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ज्वारभाटा बल वह बल है जो एक वस्तु अपने गुरुत्वाकर्षण से किसी दूसरी वस्तु पर स्थित अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग स्तर से लगाती है। पृथ्वी पर समुद्र में ज्वार-भाटा के उतार-चढ़ाव का यही कारण है।
अंग्रेज़ी में "ज्वारभाटा बल" को "टाइडल फ़ोर्स" (tidal force) बोलते हैं।
जब चन्द्रमा पृथ्वी पर अपने गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव डालता है तो जो उसके सबसे समीप का समुद्र है, उसका पानी चन्द्रमा की ओर उठता है। इस से उस इलाक़े में ज्वार आता है (यानि पानी उठता है)। पृथ्वी के दाएँ और बाएँ तरफ का पानी भी खिचकर सामने की ओर जाता है, जिस से उन इलाक़ों में भाटा आता है (यानि पानी नीचे हो जाता है)। पृथ्वी के पीछे का जो पानी है वह चन्द्रमा से सब से दूर होता है और खिचाव कम महसूस करता है, जिस से वहां भी ज्वार रहता है। चन्द्रमा के ज्वारभाटा बल का असर पानी तक सीमित नहीं। पृथ्वी की ज़मीन पर भी इसका असर होता है। अगर पूरा असर देखा जाए तो ज्वारभाटा बल से पृथ्वी का गोला थोड़ा पिचक सा जाता है।
खगोलशास्त्र में एक रोश सीमा का नियम है। इसमें यदि कोई वस्तु किसी ग्रह की रोश सीमा के अन्दर आ जाये तो वह ग्रह उसपर ऐसा ज्वारभाटा बल डालता है के वह वस्तु पिचक कर टूट सकती है। हमारे सौर मण्डल के छठे ग्रह शनि के उपग्रही छल्ले कुछ इसी तरह ही बने हैं। साधारण तौर पर अगर किसी ग्रह के इर्द-गिर्द मलबा (धुल, पत्थर, बर्फ़, इत्यादि) परिक्रमा कर रहा हो तो वह समय के साथ-साथ जुड़कर उपग्रह बन जाता है। लेकिन अगर यह रोश सीमा के अन्दर हो तो ज्वारभाटा बल की पिचकन उसे जुड़ने नहीं देती। अगर कोई बना-बनाया उपग्रह या धूमकेतु भी रोश सीमा के अन्दर भटक जाए तो तोड़ा जा सकता है। १९९२ में जब शूमेकर-लॅवी नाम का धूमकेतु बृहस्पति से जा टकराया तो बृहस्पति के भयंकर ज्वारभाटा बल ने उसे तोड़ डाला।
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