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प्रकृतिवाद (Naturalism) दार्शनिक चिन्तन की वह विचारधारा है जो प्रकृति को मूल तत्त्व मानती है, इसी को इस ब्रह्माण्ड का कर्ता एवं उपादान (कारण) मानती है। यह वह 'विचार' या 'मान्यता' है कि विश्व में केवल प्राकृतिक नियम (या बल) ही कार्य करते हैं न कि कोई अतिप्राकृतिक या आध्यातिम नियम। अर्थात् प्राकृतिक संसार के परे कुछ भी नहीं है। प्रकृतिवादी आत्मा-परमात्मा, स्पष्ट प्रयोजन आदि की सत्ता में विश्वास नहीं करते।
यूनानी दार्शनिक थेल्स (६४० ईसापूर्व-५५० इसापूर्व) का नाम सबसे पहले प्रकृतिवादियों में आता है जिसने इस सृष्टि की रचना जल से सिद्ध करने का प्रयास किया था। किन्तु स्वतन्त्र दर्शन के रूप में इसका बीजारोपण डिमोक्रीटस (४६०-३७० ईसापूर्व) ने किया।
प्रकृतिवादी विचारक बुद्धि को विशेष महत्व देते हैं परन्तु उनका विचार है कि बुद्धि का कार्य केवल वाह्य परिस्थितियों तथा विचारों को काबू में लाना है जो उसकी शक्ति से बाहर जन्म लेते हैं। इस प्रकार प्रकृतिवादी आत्मा-परमात्मा, स्पष्ट प्रयोजन इत्यादि की सत्ता में विश्वास नहीं करते हैं। प्रो. सोर्ले का विचार है कि प्रकृतिवाद वह विचारधारा है जिसके अनुसार स्वाभाविक अथवा निर्माण की शक्ति मनुष्य के शरीर को नहीं दी जा सकती। प्रकृतिवाद सभ्यता की जटिलता की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप समाज के सम्मुख उपस्थित हुआ।
‘प्रकृति’ के अर्थ के संबंध में दार्शनिकों में मतभेद रहा है। एडम्स के अनुसार यह शब्द अत्यन्त जटिल है जिसकी अस्पष्टता के कारण ही अनेक भूलें होती हैं। ‘प्रकृति’ को तीन प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है। प्रथम अर्थ में प्रकृति का तात्पर्य उस विशेष गुण से है जो मानव जीवन को विकास एवं उन्नति की ओर ले जाने में सहायक होते हैं। सर्वप्रथम रूसो ने ही प्रकृति के इस अर्थ से अवगत कराया। जिसके आधार पर डॉ॰ हाल ने ‘बाल केन्द्रित शिक्षा’ का स्वरूप विकसित किया। अतः प्रथम अर्थ में प्रकृति का तात्पर्य मानव स्वभाव से लिया जाता है। ‘प्रकृति’ का द्वितीय अर्थ ‘बनावट के ठीक विपरीत’ बताया गया। अर्थात् जिस कार्य में मनुष्य ने सहयोग न दिया हो वही प्राकृतिक है। ‘प्रकृति’ के तीसरे अर्थ के अनुसार ‘समस्त विश्व’ ही प्रकृति है तथा शिक्षा के अनुसार इसका तात्पर्य विश्व की क्रिया का अध्ययन तथा उसे जीवन में उतारने से है। कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि मनुष्य को प्रकृति की विकासवादी शृंखला में बाधक नहीं बनना चाहिए। अपितु उसे अलग ही रहना चाहिये। चूँकि विकास किसी व्यक्ति के बिना नहीं हो सकता है, व्यक्ति बिना प्रयोजन कार्य नहीं कर सकता, इसलिए कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि इस विकास के नियम का अध्ययन करना चाहिये तथा प्रकृति का अनुयायी हो जाना चाहिये।
इस प्रकार स्पष्ट है कि ‘प्रकृति’ के अर्थ के संबंध में मतैक्य नहीं है। प्राचीन सिद्धान्त के अनुसार वह मार्ग जिसमें व्यक्ति जीवन में अधिक मूल्यों की प्राप्ति कर सकता है, वह है- अपने जीवन का प्रकृति के साथ यथा संभव निकट संबंध स्थापित करना। यह विचार डेमोक्रीट्स, एपीक्यूरस तथा ल्युक्रिटियस के विचारों से साम्य रखते हैं। ये सभी विद्वान सामान्यतः ऐसे जीवन की प्राप्ति की कामना रखते थे जो यथा संभव कष्ट एवं पीड़ा से मुक्त हो। अधिकांश प्रकृतिवादियों ने सर्वोच्च श्रेय का विवेचन करते हुए उसे श्रेष्ठ एवं शाश्वत सुख माना है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रकृतिवाद का नीतिशास्त्र सुखवादी है।
'प्रकृति' के अर्थ के सम्बन्ध में दार्शनिकों में मतभेद रहा है। एडम्स का कहना है कि यह शब्द अत्यन्त जटिल है जिसकी अस्पष्टता के कारण अनेक भूलें होती हैं। प्रकृति को ३ प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
यह विचारधारा पदार्थ विज्ञान पर आधारित है। इसके अनुसार समस्त प्रकृति में अणु विद्यमान है। जगत की रचना इन्हीं अणुतत्वों से हुई है। जीव और मन सभी का निर्माण भौतिक तत्वों के संयोग से हुआ है। पदार्थ विज्ञान केवल बाह्य प्रकृति के नियमों का अध्ययन करता है और इन्हीं नियमों के आधार पर अनुभव के प्रत्येक तथ्यों की व्याख्या करता है। अतः प्रकृति के नियम सर्वोपरि हैं। यह मनुष्य को भी पदार्थ विज्ञान के नियमों के अनुसार समझने का प्रयास करता है। इसका मनुष्य की आन्तरिक प्रकृति से कोई प्रयोजन नहीं है किन्तु शिक्षा एक मानवीय प्रक्रिया है जिसका संबंध मानव की आन्तरिक प्रकृति से है। अतः शिक्षा के क्षेत्र में पदार्थ विज्ञान के प्रकृतिवाद का कोई विशेष योगदान नहीं है।
इस सम्प्रदाय के अनुसार सृष्टि यन्त्रवत है जो पदार्थ और गति से निर्मित है। इस प्राणहीन यन्त्र में कोई ध्येय, प्रयोजन या आध्यात्मिक शक्ति नहीं है। मानव यद्यपि इस जगत का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है तथापि उसमें स्वचेतना नहीं होता, उसका व्यवहार वाह्य प्रभावोें के कारण नियंत्रित होता है। ज्यों-ज्यों मानव वाह्य वातावरण के सम्पर्क में आता है, मानव यन्त्र सुचारू रूप से क्रिया करता रहता है। मनुष्य की प्रयोजनशीलता, क्रियात्मकता उसके आत्मिक गुणों की विवेचना इस विचारधारा में संभव नहीं है। पशु की स्थिति, यन्त्र की स्थिति तथा मनुष्य की स्थिति तीनों में अन्तर है। अतः मनुष्य की शिक्षा भिन्न प्रकार से होनी चाहिए। इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में यन्त्रवादी प्रकृतिवाद का कोई विशेष योगदान नहीं है।
यह विचारधारा ‘विकास के सिद्धान्त’ में विश्वास रखती है। इसलिए इस विचारधारा का उदगम डार्विन के क्रमविकास सिद्धान्त से हुआ है। इस मत के अनुसार जीवों के क्रम विकास में मनुष्य सबसे अन्तिम अवस्था में है। मस्तिष्क विकास के कारण ही मनुष्य ने भाषा का विकास किया जिसके फलस्वरूप वह ज्ञान को संचित रख सकता है। नये विचार उत्पन्न कर सकता है तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन का विकास कर पाया है। अन्य सभी दृष्टियों से मनुष्य अन्य प्राणियों से भिन्न नहीं है। उसकी नियति तथा विकास की संभावनायें वंशक्रम तथा परिवेश पर निर्भर करती हैं। उसमें किसी प्रकार की इच्छा शक्ति जैसी कोई चीज नहीं होती। वास्तव में इस प्रकृतिवाद से मनुष्य की पूर्व स्थिति का ज्ञान किया जा सकता है। किन्तु उसके भविष्य के आदर्शों की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। यह कमी होते हुए भी इस प्रकृतिवाद का शिक्षा में योगदान माना जा सकता है।
प्रकृतिवाद एक दार्शनिक विचारधारा है जो पदार्थ को आधार एवं यथार्थ मानती है तथा जगत, जीव और मनुष्य सभी उसी से निर्मित है। इस विचारधारा के प्रमुख प्रवर्तक के रूप में सामान्यतः रूसो का ही नाम लिया जाता है। रूसो ने यद्यपि प्रकृतिवाद के नारे को जोरदार ढंग से ऊँचा किया किन्तु वह भी प्लेटो जैसे विचारवादी दार्शनिक से प्रभावित था। उसके विचार प्लेटों से प्रभावित थे। इसलिए रूसो की प्रकृतिवाद का स्वरूप आदर्शवादी उद्देश्यों की पृष्ठभूमि पर निर्मित प्रतीत होता है। ब्रुबेकर का ऐसा विचार है कि रूसो एक रोमांटिक प्रकृतिवादी था। बालक की रूचि तथा योग्यता, बन्धन से दूर, प्राकृतिक स्थल पर शिक्षा की व्यवस्था इत्यादि बातों के आधार पर हम रूसों को प्रकृतिवादी नहीं कह सकते हैं। क्योंकि यदि मात्र बालक की स्वाभाविक रूचि पर बल देने तथा प्रकृति से प्रेम के बल पर यदि रूसो को प्रकृतिवादी कहा जा सकता है तो हमें प्लेटो को भी इसी श्रेणी में सम्मिलित करना होगा। रस्क, डोनेल्ड बटलर इत्यादि दार्शनिक मानते हैं कि हरबर्ट स्पेन्सर वास्तव में प्रकृतिवादी हैं। बेकन एवं कमेनियस भी प्रकृतिवादी विचारधारा से जुड़े प्रतीत होते हैं। किन्तु प्रकृतिवाद को अपनी चरम सीमा पर पहुँचाने का श्रेय स्पेन्सर एवं रूसों को ही दिया जा सकता है। रूसों के सम्बन्ध में आश्चर्य व्यक्त करते हुए राबर्ट हरबार्ट ने लिखा है कि रूसो जैसे पतित व्यक्ति का इतना प्रभाव आश्चर्य जनक है। चूँकि दूषित समाज का रूसों भी एक अंग था, इसलिए उसका नैतिक पतन होना स्वाभाविक था। अतः रूसो ने तत्कालीन समाज के विषय में सार्वभौमिक कथन कह डाला, - ‘मनुष्य की संस्थायें विरोधी तत्वों एवं भूलों का पिण्ड है। तथा समाज द्वारा स्थापित नियमों के विरूद्ध कार्य करने पर सही कार्य संभव हो सकेगा।’ रूसों ने ‘प्रकृति की ओर लौटो’ का जो नारा दिया उससे यही संकेत निकलता है कि वह छात्रों को दूषित समाज से दूर गाँव की प्राकृतिक छत्र छाया में ले जाना चाहता था। वास्तव में यह ‘वाद’ १८वीं शताब्दी की यूरोप की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं शैक्षिक क्षेत्र में होने वाली ‘क्रान्ति’ के परिणाम स्वरूप हुआ। यह क्रान्ति विशेष रूप से तत्कालीन रूढ़िवादिता एवं अंध विश्वासों से ग्रसित धार्मिक संस्थाओं के विरूद्ध हुई थी।
यन्त्रवादी प्रकृतिवाद ने व्यवहारवादी मनोविज्ञान को जन्म दिया जिसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य कुछ सहज क्रियाएं लेकर पैदा होता है। जब ये सहज क्रियाएं बाह्य पर्यावरण के सम्पर्क में आती हैं तो सम्बद्ध सहज क्रियाओं का निर्माण होता है ये सम्बद्ध सहज क्रिया मनुष्य को विभिन्न कार्य में सहायता प्रदान करती हैं। इसलिए यन्त्रवादी प्रकृतिवादी मानव में उचित तथा उपयोगी सम्बद्ध सहज क्रियाएं उत्पन्न करना ही शिक्षा का उद्देश्य मानते हैं। जीव विज्ञान के सिद्धान्तों में विश्वास रखने वाले प्रकृतिवादियों के अनुसार शिक्षा का चरम लक्ष्य सुख एवं आनन्द की प्राप्ति कराना है किन्तु मैक्डूगल महोदय ने यह सिद्ध किया था कि हम मूल प्रवृत्तियों के कारण कार्य करते हैं, सुख दुःख तो प्रतिफल हैं। इसलिए शिक्षा का उद्देश्य मूल प्रवृत्तियों का रूपान्तर तथा शोधन करना है, ताकि छात्र की प्रवृत्तियों में पुननिर्देश तथा एकीकरण द्वारा नवीन सामंजस्य उत्पन्न हो जाए जिससे वह सामाजिक एवं नैतिक मूल्यो के अनुकूल आचरण कर सके।
जीवविज्ञानवादियों के अनुसार प्रत्येक प्राणी में जीने की इच्छा होती है। और अपने जीवन की रक्षा के लिए उसे अपने वातावरण से सदैव संघर्ष करना पड़ता है। डार्विन ने इस सम्बन्ध में दो सिद्धान्त दिये हैं - जीवन के संघर्ष तथा समर्थ का अस्तित्व। इसलिए डार्विन मनुष्य को सामर्थ्यवान तथा शक्तिशाली बनाना चाहते हैं, जिससे जीवन संग्राम में वे सफलता प्राप्त कर सकें। किन्तु लैमार्क के अनुसार वातावरण के अनुरूप परिवर्तन शीलता के गुणों कीशिक्षा देना ही उचित उद्देश्य है। बर्नार्ड शा जैसे लोग प्रकृति की विकासवादी गति को ही तीव्र करना चाहते हैं। इसलिए सामाजिक अथवा जातीय विरासत के रूप में प्राप्त संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाना तथा उनका संरक्षण करना शिक्षा का उद्देश्य निर्धारित किया है।
सुख एंव दुख के सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य सुख प्राप्ति वाले कार्य करता है और दुख देने वाले कार्योंं से बचने का प्रयास करता है। यह बात सही नहीं है क्योंकि मनुष्य कभी कभी कर्तव्य के लिए प्राण भी दे देता है। इस संबंध में टी.पी. नन महोदय का विचार ज्यादा समीचीन प्रतीत होता है। यद्यपि नन महोदय आदर्शवादी विचारधारा के अधिक समर्थक हैं किन्तु शिक्षा के उद्देश्य के सम्बन्ध में उन्होंने जीव वैज्ञानिक एवं प्रकृतिवादी दृष्टिकोण से विचार किया है। उनके अनुसार मानव के व्यक्तित्व का स्वतंत्र रूप से विकास करना ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। नन के अनुसार वैयक्तिकता से तात्पर्य आत्मानुभूति और आत्म प्रकाशन है। इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में निहित जन्मजात शक्तियों के स्वतंत्र तथा अवरोधहीन विकास में सहायता प्रदान करना है।
इस संबंध में दो विचार व्यक्त किया जाता है। प्रथम विचार के समर्थक वुड्सवर्थ हैं जिनके अनुसार बालक स्वर्ग से प्रकाशमान रूप में आता है, परन्तु यहाँ आकर वह अपने वैभव को खो देता है,क्योंकि वह एक अबोध बालक ही होता है। इसलिए उसके वर्तमान सुखों से युक्त शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए। दूसरा विचार जेरेमिया इत्यादि व्यक्तियों का है जो बालक को पाप के कारण उत्पन्न मानते हैं तथा उसे केवल कठोर अनुशासन में रखकर, उसकी स्वाभाविक प्रवृतियों को समाप्त करना ही शिक्षा की विधि तथा ईश्वरोन्मुख करना शिक्षा का उद्देश्य मानते हैं। किन्तु इस विचार को अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता है क्योंकि यह विचार पाशविक प्रतीत होता है। इस विचारधारा के अनुसार बालक की शिक्षा उसके स्वभाव पर आश्रित होनी चाहिए जिसके मूल में आदिम संवेग, मौलिक इच्छायें तथा प्राकृतिक मनोवृत्तियां निहित हैं। वास्तविक शिक्षा तो वह है जो बालक की रूचि, योग्यता एवं झुकाव के अनुरूप हो। बालक के लिए अनुशासन तथा बन्धन नाम मात्र के होने चाहिए। प्रकृतिवादी बालक को वस्तुतः निर्माणोन्मुख मानव मानते हैं न कि उसे मानव का एक लघु रूप। उसकी प्रकृति सतत् विकसित होती रहती है। इसलिए सभी को इन उद्देश्यों की पूर्ति की ओर ही विशेष ध्यान देना चाहिये।
प्रकृतिवादी पाठ्यक्रम का आख्यान स्पेन्सर की पुस्तक से प्राप्त होता है। उनके पाठ्यक्रम की विशेषता यह है कि सम्पूर्ण पाठ्यक्रम का आधार विज्ञान माना गया है। स्पेन्सर के अनुसार विज्ञान द्वारा ही समग्र जीवन जीना संभव है। समग्र जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्पेन्सर ने निम्नलिखित पाठ्यक्रम प्रस्तुत किया है।
प्राचीन कालीन शिक्षण पद्धति में अध्यापक क्रियाशील रहते थे। बालकों का स्थान गौण था किन्तु बालक की क्रियाशीलता पर अधिक बल प्रकृतिवादियों ने दिया। ये रटने तथा निष्क्रिय अभ्यास की विधि का विरोध करते हैं तथा ‘करके सीखने’ एवं ‘अनुभव द्वारा सीखने’ के सिद्धान्तों पर आधारित विधियों के प्रयोग पर बल देते हैं। इसके अतिरिक्त प्रकृतिवादी विचारधारा ने प्रोजेक्ट मेथड, स्काउट, आन्दोलन, स्कूल यूनियन, बालक क्लब इत्यादि को जन्म दिया। प्रकृतिवादी शिक्षण विधि के निम्नलिखित सिद्धान्त पर विशेष महत्व देते हैं-
प्रकृतिवादी शिक्षा में शिक्षक को गौण स्थान प्राप्त है। प्रकृतिवादी विचारक प्रकृति को ही वास्तविक शिक्षिका मानते हैं। उनके विचार से बालक को समाज से दूर रखकर प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा प्राप्त करने का अवसर देना चाहिए। रूसों के अनुसार शिक्षक पर समाज के कुसंस्कारों का प्रभाव इतना पड़ गया होता है कि वह बालकों को सद्गुणी बनाने का प्रयास भले ही कर लें, वह उन्हें सदगुणी बना नहीं सकता क्योंकि वह स्वयं सद्गुणी नहीं है। इसलिए रूसों बालक की आरम्भिक शिक्षा में शिक्षक को कोई स्थान नहीं देना चाहते। अन्य प्रकृतिवादी रूसो के अतिरेक को स्वीकार नहीं करते। वे बालकों की शिक्षा में शिक्षक की भूमिका मात्र सहायक एवं पथ प्रदर्शक के रूप में मानते हैं। इसलिए शिक्षक को मनोविज्ञान का ज्ञाता होना चाहिये। बालक की मनोकामनाएं, आवश्यकताएं रूचियाँ तथा उनके मानसिक विकास का उसे परिज्ञान होना चाहिए। शिक्षक के लिए बालक की स्वतः आत्मस्फूर्त क्रियाओं का जानना आवश्यक है। क्योंकि छात्र इन स्वतः शक्तियों द्वारा अपनी शिक्षा स्वयं करता है, शिक्षक तो केवल उचित परिस्थितियों का संयोजन मात्र करता है। यदि सीखने का परिणाम सुखद होता है तो बालक सीखने में आनन्द लेता है। तथा उक्त शैक्षिक अनुभव की बार बार आवृत्ति करता है। शिक्षक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह बालक के लिए अनुकूलित वातावरण तैयार करे।
रूसो के अनुसार स्कूल स्वयं एक विशेष प्रकार का समाज है। इस समाज के द्वारा बालकों को भावी समाज के योग्य बनाया जाता है। इसी समाज द्वारा वह स्वानुशासन की भावना सीखता है। नेतृत्व करने तथा प्रकृतिवादी उद्देश्यों की पूर्ति करने हेतु अपने को तैयार करता है। इस प्रकार के स्कूली समाज का बन्धन कठोर नहीं होता। यद्यपि रूसो ने स्कूल में एक छात्र तथा एक अध्यापक की कल्पना किया है। सामान्यतः प्रकृतिवादी किसी प्रकार से औपचारिक शिक्षा का विरोध करते हैं, इसीलिए इसमें विद्यालय को कोई महत्वपूर्ण स्थान न देकर बालकों को दूषित वातावरण से दूर और प्राकृतिक वातावरण के बीच रहकर शिक्षा प्राप्त करने को कहा गया है। इन्हीं विचारों के कारण प्रकृतिवादी विचारक स्कूलों को कृत्रिम कठोर एवं दृढ़ बन्धनों वाली संस्था नहीं चाहते। प्रकृतिवादियों के अनुसार स्कूल में पाठ्यक्रम एवं सहगामी क्रियाओं इत्यादि से संबंधित विषयों की व्यवस्था में बालकों का भी प्रतिनिधित्व आवश्यक होता है। इसलिए उन्हें भ्रमण, देशाटन, खेल कूद, स्काउटिंग, समाज सेवा इत्यादि कार्यक्रमों की स्वयं ही व्यवस्था करने की स्वतंत्रता देनी चाहिये। शिक्षकों को केवल पथ प्रदर्शक की भूमिका का निर्वहन करना चाहिए।
प्रकृतिवादी विचारक शिक्षा में अनुशासन को महत्व नहीं देते है। वे ‘कारण एवं परिणाम’ के नियम में विश्वास करते हैं। उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जो कर्म करता है,उसका परिणाम वह अवश्य भोगता है। ये परिणाम सुखकर एवं दुखकर दोनों ही होते हैं। इस आधार पर अनुशासन स्थापित करने के दो उपनियम दिखाई देते हैं -
रूसो के सिद्धान्त के अनुसार बालक के बुरे कार्यों का दण्ड प्रकृति अवश्य देती है। इसलिए उसे किसी प्रकार का दण्ड न देकर प्राकृतिक दण्ड द्वारा अनुशासित होने दिया जाना चाहिये, जबकि स्पेन्सर के सिद्धान्त के अनुसार बालक सुखदायी कार्यों को बार बार दुहराना चाहता है। क्योंकि उससे उसे सुख की अनुभूति होती है जबकि वह दुखद कार्यों को छोड़ देता है, क्योंकि उससे उसे कष्ट होता है। इस प्रकार बालक अनुशासित ढंग से व्यवहार करने लगता है और उसमें स्वानुशासन की भावना विकसित होने लगती है।
कुछ प्रकृतिवादी विचारक शिक्षा व्यवस्था में अनुशासन की स्थापना हेतु किसी भी प्रकार के ‘दमनात्मक सिद्धान्त’ का विरोध करते हैं। उनका विचार है कि बालकों पर शिक्षकों का प्रभाव विशेष रूप से पड़ता है। इसलिए बालकों में अनुशासन की भावना विकसित करने हेतु ‘प्रभावात्मक सिद्धान्त का सहारा लेना चाहिए, जबकि अनेक प्रकृतिवादी विचारक यह मानते हैं कि अनुशासन की स्थापना प्राकृतिक नियमों के अनुसार हो तो ज्यादा अच्छा होता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रकृतिवादी बालकों में स्वानुशासन की भावना के विकास के लिए ‘मुक्तात्मक सिद्धान्त’ पर विशेष बल देते हैं।
यदि हम शिक्षा के सन्दर्भ में प्रकृतिवाद का मूल्यांकन करें तो हमें उसमें अनेक गुण नजर आते हैं -
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