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नृत्य आदि के निमित्त शरीर के विभिन्न अंगों के संचालन के क्रम एवं रूप के डिजाइन को नृत्यरचना या कोरियोग्राफी (Choreography) कहते हैं। जो व्यक्ति, नर्तक या कलाकार इस कार्य को करता है, उसे 'नृत्यरचनाकार' या नृत्यसंयोजक' या 'कोरियोग्राफर' कहते हैं।
नृत्य का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना मानव जीवन का इतिहास। मानव जीवन की दैनंदिन क्रियाकलापों में खुशी के अवसरों ने लोक नृत्यों को जन्म दिया। ये लोकनृत्य हमेशा समूहों में ही किये जाते थे। इन नृत्यों के पद संचालन ( steps) अत्यधिक सरल हुआ करते थे। अधिकांश नृत्यों में लोग एक गोल घेरा बनाकर सीमित अंग संचालन से अपने मनोभावों को प्रकट करते हुए थिरकते थे। यह नृत्य इतने सहज व सरल थे कि कोई देखने वाला भी इनके साथ लय ताल में झूमते हुए नृत्य में शामिल हो जाता था। कहने का आशय यह है कि इस प्रकार के नृत्यों की संरचना अत्यधिक सरल थी।
भारतीय शास्त्रीय नृत्यों की बात करें तो कथक, ओड़िसी और भरतनाट्यम को छोड़कर अन्य सभी नृत्य अपने प्रारंभिक स्वरूप में 'नृत्यनाट्य' की श्रेणी में आते थे। नृत्य नाट्य होने से इन के प्रदर्शन में समूह का प्रदर्शन होता होगा तथापि समूह संरचना के कौशल पर उस समय इतना जोर नहीं दिया जाता था।
पूर्वी देशों की भाँति पश्चिम के देशों में भी उनके नृत्य की एक समृद्ध परम्परा हमें प्राप्त होती है। ‘कोरियोग्राफी‘ की कला पश्चिमी देशों में बहुप्रचलित है। समूह रचना की कला हमारे नृत्यों में भी रही है और मध्ययुगीन ग्रन्थों में 'समूह बन्ध' के रूप में हमें इसके बारे में जानकारी प्राप्त होती है। आचार्य भरत ने अपने नाट्यशास्त्र मेंं भी जिस ‘पिण्डी बन्ध‘ का उल्लेख किया है - वह समूह की संरचना से ही सम्बद्ध रखता है।
भारतीय शास्त्रीय नृत्य में नर्तन के तीनो भेदो नृत्त, नाटय व नृत्य के दर्शन अलग-अलग रूप से भली-भाँति किये जा सकते है। नृत्य बना है नाट्य व नृत्त से मिलकर और इस नृत्य का विकास केवल भारतीय नृत्यों में ही देखा जा सकता है। हाथ व पैरों के लय व तालबद्ध संचालन के साथ जब गीत के शब्दों के अनुकूल भावों का मेल होता है तब वह नृत्य होता है और यह नृत्य दर्शकों को पश्चिमी देशों के नृत्त की भाँति केवल चमत्कृत न ही करता है अपितु उनकी आत्मा को भी स्पर्श करता है। इसीलिये भारतीय नृत्यों ने जबसे कोरियोग्राफी की कला को आत्मसात किया है तब से उनमें एक नया आकर्षण पैदा हो गया है। भारतीय नृत्यों में विषयगत वैविध्यता तो है ही वेशभूषा में भी विविध रंगो की छटा है। अतः समूह संरचना के कौशल से इनके प्रभाव में कई गुना वृद्धि हो जाती है।
कोरियोग्राफी से एक सरल सी नृत्य रचना (composition) को भी आकर्षक बनाया जा सकता है। नृत्य संयोजन करते समय कोरियोग्राफर प्रशिक्षित नर्तको के समूह को असंख्य तरीकों से संयोजित कर असीमित आकृतियों का निर्माण कर सकता है। कथक नृत्य की परम्परा में ये आकृतियाँ 'व्यूह रचना' के नाम से जानी जाती है। एकल नृत्य प्रदर्शन में इन व्यूह रचनाओं को चलनों के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता था। समूह में इन रचनाओं का सौंदर्य द्विगुणित हो जाता है। समूह में प्रस्तुत की जाने वाली कुछ आकृतियाँ निम्नानुसार है।
आज के इलेक्ट्रानिक युग में दर्शको की बदलती रूचि के साथ सामंजस्य बनाए रखने के प्रयास ने कोरियोग्राफी को और भी अधिक विस्तार दिया है। किसी एक नृत्य रचना को एक अकेले नर्तक के स्थान पर यदि ६ या ८ नर्तको का समूह प्रदर्शित करता है तो उसमें स्थित विभिन्नता, विविधता, और नये-नये कई आकारों में नर्तकों का संयोजन दर्शको को निश्चित ही ज्यादा आकर्षित करेंगे। बड़े समूह को दो या तीन छोटे समूहों में बाँटकर कभी एक सीधी लंबी सरल रेखा तो कभी तिरछी रेखा में नर्तको को संयोजित कर कभी एक बड़ा घेरा बनाकर उसके अंदर छोटा घेरा बनाकर, कभी कुछ नर्तको को स्थिर तथा कुछ को गतिमान रखकर, कभी एक सी गति और लय में एक जैसे अंग संचालन रखकर विभिन्न प्रकार के अनगिनत सुंदर व आकर्षक दृश्य बंधो की योजना की जा सकती है।
आज मंच का स्वरूप भी पूरी तरह बदल चुका है। आधुनिक तकनीक से सुसज्जित बड़े-बड़े आडिटोरियम, विविधता लिये हुए प्रकाश योजना, बेहतरीन ध्वनि व्यवस्था आदि ने नृत्य प्रदर्शन की तकनीक को भी बदल दिया है। यह परिवर्तन अपरिहार्य भी है। विशाल मंच पर एक अकेला नर्तक उतना प्रभाव नहीं पैदा कर पाता है जितना कि नर्तकों का समूह करेगा। एक साथ कई हाथों का उठना व गिरना, भ्रमरियों का प्रयोग, एक सी वेशभूषा तदनुरूप प्रकाश व ध्वनि संयोजन दर्शको को सम्मोहन की स्थिति तक ले जाने में समर्थ है।
कोरियोग्राफर या नृत्य संयोजक चाहे एकल नृत्य हो या समूह , नृत्य के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति है जो नर्तको के पदाघातो व उनकी आंगिक क्रियाओं में सामंजस्य ढूंढता है। कथानक, नर्तको की वेशभूषा, उपलब्ध मंचीय साधन व नर्तको को विभिन्न स्थितियों व रूपों में संयोजित कर नृत्य तकनीक को विस्तार प्रदान करता है। एक अच्छे कोरियोग्राफर में नृत्यकला विषय पर अच्छी पकड़ होने के साथ-साथ उसमें सौंदर्य बोध का होना अत्यंत आवश्यक है। नृत्य, दृश्यकला है, अतः इसमें वेशभूषा, रूपसज्जा , मंचीय प्रभाव के प्रत्येक साधन का प्रयोग किया जा सकता है। एक कुशल कोरियोग्राफर अपनी रचनात्मक प्रतिभा से इन सभी का उचित प्रयोग व प्रदर्शन कर नृत्य रचना में चमत्कारी प्रभाव उत्पन्न कर सकता है।
बदलाव के इस युग में कोरियोग्राफी की कला में भी विस्तार हुआ है। कम समय में अधिक कह देना बड़ी संख्या में नर्तको को मंच उपलब्ध करवाना, मंच के बडे़ आकार को बड़े नर्तक समूह के साथ समंजित करना, तथा विविधता बनाए रखते हुए दर्शको का मनोरंजन करना, निश्चित ही एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। आज बदलते मंच की तकनीक, वेशभूषा, ध्वनि-प्रकाश योजना , सेट्स आदि ने कोरियोग्राफर के समक्ष कोरियोग्राफी के लिये एक खुला आसमान उपलब्ध करा दिया है, जहाँ वह अपनी कल्पना को मनचाही उड़ान दे सकता हैं।
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