प्रयोग से अलग कर सकते हैं। इन प्रभावों को मापने के लिए हमारे यंत्रों को बहुत ही संवेदनशील होने की आवश्यकता होती है, मसलन हमारे सूर्य में विशाल बृहस्पति केवल 13 मीटर/सैकन्ड का रेडियल वेग उत्पन्न करता है और पृथ्वी द्वारा उत्पन्न रेडियल वेग केवल 1 मीटर/सैकन्ड है। फिर भी समय के साथ-साथ हमारे यंत्र विकसित होते चले गए और अब बहुत से बहिर्ग्रह इस विधि से पाए जाते हैं।
सूर्य के बाद, हमारे सब से निकटतम तारे प्रॉक्सिमा सेन्टॉरी की प्ररिक्रमा कर रहा प्रॉक्सिमा सेन्टॉरी बी ग्रह इसी रेडियल वेग विधि से सन् 2016 में अनवेषित हुआ।[2][3]
यह प्राकृतिक बात है कि किसी पितृग्रह का द्रव्यमान (मास) जितना कम होगा, उसकी परिक्रमा कर रहा बहिर्ग्रह जितना बड़ा (अधिक द्रव्यमान वाला) होगा और उस ग्रह की परिक्रमा कक्षा की त्रिज्या जितनी छोटी होगी (यानि वह ग्रह अपने पितृतारे के जितना पास होगा), उस ग्रह का अपने पितृतारे पर प्रभाव उतना ही अधिक होगा और उस तारे में रेडियल वेग का प्रभाव भी उतना ही आसानी से देखा जा सकेगा। इस कारणवश रेडियल वेग विधि से पाए गए बहिर्ग्रहों में बड़ी संख्या में या तो पितृतारे बहुत छोटे आकार के हैं (जैसे कि लाल बौनों के श्रेणी में हैं) या फिर वह बहिर्ग्रह भीमकाय हैं (अक्सर गैस दानव हैं), या तारा-ग्रह की दूरी बहुत ही कम है।
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