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डोगरी भारत के जम्मू ,हिमाचल के कांगड़ा और उत्तरी पंजाब के कुछ प्रान्त में बोली जाने वाली एक भाषा है। वर्ष 2003 में इसे भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। पश्चिमी पहाड़ी बोलियों के परिवार में, मध्यवर्ती पहाड़ी पट्टी की जनभाषाओं में, डोगरी, चंबयाली, मडवाली, मंडयाली, बिलासपुरी, बागडी आदि उल्लेखनीय भाषा हैं।
इस लेख में सन्दर्भ या स्रोत नहीं दिया गया है। कृपया विश्वसनीय सन्दर्भ या स्रोत जोड़कर इस लेख में सुधार करें। स्रोतहीन सामग्री ज्ञानकोश के उपयुक्त नहीं है। इसे हटाया जा सकता है। (मई 2016) स्रोत खोजें: "डोगरी भाषा" – समाचार · अखबार पुरालेख · किताबें · विद्वान · जेस्टोर (JSTOR) |
डोगरी इस विशाल परिवार में कई कारणों से विशिष्ट जनभाषा है। इसकी पहली विशेषता यह है कि दूसरी बोलियों की अपेक्षा इसके बोलनेवालों की संख्या विशेष रूप से अधिक है। दूसरी यह कि इस परिवार में केवल डोगरी ही साहित्यिक रूप से गतिशील और सम्पन्न है। डोगरी की तीसरी विशिष्टता यह भी है कि एक समय यह भाषा कश्मीर रियासत तथा चंबा राज्य में राजकीय प्रशासन के अंदरूनी व्यवहार का माध्यम रह चुकी है। इसी भाषा के संबंध से इसके बोलने वाले डोगरे कहलाते हैं तथा डोगरी के भाषाई क्षेत्र को सामान्यतः "डुग्गर" कहा जाता है। इस बेल्लै डोगरी लिखने गितै "देवनागरी लिपि" दी बरतून होआ करदी ऐ जदके पैह्ले इसदी अपनी लिपि "टाकरी" ही
रियासत जम्मू कश्मीर की शरतकालीन राजधानी जम्मू नाम का ऐतिहासिक नगर, डोगरी की साहित्यिक साधना का प्रमुख केंद्र है, जहाँ डोगरी के साहित्यिकों का प्रतिनिधि संगठन "डोगरी संस्था" के नाम से, इस भाषा के साहित्यिक योगक्षेम के लिये गत लगभग ६० वर्षो से प्रयत्नशील है।
डोगरी पंजाबी की उपबोली है - यह भ्रांत धारणा डॉ॰ ग्रियर्सन के भाषाई सर्वेक्षण के प्रशंसनीय कार्य में डोगरी के पंजाबी की उपबोली के रूप में उल्लेख से फैली। इसमें उनका दोष नहीं। उस समय उनके इन सर्वेक्षण में प्रत्येक भाषा, बोली का स्वतंत्र गंभीर अध्ययन संभव नहीं था।
जॉन बीम्ज ने भारतीय भाषा विज्ञान की रूपरेखा संबंधी अपनी पुस्तक (प्रकाशित 1866 ई॰) में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि डोगरी ना तो कश्मीरी की अंगभूत बोली है, ना पंजाबी की। उन्होंने इसे भारतीय-जर्मन परिवार की आर्य शाखा की प्रमुख 11 भाषाओं में गिना है।
डॉ॰ सिद्धेश्वर वर्मा ने भी डोगरी की गणना भारत की प्रमुख सात सीमांत भाषाओं में की है।
डोगरी की अपनी एक लिपि है जिसे टाकरी या टक्करी लिपि कहते हैं। यह लिपि काफी पुरानी है। गुरमुखी लिपि का प्रादुर्भाव इसी से माना जाता है। कुल्लू तथा चंबा के कुछ प्राचीन ताम्रपट्टों से ज्ञात होता है कि इस लिपि का प्रारंभिक रूप में विकास 10 वीं- 11वीं शताब्दी में हो गया था। वैसे टाकरी वर्ग के अंतर्गत आने वाली कई लिपियाँ इस विस्तृत प्रदेश में प्रचलित हैं जैसे, लंडे, किश्तवाड़ी, चंबयाली, मंडयाली, सिरमौरी और कुल्लूई आदि। डॉ॰ ग्रियर्सन शारदा को और टाकरी को सहोदरा मानते हैं। श्री व्हूलर का मत है कि टाकरी शारदा की आत्मजा है।
टाकरी लिपि आज भी डुग्गर के देहाती समाज में बहीखातों में प्रयुक्त होती है। इसका एक विकसित रूप भी है जिसमें कई ग्रंथों का प्रकाशन हुआ है। कश्मीर नरेश महाराज रणवीर सिंह ने, आज से लगभग एक सौ वर्ष पूर्व, अपने राज्यकाल में, डोगरी लिपि में, नागरी के अनुरूप, सुधार करने का प्रयत्न किया था। मात्रा, चिह्नों के प्रयोग को अपनाया गया तथा पहली बार नई टाकरी लिपि में डोगरी भाषा के ग्रंथों के मुद्रण की समुचित व्यवस्था के लिये जम्मू में शासन की ओर से रणवीर प्रेस की स्थापना की गई।
पुरानी डोगरी वर्णमाला का यह संशोधित रूप जनव्यवहार में लोकप्रिय न हो सका।
डोगरी की नव साहित्यिक चेतना के साथ ही साथ टाकरी का स्थान देव नागरी ने ले लिया।
इसी प्रवृति के कारण कई रूपों में र का अतिरिक्त आगम भी हुआ है, जैसे-
संक्षेपीकरण- जैसे
विस्तृत लेख डोगरी साहित्य के अन्तर्गत देखें।
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