पुराण, हिन्दुओं के धर्म-सम्बन्धी आख्यान ग्रन्थ हैं, जिनमें संसार - ऋषियों - राजाओं के वृत्तान्त आदि हैं। ये वैदिक काल के बहुत समय बाद के ग्रन्थ हैं। भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण प्राचीन भक्ति-ग्रन्थों के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएँ कही गयी हैं। कुछ पुराणों में सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का विवरण दिया गया है।
'पुराण' का शाब्दिक अर्थ है, 'प्राचीन' या 'पुराना'।[1] पुराणों की रचना मुख्यतः संस्कृत में हुई है, किन्तु कुछ पुराण क्षेत्रीय भाषाओं में भी रचे गए हैं।[2][3] हिन्दू और जैन दोनों ही धर्मों के वाङ्मय में पुराण मिलते हैं। [2]
पुराणों में वर्णित विषयों की कोई सीमा नहीं है। इसमें ब्रह्माण्डविद्या, देवी-देवताओं, राजाओं, नायकों, ऋषि-मुनियों की वंशावली, लोककथाएँ, तीर्थयात्रा, मन्दिर, चिकित्सा, खगोल शास्त्र, व्याकरण, खनिज विज्ञान, हास्य, प्रेमकथाओं के साथ-साथ धर्मशास्त्र और दर्शन का भी वर्णन है। [3] विभिन्न पुराणों की विषय-वस्तु में बहुत अधिक असमानता है। इतना ही नहीं, एक ही पुराण के कई-कई पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई हैं जो परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। [2] हिन्दू पुराणों के रचनाकार अज्ञात हैं और ऐसा लगता है कि कई रचनाकारों ने कई शताब्दियों में इनकी रचना की है। इसके विपरीत जैन पुराण हैं। जैन पुराणों का रचनाकाल और रचनाकारों के नाम बताये जा सकते हैं[2]
कर्मकाण्ड (वेद) से ज्ञान (उपनिषद्) की ओर आते हुए भारतीय मानस में पुराणों के माध्यम से भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। छोटे और बड़े के भेद से अठारह पुराण बताये गये हैं।
- १. ब्रह्मपुराण, २. पद्मपुराण, ३. विष्णुपुराण, ४. शिवपुराण, ५. भागवतपुराण, ६. भविष्यपुराण, ७. नारदपुराण, ८. मार्कण्डेयपुराण, ९. अग्निपुराण, १०. ब्रह्मवैवर्तपुराण, ११. लिंगपुराण, १२. वाराहपुराण, १३. स्कन्दपुराण, १४. वामनपुराण, १५. कूर्मपुराण, १६. मत्स्यपुराण, १७. गरुडपुराण और १८. ब्रह्माण्डपुराण[4]
पुराणों में वैदिक काल से चले आते हुए सृष्टि आदि सम्बन्धी विचारों, प्राचीन राजाओं और ऋषियों के परम्परागत वृत्तान्तों तथा कहानियों आदि के संग्रह के साथ साथ कल्पित कथाओं की विचित्रता और रोचक वर्णनों द्वारा साम्प्रदायिक या साधारण उपदेश भी मिलते हैं।
विष्णु, ब्राम्हण, वायु, मत्स्य और भागवत आदि पुराणों में ऐतिहासिक वृत्त— राजाओं की वंशावली आदि के रूप में बहुत-कुछ मिलते हैं। ये वंशावलियाँ यद्यपि बहुत संक्षिप्त हैं और इनमें परस्पर कहीं-कहीं विरोध भी हैं, पर हैं बडे़ काम की। पुराणों की ओर ऐतिहासिकों ने इधर विशेष रूप से ध्यान दिया है और वे इन वंशावलियों की छानबीन में लगे हैं।
पुराण के लक्षण
'पुराण' का शाब्दिक अर्थ है - 'प्राचीन आख्यान' या 'पुरानी कथा'। ‘पुरा’ शब्द का अर्थ है - अनागत एवं अतीत। ‘अण’ शब्द का अर्थ होता है - कहना या बतलाना।[उद्धरण चाहिए] रघुवंश में पुराण शब्द का अर्थ है "पुराण पत्रापग मागन्नतरम्" एवं वैदिक वाङ्मय में "प्राचीन: वृत्तान्त:" दिया गया है।[उद्धरण चाहिए]
सांस्कृतिक अर्थ से हिन्दू संस्कृति के वे विशिष्ट धर्मग्रन्थ जिनमें सृष्टि से लेकर प्रलय तक का इतिहास-वर्णन शब्दों से किया गया हो, पुराण कहे जाते है। पुराण शब्द का उल्लेख वैदिक युग के वेद सहित आदितम साहित्य में भी पाया जाता है अत: ये सबसे पुरातन (पुराण) माने जा सकते हैं। अथर्ववेद के अनुसार "ऋच: सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह ११.७.२") अर्थात् पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजुस् औद छन्द के साथ ही हुआ था। शतपथ ब्राह्मण (१४.३.३.१३) में तो पुराणवाग्ङमय को वेद ही कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद् (इतिहास पुराणं पंचम वेदानांवेदम् ७.१.२) ने भी पुराण को वेद कहा है। बृहदारण्यकोपनिषद् तथा महाभारत में कहा गया है कि "इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थमुपबृंहयेत्" अर्थात् वेद का अर्थविस्तार पुराण के द्वारा करना चाहिये। इनसे यह स्पष्ट है कि वैदिक काल में पुराण तथा इतिहास को समान स्तर पर रखा गया है।[उद्धरण चाहिए] puraan 4 prakar ke hote hai aur phele puraan ek hi hua karta tha but phir puraan ko 4 bhaago mai bta gaya jo log puraan pad leta hai
अमरकोष आदि प्राचीन कोशों में पुराण के पाँच लक्षण माने गये हैं : सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (प्रलय, पुनर्जन्म), वंश (देवता व ऋषि सूचियां), मन्वन्तर (चौदह मनु के काल), और वंशानुचरित (सूर्य चन्द्रादि वंशीय चरित)।
- सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
- वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥
- (१) सर्ग – पंचमहाभूत, इन्द्रियगण, बुद्धि आदि तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन,
- (२) प्रतिसर्ग – ब्रह्मादिस्थावरान्त संपूर्ण चराचर जगत् के निर्माण का वर्णन,
- (३) वंश – सूर्यचन्द्रादि वंशों का वर्णन,
- (४) मन्वन्तर – मनु, मनुपुत्र, देव, सप्तर्षि, इन्द्र और भगवान् के अवतारों का वर्णन,
- (५) वंशानुचरित – प्रति वंश के प्रसिद्ध पुरुषों का वर्णन।
माना जाता है कि सृष्टि के रचनाकर्ता ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम जिस प्राचीनतम धर्मग्रन्थ की रचना की, उसे पुराण के नाम से जाना जाता है।[उद्धरण चाहिए]
प्राचीनकाल से पुराण देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों - सभी का मार्गदर्शन करते रहे हैं। पुराण मनुष्य को धर्म एवं नीति के अनुसार जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देते हैं। पुराण मनुष्य के कर्मों का विश्लेषण कर उन्हें दुष्कर्म करने से रोकते हैं। पुराण वस्तुतः वेदों का विस्तार हैं। वेद बहुत ही जटिल तथा शुष्क भाषा-शैली में लिखे गए हैं। lलोमहर्ष और उनके पुत्र उग्रश्रवा ने पुराणों की रचना और पुनर्रचना की है कहने से ज्यादा सही रहेगा की इनके द्वारा पुराणों का संकलन किया गया है चूंकि प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा श्रुति पर आधारित थी जिस तरह वेद व्यास जी ने ऋग्वेद का संकलन किया उसी तरह लोमहर्ष और उग्रश्रव ने पुराणों का संकलन किया। कहा जाता है, ‘‘पूर्णात् पुराण ’’ जिसका अर्थ है, जो वेदों का पूरक हो, अर्थात् पुराण (जो वेदों की टीका हैं)।[उद्धरण चाहिए] वेदों की जटिल भाषा में कही गई बातों को पुराणों में सरल भाषा में समझाया गया हैं। पुराण-साहित्य में अवतारवाद को प्रतिष्ठित किया गया है। निर्गुण निराकार की सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना करना इन ग्रन्थों का विषय है। पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म और कर्म-अकर्म की कहानियाँ हैं। प्रेम, भक्ति, त्याग, सेवा, सहनशीलता ऐसे मानवीय गुण हैं, जिनके अभाव में उन्नत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। पुराणों में देवी-देवताओं के अनेक स्वरूपों को लेकर एक विस्तृत विवरण मिलता है। पुराणों में सत्य की प्रतिष्ठा के अतिरिक्त दुष्कर्म का विस्तृत चित्रण भी पुराणकारों ने किया है। पुराणकारों ने देवताओं की दुष्प्रवृत्तियों का व्यापक विवरण दिया है लेकिन मूल उद्देश्य सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।
केवल ६ पुराणों -- मत्स्य, वायु, विष्णु, ब्रह्माण्ड, भविष्य एवं भागवत में ही राजाओं की वंशावली पायी जाती है।
अष्टादश पुराण
पुराणों की संख्या प्राचीन काल से अठारह मानी गयी है। पुराणों में एक विचित्रता यह है कि प्रायः प्रत्येक पुराण में अठारहों पुराणों के नाम और उनकी श्लोक-संख्या का उल्लेख है।[5] देवीभागवत में नाम के आरंभिक अक्षर के निर्देशानुसार १८ पुराणों की गणना इस प्रकार की गयी हैं:
- मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम्।
- अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि पृथक्पृथक् ॥[6]
म-२, भ-२, ब्र-३, व-४।
अ-१,ना-१, प-१, लिं-१, ग-१, कू-१, स्क-१ ॥
'विष्णुपुराण' के अनुसार अठारह पुराणों के नाम इस प्रकार हैं—ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शैव (वायु), भागवत, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लिङ्ग, वाराह, स्कन्द, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड और ब्रह्माण्ड। क्रमपूर्वक नाम-गणना के उपरान्त श्रीविष्णुपुराण में इनके लिए स्पष्टतः 'महापुराण' शब्द का भी प्रयोग किया गया है।[7] श्रीमद्भागवत[8], मार्कण्डेय[9] एवं कूर्मपुराण[10] में भी ये ही नाम एवं यही क्रम है। अन्य पुराणों में भी 'शैव' और 'वायु' का भेद छोड़कर नाम प्रायः सब जगह समान हैं, श्लोक-संख्या में कहीं-कहीं कुछ भिन्नता है।[11] नारद पुराण[12], मत्स्य पुराण[13] और देवीभागवत में 'शिव पुराण' के स्थान में 'वायुपुराण' का नाम है। भागवत के नाम से आजकल दो पुराण मिलते हैं—एक 'श्रीमद्भागवत', दूसरा 'देवीभागवत'। इन दोनों में कौन वास्तव में महापुराण है, इसपर विवाद रहा है। नारद पुराण में सभी अठारह पुराणों के नाम निर्देश के अतिरिक्त उन सबकी विषय-सूची भी दी गयी है[14], जो पुराणों के स्वरूप-निर्देश की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। बहुमत से अठारह पुराणों के नाम इस प्रकार हैं:
- ब्रह्म पुराण
- पद्म पुराण
- विष्णु पुराण -- (उत्तर भाग - विष्णुधर्मोत्तर)
- वायु पुराण -- (भिन्न मत से - शिव पुराण)
- भागवत पुराण -- (भिन्न मत से - देवीभागवत पुराण)
- नारद पुराण
- मार्कण्डेय पुराण
- अग्नि पुराण
- भविष्य पुराण
- ब्रह्मवैवर्त पुराण
- लिङ्ग पुराण
- वाराह पुराण
- स्कन्द पुराण
- वामन पुराण
- कूर्म पुराण
- मत्स्य पुराण
- गरुड पुराण
- ब्रह्माण्ड पुराण
प्रतीकात्मक संख्या अठारह, व्यावहारिक संख्या इक्कीस
आचार्य बलदेव उपाध्याय ने पर्याप्त तर्कों के आधार पर सिद्ध किया है कि शिव पुराण वस्तुतः एक उपपुराण है और उसके स्थान पर वायु पुराण ही वस्तुतः महापुराण है।[15] इसी प्रकार देवीभागवत भी एक उपपुराण है।[16] परन्तु इन दोनों को उपपुराण के रूप में स्वीकार करने में सबसे बड़ी बाधा यह है कि स्वयं विभिन्न पुराणों में उपलब्ध अपेक्षाकृत अधिक विश्वसनीय सूचियों में कहीं इन दोनों का नाम उपपुराण के रूप में नहीं आया है। दूसरी ओर रचना एवं प्रसिद्धि दोनों रूपों में ये दोनों महापुराणों में ही परिगणित रहे हैं।[17] पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र ने बहुत पहले विस्तार से विचार करने के बावजूद कोई अन्य निश्चयात्मक समाधान न पाकर यह कहा था कि 'शिव पुराण' तथा 'वायु पुराण' एवं 'श्रीमद्भागवत' तथा 'देवीभागवत' महापुराण ही हैं और कल्प-भेद से अलग-अलग समय में इनका प्रचलन रहा है।[18] इस बात को आधुनिक दृष्टि से इस प्रकार कहा जा सकता है कि भिन्न संप्रदाय वालों की मान्यता में इन दोनों कोटि में से एक न एक गायब रहता है। इसी कारण से महापुराणों की संख्या तो १८ ही रह जाती है, परन्तु संप्रदाय-भिन्नता को छोड़ देने पर संख्या में दो की वृद्धि हो जाती है। इसी प्रकार प्राचीन एवं रचनात्मक रूप से परिपुष्ट होने के बावजूद हरिवंश एवं विष्णुधर्मोत्तर का नाम भी 'बृहद्धर्म पुराण' की अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन[19] सूची को छोड़कर पुराण या उपपुराण की किसी प्रामाणिक सूची में नहीं आता है। हालाँकि इन दोनों का कारण स्पष्ट ही है। 'हरिवंश' वस्तुतः स्पष्ट रूप से महाभारत का खिल (परिशिष्ट) भाग के रूप में रचित है और इसी प्रकार 'विष्णुधर्मोत्तर' भी विष्णु पुराण के उत्तर भाग के रूप में ही रचित एवं प्रसिद्ध है।[20] नारद पुराण में बाकायदा विष्णु पुराण की विषय सूची देते हुए 'विष्णुधर्मोत्तर' को उसका उत्तर भाग बताकर एक साथ विषय सूची दी गयी है[21][22] तथा स्वयं 'विष्णुधर्मोत्तर' के अन्त की पुष्पिका में उसका उल्लेख 'श्रीविष्णुमहापुराण' के 'द्वितीय भाग' के रूप में किया गया है।[23][24] अतः 'हरिवंश' तो महाभारत का अंग होने से स्वतः पुराणों की गणना से हट जाता है। 'विष्णुधर्मोत्तर' विष्णु पुराण का अंग-रूप होने के बावजूद नाम एवं रचना-शैली दोनों कारणों से एक स्वतंत्र पुराण के रूप में स्थापित हो चुका है। अतः प्रतीकात्मक रूप से महापुराणों की संख्या अठारह होने के बावजूद व्यावहारिक रूप में 'शिव पुराण', 'देवीभागवत' एवं 'विष्णुधर्मोत्तर' को मिलाकर महापुराणों की संख्या इक्कीस होती है।
उपपुराण
- आदि पुराण (सनत्कुमार द्वारा कथित)
- नरसिंह पुराण
- नन्दिपुराण (कुमार द्वारा कथित)
- शिवधर्म पुराण
- आश्चर्य पुराण (दुर्वासा द्वारा कथित)
- नारदीय पुराण (नारद द्वारा कथित)
- कपिल पुराण
- मानव पुराण
- उशना पुराण (उशनस्)
- ब्रह्माण्ड पुराण
- वरुण पुराण
- कालिका पुराण
- माहेश्वर पुराण
- साम्ब पुराण
- सौर पुराण
- पाराशर पुराण (पराशरोक्त)
- मारीच पुराण
- भार्गव पुराण
- विष्णुधर्म पुराण
- बृहद्धर्म पुराण
- गणेश पुराण
- मुद्गल पुराण
- एकाम्र पुराण
- दत्त पुराण
श्लोक संख्या
सुखसागर के अनुसारः
पुराण | श्लोकों की संख्या |
---|---|
ब्रह्मपुराण | 14000 |
पद्मपुराण | 55000 |
विष्णुपुराण | 23000 |
शिवपुराण | 24000 |
श्रीमद्भावतपुराण | 18000 |
नारदपुराण | 25000 |
मार्कण्डेयपुराण | 9000 |
अग्निपुराण | 15000 |
भविष्यपुराण | 14500 |
ब्रह्मवैवर्तपुराण | 18000 |
लिंगपुराण | 11000 |
वाराहपुराण | 24000 |
स्कंदपुराण | 810100 |
वामनपुराण | 10000 |
कूर्मपुराण | 17000 |
मत्सयपुराण | 14000 |
गरुड़पुराण | 19000 |
ब्रह्माण्डपुराण | 12000 |
१८ पुराण के नाम और उनका महत्त्व
(१) ब्रह्मपुराण : इसे “आदिपुराण” भी कहा जाता है। प्राचीन माने गए सभी पुराणों में इसका उल्लेख है। इसमें श्लोकों की संख्या अलग- २ प्रमाणों से भिन्न-भिन्न है। १०,०००…१२.००० और १३,७८७ ये विभिन्न संख्याएँ मिलती है। इसका प्रवचन नैमिषारण्य में लोमहर्षण ऋषि ने किया था। इसमें सृष्टि, मनु की उत्पत्ति, उनके वंश का वर्णन, देवों और प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन है। इस पुराण में विभिन्न तीर्थों का विस्तार से वर्णन है। इसमें कुल २४५ अध्याय हैं। इसका एक परिशिष्ट सौर उपपुराण भी है, जिसमें उडिसा के कोणार्क मन्दिर का वर्णन है।
(२) पद्मपुराण : इसमें कुल ६४१ अध्याय और ४८,००० श्लोक हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार इसमें ५५,००० और ब्रह्मपुराण के अनुसार इसमें ५९,००० श्लोक थे। इसमें कुल खण़्ड हैं—(क) सृष्टिखण्ड : ५ पर्व, (ख) भूमिखण्ड, (ग) स्वर्गखण्ड, (घ) पातालखण्ड और (ङ) उत्तरखण्ड। इसका प्रवचन नैमिषारण्य में सूत उग्रश्रवा ने किया था। ये लोमहर्षण के पुत्र थे। इस पुराण में अनेक विषयों के साथ विष्णुभक्ति के अनेक पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। इसका विकास ५ वीं शताब्दी माना जाता है।
(३) विष्णुपुराण : पुराण के पाँचों लक्षण इसमें घटते हैं। इसमें विष्णु को परम देवता के रूप में निरूपित किया गया है। इसमें कुल छः खण्ड हैं, १२६ अध्याय, श्लोक २३,००० या २४,००० या ६,००० हैं। इस पुराण के प्रवक्ता पराशर ऋषि और श्रोता मैत्रेय हैं।
(४) वायुपुराण : इसमें विशेषकर शिव का वर्णन किया गया है, अतः इस कारण इसे “शिवपुराण” भी कहा जाता है। एक शिवपुराण पृथक् भी है। इसमें ११२ अध्याय, ११,००० श्लोक हैं। इस पुराण का प्रचलन मगध-क्षेत्र में बहुत था। इसमें गया-माहात्म्य है। इसमें कुल चार भाग है : (क) प्रक्रियापाद – (अध्याय—१-६), (ख) उपोद्घात : (अध्याय-७ –६४ ), (ग) अनुषङ्गपादः–(अध्याय—६५–९९), (घ) उपसंहारपादः–(अध्याय—१००-११२)। इसमें सृष्टिक्रम, भूगो, खगोल, युगों, ऋषियों तथा तीर्थों का वर्णन एवं राजवंशों, ऋषिवंशों,, वेद की शाखाओं, संगीतशास्त्र और शिवभक्ति का विस्तृत निरूपण है। इसमें भी पुराण के पञ्चलक्षण मिलते हैं।
(५) भागवतपुराण : यह सर्वाधिक प्रचलित पुराण है। इस पुराण का सप्ताह-वाचन-पारायण भी होता है। इसे सभी दर्शनों का सार “निगमकल्पतरोर्गलितम्” और विद्वानों का परीक्षास्थल “विद्यावतां भागवते परीक्षा” माना जाता है। इसमें श्रीकृष्ण की भक्ति के बारे में बताया गया है। इसमें कुल १२ स्कन्ध, ३३५ अध्याय और १८,००० श्लोक हैं। कुछ विद्वान् इसे “देवीभागवतपुराण” भी कहते हैं, क्योंकि इसमें देवी (शक्ति) का विस्तृत वर्णन हैं। इसका रचनाकाल ६ वी शताब्दी माना जाता है।
(६) नारद (बृहन्नारदीय) पुराण : इसे महापुराण भी कहा जाता है। इसमें पुराण के ५ लक्षण घटित नहीं होते हैं। इसमें वैष्णवों के उत्सवों और व्रतों का वर्णन है। इसमें २ खण्ड है : (क) पूर्व खण्ड में १२५ अध्याय और (ख) उत्तर-खण्ड में ८२ अध्याय हैं। इसमें १८,००० श्लोक हैं। इसके विषय मोक्ष, धर्म, नक्षत्र, एवं कल्प का निरूपण, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, गृहविचार, मन्त्रसिद्धि,, वर्णाश्रम-धर्म, श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि का वर्णन है।
(७) मार्कण्डयपुराण : इसे प्राचीनतम पुराण माना जाता है। इसमें इन्द्र, अग्नि, सूर्य आदि वैदिक देवताओं का वर्णन किया गया है। इसके प्रवक्ता मार्कण्डय ऋषि और श्रोता क्रौष्टुकि शिष्य हैं। इसमें १३८ अध्याय और ७,००० श्लोक हैं। इसमें गृहस्थ-धर्म, श्राद्ध, दिनचर्या, नित्यकर्म, व्रत, उत्सव, अनुसूया की पतिव्रता-कथा, योग, दुर्गा-माहात्म्य आदि विषयों का वर्णन है।
(८) अग्निपुराण : इसके प्रवक्ता अग्नि और श्रोता वसिष्ठ हैं। इसी कारण इसे अग्निपुराण कहा जाता है। इसे भारतीय संस्कृति और विद्याओं का महाकोश माना जाता है। इसमें इस समय ३८३ अध्याय, ११,५०० श्लोक हैं। इसमें विष्णु के अवतारों का वर्णन है। इसके अतिरिक्त शिवलिंग, दुर्गा, गणेश, सूर्य, प्राणप्रतिष्ठा आदि के अतिरिक्त भूगोल, गणित, फलित-ज्योतिष, विवाह, मृत्यु, शकुनविद्या, वास्तुविद्या, दिनचर्या, नीतिशास्त्र, युद्धविद्या, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोशनिर्माण आदि नाना विषयों का वर्णन है।
(९) भविष्यपुराण : इसमें भविष्य की घटनाओं का वर्णन है। इसमें दो खण्ड हैः–(क) पूर्वार्धः–(अध्याय—४१) तथा (ख) उत्तरार्धः–(अध्याय़—१७१) । इसमें कुल १५,००० श्लोक हैं । इसमें कुल ५ पर्व हैः–(क) ब्राह्मपर्व, (ख) विष्णुपर्व, (ग) शिवपर्व, (घ) सूर्यपर्व तथा (ङ) प्रतिसर्गपर्व। इसमें मुख्यतः ब्राह्मण-धर्म, आचार, वर्णाश्रम-धर्म आदि विषयों का वर्णन है। इसका रचनाकाल ५०० ई. से १२०० ई. माना जाता है।
(१०) ब्रह्मवैवर्तपुराण : यह वैष्णव पुराण है। इसमें श्रीकृष्ण के चरित्र का वर्णन किया गया है। इसमें कुल १८,००० श्लोक है और चार खण्ड हैं : (क) ब्रह्म, (ख) प्रकृति, (ग) गणेश तथा (घ) श्रीकृष्ण-जन्म।
(११) लिङ्गपुराण : इसमें शिव की उपासना का वर्णन है। इसमें शिव के २८ अवतारों की कथाएँ दी गईं हैं। इसमें ११,००० श्लोक और १६३ अध्याय हैं। इसे पूर्व और उत्तर नाम से दो भागों में विभाजित किया गया है। इसका रचनाकाल आठवीं-नवीं शताब्दी माना जाता है। यह पुराण भी पुराण के लक्षणों पर खरा नहीं उतरता है।
(१२) वराहपुराण : इसमें विष्णु के वराह-अवतार का वर्णन है। पाताललोक से पृथिवी का उद्धार करके वराह ने इस पुराण का प्रवचन किया था। इसमें २४,००० श्लोक सम्प्रति केवल ११,००० और २१७ अध्याय हैं।
(१३) स्कन्दपुराण : यह पुराण शिव के पुत्र स्कन्द (कार्तिकेय, सुब्रह्मण्य) के नाम पर है। यह सबसे बडा पुराण है। इसमें कुल ८१,००० श्लोक हैं। इसमें दो खण्ड हैं। इसमें छः संहिताएँ हैं—सनत्कुमार, सूत, शंकर, वैष्णव, ब्राह्म तथा सौर। सूतसंहिता पर माधवाचार्य ने “तात्पर्य-दीपिका” नामक विस्तृत टीका लिखी है। इस संहिता के अन्त में दो गीताएँ भी हैं—-ब्रह्मगीता (अध्याय—१२) और सूतगीताः–(अध्याय ८)। इस पुराण में सात खण्ड हैं—(क) माहेश्वर, (ख) वैष्णव, (ग) ब्रह्म, (घ) काशी, (ङ) अवन्ती, (रेवा), (च) नागर (ताप्ती) तथा (छ) प्रभास-खण्ड। काशीखण्ड में “गंगासहस्रनाम” स्तोत्र भी है। इसका रचनाकाल ७ वीं शताब्दी है। इसमें भी पुराण के ५ लक्षण का निर्देश नहीं मिलता है।
(१४) वामनपुराण : इसमें विष्णु के वामन-अवतार का वर्णन है। इसमें ९५ अध्याय और १०,००० श्लोक हैं। इसमें चार संहिताएँ हैं—(क) माहेश्वरी, (ख) भागवती, (ग) सौरी तथा (घ) गाणेश्वरी । इसका रचनाकाल ९ वीं से १० वीं शताब्दी माना जाता है।
(१५) कूर्मपुराण : इसमें विष्णु के कूर्म-अवतार का वर्णन किया गया है। इसमें चार संहिताएँ हैं—(क) ब्राह्मी, (ख) भागवती, (ग) सौरा तथा (घ) वैष्णवी । सम्प्रति केवल ब्राह्मी-संहिता ही मिलती है। इसमें ६,००० श्लोक हैं। इसके दो भाग हैं, जिसमें ५१ और ४४ अध्याय हैं। इसमें पुराण के पाँचों लक्षण मिलते हैं। इस पुराण में ईश्वरगीता और व्यासगीता भी है। इसका रचनाकाल छठी शताब्दी माना गया है।
(१६) मत्स्यपुराण : इसमें पुराण के पाँचों लक्षण घटित होते हैं। इसमें २९१ अध्याय और १४,००० श्लोक हैं। प्राचीन संस्करणों में १९,००० श्लोक मिलते हैं। इसमें जलप्रलय का वर्णन हैं। इसमें कलियुग के राजाओं की सूची दी गई है। इसका रचनाकाल तीसरी शताब्दी माना जाता है।
(१७) गरुडपुराण : यह वैष्णवपुराण है। इसके प्रवक्ता विष्णु और श्रोता गरुड हैं, गरुड ने कश्यप को सुनाया था। इसमें विष्णुपूजा का वर्णन है। इसके दो खण्ड हैं, जिसमें पूर्वखण्ड में २२९ और उत्तरखण्ड में ३५ अध्याय और १८,००० श्लोक हैं। इसका पूर्वखण्ड विश्वकोशात्मक माना जाता है।
(१८) ब्रह्माण्डपुराण : इसमें १०९ अध्याय तथा १२,००० श्लोक है। इसमें चार पाद हैं—(क) प्रक्रिया, (ख) अनुषङ्ग, (ग) उपोद्घात तथा (घ) उपसंहार । इसकी रचना ४०० ई.- ६०० ई. मानी जाती है।
प्रमुख पुराणों का परिचय
पुराणों में सबसे पुराना विष्णुपुराण ही प्रतीत होता है। उसमें सांप्रदायिक खींचतान और रागद्वेष नहीं है। पुराण के पाँचो लक्षण भी उसपर ठीक ठीक घटते हैं। उसमें सृष्टि की उत्पत्ति और लय, मन्वंतरों, भरतादि खंडों और सूर्यादि लोकों, वेदों की शाखाओं तथा वेदव्यास द्वारा उनके विभाग, सूर्य वंश, चंद्र वंश आदि का वर्णन है। कलि के राजाओं में मगध के मौर्य राजाओं तथा गुप्तवंश के राजाओं तक का उल्लेख है। श्रीकृष्ण की लीलाओं का भी वर्णन है पर बिलकुल उस रूप में नहीं जिस रूप में भागवत में है।
वायुपुराण के चार पाद है, जिनमें सृष्टि की उत्पत्ति, कल्पों ओर मन्वन्तरों, वैदिक ऋषियों की गाथाओं, दक्ष प्रजापति की कन्याओं से भिन्न भिन्न जीवोत्पति, सूर्यवंशी और चंद्रवंशी राजाओं की वंशावली तथा कलि के राजाओं का प्रायः विष्णुपुराण के अनुसार वर्णन है।
मत्स्यपुराण में मन्वंतरों और राजवंशावलियों के अतिरिक्त वर्णश्रम धर्म का बडे़ विस्तार के साथ वर्णन है और मत्सायवतार की पूरी कथा है। इसमें मय आदि असुरों के संहार, मातृलोक, पितृलोक, मूर्ति और मंदिर बनाने की विधि का वर्णन विशेष ढंग का है।
श्रीमदभागवत का प्रचार सबसे अधिक है क्योंकि उसमें भक्ति के माहात्म्य और श्रीकृष्ण की लीलाओं का विस्तृत वर्णन है। नौ स्कंधों के भीतर तो जीवब्रह्म की एकता, भक्ति का महत्व, सृष्टिलीला, कपिलदेव का जन्म और अपनी माता के प्रति वैष्णव भावानुसार सांख्यशास्त्र का उपदेश, मन्वंतर और ऋषिवंशावली, अवतार जिसमें ऋषभदेव का भी प्रसंग है, ध्रुव, वेणु, पृथु, प्रह्लाद इत्यादि की कथा, समुद्रमथन आदि अनेक विषय हैं। पर सबसे बड़ा दशम स्कंध है जिसमें कृष्ण की लीला का विस्तार से वर्णन है। इसी स्कंध के आधार पर शृंगार और भक्तिरस से पूर्ण कृष्णचरित् संबंधी संस्कृत और भाषा के अनेक ग्रंथ बने हैं। एकादश स्कंध में यादवों के नाश और बारहवें में कलियुग के राचाओं के राजत्व का वर्णन है। भागवत की लेखनशैली अन्य पुराणों से भिन्न है। इसकी भाषा पांडित्यपूर्ण और साहित्य संबंधी चमत्कारों से भरी हुई है, इससे इसकी रचना कुछ पीछे की मानी जाती है।
अग्निपुराण एक विलक्षण पुराण है जिसमें राजवंशावलियों तथा संक्षिप्त कथाओं के अतिरिक्त धर्मशास्त्र, राजनीति, राजधर्म, प्रजाधर्म, आयुर्वेद, व्याकरण, रस, अलंकार, शस्त्र-विद्या आदि अनेक विषय हैं। इसमें तंत्रदीक्षा का भी विस्तृत प्रकरण है। कलि के राजाओं की वंशावली विक्रम तक आई है, अवतार प्रसंग भी है। इसी प्रकार और पुराणों में भी कथाएँ हैं।
विष्णुपुराण के अतिरिक्त और पुराण जो आजकल मिलते हैं उनके विषय में संदेह होता है कि वे असल पुराणों के न मिलने पर पीछे से न बनाए गए हों। कई एक पुराण तो मत-मतांतरों और संप्रदायों के राग-द्वेष से भरे हैं। कोई किसी देवता की प्रधानता स्थापित करता है, कोई किसी देवता की प्रधानता स्थापित करता है, कोई किसी की। ब्रह्मवैवर्त पुराण का जो परिचय मत्स्यपुराण में दिया गया है उसके अनुसार उसमें रथंतर कल्प और वराह अवतार की कथा होनी चाहिए पर जो ब्रह्मवैवर्त आजकल मिलता है उसमें यह कथा नहीं है। कृष्ण के वृंदावन के रास से जिन भक्तों की तृप्ति नहीं हुई थी उनके लिये गोलोक में सदा होनेवाले रास का उसमें वर्णन है। आजकल का यह ब्रह्मवैवर्त मुसलमानों के आने के कई सौ वर्ष पीछे का है क्योंकि इसमें 'जुलाहा' जाति की उत्पत्ति का भी उल्लेख है -- म्लेच्छात् कुविंदकन्यायां जोला जातिर्बभूव ह (१०, १२१)। ब्रह्मपुराण में तीर्थों और उनके माहात्म्य का वर्णन बहुत अधिक हैं, अनन्त वासुदेव और पुरुषोत्तम (जगन्नाथ) माहात्म्य तथा और बहुत से ऐसे तीर्थों के माहात्म्य लिखे गए हैं जो प्राचीन नहीं कहे जा सकते। 'पुरुषोत्तमप्रासाद' से अवश्य जगन्नाथ जी के विशाल मंदिर की ओर ही इशारा है जिसे गांगेय वंश के राजा चोड़गंग (सन् १०७७ ई०) ने बनवाया था। मत्स्यपुराण में दिए हुए लक्षण आजकल के पद्मपुराण में भी पूरे नहीं मिलते हैं। वैष्णव सांप्रदायिकों के द्वेष की इसमें बहुत सी बातें हैं। जैसे, पाषडिलक्षण, मायावादनिंदा, तामसशास्त्र, पुराणवर्णनइत्यादि। वैशेषिक, न्याय, सांख्य और चार्वाक 'तामस शास्त्र' कहे गए हैं और यह भी बताया गया है। इसी प्रकार मत्स्य, कूर्म, लिंग, शिव, स्कंद और अग्नि तामस पुराण कहे गए हैं। सारंश यह कि अधिकांश पुराणों का वर्तमान रूप हजार वर्ष के भीतर का है। सबके सब पुराण सांप्रदायिक है, इसमें भी कोई संदेह नहीं है। कई पुराण (जैसे, विष्णु) बहुत कुछ अपने प्राचीन रूप में मिलते हैं पर उनमें भी सांप्रदायिकों ने बहुत सी बातें बढ़ा दी हैं।
पुराणों का काल एवं रचयिता
यद्यपि आजकल जो पुराण मिलते हैं उनमें से अधिकतर पीछे से बने हुए या प्रक्षिप्त विषयों से भरे हुए हैं तथापि पुराण बहुत प्राचीन काल से प्रचलित थे। बृहदारण्यक उपनिषद् और शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि गीली लकड़ी से जैसे धुआँ अलग अलग निकलता है वैसे ही महान भूत के निःश्वास से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वांगिरस, इतिहास, पुराणविद्या, उपनिषद, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान और अनुव्याख्यान हुए। छान्दोग्य उपनिषद् में भी लिखा है कि इतिहास पुराण वेदों में पाँचवाँ वेद है। अत्यंत प्राचीन काल में वेदों के साथ पुराण भी प्रचलित थे जो यज्ञ आदि के अवसरों पर कहे जाते थे। कई बातें जो पुराण के लक्षणों में हैं, वेदों में भी हैं। जैसे, पहले असत् था और कुछ नहीं था यह सर्ग या सृष्टितत्व है; देवासुर संग्राम, उर्वशी पुरूरवा संवाद इतिहास है। महाभारत के आदि पर्व में (१.२३३) भी अनेक राजाओं के नाम और कुछ विषय गिनाकर कहा गया है कि इनके वृत्तांत विद्वान सत्कवियों द्वारा पुराण में कहे गए हैं। इससे कहा जा सकता है कि महाभारत के रचनाकाल में भी पुराण थे। मनुस्मृति में भी लिखा है कि पितृकार्यों में वेद, धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण आदि सुनाने चाहिए।
अब प्रश्न यह होता है कि पुराण हैं किसके बनाए। शिवपुराण के अंतर्गत रेवा माहात्म्य में लिखा है कि अठारहों पुराणों के वक्ता सत्यवतीसुत व्यास हैं। यही बात जन साधारण में प्रचलित है। पर मत्स्यपुराण में स्पष्ट लिखा है कि पहले पुराण एक ही था, उसी से १८ पुराण हुए (५३.४)। ब्रह्मांड पुराण में लिखा है कि वेदव्यास ने एक पुराणसंहिता का संकलन किया था। इसके आगे की बात का पता विष्णु पुराण से लगता है। उसमें लिखा है कि व्यास का एक 'लोमहर्षण' नाम का शिष्य था जो सूति जाति का था। व्यास जी ने अपनी पुराण संहिता उसी के हाथ में दी। लोमहर्षण के छह शिष्य थे— सुमति, अग्निवर्चा, मित्रयु, शांशपायन, अकृतव्रण और सावर्णी। इनमें से अकृतव्रण, सावर्णी और शांशपायन ने लोमहर्षण से पढ़ी हुई पुराणसंहिता के आधार पर और एक एक संहिता बनाई। वेदव्यास ने जिस प्रकार मंत्रों का संग्रहकर उन का संहिताओं में विभाग किया उसी प्रकार पुराण के नाम से चले आते हुए वृत्तों का संग्रह कर पुराणसंहिता का संकलन किया। उसी एक संहिता को लेकर सुत के चेलों के तीन और संहीताएँ बनाई। इन्हीं संहिताओं के आधार पर अठारह पुराण बने होंगे।
मत्स्य, विष्णु, ब्रह्मांड आदि सब पुराणों में ब्रह्मपुराण पहला कहा गया है, पर जो ब्रह्मपुराण आजकल प्रचलित है वह कैसा है यह पहले कहा जा चुका है। जो कुछ हो, यह तो ऊपर लिखे प्रमाण से सिद्ध है कि अठारह पुराण वेदव्यास के बनाए नहीं हैं। जो पुराण आजकल मिलते हैं उनमें विष्णुपुराण और ब्रह्मांडपुराण की रचना औरों से प्राचीन जान पड़ती है। विष्णुपुराण में 'भविष्य राजवंश' के अंतर्गत गुप्तवंश के राजाओं तक का उल्लेख है इससे वह प्रकरण ईसा की छठी शताब्दी के पहले का नहीं हो सकता। जावा के आगे जो बाली द्वीप है वहाँ के हिंदुओं के पास ब्रह्माण्डपुराण मिला है। इन हिंदुओं के पूर्वज ईसा की पाँचवी शताब्दी में भारतवर्ष में पूर्व के द्वीपों में जाकर बसे थे। बालीवाले ब्रह्मा़डपुराण में 'भविष्य राजवंश प्रकरण' नहीं है, उसमें जनमेजय के प्रपौत्र अधिसीमकृष्ण तक का नाम पाया जाता है। यह बात ध्यान देने की है। इससे प्रकट होता है कि पुराणों में जो भविष्य राजवंश है वह पीछे से जोड़ा हुआ है। यहाँ पर ब्रह्मांडपुराण की जो प्राचीन प्रतियाँ मिलती हैं देखना चाहिए कि उनमें भूत और वर्तमानकालिक क्रिया का प्रयोग कहाँ तक है। 'भविष्यराजवंश वर्णन' के पूर्व उनमें ये श्लोक मिलते हैं—
- तस्य पुत्रः शतानीको बलबान् सत्यविक्रमः।
- ततः सुर्त शतानीकं विप्रास्तमभ्यषेचयन्।।
- पुत्रोश्वमेधदत्तो/?/भूत् शतानीकस्य वीर्यवान्।
- पुत्रो/?/श्वमेधदत्ताद्वै जातः परपुरजयः।।
- अधिसीमकृष्णो धर्मात्मा साम्पतोयं महायशाः।
- यस्मिन् प्रशासति महीं युष्माभिरिदमाहृतम्।।
- दुरापं दीर्घसत्रं वै त्रीणि दर्षाणि पुष्करम्
- वर्षद्वयं कुरुक्षेत्रे दृषद्वत्यां द्विजोत्तमाः।।
- अर्थात्— उनके पुत्र बलवान् और सत्यविक्रम शतानीक हुए। पीछे शतानीक के पुत्र को ब्राह्मणों ने अभिषिक्त किया। शतानीक के अश्वमेधदत्त नाम का एक वीर्यवान् पुत्र उत्पन्न हुआ। अश्वमेधदत्त के पुत्र परपुरंजय धर्मात्मा अधिसीमकृष्ण हैं। ये ही महाशय आजकल पृथ्वी का शासन करते हैं। इन्हीं के समय में आप लोगों ने पुष्कर में तीन वर्ष का और दृषद्वती के किनारे कुरुक्षेत्र में दो वर्ष तक का यज्ञ किया है।
उक्त अंश से प्रकट है कि आदि ब्रह्मांडपुराण अधिसीमकृष्ण के समय में बना। इसी प्रकार विष्णुपुराण, मत्स्यपुराण आदि की परीक्षा करने से पता चलता है कि आदि विष्णुपुराण परीक्षित के समय में और आदि मत्स्यपुराण जनमेजय के प्रपौत्र अधिसीमकृष्ण के समय में संकलित हुआ।
पुराण संहिताओं से अठारह पुराण बहुत प्राचीन काल में ही बन गए थे, इसका पता लगता है। आपस्तंब धर्मसूत्र (२.२४.५) में भविष्यपुराण का प्रमाण इस प्रकार उदधृत है—
- आभूत संप्लवात्ते स्वर्गजितः।
- पुनः सर्गे बीजीर्था भवतीति भविष्यत्पुराणे।
यह अवश्य है कि आजकल पुराण अपने आदिम रूप में नहीं मिलते हैं। बहुत से पुराण तो असल पुराणों के न मिलने पर फिर से नए रचे गए हैं, कुछ में बहुत सी बातें जोड़ दी गई हैं।
प्रायः सब पुराण शैव, वैष्णव सम्प्रदाय और सौर संप्रदायों में से किसी न किसी के पोषक हैं, इसमें भी कोई संदेह नहीं। विष्णु, रुद्र, सूर्य आदि की उपासना वैदिक काल से ही चली आती थी, फिर धीरे धीरे कुछ लोग किसी एक देवता को प्रधानता देने लगे, कुछ लोग दूसरे को। इस प्रकार महाभारत के पीछे ही संप्रदायों का सूत्रपात हो चला। पुराणसंहिताएँ उसी समय में बनीं। फिर आगे चलकर आदिपुराण बने जिनका बहुत कुछ अंश आजकल पाए जानेवाले कुछ पुराणों के भीतर है। पुराणों का उद्देश्य पुराने वृत्तों का संग्रह करना, कुछ प्राचीन और कुछ कल्पित कथाओं द्वारा उपदेश देना, देवमहिमा तथा तीर्थमहिमा के वर्णन द्वारा जनसाधारण में धर्मबुद्धि स्थिर रखना था। इसी से व्यास ने सूत (भाट या कथक्केड़) जाति के एक पुरुष को अपनी संकलित आदिपुराणसंहिता प्रचार करने के लिये दी।
जैनपुराण
जैन परम्परा में 63 शलाकापुरुष माने गए हैं। पुराणों में इनकी कथाएं तथा धर्म का वर्णन आदि है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा अन्य देशी भाषाओं में अनेक पुराणों की रचना हुई है। दोनों सम्प्रदायों का पुराण-साहित्य विपुल परिमाण में उपलब्ध है। इनमें भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है।
जैन धर्म में २४ पुराण तो तीर्थकरों के नाम पर हैं; और भी बहुत से हैं जिनमें तीर्थकरों के अलौकिक चरित्र, सब देवताओं से उनकी श्रेष्ठता, जैनधर्म संबंधी तत्वों का विस्तार से वर्णन, फलस्तुति, माहात्म्य आदि हैं। अलग पद्मपुराण और हरिवंश (अरिष्टनेमि पुराण) भी हैं।
मुख्य पुराण हैं:- जिनसेन का 'आदिपुराण' और जिनसेन (द्वि.) का 'अरिष्टनेमि' (हरिवंश) पुराण, रविषेण का 'पद्मपुराण' और गुणभद्र का 'उत्तरपुराण'। प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में भी ये पुराण उपलब्ध हैं। भारत की संस्कृति, परम्परा, दार्शनिक विचार, भाषा, शैली आदि की दृष्टि से ये पुराण बहुत महत्वपूर्ण हैं।
समस्त आगम ग्रंथो को चार भागो मैं बांटा गया है
- (१) प्रथमानुयोग
- (२) करनानुयोग
- (३) चरणानुयोग
- (४) द्रव्यानुयोग।
अन्य ग्रन्थ
1.षट्खण्डागम, 2.धवला टीका, 3.महाधवला टीका, 4.कसायपाहुड, 5.जयधवला टीका, 6.समयसार, 7.योगसार 8.प्रवचनसार, 9.पंचास्तिकायसार, 10.बारसाणुवेक्खा 11.आप्तमीमांसा, |
12.अष्टशती टीका, 13.अष्टसहस्री टीका, 14.रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 15.तत्त्वार्थसूत्र, 16.तत्त्वार्थराजवार्तिक टीका, 17.तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक टीका, 18.समाधितन्त्र, 19.इष्टोपदेश, 20.भगवती आराधना, 21.मूलाचार, 22.गोम्मटसार, |
23.द्रव्यसंग्रह, 24.अकलंकग्रन्थत्रयी, 25.लघीयस्त्रयी, 26.न्यायकुमुदचन्द्र टीका, 27.प्रमाणसंग्रह, 28.न्यायविनिश्चयविवरण, 29.सिद्धिविनिश्चयविवरण, 30.परीक्षामुख, 31.प्रमेयकमलमार्तण्ड टीका, 32.पुरुषार्थसिद्ध्युपाय 33.भद्रबाहु संहिता |
बौद्ध ग्रंथ
बौद्ध ग्रंथों में कहीं पुराणों का उल्लेख नहीं है पर तिब्बत और नेपाल के बौद्ध ९ पुराण मानते हैं जिन्हें वे नवधर्म कहते हैं —
- (१) प्रज्ञापारमिता (न्याय का ग्रंथ कहना चाहिए),
- (२) गंडव्यूह,
- (३) समाधिराज,
- (४) लंकावतार (रावण का मलयागिरि पर जाना और शाक्यसिंह के उपदेश से बोधिज्ञान लाभ करना वर्णित है),
- (५) तथागतगुह्यक,
- (६) सद्धर्मपुंडरीक,
- (७) ललितविस्तर (बुद्ध का चरित्र),
- (८) सुवर्णप्रभा (लक्ष्मी, सरस्वती, पृथ्वी आदि की कथा और उनका शाक्यसिंह का पूजन)
- (९) दशभूमीश्वर
पुराणों में वर्णित विविध विषय
पुराणों में आयुर्वेद
पुराणों के माध्यम से ही आयुर्वेद चिकित्सा के अध्ययन का प्रचार-प्रसार करने का प्रयास किया गया। अनेक पुराणों में निःशुल्क चिकित्सालयों की स्थापना से होने वाले लाभों की प्रशंसा की गई है। इससे उस समय चिकित्सा देखभाल के महत्व और उनके प्रति उपलब्ध सुविधाओं का पता चलता है। हम यह जान सकते हैं कि उन दिनों रोगियों को दवा के साथ-साथ भोजन भी मुफ्त में दिया जाता था।
उन दिनों आयुर्वेद की प्रगति स्थिर थी। आयुर्वेद को वेदों और शास्त्रों के अध्ययन के साथ एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाता था।
शिल्प
इन्हे भी देखें
सन्दर्भ
बाहरी कडियाँ
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