पण्डारी
विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
पिंडारी (मराठी : पेंढारी) दक्षिण पश्चिम भारत के योद्धा थे जिनमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्म के लोग थे। ये मिलकर युद्ध किया करते थे।[1] उनकी उत्पत्ति तथा नामकरण विवादास्पद है। वे बड़े कर्मठ, साहसी तथा वफादार थे। टट्टू उनकी सवारी थी। तलवार और भाले उनके अस्त्र थे। वे दलों में विभक्त थे और प्रत्येक दल में साधारणत: दो से तीन हजार तक सवार होते थे। योग्यतम व्यक्ति दल का सरदार चुना जाता था। उसकी आज्ञा सर्वमान्य होती थी। पिंडारियों में धार्मिक संकीर्णता न थी। 18वीं शताब्दी में पासी जाति भी उनके सैनिक दलों में शामिल थे। उनकी स्त्रियों का रहन-सहन हिंदू स्त्रियों जैसा था। उनमें-देवी देवताओं की पूजा प्रचलित थी। इटावा से 22 किलोमीटर दूर एक गांव पिंडारी है कहा जाता है जब मराठा सेना की तरफ से कुछ ब्राह्मण पिंडारी योद्धाओं ने युद्ध किया था बाद में वो यहीं स्थाई तौर से बस गए ।इनको बाजीराव पेशवा बल्लाळ के वंश से जुड़ा बताया जाता है।
यह लेख मुख्य रूप से अथवा पूर्णतया एक ही स्रोत पर निर्भर करता है। कृपया इस लेख में उचित संदर्भ डालकर इसे बेहतर बनाने में मदद करें। |
शैलेंद्र शुक्ला नामक व्यक्ति ने बताया कि उसके पूर्वज चौधरी राम सिंह और चौधरी धनसिंह मराठा ब्राह्मण योद्धा थे जो बाद में स्थाई तौर से पिंडारी जागीर में वस गए । सिंह शब्द एक सम्मान का परिचायक था जो ब्राह्मण योद्धा भी लगाते थे लेकिन सामाजिक दबाव के कारण ब्रह्म लोगों ने इसे नाम से हटाना शुरू कर दिया लेकिन उत्तरप्रदेश समेत बहुत स्थानों पर अभी तक कुछ ब्राह्मण वर्ग सिंह शब्द का उपयोग कर रहे हैं 
मराठों की अस्थायी सेना में उनका महत्वपूर्ण स्थान था। पिंडारी सरदार नसरू ने मुगलों के विरुद्ध शिवाजी की सहायता की। पुनापा ने उनके उत्तराधिकारियों का साथ दिया। गाजीउद्दीन ने बाजीराव प्रथम को उसके उत्तरी अभियानों में सहयोग दिया। चिंगोदी तथा हूल दोनो सगे भाई थे जो जाति के पासी थे उनके नेतृत्व में 15 हजार पिंडारियों ने पानीपत के युद्ध में भाग लिया। अन्त में वे मालवा में बस गए और सिंधियाशाही तथा होल्करशाही पिंडारी कहलाए। हीरू और बुर्रन उनके सरदार थे। बाद में चीतू, करीम खाँ, दोस्तमुहम्मद और वसीलमुहम्मद सिंधिया की पिंडारी सेना के प्रसिद्ध सरदार हुए तथा कादिर खाँ, तुक्कू खाँ, साहिब खाँ और शेख दुल्ला होल्कर की सेना में रहे।
पिंडारी सवारों की कुल संख्या लगभग 50,000 थी। युद्ध में लूटमार और विध्वंस के कार्य उन्हीं को सौंपे जाते थे। लूट का कुछ भाग उन्हें भी मिलता था। शांतिकाल में वे खेतीबाड़ी तथा व्यापार करते थे। गुजारे के लिए उन्हें करमुक्त भूमि तथा टट्टू के लिए भत्ता मिलता था।
मराठा शासकों के साथ वेलेजली की सहायक संधियों के फलस्वरूप पिंडारियों के लिए उनकी सेना में स्थान न रहा। इसलिए वे धन लेकर अन्य राज्यों का सैनिक सहायता देने लगे तथा अव्यवस्था से लाभ उठाकर लूटमार से धन कमाने लगे। सम्भव है उन्हीं के भय से कुछ देशी राज्यों ने सहायक संधियाँ स्वीकार की हों।
सन् 1807 तक पिंडारियों के धावे यमुना और नर्मदा के बीच तक सीमित रहे। तत्पश्चात् उन्होंने मिर्जापुर से मद्रास तक और उड़ीसा से राजस्थान तथा गुजरात तक अपना कार्यक्षेत्र विस्तृत कर दिया। 1812 में उन्होंने बुंदेलखंड पर, 1815 में निजाम के राज्य से मद्रास तक तथा 1816 में उत्तरी सरकारों के इलाकों पर भंयकर धावे किए। इससे शांति एवं सुरक्षा जाती रही तथा पिंडारियों की गणना लुटेरों में होने लगी।
इस गम्भीर स्थिति से मुक्ति पाने के उद्देश्य से लार्ड हेस्टिंग्ज ने 1817 में मराठा संघ को नष्ट करने के पूर्व कूटनीति द्वारा पिंडारी सरदारों में फूट डाल दी तथा संधियों द्वारा देशी राज्यों से उनके विरुद्ध सहायता ली। फिर अपने और हिसलप के नेतृत्व में 120,000 सैनिकों तथा 300 तोपों सहित उनके इलाकों को घेरकर उन्हें नष्ट कर दिया। हजारों पिंडारी मारे गए, बंदी बने या जंगलों में चले गए। चीतू को असोरगढ़ के जंगल में चीते ने खा डाला। वसील मुहम्मद ने कारागार में आत्महत्या कर ली। करीम खाँ को गोरखपुर जिले में गणेशपुर की जागीर दी गई। इस प्रकार पिंडारियों के संगठन टूट गए और वे तितर बितर हो गए।
Seamless Wikipedia browsing. On steroids.
Every time you click a link to Wikipedia, Wiktionary or Wikiquote in your browser's search results, it will show the modern Wikiwand interface.
Wikiwand extension is a five stars, simple, with minimum permission required to keep your browsing private, safe and transparent.