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टाइफस ज्वर (Typhus Fever) एक प्रकार का रोग है, जिसका आरंभ अचानक होता है। इसमें सिरदर्द, सर्दी लगना, ज्वर, शरीर में पीड़ा और तीसरे से पाँचवें दिन के बीच दाने निकलने और विषाक्तता के लक्षण होते हैं। रोग की अवधि दो से तीन सप्ताह की होती है। पहले इस एक ही रोग मानते थे, परंतु अब नवअर्जित ज्ञान के प्रकाश में यह सिद्ध हो चुका है कि यह विभिन्न जाति के "रिकेट्सिया" (Rickettsia) द्वारा उत्पन्न ज्वरप्रधान रोगों का समूह है और इनका प्रसार रोगसंवाहक कीटों द्वारा होता है।
"रिकेट्सिया" एक प्रकर के सूक्ष्म जीव हैं, जिन्हें जीवाणु और विषाणु के बीच रखा जा सकता है। इसका रूप जीवाणुओं सा होता है। आकार में ये अर्ध म्यू (1/2,000 मिमी) से भी कम विस्तारवाले होते हैं। निष्क्रिय माध्यम में इनका संवर्धन नहीं हो पाता। समान्यत: ये जूँ इत्यादि कीड़ों की आहारनली में रहते हैं। इस वर्ग के जीवों की प्रथम जाति का नामकरण सन् 1916 में द रोशालिमा ने ने रिकेट्स और प्रोवाजेक नामक दो वैज्ञानिकों की स्मृति में रिकेट्सिया प्रोवाजेकी (Rickettsia Prowazekii) रखा। दोनों ही वैज्ञानिकों ने इसकी शोघ में टाइफस से आक्रांत होकर अपनी बलि दी थी।
पहले कोविड महामारी और अब माइट या पिस्सू के कटने से तेजी से फेल रहा है बुश टाइफस। यह वायरस अब तक जयपुर, उदयपुर, अलवर, राजसमंद, कोटा, चित्तौड़गढ़, करौली, दौसा समेत राजस्थान के 30 जिलों में बुश टाइफस के 1400 पॉजिटिव मिले जिससे चिकित्सक विभाग अलर्ट पर है। वायरस के चलते 15 की मौत हो चुकी है। read more
टाइफस महामारी तो शताब्दियों से ज्ञात रही है और संसार के इतिहास का पथ निर्णय करने में इसका महत्वपूर्ण योग भी रहा है, परंतु सन् 1909 में निकोले और उसके साथियों ने प्रथम बार बताया कि इस ज्वर का प्रसार "जूँ" द्वारा होता है। प्रथम विश्वमहायुद्ध में भी "खाइयों के ज्वर" (Trench fever) का बहुत उपद्रव हुआ था, जो वास्तव में एक प्रकार का रिकेट्सयाजन्य ज्वर ही था।
रिकेट्सियाजन्य ज्वरों के वर्गीकरण पर अभी विद्वान् एकमत नहीं हैं, पर इन्हें छह मुख्य वर्गों में रखा जा सकता है:
(1) टाइफस ज्वर, (2) स्पाटेड फीवर (Spotted fever) या चित्तेदार ज्वर, (3) रिकेट्सियल पावस, (4) सुटसुगमूशी (Tsutsugamushi) रोग, (5) क्यू ज्वर तथा, (6) ट्रेंच फीवर।
(1) टाइफस ज्वर - दो मुख्य प्रकार के टाइफस ज्वर ज्ञात हैं। पहला जूँ द्वारा प्रसारित शास्त्रोक्त प्रकार है और रिकेट्सिया प्रोवाजेकी के कारण होता है। दूसरा है म्यूराइन (Murine) प्रकार। यह रिकेटसिया मूसेरी द्वारा उत्पन्न और पिस्सुओं द्वारा प्रसारित होता है।
जूँ द्वारा प्रसारित महामारी के रूप में अब संसार के सभ्य देशों में टाइफस नहीं होता, किंतु किसी जमाने में यह संसार का भीषण अभिशाप था। भीड़भाड़, गंदगी, गरीबी, सर्दी, क्षुधा आदि इसे आमंत्रित करते हैं। जेलों, युद्धों, जहाजों और अकाल के दिनों में यह विशेष रूप से फैलता था। कभी इसे "जेल ज्वर" भी कहते थे। 15वीं सदी के स्पेनी चिकित्सकों ने इसकी यथेष्ट चर्चा की है। आगे की सदियों में समस्त यूरोप और ब्रिटेन में इसका तांडव होता रहा। वर्तमान शताब्दी में प्रथम महायुद्ध के समय यूरोप तथा रूस में यह विशेष रूप से फैला था। एशिया में चीन, कोरिया, अफगानिस्तान और उत्तर भारत में इसके आक्रमण होते रहे हैं। सन् 1846 में जब आयरलैंड में "आलू का अकाल" पड़ा और लोग अमरीका में बसने के लिए भागे, तो यह भी उन्हीं के साथ नई दुनिया में जा पहुँचा। अधिक स्वच्छता और कीटनाशकों के कारण अब यह रोग लुप्तप्राय है।
जैसा ऊपर बताया जा चुका है, मानव के सिर और शरीर की जूँ पेडिक्युलस ह्युमैनस (Pediculus Humanus) इसका प्रसार करती है। रिकेट्सिया जूँ की आँत में बढ़ते हैं और उसके मल के साथ बाहर निकलते रहते हैं। जूँ 12 से लेकर 18 दिनों तक के भीतर मर जाती है। जूँ को रोगी के रक्त से छूत लगती है। रोगवाहक जूँ जब स्वस्थ व्यक्ति के शरीर पर चढ़ती है और आदमी खुजलाता है तो सूक्ष्म खरोंच लग जाती और इनपर यदि रोगवाहक जूँ का मल लगे तो स्वस्थ शरीर में रिकेट्सिया घुस जाते हैं। कभी-कभी धूल में मिलकर यह मल नाक के रास्ते भी शरीर में प्रवेश पाता है।
रिकेट्सिया कई दिन तक जीवित रह सकते हैं।
शरीर में प्रवेष्ट होने के बाद पाँच से लेकर 12 दिनों तक के अंदर रोग प्रकट होता है। आक्रमण अचानक आरंभ होता है। सिरदर्द, भूख न लगना, तबियत का भारीपन अनुभव होने के बाद अचानक सर्दी लगकर तेज ज्वर चढ़ता है, कमजोरी अत्यधिक हो जाती है और मिचली होती रहती है। ज्वर की अवधि सात से लेकर 12 दिन तक की होती है और तब ज्वर तेजी से घट जाता है। दो सप्ताह बाद रोगी अच्छा हो जाता है। यदि ज्वर बिगड़ जाता है तो कमजोरी बढ़ती है। संन्निपात, बेहोशी और हृदय की दुर्बलता प्रकट होती है। रोगी यदि संभला तो स्वस्थ होने में बहुत समय लगता है। इस ज्वर में चौथे से लेकर छठे दिन तक के भीतर शरीर पर दाने निकल आते हैं। गहरे लाल वर्ण के ये दाने दो से लेकर पाँच मिलिमीटर तक के होते है और सारे शरीर पर निकलते हैं। खराब दशा में दाने मिलकर एक हो जाते हैं।
होता यह है कि रिकेट्सिया रक्तवाहिनियों के अंत:कलाकोशों में संवर्धित होते हैं। इससे कोशिका की दीवार को स्थानीय आघात पहुँचता है। फलस्वरूप, उस स्थान पर शोथ, कोशों का परिगलन, लसिका, प्लाज्मा कोशों और वृहत्केन्द्र श्वेताणुओं का अंत:सरण तथा थ्रांबोसिस हो जाती है, रक्तकोशिका फटने से तंतु में रक्तस्राव होता है। यही विकृति त्वचा पर दानों के रूप में, मस्तिष्क में पीड़ा और संनिपात के रूप में, हृदय में रक्तसंचार की विफलता और फेफड़ों में अंतरालीय निमोनिया के रूप में प्रकट होती है।
रक्त में बील-फेलिक्स ऐग्लुटिनेशन (Weil-Felix agglutination) परीक्षण द्वारा टाइफस का निदान करते हैं। यह रोग कम आयु के लोगों के लिए तो खतरनाक नहीं होता, परंतु 40 वर्ष से ऊपर की आयु के पचास प्रतिशत रोगी और 60 वर्ष से ऊपर का कोई भी रोगी शायद ही बच पाता हो।
म्युराइन टाइफस पिस्सुओं द्वारा प्रसारित होता है। यह टाइफस संयुक्त राज्य अमरीका के दक्षिणी राज्यों, मेक्सिको, आस्ट्रेलिया, मलाया, भारत, चीन आदि देशों में होता है। यह रिकेट्सिया गूसेरी के कारण होता है। यह महामारी के रूप में नहीं फैलता बल्कि इसके आक्रमण छिटपुट होते हैं। गंदगी और भीड़भाड़ से भी यह विशेष संबंधित नहीं है तथा इसकी मारकता भी एक प्रतिशत से कम है। विषाणु चूहों से पिस्सुओं में और पिस्सुओं से आदमियों में प्रवेश पाते हैं। चूहे बहुत बीमार नहीं होते और महीने भर तक विषाणुओं को लिए हुए घूमते रहते हैं। इसके निदान के लिये भी रक्त में वील फेलिक्स परीक्षण करते हैं।
(2) स्पाटेड फीवर - अमरीका में "राकी माउंटेन स्पाटेड फीवर" के नाम से प्रसिद्ध यह ज्वर ब्राजील, केनिया तथा आस्ट्रेलिया में भी प्रचलित है। ज्वर तथा बदन पर लाल चकत्ते इसके मुख्य लक्षण हैं। रोग फैलाने का काम एक प्रकार की किलनी (tick) करती है। जहाँ किलनी काटती है वहीं प्रथम व्रण होता है और स्थानीय गिल्टियाँ सूज आती हैं। इस रोग का कारक है रिकेट्सिया रिकेट्सिया। अमरीका में इसके दो रूप मिलते हैं : पश्चिमी प्रकार, जो 70 प्रतिशत मारक है और पूर्वी प्रकार, जो 25 प्रतिशत मारक है। इसकी किलनियाँ कुत्तों, बिल्लियों और खरगोशों के बदन पर चिपकी रहती हैं। ब्राजील का पाओलो टाइफस, मार्सेल्स का विस्फोटक ज्वर, केनिया ज्वर, दक्षिणी अफ्रीका टिक फीवर, तथा गौर्य क्वींसलैंड टिक टाइफस इसी वर्ग के ज्वर हैं।
(3) रिकेट्सियल पॉक्स (Rickettsial pox) - छोटी माता (चिकन) से मिलता-जुलता यह रोग अमरीका तथा अफ्ऱीका में मिलता है। यह रिकेट्सि या अकारी (Akari) के कारण होता है। रोगसंवाहक चूहे के शरीर पर रहनेवाली एक माइट (mite) है। इस रोग में जलभरे बड़े बड़े दाने निकलते हैं। यह मारक नहीं होता।
(4) सुटसुगमूशी रोग - जापान का सुटसुगमूशी ज्वर मलाया का स्क्रब (scrub) टाइफस और सुमात्रा का माइट टाइफस इसी के वर्ग के हैं। जापान में गर्मी तथा शरद ऋतु में बाढ़ग्रस्त निचले क्षेत्रों में यह ज्वर विशेष रूप से फैलता है। इस रोग का कारक है रिकेट्सिया निपोनिका और संवाहक है वोल (Vole) के शरीर पर रहनेवाली एक माइट। ये माइट चूहों, मार्सूपियल पशुओं ओर छछूंदरों पर भी रहती हैं।
(5) क्यू-फीवर - आस्ट्रेलिया ओर अमरीका में पाए जानेवाले इस रोग में एक से लेकर तीन सप्ताह तक ज्वर आता है। इसमें न तो प्रारंभिक दाना होता है, न अन्य दाने निकलते है। इसमें वील फेलिक्स परीक्षण नेगेटिव रहता है। रोग का कारक है रिकेट्सिया वर्नेटि ओर संवाहक एक प्रकार की किलनी होती है। दूसरे महायुद्ध में भूमध्यसागरीय क्षेत्रस्थित सैनिक इसी के कारण विषाण निमोनिया से आक्रांत हुए थे। यह रोग पशुओं में भी होता है और रोगी पशुओं के दूध से मनुष्यों में भी फैलता है।
(6) ट्रेंच फीवर - सन् 1915 में यूरोप में लड़़ रही सेनाओं में फैले रोग से प्रथम बार इस रोग की जानकारी हुई। इसे पाँच दिन का ज्वर भी कहते हैं। इस रोग का कारक है रिकेट्सिया क्विंटाना और इसका प्रसार करती है जूँ। रोगी का रक्त पहले दिन से लेकर 51 दिनों तक रोगवाहक रहता है।
टाइफस ज्वर की रोकथाम और इलाज - अब यह ज्ञात हो चुका है कि इस रोग के संवाहक कीड़े मकोड़े होते हैं। अतएव रोग का उन्मूलन संभव है। भीड़भाड़ कम करके, स्वच्छता, स्नान आदि से "जूँ" पड़ना रोका जा सकता है। कीटनाशकों, यथा डी. डी. टी. चूर्ण, कीटदूरकों, जैसे बेंजिल बेंजोएट, डाइमिथाइल थैलेट या डाइब्यूटाइल थैलेट साबुन के रूप में प्रयोग में लाए जाते हैं। चूहों के विनाश के उपाय करने चाहिए। "किलनी" के नाश के लिए अभी कोई अच्छी दवा उपलब्ध नहीं है, किंतु किलनी भरे पशुओं पर सोडियम आर्सेनाइट के विलयन का लेप, डी0डी0 टी0 या गेमाक्सीन का छिड़काव कर सकते हैं। क्यू-फीवर से बचने के लिए दूध उबालकर पीना चाहिए।
इलाज के लिये कई प्रकार के टीके बने पर विशेष उपयोगी सिद्ध नहीं हुए। जीवावसादकों में देखा गया है कि क्लोरमफेनिकाल एक ग्राम प्रति दिन लेने पर रोग से बचाव होता है। पहले अनेक रंगपदार्थां, जैसे मेथिलीन ब्लू, टोलिडीन ब्लू, तथा पपैरा एमीनोबैंजोइक अम्ल से इलाज करते थे, पर अब क्लोरेमफेनिकाल तथा आरोमाइसिन के प्रभावशाली उपयोग के कारण इनका कोई मूल्य नहीं रहा। क्यूफीवर में टेरामायसिन उपयोगी सिद्ध हुआ है।
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