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प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune system) किसी जीव के भीतर होने वाली उन जैविक प्रक्रियाओं का एक संग्रह(जमावड़ा) है, जो रोगजनकों और अर्बुद कोशिकाओं को पहले पहचान और फिर मार कर उस जीव की रोगों से रक्षा करती है। यह विषाणुओं से लेकर परजीवी कृमियों जैसे विभिन्न प्रकार के एजेंट की पहचान करने मे सक्षम होती है, साथ ही यह इन एजेंटों को जीव की स्वस्थ कोशिकाओं और ऊतकों से अलग पहचान सकती है, ताकि यह उन के विरुद्ध प्रतिक्रिया ना करे और पूरी प्रणाली सुचारु रूप से कार्य करे।[1]
रोगजनकों की पहचान करना एक जटिल कार्य है क्योंकि रोगजनकों का रूपांतर बहुत तेजी से होता है और यह स्वयं का अनुकूलन इस प्रकार करते हैं कि प्रतिरक्षा प्रणाली से बचकर सफलतापूर्वक अपने पोषक को संक्रमित कर सकें। शरीर की प्रतिरक्षा-प्रणाली में खराबी आने से रोग में प्रवेश कर जाते हैं। प्रतिरक्षा-प्रणाली में खराबी को इम्यूनोडेफिशिएंसी कहते हैं। इम्यूनोडेफिशिएंसी या तो किसी आनुवांशिक रोग के कारण हो सकता है, या फिर कुछ खास दवाओं या संक्रमण के कारण भी संभव है। इसी का एक उदाहरण है एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिशिएंसी सिंड्रोम (एड्स) जो एचआईवी वायरस के कारण फैलता है। ठीक इसके विपरीत स्वप्रतिरक्षित रोग (ऑटोइम्यून डिजीज) एक उत्तेजित ऑटो इम्यून सिस्टम के कारण होते हैं जो साधारण ऊतकों पर बाहरी जीव होने का संदेह कर उन पर आक्रमण करता है।
प्रतिरक्षा प्रणाली के अध्ययन को प्रतिरक्षा विज्ञान (इम्म्यूनोलॉजी) का नाम दिया गया है।[1] इसके अध्ययन में प्रतिरक्षा प्रणाली संबंधी सभी बड़े-छोटे कारणों की जांच की जाती है। इसमें प्रणाली पर आधारित स्वास्थ्य के लाभदायक और हानिकारक कारणों का ज्ञान किया जाता है। प्रतिरक्षा प्रणाली के क्षेत्र में खोज और शोध निरंतर जारी हैं एवं इससे संबंधित ज्ञान में निरंतर बढोत्तरी होती जा रही है। यह प्रणाली लगभग सभी उन्नत जीवों जैसे हरेक पौधे और जानवरों में मिलती मिलती है। प्रतिरक्षा प्रणाली के कई प्रतिरोधक (बैरियर) जीवों को बीमारियों से बचाते हैं, इनमें यांत्रिक, रसायन और जैव प्रतिरोधक होते हैं।
संक्रामक रोगों का निवारण करने की शरीर की शक्ति को प्रतिरक्षा (Immunity) कहते हैं। किंतु सभी शक्तियाँ प्रतिरक्षा में नहीं गिनी जातीं। त्वचा जीवाणुओं को शरीर में प्रविष्ट नहीं होने देती। आमाशयिक रस का अम्ल जीवाणुओं को नष्ट कर देता है, किंतु यह प्रतिरक्षा के अंतर्गत नहीं आता। ये शरीर की रक्षा के प्राकृतिक साधन हैं। प्रतिरक्षा से अर्थ है ब्राह्य प्रोटीनों को रक्त में उपस्थित विशिष्ट वस्तुओं द्वारा नष्ट कर डालने की शक्ति। जीवाणु जो शरीर में प्रविष्ट होते हैं, उनके शरीरों के घुलने से प्रोटीन उत्पन्न होते हैं। उनकी नष्ट कर देने की शक्ति रक्त में होती है। इस क्रिया का रूप रासायनिक तथा भौतिक होता है, यद्यपि यह शक्ति कुछ सीमा तक प्राकृतिक होती है, किंतु वह विशेषकर उपार्जित (aquired) होती है और जीवाणुओं और वाइरसों (viruses) के शरीर में प्रविष्ट होने से शरीर में इन कारणों को नष्ट करनेवाली वस्तुएँ उत्पन्न हो जाती हैं। यह विशिष्ट (specific) प्रतिरक्षा कहलाती है। इन रोगों के कीटाणुओं को प्राणी के शरीर में प्रविष्ट किया जाता है, तो उससे शरीर उनका नाश करने वाली वस्तुएँ स्वयं बनाता है। यह सक्रिय रोग क्षमता है। इसको उत्पन्न करने के लिये जिस वस्तु को शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है वह वैक्सीन कहलाती है। जब एक जंतु के शरीर में वैक्सीन प्रविष्ट करने से सक्रिय क्षमता उत्पन्न हो जाती है, तो उसके शरीर से थोड़ा रक्त निकालकर, उसके सीरम को पृथक् करके, उसको दूसरे जंतु के शरीर में प्रविष्ट करने से निष्क्रिय क्षमता उत्पन्न होती है। अर्थात् एक जंतु का शरीर उन जीवाणुनाशक वस्तुओं को उत्पन्न करता है और इन प्रतिरक्षक वस्तुओं को दूसरे जंतु के शरीर में प्रविष्ट करके उसको रोगनाशक शक्ति से संपन्न कर दिया जाता है। यह हुई निष्क्रिय प्रतिरक्षा। चिकित्सा में इसका बहुत प्रयोग किया जाता है। डिफ्थीरिया, टिटैनस आदि रोगों की इसी प्रकार तैयार किए गए ऐंटीटॉक्सिक सीरम से चिकित्सा की जाती है।
रक्त कई प्रकार की जीवाणुनाशक शक्तियों से युक्त है। रक्त की श्वेत कणिकाओं (white corpuscles) में जीवाणु तथा सब बाह्य वस्तुओं को खा जाने की शक्ति होती है। इस कार्य को जीवाणुभक्षण कहा जाता है। रक्त जीवाणुओं को गला देता है, जो जीवाणुलयन (bacteriolysis) कहा जाता है। इसका कारण रक्त में उपस्थित एक रासायनिक वस्तु होती है, जो बैक्टीरियोलयसिन कहलाती है। रक्त में जीवाणुओं को बांध देने की भी शक्ति होती है। रोगाक्षम किए हुए जंतु के शरीर में पहुँचकर जीवाणुओं के गुच्छे से बन जाते हैं। उनकी गतिशक्ति नष्ट हो जाती है। यह घटना समूहन (agglutination) कही जाती है और जो वस्तु इसका कारण होती है वह ऐग्लूटिनिन कहलाती है। जीवाणु शरीर में जीवविष उत्पन्न करते हैं। प्रतिरक्षक जीवाणु में इन विषों को मारनेवाली शक्तियाँ भी उत्पन्न होती हैं, जो प्रतिजीव विष (antioxin) कहलाती हैं। ये विशिष्ट वस्तुएँ होती हैं। जिस रोग के विरुद्ध प्रतिरक्षा की जाती है, उसी रोग के जीवाणुओं का इससे नाश या निराकरण होता है। यही विशिष्ट प्रतिरक्षा कहलाती है। रक्त में दूसरे जंतु के रक्त की कोशिकाओं को भी घोल लेने की शक्ति होती है, जो रक्तद्रवण (हीमोलाइसिस, heamolysis) कहलाती है
सक्रिय प्रतिरक्षा उत्पन्न करने के लिये रोगों के जीवाणुओं को शरीर में प्रविष्ट किया जाता है। किसी एक रोग के जीवाणुओं द्वारा केवल उसी रोग के विरुद्ध प्रतिरक्षा उत्पन्न होती है। प्रविष्ट करने से पूर्व जीवाणुओं की शक्ति और संख्या दोनों को इतना घटा दिया जाता है कि उससे जन्तु को हानि न पहुँचे, अर्थात् इतना भयंकर रोग न हो कि उसकी मृत्यु हो जाय। इस प्रथम मात्रा से जन्तु को रोग का हलका सा आक्रमण होता है, किन्तु उसके शरीर में उन जीवाणुओं का नाश करनेवाली वस्तुएँ बनने लगती हैं। जिन वस्तुओं को प्रविष्ट किया जाता है, वे प्रतिजन (antigen) कहलाती हैं और उनसे रक्त में प्रतिपिंड (antibody) बनते हैं। कुछ दिनों बाद जन्तुओं की दूसरी मात्रा दी जाती है, जिसमें जीवाणुओं की संख्या पहले से दो गुनी या इससे भी अधिक होती है। जन्तु इसको भी सहन कर लेता है। कुछ दिन बीतने पर फिर तीसरी मात्रा दी जाती है, जो दूसरी मात्रा से भी अधिक होती है। इससे भी जंतु कुछ ही दिन में उबर आता है। इसी प्रकार मात्रा को बराबर बढ़ाते जाते हैं जब तक कि जंतु प्रथम मात्रा से कई सौ गुनी अधिक मात्रा नहीं सहन कर लेता। इस समय तक जंतु के रक्त में बहुत बड़ी मात्रा में प्रतिपिंड बन चुकता है। अतएव जन्तु पूर्णतया प्रतिरक्षित हो जाता है। रोगों के आक्रमण में भी यही होती है। शरीर में प्रतिपिंड बन जाते हैं। यही सक्रिय प्रतिरक्षा होती है। इसको उत्पन्न करने के लिये जीवाणओं के जिस विलयन को शरीर में प्रविष्ट किया जाता है उसको साधारणतया वैक्सीन कहते हैं। इस प्रकार की प्रतिरक्षा चिरस्थायी भी होती है।
उपयुक्त प्रकार से क्षमता उत्पन्न करने के बाद उस जंतु के रक्त से सीरम पृथक् कर, रासायनिक विधियों द्वारा शुद्ध करने के पश्चात्, उसका चिकित्सा के लिये प्रयोग किया जाता है। जब इस सीरम को रोगी के शरीर में प्रविष्ट किया जाता है, तो उसमें निष्क्रिय प्रतिरक्षा उत्पन्न होती है, अर्थात् सीरम में उपस्थित प्रतिपिंडों (एंटीबॉडी) के कारण उसका शरीर तो प्रतिरक्षा से सम्पन्न हो जाता है, किंतु रोगी का शरीर प्रतिरक्षा उत्पन्न नहीं करता। प्रतिरक्षा उत्पन्न करनेवाले प्रतिविष और प्रतिपिंड दूसरे शरीर द्वारा उत्पन्न होते हैं। केवल रोगी के शरीर में प्रविष्ट कर दिए जाते हैं।
सीरम का प्रयोग रोगों की चिकित्सा में किया जाता है। सीरम में उपस्थित प्रतिविष की मात्रा निर्धारित कर ली गई है और उसको अंतरराष्ट्रीय (international) एकांक कहा जाता है। इसका प्रयोग रोगनिरोध तथा चिकित्सा दोनों के लिये किया जाता है। निम्नलिखित रोगों की विशेष ओषधि ऐंटिसीरम है :
१. डिफ्थीरिया - इसके जीवविष की विशेष क्रिया स्थानिक ऊतकों का नाश, हृदय की पेशियों का क्षय नाड़ीमंडल को क्षत करना है, जिससे स्थानिक पक्षाघात तक हो जाता है। शरीर के समस्त ऊतकों पर उसका विषैला प्रभाव होता है। प्रतिजीवविष (ऐंटिटॉक्सिन) इस विष का निराकरण करता है, किंतु उसकी मात्रा विषों की मात्रा के लिये पर्याप्त होनी चाहिए। यह भली भाँति प्रमाणित हो चुका है कि प्रतिविष इसकी विशिष्ट ओषधि है। फिबिगर के आँकड़े इस प्रकार हैं : प्रतिविष द्वारा चिकित्सा किए गए २३९ रोगियों में केवल ३.५ प्रति शत व्यक्तियों की मृत्यु हुई। २४५ रोगियों में, जिनको प्रतिविष नहीं दिया गया, १२.२५ प्रति शत की मृत्यु हुई।
२. टिटैनस - टिटेनस बैसिलस इस रोग का कारण होता है। जबड़े और गले की पेशियो से आरंभ होकर सारे शरीर की पेशियों में ऐंठन होने लगती है, विशेषकर पीठ की पेशियों में। अंत में श्वास संबंधी पेशियों के भी तनाव से मृत्यु हो जाती है। इसका जीवविष विशेषकर नाड़ियों के मूलों को प्रभावित करता है। इस रोग की चिकित्सा के लिये ऐंटिटॉक्सिन विशेष ओषधि है, जिसका पर्याप्त मात्रा में प्रयोग करना पड़ता है। कई लाख एकांक आवश्यक हो सकते हैं।
३. सर्पदंश - कोब्रा और रसैल बाइपर के काटे की चिकित्सा ऐंटिवेनम से होती है, किंतु काटने के पश्चात् जितना शीघ्र हो सके, इसे देना चाहिए।
४. गैसयुक्त कोथ, रक्तद्रावी, स्ट्रिप्टोकोकस रोग तथा अन्य कई रोगों में प्रतिविषयुक्त सीरम का प्रयोग होता है।
आयुर्वेद में प्रतिरक्षा के ८ लक्षण बताए गए हैं जो निम्नलिखित श्लोक में दिए गये हैं-
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