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दूरसंचार उपकरण । विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
दूरभाष या टेलीफोन, दूरसंचार का एक उपकरण है। यह दो या कभी-कभी अधिक व्यक्तियों के बीच बातचीत करने के काम आता है। विश्व भर में आजकल यह सर्वाधिक प्रचलित घरेलू उपकरण है।
टेलिफोन (Telephone) के अस्तित्व की संभावना सर्वप्रथम संयुक्त राज्य अमरीका के ऐलेक्ज़ैन्डर ग्राहम बेल की इस उक्ति में प्रकट हुई –
यदि मैं विद्युद्वारा की तीव्रता को ध्वनि के उतार चढ़ाव के अनुसार उसी प्रकार न्यूनाधिक करने की व्यवस्था कर पाऊँ, जैसा ध्वनिसंचरण के समय वायु के घनत्व में होता है, तो मैं मुख से बोले गए शब्दों को भी टेलिग्राफ की विधि से एक स्थान से दूसरे स्थान को संचारित कर सकने में समर्थ हो सकूंगा।
अपनी इसी धारणा के आधार पर बेल ने अपने सहायक टॉमस वाट्सन की सहायता से टेलिफोन पद्धति का आविष्कार करने के हेतु प्रयास आरंभ कर दिया और अंत में 10 मार्च 1876 ई को वे ऐसा यंत्र बना सकने में सफल हो गए जिससे उन्होंने वाट्सन के लिये संदेश प्रेषित किया – "मि. वाट्सन, यहाँ आओ। मुझे तुम्हारी आवश्यकता है"। लगभग उसी समय अमरीका में इसी संबंध में कुछ अन्य लोग विद्युद्विधि द्वारा वाग्ध्वनि का संचरण करने के संबंध में प्रयोग कर रहे थे और प्रो. एलिशा ग्रे नामक वैज्ञानिक ने, बेल द्वारा अपने यंत्र को पेटेंट कराने का प्रार्थनापत्र दिए जाने के केवल तीन घंटे बाद ही, अपने एक ऐसे ही यंत्र को पेटेंट कराने के हेतु आवेदन किया। इसपर बड़ा विवाद उत्पन्न हुआ और लगभग 600 विभिन्न मुकदमें बेल और ग्रे के बीच चलने के बाद अंत में बेल की विजय हुई और वे टेलिफोन के वास्तविक आविष्कारक के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
बेल के अनुयायियों एवं उत्तराधिकारियों ने अमरीका में टेलिफोन संचारव्यवस्था का प्रसार किया। पहले बड़े बड़े नगरों में, उसके बाद एक नगर से दूसरे नगर के लिए (जिसे कालातर में ट्रंक व्यवस्था कहा गया) टेलिफोन प्रणालियों की प्रतिष्ठा हुई। कुछ वर्षों के उपरांत अमरीकन टेलिफोन और टेलिग्राफ कंपनी ने बेल कंपनी से टेलिफोन प्रणाली का स्वत्व क्रय कर लिया। इस कंपनी ने द्रुत गति से अमरीका में टेलिफोन लाइनों का जाल बिछाने का कार्य प्रारंभ कर दिया।
टेलिफोन प्रणाली की सफलता ने यूरोप में भी हलचल मचा दी। पहले तो अनेक देशों की सरकारों ने अपने देशा में इस प्रणाली को लागू करने के प्रति घोर विरक्ति प्रदर्शित की, क्योंकि उन सरकारों ने टेलिग्राफ प्रणाली पर अपना आधिपत्य रखा था और उन्हें भय था कि टेलिफोन प्रणाली की प्रतिष्ठा से टेलिग्राफ प्रणाली द्वारा होनेवाली आय पर आघात पहुँचेगा। किंतु जर्मनी और स्विट्जरलैंड की सरकारों ने टेलिफोन की महान् उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए सरकार द्वारा नियोजित टेलिफोन व्यवस्था अपने अपने देशों में प्रतिष्ठित की। इससे प्रभावित होकर फ्रांस, बेल्जियम, नॉर्वे, स्वीडेन और डेनमार्क ने भी ग्रामसमाजों तथा अन्य तत्सदृश गैरसरकारी संस्थाओं के माध्यम से देश के ग्राम्यांचलों में भी टेलिफोन संचारप्रणाली का प्रारंभ करा दिया।
ग्रेट ब्रिटेन ने पहले तो अपने देश में, उपर्युंक्त भय के कारण, टेलिफोन संचार प्रणाली आरंभ करने के प्रति कोई उत्साह नहीं प्रदर्शित किया, किंतु सन् 1880 में ब्रिटिश न्यायालयों के निर्णय के आधार पर इसे डाक विभाग का एक अंग मान लिया। पहले तो प्राइवेट कंपनियों को दस प्रतिशत रायल्टी पर टेलिफोन प्रणाली की स्थापना एवं प्रसार का अधिकार दिया गया, किंतु जब नैशनल टेलिफोन कंपनी का इस व्यवसाय में एकाधिकार होने लगा तो ब्रिटेन की सरकार ने डाक विभाग और नगरपालिकाओं को इस व्यवसाय में उक्त कंपनी की प्रबल स्पर्धा करने का निर्देश दिया। फलस्वरूप, नैशनल टेलिफोन कंपनी का बड़ी हानि उठानी पड़ी और अंत में बाध्य होकर उस कंपनी ने एक समझौते द्वारा अपनी संपूर्ण टेलिफोन प्रणाली तथा उसका स्वत्व 1 जनवरी, 1912 ई0 को डाक विभग को हस्तांतरित कर दिया। प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व तक तो टेलिफोन संचारप्रणाली की दशा अत्यंत दयनीय थी, किंतु इसके उपरांत जब ग्रेट ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति कुछ सुदृढ़ हुई, तो इसमें आश्र्चयजनक प्रगति हुई। 1911 ई. में जहाँ ग्रेट ब्रिटेन में केवल सात लाख पोस्ट आँफिस टेलिफोन थे वहाँ 1912 ई. में उनकी संख्या बढ़कर चालीस लाख हो गई थी।
द्वितीय विश्वयुद्ध में टेलिफोन निर्माण में प्रयुक्त होनेवाली सामग्री का अभाव होने लगा था। इस कारण स्वचालित टेलिफोन प्रणाली की प्रगति और विस्तार का कार्य अवरुद्ध हो गया था, किंतु सरलता और सुविधा की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण होने के कारण विश्वयुद्ध की समाप्ति के साथ ही इस प्रणाली के विस्तार का कार्य अत्यंत द्रुत गति से होने लगा। इसमें यदि 15 मील के अंदर ही वार्ता करनी हो, तो ऑपरेटर की आवश्यकता नहीं पड़ती। ट्रंक काल के लिए भी स्वयंचालित प्रणाली का व्यवहार करने का प्रयत्न किया जा रहा है।
टेलिफ़ोन यंत्र में एक प्रेषित्र (transmitter) और एक ग्राही (receiver) एक विशेष प्रकार के डिब्बे या केस के अंदर रखे होते हैं। एक लंबी डोर, जो वस्तुत: पृथग्न्यस्त (insulated) तारों का एक पुंज होती है, उस डिब्बे या केस के अंदर की विद्युत्प्रणाली से टेलिफोन सेट को जोड़ती है।
टेलिफोन का यह भाग ध्वनि ऊर्जा (acoustical energy) को विद्युत ऊर्जा (electrical energy) में परिणत करता है। इसमें उच्चारित ध्वनि तरंगें एक तनुपट (diaphragm) में, जिसके पीछे रखे हुए कार्बन के कण (granules) परस्पर निकट आते और फैलते हैं, तीव्र कंपन उत्पन्न करती हैं। इससे कार्बन के कणों में प्रतिरोध (resistance) क्रमश: घटता और बढ़ता रहता है। फलस्वरूप टेलिफोन चक्र में प्रवाहित होनेवाली विद्युत धारा की प्रबलता भी कम या अधिक हुआ करती है। एक सेकंड में धारा के मान में जितनी बार परिवर्तन होता है उसे उसकी आवृत्ति (frequency) कहते हैं। साधारणतया प्रेषित्र 250 से 5,000 चक्र प्रति सेकंड तक की आवृत्तियों को सुगमता से प्रेषित कर लेता है और लगभग 2,500 चक्र प्रति सेकंड की आवृत्ति अत्यंत उत्कृष्टतापूर्वक प्रेषित करता है। प्रेषित्र एवं ग्राही (receiver) की इस विशेषता के कारण ही श्रोता को वक्ता की वार्ता ठीक ऐसी प्रतीत होती है मानों वह पास ही कहीं बोल रहा है।
साधारण प्रेषित्र में एक तनुपट होता है, जो सिरों पर अत्यंत दृढ़ता से कसा रहता है। वक्ता के मुख से प्रस्फुटित ध्वनि वायु के माध्यम से इसपर पड़ती है। उच्चरित ध्वनि की तीव्रता और मंदता के अनुसार पर्दे पर पड़ने वाली वायु दाब भी घटती बढ़ती है। कार्बन कणों पर दाब में परिवर्तन होने से उनका प्रतिरोध भी उसी क्रम से न्यूनाधिक हुआ करता है जिसके फलस्वरूप विद्युद्वारा भी ध्वनि की तीव्रता के अनुपात में ही घटती बढ़ती है। कार्बन प्रकाष्ठ की रचना इस प्रकार की जाती है कि कार्बन की यांत्रिक अवबाधा (impedance) न्यूनतम हो, ताकि प्रेषित की किसी भी स्थिति के लिए उच्च अधिमिश्रण दक्षता (modulating efficiency) प्राप्त हो। अभीष्ट आवृत्ति अनुक्रिया (frequency response) प्राप्त करने के हेतु पर्दे को दोहरी अनुनादी प्रणाली (resonant system) से संयुग्मित (coupled) कर दिया जाता है, तो पर्दे के पीछे एक प्रकोष्ठ, प्रषित्र एकक तथा एक प्लास्टिक के प्याले द्वारा निर्मित होती है। ये दोनों प्रकोष्ठ बुने हुए सूत्रों से ढके हुए छिद्रों द्वारा संयोजित होते हैं। संपूर्ण प्रेषित्र तंत्र विशेष रूप से निर्मित प्रकोष्ठ में रखा जाता है।
ग्राही के परांतरित्र (transducer) का कार्य विद्युत ऊर्जा को ध्वनि ऊर्जा में परिणत करना होता है। इसकी अवबाधा प्राय: 1,000 चक्र प्रति सेकंड के लिये 150 ओम होती है।
ग्राही तंत्र प्राय: दो प्रकार के होते हैं:
(1) द्विध्रवी (bipolar) ग्राही और
(2) वलय आर्मेचर (ring armature) ग्राही।
1. आर्मेचर, 2. छल्लेदार झंझरी (ferrule grid), 3. परदा, 4. तनुपट, 5. स्थायी चुंबक, 6. कुडंली (coil), 7. ध्रुव खंड 8. सिरे का पट्ट, 9. ध्वानिकी प्रतिरोध, 10. वैरिस्टर (varistor) तथा 11. पश्च कक्षिका।
द्विध्रुवी ग्राही तो टेलिफोन परिचालक (telephone operator) के हेडफोन (headphone) में लगा होता है और वलय आर्मेचर उच्च दक्षतावाले टेलिफोन ग्राहियों में होता है। इस टेलिफोन की उपयोगिता का मुख्य कारण इसकी निम्न ध्वनि-अवबाधा तथा विस्तृत आवृत्ति विस्तार के लिए उच्च-शक्त्ति-अनुक्रिया (high power response) की उपलब्धि है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये इसमें एक हलका गुंबदाकार परदा होता है, जो किसी चुंबकीय पदार्थ के वलयाकार आर्मेचर से संयुक्त होता है। पर्दे में एक छिद्र होता है, जो निम्न आवृत्ति को छान (filter) देता है। यह पर्दा एक विद्युच्चुंबक के सामने टेलिफोन की श्रोत्रिका (earpiece) पर लगा होता है। विद्युच्चुंबक पर पतले तार का एक कुडंली लपेटी रहती है। विद्युच्चुंबक और पर्दा उपर्युक्त मार्मेचर द्वारा परस्पर संबंधित होते हैं। ध्वनितरंगों द्वारा प्रभावित परिवर्ती (varying) विद्युद्वारा विद्युच्चुंबक में होकर गुजरती है, जिससे चुंबकीय क्षेत्र में भी उसी क्रम से न्यूनता और अधिकता हुआ करती है। इससे परदा भी विद्युच्चंुबक की ओर कम और अधिक खिंचता रहता है और इस प्रकार उसमें तीव्र कंपन उत्पन्न होता है। पर्दे के कंपन से वायु में पुन: ध्वनितरंगें उत्पन्न होती हैं, जो ठीक वैसी ही होती हैं जैसी दूरस्थ प्रेषित्र में वक्ता द्वारा उच्चरित ध्वनि से उत्पन्न होती हैं।
टेलिफोन लाइनों का कार्य प्रेषित्र से ग्राही तक संवादों का वहन करना है। प्रारंभ में इस हेतु लोहे के तारों का उपयोग किया जाता था, किंतु अब ताँबे के तारों का व्यवहार होता है, क्योंकि ताँबा लोहे की अपेक्षा उत्तम विद्युच्चालक होता है और क्षीण विद्युद्वारा को भी अपने में से प्रवाहित होने देता है। टेलिफोन लाइनें प्रत्येक टेलिफोन को एक केद्रीय कार्यालय से संयोजित करती हैं, जिसे टेलिफोन केंद्र (exchange) कहते हैं। इसी प्रकार वे नगर के एक केंद्र को दूरे केंद्रों से तथा एक नगर के मुख्य केंद्र को दूसरे नगर के मुख्य केंद्र से जोड़ती हैं। साधारणतया टेलिफोन लाइनें धरती से ऊपर, खंभों (poles) के सहारे, एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाती है, किंतु अब व्यस्त नगरों में जहाँ टेलिफोन व्यवस्था का जाल सा फैल गया है भूमिष्ठ केबलों (cables) के रूप में इन्हें जोड़ा जा रहा है। एक भूमिष्ठ केबल में 4,000 टेलिफोन के तार रखे जाते हैं।
बहुत लंबी दूरियों को पार करनेवाली टेलिफोन तारों की प्रणालियों में निर्वात नलिकाएँ अथवा इलेक्ट्रॉनिक नलिकाएँ, जिन्हें तापायनिक (thermionic) नलिकाएँ कहते हैं, लगा दी जाती हैं। इनका कार्य लंबी दूरी पार करने पर, क्षीणप्राय हो जाने वाली विद्युद्वारा की प्रबलता को प्रवर्धित करना होता है। इसके कारण टेलिफोन केबलों में बहुत पतले तारों को (जिनका प्रतिरोध मोटे तारों की अपेक्षा अधिक होता है) प्रत्युक्त कर सकना संभव हो गया है और परिणामस्वरूप एक केवल में अधिक संख्या में तार रखे जा सकते हैं। टेलिफोन तारों में विद्युद्वारा की प्रबलता स्थिर रखने के लिए भारण कुंडली (loading coils) का भी प्राय: उपयोग किया जाता है।
उच्च आवृत्तिवाली प्रत्यावर्ती धारा के उपयोग से टेलिफोन प्रणाली में एक अन्य महत्वपूर्ण विकास हुआ है। टेलिफोन वार्ता द्वारा उत्पन्न होनेवाली विभिन्न प्रकार की तरंगों को संयुक्त करके प्रत्यावर्ती धारा एक वाहक धारा (carrier current) को जन्म देती है। केंद्रीय संग्राही स्टेशन पर उन विभिन्न प्रकार के संकेततरंगों की इस धारा में से "छँटाई" होती है और तब उन्हें उनके उचित स्थान को प्रेषित किया जाता है।
उपर्युक्त अंगों के अतिरक्त टेलिफोन प्रणाली में स्विच पट्ट (switch board) भी एक महत्वपूर्ण अंग होता है। इसकी संरचना अत्यंत जटिल होती है और यह आधुनिक यंत्रकला और इंजीनियरिंग कौशल का एक उत्कृष्ट नमूना है। यह केद्रीय टेलिफोन केंद्र में रहता है। सभी टेलिफोन इससे संबंधित होते हैं। प्रत्येक टेलिफोन के नंबर इस पट्ट पर लिखे रहते हैं और प्रत्येक नम्बर के ऊपर एक छोटा सा बल्ब लगा होता है। जब आप टेलिफोन उठाते हैं तो यह बल्व जल उठता है और इसके संमुख बैठा हुआ टेलिफोन ऑपरेटर एक प्लग द्वारा अपने हेडफोन (headphone) का संबंध आपके टेलिफोन से स्थापित करता है। आपसे वांछित टेलिफोन नंबर ज्ञात करके वह आपके टेलिफोन का संबंध उस टेलिफोन से स्थापित करता है और अपने सामने लगे हुए बटन को दबाकर उस दूसरे टेलिफोन की घंटी बजाता है। इस प्रकार वह दूसरे स्थान के व्यक्ति को सूचना देकर आप दोनों की वार्ता प्रारंभ करता है। यदि दूसरे टेलिफोन का संबंध उस केंद्र से नहीं होता तो वह उस केद्र से, जहाँ से वांछित टेलिफोन का संबंध होता है, आपके टेलिफोन का संबंध जोड़ता है और वहाँ से आपके टेलिफोन का संबंध वांछित टेलिफोन के साथ पूर्वोक्त विधि से स्थापित करा दिया जाता है।
ग्राही एवं प्रेषित्र व्यवस्थाएँ उपर्युक्त साधारण टेलिफोन के सदृश होते हुए भी, डायल टेलिफोन में वक्ता एवं श्रोता के बीच सीधा संपर्क स्थापित करने की अतिरिक्त विशेषता होती है। टेलिफोन यंत्र के ऊपरी भाग में एक वृत्ताकार डायल होता है, जिसकी परिधि पर शून्य से 9 तक के अंक क्रम से अंकित होते हैं। इसके ऊपर एक वृत्ताकार चक्र (disc) घूमता है, जिसकी परिधि पर दस बड़े बड़े छिद्र इस प्रकार बने होते हैं कि स्थिर अवस्था में प्रत्येक छिद्र डायल के किसी विशेष अंक के ऊपर पड़ता है। यह चक्र एक केंद्रीय अक्ष के चारों ओर घूर्णन करता है। थोड़ा सा घुमाकर छोड़ दिए जाने पर, यह पुन: अपनी प्रारंभिक अवस्था में वापस आ जाता है। ग्राही को टेलिफोन सेट पर से उठाकर वक्ता अपने वांछित टेलिफोन के नंबर के प्रथम अंक के ऊपर वाले छिद्र में उँगली डालता है और चक्र वहाँ तक घुमा ले जाता है जहाँ उसे रुक जाना पड़ता है। उँगली हटा लेने पर चक्र पुन: अपनी प्रारंभिक स्थिति में आ जाता है। इस प्रकार वह क्रम से अभीष्ट टेलिफोन के नंबर के प्रत्येक अंक छिद्र में बारी बारी से उँगली डालकर चक्र को घुमाता और छोड़ता है। जब चक्र छोड़ा जाता है तो वह कर्र कर्र की अनेक लघु ध्वनियाँ उत्पन्न करता हुआ वापस लौटता है। यह ध्वनि टेलिफोन से जानेवाली विद्युतद्धारा को प्रभावित करती है और इससे केद्रीय कार्यालय में स्थित स्विचें बंद होती हैं। जब प्रत्येक अंक से संबंधित स्विचें बंद होती हैं तब अभीष्ट टेलिफोन से संबंध स्थापित होता है। यदि अभिष्ट टेलिफोन व्यस्त होगा तो आपका सीटी की सी ध्वनि सुनाई देगी। यदि आपने गलत नंबर डायल किया तो दूसरे प्रकार की ध्वनि सुनाई देगी। डायल टेलिफोनों का अधिक दूरियों के लिए उपयोग नहीं किया जाता।
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