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धर्ममीमांसा या ईश्वरमीमांसा (युनानी -θεολογία, अंग्रेजी-Theology) देवत्व अथवा परमात्मा की प्रकृति का,तथा अधिक व्यापक रूप से, धार्मिक विश्वास का व्यवस्थित अध्ययन है। किसी धार्मिक संप्रदाय के द्वारा स्वीकृत विश्वासों व सिद्धांतों का सुव्यवस्थित संग्रह, एवं उसका तार्किक अध्य्यन ही उस संप्रदाय की धर्ममीमांसा है। यह एक अधिविद्य शास्त्र(अकादमिक विधा) के रुप में विश्वविद्यालयों, धर्मप्रशिक्षणालयों,व पारंपरिक गुरुकुलों में पढाया जाता है। धर्ममीमांसा, विभिन्न प्रकार के विश्लेषण और तर्कयुक्ति (अनुभव-प्रयोग, दर्शनशास्त्र , नृवंशविज्ञान , इतिहास,ईत्यादि) का उपयोग कर,धर्म एवं धार्मिक विषयों को समझने , समझाने , परीक्षण करने, आलोचना करने, बचाव व प्रचार-प्रसार करने, उसमें सुधार करने, उसे न्यायोचित ठहराने का प्रयास करता है; धर्ममीमांसा का उपयोग एक धार्मिक परंपरा की तुलना करने,उसे चुनौती देने (जैसे बाइबिल समालोचना)या विरोध करने(जैसे अधार्मिकता)के लिये भी किया जा सकता है। धर्ममीमांसा एक धार्मिक परंपरा के माध्यम से कुछ वर्तमान स्थिति या आवश्यकता को संबोधित करने,या दुनिया का निर्वचन करने के संभावित तरीकों का पता लगाने में एक धर्मविद् की सहायता कर सकता है।
धर्ममीमांसा(θεολογία) | |
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विद्या विवरण | |
विषयवस्तु | ईश्वर तथा धार्मिक विश्वास की प्रकृति का तर्कपूर्ण अध्य्यन। |
शाखाएं व उपवर्ग | प्राकृतिक धर्ममीमांसा, ईश्वरमीमांसा, नारीवादी धर्ममीमांसा,इस्लामी धर्ममीमांसा,व्यवस्थित धर्ममीमांसा,विमुक्ति धर्ममीमांसा |
प्रमुख विद्वान् | एलेग्जेंड्रिया के संत अथानेसियस, हिप्पो के संत ऑगस्टिन, कैन्टर्बरि के सन्त ऐसेल्म्, थॉमस एक्विनास, जॉन कैल्विन, मार्टिन लुथर,कार्ल बार्थ |
इतिहास | धर्ममीमांसा का इतिहास |
प्रमुख विचार व अवधारणाएं | ईश्वर का अस्तित्व, ईश्वर की प्रकृति, रहस्योद्घाटन, सभोपदेश-शास्त्र (ecclesiology) , उद्धार, सृजन,रहस्यवाद, अध्यात्म, धार्मिक-पाप, मसीहशास्त्र,युगांतशास्त्र (eschatology) |
धर्ममीमांसा, एक नवशब्द है जो हिंदी में थिओलॉजि का अनुवाद है। यह धार्मिक तर्कविमर्श और मंडनवाद की एक दर्शन-उन्मुख विद्या है जो,उत्पत्ति और प्रारूप के कारण परंपरागत रूप से ईसाई-धर्म तक सीमित थी,पर विषय वस्तु के अधार पर यह, इस्लाम और यहूदी धर्म सहित अन्य धर्मों को भी शामिल कर सकती है । धर्ममीमांसा के विषयों में ईश्वर, मानवता, संसार,रहस्योद्घाटन, उद्धार और युगांतशास्त्र (अंतिम समय का अध्ययन) शामिल हैं।
धर्ममीमांसा मूलतः आलौकिक के विश्लेषण से संपृक्त है, परन्तु यह धार्मिक ज्ञानमीमांसा व रहस्योद्घाटन के सवालों का भी उत्तर देने का प्रयत्न करती है। धार्मिक अनुयायी अभी भी धर्ममीमांसा को एक ऐसा अनुशासन मानते हैं जो उन्हें जीवन और प्रेम जैसी अवधारणाओं को जीने और समझने में मदद करता है तथा इससे उन्हें जीवन जीने में,उन देवताओं की आज्ञाकारिता का मदद मिलती है जिनका वे पालन और पूजन करते हैं।
धर्ममीमांसा में विज्ञान और दर्शन के दृष्टिकोण की सार्वभौमता नहीं होती, इसकी पद्धति भी उनकी पद्धति से भिन्न होती है। विज्ञान प्रत्यक्ष पर आधारित है, दर्शन में बुद्धि की प्रमुखता है और धर्ममीमांसा में, आप्त वचन की प्रधानता स्वीकृत होती है। जब तक विश्वास का अधिकार प्रश्नरहित था, धर्ममीमांसकों को इस बात की चिंता न थी कि उनके मंतव्य विज्ञान के आविष्कारों और दर्शन के निष्कर्षों के अनुकूल हैं या नहीं। परंतु अब स्थिति बदल गई है और धर्ममीमांसा को विज्ञान तथा दर्शन के मेल में रहना होता है।
धर्ममीमांसा किसी धार्मिक संप्रदाय के स्वीकृत सिद्धांतों का संग्रह है। इस प्रकार की सामग्री का स्रोत कहाँ है? इन सिद्धांतों का सर्वोपरि स्रोत तो ऐसी पुस्तक है, जिसे उस संप्रदाय में ईश्वरीय ज्ञान समझा जाता है। इससे उतरकर उन विशेष पुरुषों का स्थान है जिन्हें ईश्वर की ओर से धर्म के संबंध में निर्भ्रांत ज्ञान प्राप्त हुआ है। रोमन कैथोलिक चर्च में पोप को ऐसा पद प्राप्त है। विवाद के विषयों पर आचार्यों की परिषदों के निश्चय भी प्रामाणिक सिद्धांत समझे जाते हैं।
धर्ममीमांसा के विचार विषयों में ईश्वर की सत्ता और स्वरूप प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त जगत् और जीवात्मा के स्वरूप पर भी विचार होता है। ईश्वर के संबंध में प्रमुख प्रश्न यह है कि वह जगत् में अंतरात्मा के रूप में विद्यमान है, या इससे परे, ऊपर भी है। जगत् के विषय मं पूछा जाता है कि यह ईश्वर का उत्पादन है, उसका उद्गार है, या निर्माण मात्र है। उत्पादनवाद, उद्गारवाद और निर्माणवाद की जाँच की जाती है। जीवात्मा के संबंध में, स्वाधीनता और मोक्षसाधन चिरकाल के विवाद के विषय बने रहे हैं। संत आगस्तिन ने पूर्व निर्धारणवाद का समर्थन किया और कहा कि कोई मनुष्य अपने कर्मों से दोषमुक्त नहीं हो सकता, दोषमुक्ति ईश्वरीय करुणा पर निर्भर है। इसके विपरीत भारत की विचारधारा में जीवात्मा स्वतंत्र है और मनुष्य का भाग्य उसके कर्मों से निर्णीत होता है।
दैव के बारे में तर्कपूर्ण चर्चा संभव है या नहीं, यह लंबे समय से विवाद का मुद्दा रहा है। पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में, प्रोतागोरस, जिनके बारे में माना जाता है कि उन्हें देवताओं के अस्तित्व के बारे में अपने अज्ञेयवाद के कारण एथेंस से निर्वासित कर दिया गया था, उन्होंने कहा था कि "देवताओं के संबंध में मैं यह नहीं जान सकता कि वे मौजूद हैं या नहीं, या उनका स्वरूप क्या हो सकता है, क्योंकि बहुत कुछ है जो किसी को (उन्हें) जानने से रोकता है: विषय की दुर्बोधता और मनुष्य के जीवन की अल्पता।" [1] [2]
कम से कम अठारहवीं शताब्दी के बाद से, विभिन्न लेखकों ने एक अकादमिक शास्र के रूप में धर्ममीमांसा की उपयुक्तता की आलोचना की है। [3] 1772 में, बैरन डी'होल्बैक ने ले बॉन सेंस में धर्ममीमांसा को "मानवीय तर्कबुद्धि का निरंतर अपमान" करार दिया। [3] एक अंग्रेजी राजनीतिज्ञ और राजनीतिक दार्शनिक, लॉर्ड बोलिंगब्रोक ने मानव ज्ञान पर निबंध ( Essays on Human Knowledge ) के खंड IV में लिखा, "धर्ममीमांसा में दोष है, धर्म में नहीं। धर्ममीमांसा एक विज्ञान है जिसकी तुलना पंडोरा के बक्से से की जा सकती है। इसमें कई अच्छी चीजें सबसे ऊपर हैं; परन्तु बहुत सी बुराई उनके नीचे हैं, और सारे जगत में विपत्तियां और उजाड़ फैलाती हैं।" [4]
थॉमस पेन, एक देववादी अमेरिकी राजनीतिक सिद्धांतकार और पैम्फलेटर, ने अपने तीन-भाग के काम तर्कबुद्धि का युग ( The age of reason ) (1794, 1795, 1807) में लिखा: [5]
धर्ममीमांसा का अध्ययन, जैसा कि ईसाई चर्चों में होता है, नाचीज का अध्ययन है; यह नाचीज पर आधारित है; यह किसी सिद्धांत पर आधारित नहीं है; यह बिना किसी प्राधिकारी के आगे बढ़ता है; इसके पास कोई दत्तांश नहीं है; यह कुछ भी निदर्शित नहीं कर सकता; और यह कोई भी निष्कर्ष नहीं स्वीकारता है। किसी भी चीज़ का विज्ञान के रूप में अध्ययन तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक हमें उन सिद्धांतों ( सारघटकों ) की जानकारी न हो जिन पर वह आधारित है; और चूँकि यही मामला ईसाई धर्ममीमांसा के साथ है, इसलिए यह नाचीज़ का अध्ययन है।
जर्मन नास्तिक दार्शनिक लुडविग फेउरबैक ने अपने काम भविष्य के दर्शन के सिद्धांतों में धर्ममीमांसा को भंग करने की मांग की: "आधुनिक युग का कार्य ईश्वर का बोध और मानवीकरण था - धर्मशास्त्र का नृविज्ञान में परिवर्तन और विघटन।" [6] यह उनके पहले के कृति ईसाई धर्म का सार (1841) को प्रतिबिंबित करता है, जिसके लिए उन्हें जर्मनी में पढ़ाने से प्रतिबंधित कर दिया गया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि धर्ममीमांसा "विरोधाभासों और भ्रांतियों का जाल" था। [7]अमेरिकी व्यंग्यकार मार्क ट्वेन ने अपने निबंध " द लोएस्ट एनिमल " में टिप्पणी की, जो मूल रूप से 1896 के आसपास लिखा गया था, लेकिन 1910 में ट्वेन की मृत्यु के बाद तक प्रकाशित नहीं हुआ था, कि: [8] [9]
[मनुष्य] एकमात्र ऐसा जानवर है जो अपने पड़ोसी से अपने समान प्यार करता है और यदि उसका धर्ममीमांसा सीधा व सही नहीं हो तो उसका गला काट देता है। उसने अपने भाई की प्रसन्नता और स्वर्ग की राह को आसान बनाने के लिए अपनी पूरी ईमानदारी से प्रयास करते हुए जगत को एक कब्रिस्तान बना दिया है।... ऊच्चतर जानवरों का कोई धर्म नहीं होता. और हमें बताया गया है कि उन्हें उत्तर-काल में छोड़ दिया जाएगा। मैं सोचता हूँ ऐसा क्यों? यह शंकास्पद अभिरूचि लगता है.
ए जे आयर, एक ब्रिटिश पूर्वी तार्किक-प्रत्यक्षवादी, ने अपने निबंध "नीतिशास्त्र और धर्ममीमांसा की समालोचना" में यह दिखाने की कोशिश की कि परमात्मा के बारे में सभी कथन निरर्थक हैं और कोई भी दिव्य-विशेषता अप्राप्य है। उन्होंने लिखा: "किसी भी दर पर, यह अब दार्शनिकों द्वारा आम तौर पर स्वीकार किया जाता है कि किसी भी गैर-जीवात्मावादी धर्म के भगवान को परिभाषित करने वाले गुणों वाले सत् के अस्तित्व को प्रदर्शनात्मक रूप से साबित नहीं किया जा सकता है।... [ए] ईश्वर के स्वभाव के बारे में कथन निरर्थक हैं।" [10]
यहूदी नास्तिक दार्शनिक वाल्टर कॉफमैन ने अपने निबंध "धर्ममीमांसा के विरुद्ध (Against Theology) " में धर्ममीमांसा को सामान्य रूप से धर्म से अलग करने की मांग की: [11]
निस्संदेह, धर्ममीमांसा, धर्म नहीं है; और धर्म का एक बड़ा हिस्सा सशक्त रूप से धर्ममीमांसा-विरोधी है।... इसलिए, धर्ममीमांसा पर हमले को आवश्यक रूप से धर्म के उपर हमले के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। धर्म गैर-धर्ममीमांसक या यहां तक कि धर्ममीमांसा-विरोधी भी हो सकता है और अक्सर रहा भी है।
हालाँकि, कॉफ़मैन ने पाया कि "ईसाई धर्म अनिवार्य रूप से एक धर्ममीमांसक धर्म है।" [11]
अंग्रेजी नास्तिक चार्ल्स ब्रैडलॉफ का मानना था कि धर्ममीमांसा मनुष्य को स्वाधिनता प्राप्त करने से रोकता है, [12] हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि उनके समय के कई धर्ममीमांसकों का मानना था कि, क्योंकि आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान कभी-कभी पवित्र ग्रंथों का खंडन करते हैं, इसलिए धर्मग्रंथ गलत होने चाहिए। [13] रॉबर्ट जी इंगरसोल, एक अमेरिकी अज्ञेयवादी अधिवक्ता, ने कहा कि, जब धर्ममीमांसकों के पास राजशक्ति थी, तो अधिकांश लोग झोपड़ियों में रहते थे, जबकि कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के पास महल और गिरजाघर थे। इंगरसोल की राय में, यह विज्ञान था जिसने लोगों के जीवन को बेहतर बनाया, न कि धर्ममीमांसा ने। इंगरसोल ने आगे कहा कि प्रशिक्षित धर्ममीमांसकों का तर्क उस व्यक्ति से बेहतर नहीं है जो यह मानता है कि शैतान का अस्तित्व इसलिए होना चाहिए क्योंकि तस्वीरें बिल्कुल शैतान से मिलती जुलती हैं। [14]
ब्रिटिश क्रमविकासीय जीवविज्ञानी रिचर्ड डॉकिंस धर्ममीमांसा के मुखर आलोचक रहे हैं। [3] [15] 1993 में द इंडिपेंडेंट में प्रकाशित एक लेख में, उन्होंने धर्ममीमांसा को पूरी तरह से बेकार बताते हुए इसकी कड़ी आलोचना की, [15] यह घोषणा करते हुए कि यह वास्तविकता की प्रकृति या मानवीय स्थिति के बारे में किसी भी प्रश्न का उत्तर देने में पूरी तरह से और बार-बार विफल रहा है। [15] वह कहते हैं, "मैंने उनमें से किसी को भी [अर्थात धर्ममीमांसकों] को कभी भी छोटी से छोटी उपयोग की कोई बात कहते नहीं सुना, ऐसा कुछ भी जो न तो बिल्कुल स्पष्ट हो या बिल्कुल गलत हो।" [15] फिर उन्होंने कहा कि, यदि पृथ्वी से सभी धर्ममीमांसा पूरी तरह से नष्ट हो गया, तो किसी को भी ध्यान नहीं आएगा या कोई परवाह भी नहीं होगी। उन्होंने निष्कर्ष निकाला: [15]
धर्ममीमांसकों की उपलब्धियाँ कुछ नहीं करतीं, कुछ भी प्रभावित नहीं करतीं, कुछ भी हासिल नहीं करतीं, कुछ अर्थ भी नहीं रखतीं। आपको क्यों लगता है कि 'धर्ममीमांसा' एक विषय है?
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