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दिव्या माथुर ब्रिटेन मे बसी भारतीय मूल की हिंदी लेखिका है। कविता एवं कहानी समान रूप से लिखती रही हैं। उनके कहानी संग्रह `आक्रोश' के लिए उन्हें वर्ष 2001 का पद्मानंद साहित्य सम्मान प्राप्त हो चुका है। उनकी कविताओं में जहां तीखा क्षोभ है, वहीं मार्मिकता भी है, संवेदनशील बुनावट है तो भावात्मक कसावट भी है। उनके कहानी संग्रह में संग्रहित अधिकतर रिश्तों और स्थितियों में पिस रही औरत की कहानियां हैं। उनके रचना संसार में सास और पति आमतौर पर ज़ुल्म का प्रतीक बनकर उभरते हैं। उनकी कहानियों का अनुवाद कई भाषाओं में हुआ है। उनकी कहानियों एवं कविताओं को भी कई संकलनों में शामिल किया गया है। उनके अब तक चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। भारत में उनके रचना संसार पर एम. फिल. भी की जा चुकी है। साहित्य रचने के अतिरिक्त दिव्या माथुर `वातायन' संस्था की अध्यक्षा, `यू॰के॰ हिन्दी समिति' की उपाध्यक्षा एवं `नेहरू केन्द्र' की कार्यक्रम अधिकारी हैं।
देश-विदेश के बीच आवागमन करती कहानियां दिव्या माथुर प्रवासी हिंदी लेखन की प्रतिनिधि रचनाकार हैं। मैथिलीशरण गुप्त प्रवासी लेखन सम्मान से सम्मानित दिव्या जी की साहित्यिक प्रतिभा गद्य और पद्य दोनों विधाओं में समानांतर रूप से गतिशील है। दिव्या जी 1984 में भारतीय उच्चायोग से जुड़ी और 1992 से नेहरु केंद्र में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। लंदन में बसे प्रवासी भारतीय लेखकों के बीच दिव्या जी अह्म स्थान रखती हैं। उनके सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह ‘2050 तथा अन्य कहानियां’ में संकलित कहानियां देश और विदेश के बीच के परिवेश को सामने लाती हैं। इन कहानियों का कथ्य भारत तथा लंदन दोनों देशों से जुड़कर बनता है। प्रवासी जीवन सुखद और आकर्षक लगता है। परंतु इन कहानियों में प्रवासी जीवन की जो विड़म्बनायें चित्रित हुई हैं, वे विदेश के प्रति हमारे मोह को तोड़ती हैं और स्वदेश से जोड़ती हैं। अर्थकेंद्रीत पारिवारिक तथा सामाजिक संरचना की जकड़न में संवेदनाओं और भावनाओं का दम घुटने लगता है तो हमें देश और विदेश का फर्क साफ-साफ दिखाई देता है। यह फर्क दिव्या जी की कहानियों में प्रमुखता से उद्घाटित हुआ है। ये कहानियां इस मिथक को भी तोड़ती हैं कि सेक्सुअल इंडिपेडेंसी सेक्स अपराध को रोकती है। ‘वैलेन्टाइन्स डे’ और ‘नीली डायरी’ जैसी कहानियां इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं। ‘फिक्र’ में अपनी दूसरी मां के प्रति बेटी की घृणा प्रकट हुई है। ‘पुरु और प्राची’ कहानी बाजारवादी शक्तियों द्वारा मनुष्य को गुलाम बनाये जाने को रेखांकित करती है। झूठी प्रतिष्ठा और शान के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देने वाले बद्रीनारायण ओसवाल और उसके पुत्र-पुत्रवधू चंद्रमा की यात्रा पर चले तो जाते हैं परंतु इस यात्रा में सिवाय खीझ और दुख के उन्हें कुछ नहीं मिलता। ‘वैलेन्टाइन्स-डे’ मांसल प्रेम पर चोट करती है। ‘फैसला’ की भारतीय सास अपनी ब्रिटिश बहू से सांमजस्य नहीं बिठा पाती। पुत्र और मां दोनों ही ब्रिटिश बहू के प्रति दुराग्रहों से ग्रस्त हैं जबकि रेचल अपने पति और सास के प्रति समर्पित रहती है। अन्ततः सास अमृत को अपनी गलती का अहसास होता है और वह अपने बेटे-बहू से माफी मांग लेती है। कहानियों में हिन्दी, अंग्रेजी और पंजाबी तीन भाषाओं का मिश्रित सौंदर्य पाठकों को आकर्षित करता है। हिंदी भाषा की शक्ति, सामर्थ्य तथा संप्रेषनीयता को एक प्रवासी लेखिका द्वारा जिस अंदाज में बयान किया गया है, वह प्रशंसनीय है। ‘सौ सुनार की’ शीर्षक कहानी का संवाद मुहावरों-लोकोक्तियों में चलता है। यह संवाद न केवल कथा को रोचक तथा सरस बनाता है अपितु हिन्दी के दर्जनों मुहावरों-लोकोक्तियों को संदर्भ सहित प्रस्तुत करता है। इन कहानियों में प्रूफ संशोधन का अभाव है। वर्तनी तथा वाक्य अशुद्धि के साथ कहीं-कहीं शब्दों का अनावश्यक प्रयोग मिलता है। इन त्रुटियों के प्रति प्रकाशक तथा लेखिका दोनों को सचेत रहने की आवश्यकता है। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘2050’ प्रजाति-भेद पर आधारित श्रेष्ठ कहानी है। तथाकथित आधुनिक देशों में नस्ल और रंग-रूप के आधार पर होने वाले भेदभाव को जिस काल्पनिक शैली में उभारा गया है, वह दर्शनीय है। कहानी के एशियन दंपति ऋचा और वेद बच्चा पैदा करना चाहते हैं परंतु समाज सुरक्षा परिषद के अधिकारी उन्हें अनुमति नहीं देते। भावी पीढ़ी को परफैक्ट बनाने की बात कहकर समाज सुरक्षा परिषद एशियन जोडों को बच्चा पैदा करने की अनुमति नहीं देती जबकि उनके अपने नागरिकों के लिए नियमों में काफी छूट है। ऋचा द्वारा अधिकारियों को मनाने की तमाम कोशिशें असफल रहती है। अवसादग्रस्त ऋचा जब आत्महत्या की इच्छा जताती है तो अधिकारियों द्वारा उसे आत्महत्या परामर्श परिषद का पता बता दिया जाता है। कहानी उत्तर आधुनिक सभ्यता के खोखलेपन तथा नस्लवाद के घिनौने यथार्थ को उभारती है। दिव्या जी की इन कहानियों में परंपरा और आधुनिकता तथा प्रेम और सेक्स के बीच के अंतर को दर्शाया गया है। लेखिका सेक्स और आधुनिकता को तटस्थ रहकर व्यक्त करती हैं, वे अपनी निजी सोच और विचारधारा से घटनाओं को संचालित नहीं करती, अपितु कथानक को अपने जीवंत रूप से आकार लेने की स्वतंत्रता देती हैं। दिव्या जी न तो यथार्थ के प्रति आग्रहशील हैं, न ही आदर्श थोपना उनकी नीयत है। इस संग्रह की सभी कहानियां इस कसौटी पर खरी उतरती हैं।
कृष्ण कुमार अग्रवाल सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, जनसंचार एवं मीडिया प्रौद्योगिकी संस्थान, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र संपर्क-1163, सेक्टर-13, कुरुक्षेत्र-136 118 मो. 09802525111
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