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चरखा एक हस्तचालित युक्ति है जिससे सूत तैयार किया जाता है। इसका उपयोग कुटीर उद्योग के रूप में सूत उत्पादन में किया जाता है। भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में यह आर्थिक स्वावलम्बन का प्रतीक बन गया था। चरखा यंत्र का जन्म और विकास कब तथा कैसे हुआ, इस पर चरखा संघ की ओर से काफ़ी खोजबीन की गई थी। अंग्रेज़ों के भारत आने से पहले भारत भर में चरखे और करघे का प्रचलन था। 1500 ई. तक खादी और हस्तकला उद्योग पूरी तरह विकसित था। सन् 1702 में अकेले इंग्लैंड ने भारत से 10,53,725 पाउंड की खादी ख़रीदी थी। मार्कोपोलो और टेवर्नियर ने खादी पर अनेक सुंदर कविताएँ लिखी हैं। सन् 1960 में टैवर्नियर की डायरी में खादी की मृदुता, मज़बूती, बारीकी और पारदर्शिता की भूरि भूरि प्रशंसा की गई है।
भारत में चरखे का इतिहास बहुत प्राचीन होते हुए भी इसमें उल्लेखनीय सुधार का काम महात्मा गांधी के जीवनकाल का ही मानना चाहिए। सबसे पहले सन् 1908 में गांधी जी को चरखे की बात सूझी थी जब वे इंग्लैंड में थे। उसके बाद वे बराबर इस दिशा में सोचते रहे। वे चाहते थे कि चरखा कहीं न कहीं से लाना चाहिए। सन् 1916 में साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) की स्थापना हुई। बड़े प्रयत्न से दो वर्ष बाद सन् 1918 में एक विधवा बहन के पास खड़ा चरखा मिला।
इस समय तक जो भी चरखे चलते थे और जिनकी खोज हो पाई थी, वे सब खड़े चरखे ही थे। आजकल खड़े चरखे में एक बैठक, दो खंभे, एक फरई (मोड़िया और बैठक को मिलाने वाली लकड़ी) और आठ पंक्तियों का चक्र होता है। देश के भिन्न भिन्न भागों में भिन्न भिन्न आकार के खड़े चरखे चलते हैं। चरखे का व्यास 12 इंच से 24 इंच तक और तकुओं की लंबाई 19 इंच तक होती है। उस समय के चरखों और तकुओं की तुलना आज के चरखों से करने पर आश्चर्य होता है। अभी तक जितने चरखों के नमूने प्राप्त हुए थे, उनमें चिकाकौल (आंध्र) का खड़ा रखा चरखा सबसे अच्छा था। इसके चाक का व्यास 30 इंच था और तकुवा भी बारीक तथा छोटा था। इस पर मध्यम अंक का अच्छा सूत निकलता था।
सन् 1920 में विनोबा जी और उनके साथी साबरमती आश्रम में कताई का काम सीखते थे। कुछ दिन बाद ही (18 अप्रैल सन् 1921 को) मगनवाड़ी (वर्धा) में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना हुई। उस समय कांग्रेस महासमिति ने 20 लाख नए चरखे बनाने का प्रस्ताव किया था और उन्हें सारे देश में फैलाना चाहा था। सन् 1923 में काकीनाडा कांग्रेस के समय अखिल भारत खादीमंडल की स्थापना हुई, किंतु तब तक चरखे के सुधार की दिशा में बहुत अधिक प्रगति नहीं हुई थी। कांग्रेस का ध्यान राजनीति की ओर था, पर गांधी जी उसे रचनात्मक कार्यों की ओर भी खींचना चाहते थे। अत: पटना में 22 सितंबर 1925 को अखिल भारत चरखा संघ की स्थापना हुई।
चरखे में संशोधन हो, इसके लिये गांधी जी बहुत बेचैन थे। सन् 1923 में 5,000 रुपए का पुरस्कार भी घोषित किया, किंतु कोई विकसित नमूना नहीं प्राप्त हुआ। 29 जुलाई सन् 1929 को चरखा संघ की ओर से गांधी जी की शर्तों के अनुसार चरखा बनाने वालों को एक लाख रुपया पुरस्कार देने की घोषणा की गई। गांधी जी ने जो शर्ते रखी थीं उन्हें पूरा करने की कोशिश तो कई लोगों ने की, लेकिन सफलता किसी को भी नहीं मिली। किर्लोस्कर बंधुओं द्वारा एक चरखा बनाया गया था, लेकिन वह भी शर्त पूरी न होने के कारण असफल ही रहा।
चरखे के आकार पर उपयोगिता की दृष्टि से बराबर प्रयोग होते रहे। खड़े चरखे का किसान चरखे की शकल में सुधार हुआ। गांधी जी स्वयं कताई करते थे। यरवदा जेल में किसान चरखे को पेटी चरखे का रूप देने का श्रेय उन्हीं को है। श्री सतीशचंद्र दासगुप्त ने खड़े चरखे के ही ढंग का बाँस का चरखा बनाया, जो बहुत ही कारगर साबित हुआ। बाँस का ही जनताचक्र (किसान चरखे की ही भाँति) बनाया गया, जिस पर श्री वीरेन्द्र मजूमदार लगातार बरसों कातते रहे। बच्चों के लिये या प्रवास में कातने के लिये प्रवास चक्र भी बनाया गया, जिसकी गति किसान चक्र से तो कम थी, लेकिन यह ले जाने लाने में सुविधाजनक था। इस प्रकार अब तक बने हुए चरखों में गति और सूत की मज़बूती की दृष्टि से किसान चरखा सबसे अच्छा रहा। फिर भी देहात की कत्तिनों में खड़ा चरखा ही अधिक प्रिय बना रहा। गांधी जी के स्वर्गवास के बाद भी चरखे के संशोधन और प्रयोग का काम बराबर चलता रहा।
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