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भारतीय आदिवासी क्रांतिकारी, भूमिज विद्रोह (चुआड़ विद्रोह) के महानायक विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
गंगा नारायण सिंह, भूमिज विद्रोह के महानायक कहे जाते हैं। उन्होंने 1832-33 में भूमिज किसानों और जमींदारों के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह किया था। अंग्रेजों ने इसे 'गंगा नारायण का हंगामा' कहा है जबकि इतिहासकारों ने इसे चुआड़ विद्रोह के नाम से भी लिखा है।[1]
गंगा नारायण सिंह Ganga Narayan Singh | |
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25 अप्रैल 1790 से 7 फरवरी 1833 | |
जन्मस्थल : | बांधडीह, नीमडीह, बंगाल, ब्रिटिश भारत (अब झारखण्ड) |
मृत्युस्थल: | हिन्दशहर, खरसावाँ, ब्रिटिश भारत (अब झारखण्ड) |
माता-पिता: | लक्ष्मण सिंह (पिता) ममता सिंह (माता) |
आन्दोलन: | चुआड़ विद्रोह और भूमिज विद्रोह |
राष्ट्रीयता: | भारतीय |
1767 ईस्वी से 1833 ईस्वी तक, 60 से ज्यादा वर्षों में भूमिजों द्वारा अंग्रेजों के विरूद्ध किए गए विद्रोह को भूमिज विद्रोह कहा गया है।
राज बड़ाभूम छोटानागपुर के सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली राजघरानों में से एक था। बड़ाभूम राजपरिवार भूमिज आदिवासी समुदाय के आमझोर जाडू( वंश जाडू , गोत्रो आमझोर) वंश के वंशज हैं। 17वीं शताब्दी के वराहभूम के राजा विवेक नारायण सिंह की दो रानियाँ थीं। दो रानियों के दो पुत्र थे। 18वीं शाताब्दी में राजा विवेक नारायण सिंह की मृत्यु के पश्चात दो पुत्रों में लक्ष्मण नारायण सिंह एवं रघुनाथ नारायण सिंह के बीच उत्तराधिकारी को लेकर संघर्ष हुआ।[2]
पारम्पारिक भूमिज प्रथा के अनुसार बड़ी रानी के पुत्र, लक्ष्मण नारायण सिंह को ही उत्तराधिकार प्राप्त था। परन्तु अंग्रेजों द्वारा अपनी रीति के अनुसार राजा के छोटे पुत्र रघुनाथ नारायण सिंह जोकि छोटी रानी का पुत्र था को राजा मनोनित करने पर लम्बा पारिवारिक विवाद शुरू हुआ। स्थानीय भूमिज सरदार लक्ष्मण नारायण सिंंह का समर्थन करते थे। परन्तु रघुनाथ को प्राप्त अंग्रेजों के समर्थन और सैनिक सहायता के सामने वे टिक नहीं सके। लक्षमण सिंह को राज्य बदर किया गया। जीवनाकुलित निर्वाह के लिए लक्ष्मण सिंह को बांधडीह गांव का जागीर निष्कर कर दिया। जहाँ उनका काम सिर्फ बांधडीह घाट का देखभाल करना था।[3][4]
लक्ष्मण सिंह की शादी ममता देवी से हुई। ममता देवी स्वभाव से विनम्र तथा धर्मपरायण थी। परन्तु अंग्रेज अत्याचार की वह कट्टर विरोधी थी। लक्ष्मण सिंह के तीन पुत्र हुए। गंगा नारायण सिंह, श्यामकिशोर सिंह और श्याम लाल सिंह। ममता देवी अपने दोनों पुत्र गंगा नारायण सिंह तथा श्याम लाल सिंह को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए सदैव प्रोत्साहित करती थी।
जंगल महल में गरीब किसानों पर सन् 1765 ईस्वी में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अत्याचार करना शुरू किया क्यूँकि दिल्ली के मुगल सम्राट बादशाह शाह आलम से बंगाल, बिहार, उडीसा की दीवानी हासिल कर ली था तथा राजस्व वसूलने के लिए नये उपाय करने लगे। इसके लिए अंग्रेज सरकार ने कानून बनाकर मानभूम, वराहभूम, सिंहभूम, धलभूम, पातक्रम, मेदिनीपुर, बांकुडा तथा वर्दमान आदि स्थानों में भूमिजों की जमीन से ज्यादा राजस्व वसूलने के लिए नमक का कर, दारोगा प्रथा, जमीन विक्रय कानून, महाजन तथा सूदखोरों का आगमन, जंगल कानून, जमीन की निलामी तथा दहमी प्रथा, राजस्व वसूली उत्तराधिकार संबंधी नियम बनाए। इस प्रकार, हर तरह से आदिवासियों और गरीब किसानों पर अंग्रेजी शोषण बढता चला गया।
निष्कासित लक्षमण सिंह बांधडीह गांव में बस गए थे और राज्य प्राप्त करने के लिए कोशिश करने लगे तथा राजा बनने के लिए संघर्ष करते रहे। लक्ष्मण सिंह ने सुबल सिंह और श्याम गुंजम सिंह के साथ 1770 में विद्रोह किया था, जिसे चुआड़ विद्रोह कहा जाता है। इस विद्रोह को 1778 में दबा दिया गया था। 1793 में उनके पिता लक्ष्मण सिंह ने बड़ाभूम परगना में एक बार फिर विद्रोह किया, उन्होंने 500 चुआड़ों के साथ पूरे क्षेत्र में हंगामा किया।[5] बाद में अंग्रेजों द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मेदिनीपुर जेल भेज दिया गया, जहां 1796 को उनकी मृत्यु हो गयी।[6] गंगा नारायण सिंह, लक्षमण सिंह के पुत्र थे। गंगा नारायण सिंह जंगल महल में गरीब किसानों पर शोषण, दमनकारी सम्बन्धी कानून के विरूद्ध अंग्रेजों से बदला लेने के लिए कटिबद्ध हो गए।
समय के पुकार से उस इलाके के लोग सजग होकर सभी गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में एकजुट होकर अंग्रेजों के विरूद्ध नारा बुलन्द किया। उन्होंने अंग्रेजों की हर नीति के बारे में जंगल महल के हर जाति को समझाया और लड़ने के लिए संगठित किया। इसके कारण असंतोष बढ़ा जो 1832 ईस्वी में गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में प्रबल संघर्ष का रूप ले लिया। इस संघर्ष को अंग्रेजों ने गंगा नारायण हंगामा कहकर पुकारा है और वहीं चुआड विद्रोह नाम से इतिहासकारों ने लिखा है।[7]
अंग्रेजों के शासन और शोषण नीति के खिलाफ लड़ने वाले गंगा नारायण सिंह प्रथम वीर थे जिन्होंने सर्वप्रथम सरदार गोरिल्ला वाहिनी का गठन किया। जिस पर हर जाति का समर्थन प्राप्त था। धलभूम, पातकूम, शिखरभूम, सिंहभूम, पांचेत, झालदा, काशीपुर, वामनी, वागमुंडी, मानभूम, अम्बिका नगर, अमीयपुर, श्यामसुंदरपुर, फुलकुसमा, रानीपुर तथा काशीपुर के राजा-महाराजा तथा जमीनदारों का गंगा नारायण सिंह को समर्थन मिल चुका था। गंगा नारायण सिंह ने वराहभूम के दिवान तथा अंग्रेज दलाल माधव सिंह को वनडीह में 2 अप्रैल, 1832 ईस्वी को आक्रमण कर मार दिया था। उसके बाद सरदार वाहिनी के साथ वराहबाजार मुफ्फसिल का कचहरी, नमक का दारोगा कार्यालय तथा थाना को आगे के हवाले कर दिया।[8][9]
बांकुडा के समाहर्ता (Collector) रसेल, गंगा नारायण सिंह को गिरफ्तार करने पहुँचा। परन्तु सरदार वाहिनी सेना ने उसे चारों ओर से घेर लिया। सभी अंग्रेजी सेना मारी गयी। किन्तु रसेल किसी तरह जान बचाकर बांकुडा भाग निकला। गंगा नारायण सिंह का यह आंदोलन तूफान का रूप ले लिया था, जो बंगाल के छातना, झालदा, आक्रो, आम्बिका नगर, श्यामसुन्दर, रायपुर, फुलकुसमा, शिलदा, कुईलापाल तथा विभिन्न स्थानों में अंग्रेज रेजीमेंट को रौंद डाला। उनके आंदोलन का प्रभाव बंगाल के पुरूलिया, बांकुडा के वर्धद्मान और मेदिनीपुर जिला, बिहार के सम्पूर्ण छोटानागपुर (अब झारखण्ड), उडीसा के मयूरभंज, क्योंकझर और सुंदरगढ आदि स्थानों में बहुत जोरों से चला। फलस्वरूप पूरा जंगल महल अंग्रेजों के काबू से बाहर हो गया। सभी लोग एक सच्चा ईमानदार, वीर, देश भक्त और समाज सेवक के रूप में गंगा नारायण सिंह का समर्थन करने लगे।[10][11]
आखिरकार अंग्रेजों को बैरकपुर छावनी से सेना भेजना पड़ा जिसे लेफ्टिनेंट कर्नल कपूर के नेतृत्व में भेजा गया। सेना भी संघर्ष में परास्त हुआ। इसके बाद गंगा नारायण और उनके अनुयायियों ने अपनी कार्य योजना का दायरा बढा दिया। बर्धमान के आयुक्त बैटन और छोटानागपुर के कमिशनर हन्ट को भी भेजा गया किन्तु वे भी सफल नहीं हो पाए और सरदार वाहिनी सेना के आगे हार का मुँह देखना पडा।[12]
अगस्त 1832 से लेकर फरवरी 1833 तक पूरा जंगल महल बिहार के छोटानागपुर (अब झारखण्ड), बंगाल के पुरूलिया, बांकुडा के वर्धद्मान तथा मेदिनीपुर, उडीसा के मयूरभंज, क्योंकझर और सुंदरगढ अशांत बना रहा। अंग्रेजों ने गंगा नारायण सिंह का दमन करने के लिए हर तरह से कोशिश किया परन्तु गंगा नारायण सिंह की चतुरता और युद्ध कौशल के सामने अंग्रेज टिक न सके। वर्धद्मान, छोटानागपुर तथा उडीसा (रायपुर) के आयुक्त गंगा नारायण सिंह से परास्त होकर अपनी जान बचाकर भाग निकले। इस प्रकार संघर्ष इतना तेज और प्रभावशाली था कि अंग्रेज बाध्य होकर जमीन विक्रय कानून, उत्तराधिकारी कानून, लाह पर एक्साईज ड्यूटी, नमक का कानून, जंगल कानून वापस लेने के लिए विवश हो गए।[13]
उस समय खरसावाँ के ठाकुर चेतन सिंह अंग्रेजों के साथ साठ-गाँठ कर अपना शासन चला रहा था। गंगा नारायण सिंह ने पोडाहाट तथा सिंहभूम चाईबासा जाकर वहाँ के कोल (हो) जनजातियों को ठाकुर चेतन सिंह तथा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए संगठित किया। 6 फरवरी, 1833 को गंगा नारायण सिंह कोल (हो) जनजातियों को लेकर खरसावाँ के ठाकुर चेतन सिंह के हिन्दशहर थाने पर हमला किया परन्तु दुर्भाग्यवश जीवन के अंतिम सांस तक अंग्रेजों एवं हुकुमतों के खिलाफ संघर्ष करते हुए उसी दिन वीरगति प्राप्त किए। इस प्रकार 7 फरवरी, 1833 ईस्वी को एक सशक्त, शक्तिशाली योद्धा अंग्रेजों के विरूद्ध लोहा लेने वाला चुआड विद्रोह, भूमिज विद्रोह के महानायक वीर गंगा नारायण सिंह अपना अमिट छाप छोडकर हमारे बीच अमर हो गए।[14]
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