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सिविल प्रक्रिया संहिता, १९०८ (The Code of Civil Procedure, 1908) भारत का सिविल प्रक्रिया सम्बन्धी कानून है। यह पहली बार १८५९ में लागू हुआ था। इसे व्यवहार प्रक्रिया संहिता भी कहते हैं।
सिविल प्रक्रिया, आपराधिक प्रक्रिया की अपेक्षा थोड़ी कठिन होती है। इस संहिता के अनुसार व्यवस्थित प्रक्रिया दी गई है कि कोई भी मुकदमा किस प्रकार प्रारम्भ होकर समाप्ति तक जाएगा।
आज के युग में हर व्यक्ति को संपत्ति का लेन-देन, शादी-विवाह, व्यापार-व्यवसाय , निर्माण के कार्य करते समय कभी- कभी कानूनी कठिनाइयाँ पैदा होतीं हैं। उनके निवारण हेतु न्यायालय विशिष्ट प्रक्रिया के माध्यम से पीड़ित व्यक्ति को उपचार प्रदान करते हैं। इसी प्रक्रिया को सिविल प्रक्रिया संहिता में शामिल किया गया है। इसमें 158 धाराएँ एवं 51 आदेश सम्मलित किये गये हैं।
प्रक्रिया विधि में मात्र अधिकारों का विनिश्चय करना ही काफी नहीं है बल्कि इन अधिकारों का प्रवर्तन सुनिश्चित किया जाना भी आवश्यक है। सिविल प्रक्रिया संहिता इसी उद्देश्य से पारित की गई है।
सिविल प्रक्रिया संहिता में वादों का प्रारम्भ वाद पत्र से किया जाता है। कोई वाद, वाद के पक्षकार से प्रारम्भ होता है। किसी भी वाद में दो से अधिक पक्षकार हो सकते हैं। वाद संस्थित करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए कि वाद में वादी प्रतिवादी के रूप में उन सभी व्यक्तियों को सम्मिलित कर दिया जाए जो न्याय के लिए आवश्यक है। दूसरी तरफ, किसी भी व्यक्ति को वाद में अनावश्यक रूप से सम्मिलित कर परेशान नहीं किया जाना चाहिए।
वाद पत्र में सबसे पहले वादियों का उल्लेख किया जाता है। वाद में मुख्यतः दो पक्षकार होते हैं वादी एवं प्रतिवादी। वादी वह होता है जो वादपत्र प्रस्तुत कर न्यायालय से अनुतोष (relief ) की मांग करता है। प्रतिवादी वह है जो वादपत्र का अपने लिखित कथन द्वारा उत्तर देकर प्रतिरक्षा प्रस्तुत करता है।
सिविल प्रकरणों में वाद की रचना महत्वपूर्ण होती है। इसका उल्लेख आदेश 2 में मिलता है जहां वाद का संयोजन एवं कु-संयोजन बताया गया है। यह कहा गया है कि किसी भी हेतु के लिए एक समय में वाद लगा लेना चाहिए तथा बार-बार वाद लगाने से बचना चाहिए। सभी हेतु उस एक ही वाद में आ जाए तथा अलग-अलग हेतु के लिए अलग-अलग वाद लगाने की समस्या से बचा जा सके। राज्य के ऊपर अधिक मुकदमे होंगे, अधिक समय मुकदमे में देना होगा। जनता को सरल न्याय नहीं मिल पाएगा इसलिए इस आदेश के अंतर्गत बताए गए नियमों में वाद की बाहुल्यता को रोकने के प्रयास किए गए हैं। वाद का संयोजन इस प्रकार करने को कहा गया है कि वाद के सारे प्रमुख कारण इस एक ही वाद में आ जांय।
जब वादी द्वारा कोई वाद पत्र प्रस्तुत किया जाता है तथा अनुतोष मांगा जाता है तो प्रतिवादी द्वारा अपना लिखित अभिवचन (pleading) पेश किया जाता है। यह प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के आदेश 6 में डाला गया है। 'अभिवचन' शब्द में वादपत्र एवं प्रतिवादी के लिखित कथन दोनों को शामिल किया गया है। लिखित कथन प्रतिवादी का अभिवचन होता है जिसमें वह वादी के कथनों का उत्तर देता है। सामान्यता वह अपने लिखित कथन में तो वादों के तथ्यों को अस्वीकार करता है या फिर स्वीकार करता है, यह कभी-कभी विशेष कथन प्रस्तुत कर अपनी प्रतिरक्षा करता है। जिन तथ्यों को अस्वीकार करता है वह विवाधक तथ्य बन जाते है।
वाद पत्र, वादी द्वारा न्यायालय में पेश किया गया एक पत्र होता है, जिसमें वह उन तथ्यों का अभिकथन करता है जिसके आधार पर कि वह न्यायालय से अनुतोष की मांग करता है। न्यायालय की प्रत्येक न्यायिक प्रक्रिया का आरम्भ वादपत्र दायर किए जाने से होता है। वाद कौन से न्यायालय में पेश किया जाएगा, यह तय करना सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत धारा 15 से लेकर 20 तक बताया गया है। वाद को पेश करने के लिए सर्वप्रथम तो यह नियम है कि कोई भी वाद सबसे निम्न स्तर की अदालत में विचारण के लिए पेश किया जाएगा। वाद को पेश करने के लिए इन धाराओं के अंतर्गत मूल्य के आधार पर, क्षेत्र के आधार पर, कुछ अन्य आधार भी संहिता के अंतर्गत बताए गए हैं।
सिविल प्रकिया संहिता की धारा 26 आदेश 4 के अंतर्गत वाद के संस्थित होने के संदर्भ में बताया गया है। जब वाद क्षेत्राधिकार रखने वाले न्यायालय में पेश किया जाता है तो वह या तो वाद को खारिज कर देता है या वाद को संस्थित कर लेता है और वाद का नम्बर अपने रजिस्टर में अंकित कर वाद-क्रमांक पेश कर दिया जाता है। वाद संस्थित हो गया इसका अर्थ है न्यायालय वाद में आगे की कार्यवाही करेगा।
धारा 27 आदेश 5 के अन्तर्गत प्रतिवादी को सम्मन किए जाते हैं। सम्मन, न्यायिक प्रक्रिया की महत्वपूर्ण कड़ी है। जब न्यायालय किसी मामले को सुनने के लिए आश्वस्त हो जाता है तो वह मामले में बनाए गए प्रतिवादियो को सम्मन जारी करता है। धारा 27 में सम्मन का उल्लेख किया गया है। आदेश 5 में इस सम्मन की तामील के संबंध में उल्लेख किया गया है। मामले के संस्थित होने के बाद सबसे पहली कार्यवाही सम्मन की होती है, जिस न्यायालय में मामला संस्थित किया जाता है। उस न्यायालय द्वारा सर्वप्रथम सम्मन निकाला जाता है। यह सम्मन सब प्रतिभागियों को होता है।
इस आदेश के माध्यम से यह जाना जाता है कि सम्मन हो जाने के बाद सम्मन पर बुलाया गया प्रतिवादी यदि उपस्थित नहीं होता है तो क्या कार्यवाही होगी, प्रतिवादी उपस्थित होता है तो क्या कार्यवाही होगी। उपस्थित होने पर कार्यवाही आगे बढ़ायी जाती है और अनुपस्थिति में सम्मन की तामील की प्रक्रिया में परिवर्तन इत्यादि किया जाता है, अंत में एकपक्षीय भी किया जा सकता है।
आदेश 11 में तथ्य को जाना जाता है तथा विवाधक तथ्यों को पहचान कर उन्हें इंगित किया जाता है। जब 'तथ्यों की खोज' (डिस्कवरी ऑफ फैक्ट्स) होता है तब किसी विवाद में न्यायिक कार्यवाही ठीक अर्थों में आरम्भ होता है। यहाँ से विवाधक तथ्यों को साबित नासाबित किये जाने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। विचारण भी यहीं से आरंभ होता है। डिस्कवरी ऑफ फैक्ट्स के अंतर्गत सभी तथ्यों को प्रकट करना होता है जिनसे मामले का गठन होता है।
विवाद के निपटारे में स्वीकरोक्ति (एडमिशन) का एक महत्वपूर्ण स्थान है। सिविल प्रकिया के अंतर्गत एक पक्षकार दूसरे पक्षकार के मामले को स्वीकार करता है और ऐसे स्वीकार किए गए मामले के सम्बन्ध में पक्षकारों के बीच कोई विवाद नहीं रह जाता है। परिणामस्वरूप ऐसे मामलों को साक्षी द्वारा सिद्ध करने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है और न्यायालय एडमिशन के आधार पर अपना निर्णय सुनाने के लिए अग्रसर हो सकता है। इस प्रकार एडमिशन वाद के निपटारे को सुलभ कर देता है। संहिता के आदेश 12 में ऐसे एडमिशन के बारे में प्रावधान किया गया है।
आदेश 13 के अंतर्गत दस्तावेजों की मूल प्रतियां प्रस्तुत की जाती हैं। इन दस्तावेजों को प्रकरण का साक्ष्य कहा जाता है। प्रकरण इस चरण पर आने के बाद ही साक्ष्य को प्रस्तुत किया जाता है। वाद पत्र के साथ दस्तावेजों की छायाप्रति लगा सकते है, परन्तु एडमिशन होने या नहीं होने के उपरान्त जिन मूल दस्तावेज पर विचारण चलेगा तथा विवाधक तथ्यों के संबंध में दस्तावेजों का प्रकटीकरण किया जाता है।
सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 14 के अंतर्गत वाद पदों का निश्चय (फ्रेमिंग ऑफ इश्यू) किया जाता है। किन तथ्यों पर विवाद है यह तय किया जाता है, जिससे आगे मामले का विचार किया जा सके।
संहिता के आदेश 16 के अन्तर्गत साक्षियों की सूची प्रस्तुत की जाती है। इस सूची में साक्षियों की संख्या होती है, तथा उनके नाम होते हैं जो किसी विवादित तथ्य को साबित ना साबित करने के लिए पेश किए जाते हैं।
सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 18 के अंतर्गत साक्ष्यों को लिखा जाता है, साक्ष्य का लेखबद्ध किया जाना अत्यन्त आवश्यक होता है। सिविल प्रक्रिया संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा साक्ष्य को लेखबद्ध किए जाने की प्रक्रिया में संशोधन भी किए गए है तथा प्रत्येक साक्षी शपथ पत्र पर माना गया है। न्यायालय साक्ष्य को लेखबद्ध कराने की प्रक्रिया पूरी करता है।
अधिनियम के आदेश 20 व धारा 35 के अन्तर्गत मामले में अंतिम निर्णय लिया जाता है या डिक्री (आज्ञप्ति) दी जाती है। डिक्री एवं निर्णय में कुछ अन्तर होते है। न्यायाधीश सबसे अन्त में किसी भी मामले में निर्णय सुना देता है, आज्ञप्ति जारी कर देता है।
इस अधिनियम को पांच बार संशोधन किया गया, आखिरी संशोधन 2018 में किया गया था। संशोधन का क्रम इस प्रकार है–
सिविल प्रक्रिया संहिता में वर्ष 2002 में काफी संशोधन किए गए थे। संहिता में संशोधन का मुख्य उद्देश्य अधिनियम के तहत शासित सिविल मामलों का शीघ्र निपटान सुनिश्चित करना था।[1]
वाणिज्यिक न्यायालय की स्थापना एवं उसके प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2016 अधिनियमित किया गया। ये प्रावधान निर्दिष्ट मूल्य के वाणिज्यिक विवादों पर लागू होते हैं। अधिनियम ने स्पष्ट किया कि अधिनियम द्वारा संशोधित सिविल प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों का उच्च न्यायालय के किसी भी नियम या संबंधित राज्य सरकार द्वारा किए गए संशोधनों पर प्रभाव पड़ेगा।[2]
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