आचार्य तुलसी (२० अक्टूबर १९१४ – २३ जून १९९७) जैन धर्म के श्वेतांबर तेरापंथ के नवें आचार्य थे। वो अणुव्रत और जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय के प्रवर्तक हैं एवं १०० से भी अधिक पुस्तकों के लेखक हैं। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक "लिविंग विद पर्पज" में उन्हें विश्व के १५ महान लोगों में शामील किया है। उन्हें भारत के पूर्व राष्ट्रपति वी वी गिरि ने १९७१ में एक कार्यक्रम में "युग-प्रधान" की उपाधि से विभूषित किया।

सामान्य तथ्य आचार्य तुलसी, नाम (आधिकारिक) ...
आचार्य तुलसी
नाम (आधिकारिक) आचार्य तुलसी
व्यक्तिगत जानकारी
जन्म नाम तुलसी
जन्म 1914, वि॰सं॰ 1971, कार्तिक शुक्ल द्वितीया
लाडनूं, राजस्थान, भारतਬਿਜਲੀ ਰਾਜਭਰ
निर्वाण 24 जून 1997,
गंगाशहर, राजस्थान[1]ਬਿਜਲੀ ਰਾਜਭਰ
माता-पिता झूमरलाल और वंदना
शुरूआत
सर्जक आचार्य कालूगणी
सर्जन स्थान लाडनूं, राजस्थान, भारत
सर्जन तिथि विक्रम संवत् 1982, पौष कृष्ण पंचमी
दीक्षा के बाद
कार्य अणुव्रत आंदोलन
पूर्ववर्ती आचार्य कालूगणी
परवर्ती आचार्य महाप्रज्ञ
बंद करें

उन्होंने आचार्य महाप्रज्ञ एवं साध्वी कनकप्रभा का विकास करने में महत्वपूर्ण कार्य किया।

जन्म और परिवार

अणुव्रत अनुशास्ता युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी का जन्म १९१४ में कार्तिक शुक्ल द्वितीया को लाडनूं, राजस्थान, भारत में हुआ। उनके पिता का नाम झुमरलाल खट्टड़ और माँ का नाम वंदना था। उन्होंने आठ वर्ष की आयु में विद्यालय जाना आरम्भ किया।[2]। उनके पाँच भाई तथा तीन बहनें थी जिन में वे सबसे छोटे थे। उनके बड़े भाई चम्पालालजी पहले ही मुनि बन गए थे। उनके पारिवारिक लोग सहज धर्मानुरागी थे। वंदना जी की विशेष प्रेरणा-स्वरूप घर के सभी बच्चे सत्संग आदि में आया करते थे। उनके मन में बचपन से ही सत्संग व साधु-चर्या के प्रति अनुराग था। अष्टम आचार्य श्री कालूगणी का आगमन लाडनूं मे हुआ। पूज्य श्री कालूगणी के दिव्य प्रवचन तथा व्यक्तित्व ने बालक तुलसी के पूर्व अर्जित संस्कारो को जागृत कर दिया। उनके मन में मुनि-जीवन के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ।

सन्दर्भ

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