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जलसंत्रास या 'जलभीति' (Hydrophobia या Aquaphobia) जल या किसी अन्य पेय या खाद्य को देखकर रोग के आक्रमण की संभावना से रोगी के भयभीत हो जाने की स्थिति का नाम है। यह जलसंत्रास रोग का विशेष लक्षण है। धनुस्तंभ (Tetanus) में भी ऐसा ही होता है। घूँटने का प्रयत्न करते ही रोगी की पेशियों में ऐठन आ जाती है, जिससे बहुत पीड़ा होती है। इस कारण रोगी को जल से डर लगता है। यह केवल एक लक्षण है।
पागल कुत्ते के काटने के प्राय: ४० दिन पश्चात् यह रोग उत्पन्न होता है। बाँह, पेट या गर्दन पर काटने से थोड़े ही दिनों में यह उत्पन्न हो सकता है। शिशु और बालकों में तो कुछ ही दिनों में प्रकट हो जाता है। रोग की प्रथम अवस्था में दो-तीन दिन तक रोगी का मन उदास रहता है। उसे भूख नहीं लगती और वह भयभीत सा रहता है। प्रकाश नहीं सुहाता। नींद भी नहीं आती। कुछ भी निगलने से गले में पीड़ा होती है। इस कारण रोगी खाना नहीं चाहता। वह जल पीने तक का साहस नहीं करता।
दूसरी अवस्था में पेशियों में, विशेषकर कंठ की पेशियों में, ऐंठन होने लगती है, निगलने की क्रिया में काम आनेवाली तथा ग्रीवा की अन्य पेशियों में दारुण पीड़ायुक्त ऐंठन होती है। रोगी को १०१° से १०३° फा. तक ज्वर रहता है। कितने ही रोगियों को ऐंठन के साथ उन्माद हो जाता है। रोगी बकने झकने लगता है। आक्षेपक ऐंठन के अंतकाल में रोगी ठीक रहता है। कुछ रोगियों में ज्वर नहीं होता। यह अवस्था दो तीन दिन तक रहती है।
इसके पश्चात् संस्तंभ (paralytic) की तीसरी अवस्था प्रारंभ होती है जिसमें पेशीसमूह अकर्मण्य होते जाते हैं। ऐंठन कम हो जाती है। संस्तभित होकर पेशी ढीली होने लगती है। रोगी अचेत सा रहता है। धीरे धीरे अचेतनता बढ़ती जाती है और साथ ही पेशियों का संस्तंभ भी अधिक हो जाता है। अंत में सब पेशियों के संस्तंभन के कारण हृदयावसाद से रोगी की मृत्यु हो जाती है। यह अवस्था ६ से १८ घंटे तक रह सकती है।
यह रोग कुत्ते, सियार, लोमड़ी, बिल्ली, गाय और घोड़ों को भी होता है। मनुष्य को यह रोग प्राय: कुत्ते के काटने से होता है। रोग का निदान कठिन नहीं होता। कुत्ते या अन्य किसी जंतु के काटने का पता चलते ही रोगी के लक्षणों से घनुस्तंभ या अन्य अवस्थाओं को पहचानना कठिन नहीं होता।
रोग का कारण एक प्रकार का विषाणु होता है, जो तंत्रिकातंत्र को, विशेषकर तंत्रिकाओं के प्रेरक मूलों को आक्रांत करके मेरुरज्जु में भर जाता है। इसके कारण मस्तिष्क में विशेष आकार के चिह्न बन जाते हैं, जिनका नेग्री नामक विद्वान् ने सबसे पहले वर्णन किया था। इस कारण इनको नेग्री पिंड (Negri bodies) कहते हैं।
इस रोग की कोई चिकित्सा नहीं है। पाँच से सात दिनों में रोगी की मृत्यु हो जाती है। चिकित्सा लाक्षणिक की जाती है। यद्यपि रोग की कोई चिकित्सा नहीं है, तथापि रोग को रोकना सहज और निश्चित है। इस रोग से मृत कुत्तों की मेरुरज्जु से तैयार किए हुए १४ इंजेक्शन, प्रति दिन एक के क्रम से दिए जाते हैं। उससे रोग निरोध क्षमता उत्पन्न हो जाती है और रोग के लक्षण प्रकट नहीं होने पाते। काटने के पश्चात् जितना श्घ्रीा हो सके इंजेक्शन आरंभ कर देना चाहिए। यदि यह निश्चय हो कि कुत्ता पागल नहीं था, तो इंजेक्शन की आवश्यकता नहीं होती। यदि काटने के पश्चात् कुत्ता १० दिन तक जीवित रहे, तो समझना चाहिए कि काटने के समय कुत्ता पागल नहीं था। यदि काटने के पश्चात् कुत्ता न दिखाई पड़े और उसके रोगमुक्त होने का निश्चय न किया जा सके, जो इंजेक्शन आवश्यक है। यह टीका हमारे देश में कसौली, बंबई के हैफकीन इंस्टिट्यूट और अन्य कई स्थानों पर तैयार किया जाता है और सरकारी अस्पतालों में इंजेक्शन देने का प्रबंध रहता है।
इस टीके का आविष्कार सबसे पहले फ्रांस के लुई पास्चर ने किया ता। इसके पूर्व इस रोग से बहुत मृत्यु होती थी। फ्रांस के पैस्टर इंस्टिट्यूट में सन् १९०८ और १९०९ में ९९१ रोगियों में से केवल दो की मृत्यु हुई और १९१० में ४१० रोगियों में से किसी की भी मृत्यु नहीं हुई। तब से मृत्युसंख्या निरंतर घट रही है और अब अत्यल्प है, जिसका मुख्य कारण टीके का रोगनिरोधक के रूप में प्रयोग और लावारिस कुत्तों का संहार है।
बालकों में इस रोग का उद्भवनकाल उतना ही कम होगा। इस कारण उनमें रोगनिरोधन का आयोजन जितना भी शीघ्र हो सके करना चाहिए।
काटे हुए स्थान की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है। इस स्थान को विसंक्रामक विलयनों से स्वच्छ करके कारबोलिक या नाइट्रिक अम्ल से दग्ध कर देना चाहिए।
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