अझ़दहा, अज़दहा, अजदहा[1] एक काल्पनिक जीव है जिसमें सर्प की प्रकृति के बहुत से तत्त्व थे और कुछ संस्कृतियों में उड़ने और मुंह से आग उगलने की क्षमता भी थी। यह दुनिया की कई संस्कृतियों के मिथकों में पाया जाता है। कभी-कभी इस जीव को अजगर भी बुलाया जाता है, हालांकि यह थोड़ा सा ग़लत है क्योंकि "अजगर" उस सर्प का हिंदी नाम है जिसे अंग्रेज़ी में "पायथन" कहते हैं।

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ताइवान के लॉन्गशान मंदिर के ऊपर अझ़दहे की आकृति
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बीजिंग की "नौ अझ़दहों की दीवार" पर शाही अझ़दहों की आकृतियाँ (जिनके पंजों में पाँच नाखून होते हैं)
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इटली के रेजियो कालाब्रिया राष्ट्रीय संग्राहलय की दीवार पर पच्चीकारी से बनी एक अझ़दहे की आकृति
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भारत के मणिपुर राज्य में पोउबी लइ पफल की प्रतिमा, जो पाखंगबा नामक अझ़दहा-रूपी देवता का एक रूप हैं

शब्द की उत्पत्ति

अझ़दहा में "झ़" का उच्चारण "ज़", "ज" और "झ" से भिन्न है और यह हिंदी-उर्दू के बहुत कम शब्दों में से है जिसमें यह ध्वनि पाई जाती है। वैसे तो यह शब्द फ़ारसी से उत्पन्न हुआ समझा जाता है लेकिन इसकी संस्कृत में भी गहरी सजातीय जड़े हैं जो संस्कृत और कश्मीरी समेत उत्तर भारत की सभी भाषाओँ की पूर्वज प्राचीन आदिम हिन्द-ईरानी भाषा तक पहुँचती हैं। संस्कृत का "अहि" शब्द भिन्न रूपों में बहुत सी हिन्द-ईरानी भाषाओँ में पाया जाता है और "अझ़ि" या "अज़ि" इसी का रूप है। अहि/अझ़ि/अज़ि का अर्थ होता है "सर्प" और यह "अहिरावण" जैसे शब्दों में मिलता है। "दहाक" का अर्थ "काटना" या "डंक मारना" होता है।[2][3]

अंग्रेज़ी में इसी कालपनिक जीव को "ड्रैगन" (Dragon) कहते हैं जो यूनानी भाषा के द्राकोन (δράκων) शब्द से आया है, जिसका अर्थ है "एक बड़े आकार का सर्प, विशेषकर जल में रहने वाले सर्प।"

भारतीय संस्कृति में

प्राचीन वैदिक धर्म में वृत्र (जिसका अर्थ है "ढकने वाला") एक असुर भी था और एक नाग भी। माना जाता है कि यह संभवतः एक अझ़दहा के ही जैसा जीव था। यह इन्द्र का शत्रु और सूखे (जल की कमी) का प्रतीक था।[4] इसे वेदों में "अहि" (यानि सर्प) भी कहा गया है और कुछ वर्णनों में इसके तीन सर दर्शाए गए हैं।[5]

आधुनिक भारतीय साहित्य में भी अझ़दहा को कभी ख़तरे और कभी साहस के प्रतीक के रूप में प्रयोग किया गया है। हरिवंश राय बच्चन ने अपने "दो चट्टानें" नाम के संग्रह की प्रसिद्ध कविता "सूर समर करनी करहिं" में अझ़दहा को एक ज़ुल्म ढाने वाला और सच्चाई के तर्क के प्रति बहरा पात्र दिखाया है जिस से केवल बल के प्रयोग से बात की जा सकती है:

और ऐसा अज़दहा जब सामने हो, कान ही जिसके न हों तो,
गीत गाना - हो भले ही वीर रस का वह तराना - गरजना, नारा लगाना,
शक्ति अपनी क्षीण करना, दम घटाना।
बड़ी मोटी खाल से उसकी सकल काया ढकी है।
सिर्फ़ भाषा एक जो वह समझता है, सबल हाथों की, करारी चोट की है।[6]

भारत के कुछ भागों में अझ़दहा से सम्बन्धित हिन्दूबौद्ध धार्मिक आस्थाएँ भी हैं। मसलन मणिपुर राज्य में पाखंगबा एक प्रकार के दिव्य-प्राणी (देवता) हैं जिनका स्वरूप अझ़दहा जैसा है।[7]

यूरोपीय संस्कृति में

यूरोपीय अझ़दहे अक्सर परों वाले होते हैं और क्रोधित होकर अपने मुँह से आग के गोले फेंक सकते हैं। इनका शरीर एक भीमकाय सांप की तरह होता है और आगे छिपकली की तरह दो टाँगे होती हैं। बिना टांगों वाले अझ़दहे को वायवर्न (wyvern) कहा जाता है। प्राचीन कथाओं में अक्सर अझ़दहों को ग़ुफाओं में रहने वाला जीव बताया जाता है। प्राचीन अंग्रेज़ी भाषा की बियोवुल्फ़ (Beowulf) नामक कविता में ऐसे ही अझ़दहों का वर्णन है। कभी-कभी इन्हें किसी बड़े ख़ज़ाने की रखवाली करते हुए भी बताया जाता है।

चीनी संस्कृति में

चीनी अझ़दहे, जिन्हें "लॉन्ग" (龍) कहा जाता है, मनुष्यों का रूप धारण कर सकते हैं और उन्हें कृपालु जीवों के रूप में दर्शाया जाता है। पाँच नाखूनों के पंजे वाले अझ़दहे को चीनी सम्राटों का चिह्न माना जाता था। कला के क्षेत्र में चीनी संस्कृति में अझ़दहों का बहुत प्रयोग होता है।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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