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भारतीय आदिवासी समूह विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
खड़िया, मध्य भारत की एक जनजाति है। इनकी भाषा खड़िया आस्ट्रो-एशियाटिक परिवार के समूह में आती है। जनसंख्या की दृष्टि से मुंडा संताली, मुंडारी और हो के बाद खड़िया का स्थान है।
खड़िया आदिवासियों का निवास मध्य भारत के पठारी भाग में है, जहाँ ऊँची पहाड़ियाँ, घने जंगल और पहाड़ी नदियाँ तथा झरने हैं। इन पहाड़ों की तराइयों में, जंगलों के बीच समतल भागों और ढलानों में इनकी घनी आबादी है। इनके साथ आदिवासियों के अतिरिक्त कुछ दूसरी सादान जातियाँ तुरी, चीक बड़ाईक, लोहरा, कुम्हार, घाँसी, गोंड, भोगता आदि भी बसी हुई हैं।
खड़िया समुदाय मुख्यतः एक ग्रामीण खेतिहर समुदाय है। इसका एक हिस्सा आहार-संग्रह अवस्था में है। शिकार, मधु, रेशम के कोये, रस्सी और फल तथा जंगली कन्दों पर इनकी जीविका आधारित है। जंगल साफ करके खेती द्वारा गांदेली, मडुवा, उरद, धन आदि पैदा कर लेते हैं।
शरत्चन्द्र राय के अनुसार खड़िया लोगों की आबादी उड़ीसा, बंगाल के बाँकुड़ा, भिवनापुर, बीरभूम और पुरूलिया,जलपाईगुड़ी,दार्जिलिंग जिलों में, झारखण्ड के सिंहभूम, सिमडेगा, लोहरदगा,राँची और गुमला जिलों में, छत्तीसगढ़ के रायगढ़, सारंगगढ़, शक्ति, , दुर्ग, बिलासपुर, जयपुर और उदयपुर में अधिक हैं।
यह आबादी क्षेत्र पूर्व की ओर मिदनापुर और बाँकुड़ा तक चला गया है। इसमें पुरूलिया, बिरभूम और मिदनापुर तथा बाँकुड़ा है। इसी तरह उड़ीसा का पठारी इलाका, जिसमें सिमलीपाल और दलमा पर्वत श्रेणियां हैं। सतपुड़ा पर्वत श्रेणी में छिन्दवाड़ा का क्षेत्र स्थित है। अपेक्षाकृत नीची जगहों में बिलासपुर और दुर्ग जिले हैं जो मैदानी इलाके से सटे हुए हैं। बिहार के सिंहभूम जिले के ढालभूम, सराई केला और घाटशिला तथा गुमला जिले के शंख और कोयल नदी की तराई में इस जाति के लोग बसे हुए हैं। लोहरदगा के विशुनपुर के पहाड़ी क्षेत्रा में भी खड़िया लोग बसे हुए हैं। ये क्षेत्र घने जंगलों से ढके हैं। उड़ीसा के सिमलीपाल, क्योंझर, ढेंकानल, बोंलगीर, संबलपुर, सुन्दरगढ़ और नीलगिरी पर्वत की तराई के क्षेत्र में, खड़िया लोग निवास करते हैं। इसी प्रकार शंख, कोयल, ईब और महानदी की तराई को इन्होंने निवास के लिए चुना है ।
करन प्रधान के अनुसार सन 2000 में नवगठित छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में भी पूर्व से ही खड़िया समुदाय का बहुतायत निवास रहा है। जशपुर जिला तीन राज्यों को जोड़ता है, छत्तीसगढ़, झारखण्ड और उड़ीसा इन तीनो राज्यों के संगम होने तथा जाति के मात्रात्मक त्रुटि (खड़िया तथा खरिया) के सुधार तथा प्रशासन के द्वारा खड़िया समाज को पुनः अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किए जाने के कारण प्रति वर्ष 2011 से 14,व 15 फरवरी को जिले के विकासखंड फरसाबहार के चट्टीडाँड़ (कोनपारा) में खड़िया समाज सम्मलेन का आयोजन होता है जिसमे छत्तीसगढ़, झारखण्ड और उड़ीसा के खड़िया समाज के लोग सम्मिलित होते हैं। इससे पता चलता है की जशपुर जिले से सम्बंधित राज्यों उड़ीसा से सुंदरगढ़ जिला, झारखण्ड से सिमडेगा जिला में भी खड़िया समाज लोग रहते हैं, इन जिलों से काफी लोग सम्मलेन में हिस्सा लेते हैं I छत्तीसगढ़ राज्य के अन्य जिले रायगढ़, महासमुंद, तथा कोरबा जिले
में भी खड़िया समाज का निवास बहुतायत रहा है।
खड़िया आदिवासी समुदाय को तीन उप विभागों में रखा गया है। उन्होंने स्वयं ही ये उप विभाग किए हैं। इन उप विभागों के लोगों ने भिन्न-भिन्न समयों में इस क्षेत्र में पदार्पण किया। किसी भी कबीले के आगमन का सही समय ज्ञात नहीं है फिर भी कुछ विशिष्टताओं के कारण यह विभाजन हुआ है। ये तीन विभाग हैं-
पहाड़ी खड़िया अभी तक जंगलों पर ही पूर्णतया निर्भर हैं। ये घुमन्तू जीवन व्यतीत करते हैं इसलिए ये कहीं जमकर रह नहीं पाते, और न खेती कर पाते हैं। इधर झारखण्ड के घाटशिला जैसे स्थानों में इन्हें बसाने और उद्योगों में लगाने की कोशिश की गई हैं। यद्यपि इन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश की गई है किन्तु सरकार अपने प्रयत्न में असफल रही है। फिर भी कुछ थोड़े से लोग तसर उद्योगों में लगे हैं।
डेलकी और दूध खड़िया, पहाड़ी खड़िया की अपेक्षा अधिक विकसित हैं। इन दोनों शाखाओं का सम्बन्ध अभी भी वनों से है, किन्तु उन्हीं पर निर्भर नहीं हैं। इन्होंने खेती लायक जमीन तैयार कर ली है, और अब ये खेती करते हैं। गाँव बसाकर रहते हैं।
हिल खड़िया पश्चिम बंगाल के मिदनापुर, पुरूलिया, बाँकुड़ा जिलों में, बिहार के सिंहभूम में, मध्य प्रदेश के रायगढ़, बिलासपुर, रायपुर और उड़ीसा के गंजाम, कटक, कालाहाँडी, क्योंझर, ढेंकानाल, पुरी, बोंलगीर, मयूरभंज, सुन्दरगढ़ और संबलपुर जिलों में रहते हैं।
डेलकी खड़िया जाति अधिकतर छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिलों में निवास करते हैं I जशपुर, जांजगीर चांपा के डभरा तथा मालखरौदा के भांटा, व बोड़ासागर गांवो में]], रायगढ़, महासमुंद, कोरबा आदि में डेलकी खड़िया समाज निवास करते हैं I
आदि I
खड़िया समुदाय का धर्म और दर्शन, आग्नेय कुल की अन्य जातियों के धर्म और दर्शन की तरह ही जटिल नहीं है। इनका धर्म और विश्वास प्रकृति पर आधरित है, जो सनातन धर्म का अंग है। मुण्डा, हो, संथाल आदि की तरह ही यह जाति भी सूर्य को शत्ति और जीवन का मूल स्रोत मानती है। सूर्य के उज्जवल रंग को पवित्रता का प्रतीक मानते हैं। शक्ति का प्रतीक सूर्य ‘पोनोेमोसोर’ कहलाता है। मुण्डा सूर्य को ‘'सिंगी’' मात्रा न कहकर ‘सिंगबोंगा’ कहते है। कुडुख ‘'बिड़ीनाद’' या ‘'धर्मेस'’ कहते हैैं। खड़िया में सिर्फ ‘'बेड़ो'’ कहते हैं। चन्द्रमा को सूर्य की पत्नी ‘'बेड़ोडय'’ कहते हैं।
खड़िया आदिवासी समुदाय कर्मफल पर विश्वास नहीं करते। उनका विश्वास है कि मनुष्य मर कर फिर खड़िया समुदाय में और उसी वंश में जन्म लेता है। इस तरह पूर्वजों का सर्म्पक हमेशा बना रहता है, निरन्तरता बनी रहती है।
खड़िया समुदाय चाहे उसने किसी भी धर्म को स्वीकार कर लिया है, विश्वास करता है कि मनुष्य के अन्दर दो शक्तियाँ हैं जिसे ‘चइन’ या ‘प्राण’ और ‘लोंगोय’ या छाया कही गई है। जब तक मनुष्य जीवित है, प्राण उसके अन्दर रहता है। प्राण रहने तक नाड़ी चलती है और साँस ली जाती है। प्राण के निकलते ही मृत्यु हो जाती है।
खड़िया समुदाय के पर्व-त्योहार एक ओर धर्मिक विश्वासों से जुड़े हैं, तो दूसरी ओर इन उत्सवों का आधार उनकी सामाजिकता और जीविका के साधनों पर निर्भर करता है। इन त्योहारों का सम्बन्ध उनके प्राचीन आखेट जीवन से लेकर कृषि-युग होते हुए आधुनिक जीवन से भी है। ये विभिन्न धर्मों के साथ जुड़ते हुए विभिन्न त्योहारों को अपने हित के अनुसार आत्मसात् करने लगे हैं। सारे उत्सवों में सबसे पहले पोनोमोसोर, उसके बाद-‘देव पितर’ या बूढ़ा-बूढ़ी की पूजा होती है। ‘देव-पितर’ की प्रतिदिन भोजन से पहले और हंड़िया पीने से पहले स्मरण किया जाता है। अन्य आत्माओं को अलग-अलग समयों में स्मरण करते हैं।
जब खड़िया समुदाय पूर्णतया जंगल पर निर्भर जीवन व्यतीत करती था, तब उनकी अर्थ-व्यवस्था और पर्व भी उसी के अनुकूल थे। उत्तर भारत की सारी जातियाँ चाहे वे आर्य हों या अनार्य, सबके लिए फाल्गुन मास की समाप्ति से अब तक जीवन जो ठिठुरा हुआ था, धीरे-धीरे मुक्त होने लगता है। प्रकृति के साथ मनुष्यों में भी उल्लास समाने लगता है। आर्य जातियाँ खेतों से गेहूँ-चना आदि अन्न प्राप्त करने की स्थिति में होती हैं। आर्येतर जातियाँ जंगलों से अपना खाद्य और अन्य आवश्यकताएँ भरपूर पाने की स्थिति में होती हैं। खड़िया समुदाय, जिसकी मूल अर्थ-व्यवस्था जंगल के फल-फूलों पर टिकी है, बहुतायत से पाने की स्थिति में फाल्गुन के दूसरे पक्ष में ही होती है। शीत से मुक्त वन प्रान्तर के पीले पत्ते झड़ने लगते हैं। जंगल फूलों और नयी पत्तियों से खिल उठता है। जंगली झाड़ियाँ सूख जाती है, जिन्हें जलाकर रास्ते साप कर दिए जाते हैं। यह ऋतु उन्हें शीत और भूख से मुक्त करता है जिसे ‘फागुन काट’ कर प्रकट किया जाता है। बसंत की सुविधाओं का स्वागत चैत के दूसरे दिन ‘जंकोर’ या ‘सरहुल’ मना कर किया जाता है।
‘जंकोर’ में पोनोमोसोर के साथ-साथ खूँट-पाट, या खूँट-दाँत, बघिया और गोरेया को भी बलि दी जाती है उनके मंत्रों से भी इसकी पुष्टि होती है।
यह पूजा भी उत्सव के रूप में मनाया जाता है। एस.सी. राय ने कहा है कि यह पूजा बैसाख में पूर्णिमा से पाँच दिन पहले किया जाता है। यह बारह वर्षों में एक बार पूरी तरह से किया जाता है। ग्यारह वर्षों तक साधारण तौर पर मुर्गे की बलि दी जाती है। बारहवें वर्ष में गाँव से बाहर ऊँचे टाँड़ में पूजा की जाती है। जंगल से शाल के तीन पेड़ काट कर लाते और ‘गोहार’ बनाते हैं। पेड़ के ऊपर की फुनगियाँ नहीं काटी जाती ‘कोमसोर सुउम्रोम’ (अरवा सूत in) से ‘गोहार’ को पाँच बार लपेटा जाता है। नियत दिन में घर का प्रमुख व्यक्ति अरवा चावल, एक हाँड़ी, बकरा या सूअर लेकर जाता है और बलि के बाद चावल और बलि के सिर को पका कर खाता है। यदि उस स्थान पर उसका कोई अविवाहित पुत्र हो तो उसे भी देता है। इसके बाद बिना धोए हाँड़ी को लाकर गोशाले के अन्दर कहीं पर टाँग देता है। मांस को सारा परिवार खाता है, सिर्फ लड़कियों को नहीं दिया जाता है। उनके लिए अलग से मांस बनता है।
ग्रीष्म ऋतु के ज्येष्ठ माह में धान बोने का त्योहार होता है। गाँव का पहान या कालो ‘पहनाई खेत’ को बोने लायक तैयार करके दिन नियत करता है। उस रात वह उपवास करके सबेरे (भुरका तारा) उदित होने के बाद याने ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान कर बिना किसी से कुछ बोले, सीधे रास्ते पर चलता है। नए बाँस की टोकरी, जिसे ‘गोनबिड्’ कहा जाता है में धान का बीज ले जाता है और वहाँ धान बोकर सीधे घर लौट आता है। घर में पहले खूँट-पाट देवता और देव-पितर को मुर्गियों की बलि देता और हँड़िया का अर्ध्य देकर पूजा समाप्त करता है। इसके बाद खान-पान होता है।
ग्रीष्म ऋतुु में धन बोने के बाद वर्षा ऋतु के मध्य से अनेक त्योहार आरम्भ हो जाते हैं। इन त्योहारों में रोनोल (रोपनी), गुडलू जोओडेम (गोंदली नवाखानी) गोडअ जोओडेम (गोड़ा नवाखानी), कढलेआ, करम, बंदई मुख्य हैं। सितम्बर के प्रथम पक्ष से अक्टूबर के प्रथम पक्ष तक गोंदली और गोड़ा नवाखानी मनाए जाते हैं। प्रत्येक नवाखानी में नवान्न ग्रहण किया जाता है। पूरे घर की सफाई होती है।
बंदई कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। किन्तु वास्तव में कार्तिक का चाँद जिस दिन दिखाई देता है उसी दिन से त्योहार आरम्भ हो जाता है। चाँद दिखाई देता है उस दिन भैंसों के चर के आने के बाद तपन गोलङ (पूजा के लिए विशेष रूप से तैयार किया हुआ हँड़िया) से उनका पैर धेया जाता है। गोशाले में पहले से ही गोबर से लीप कर जगह निश्चित रहती है। वहाँ सूअर को अरवा चावल चराया जाता है। जिस वक्त सूअर अरवा चावल चरता होता है, घर का स्वामी हाथ उठा-उठा कर ‘गोरेया डुबोओ’ से निवेदन करता है कि उसके पशुओं को किसी तरह की हानि न हो। पूजा के बाद भैंसों के शरीर में घी या कुजरी का तेल लगाया जाता है। इसे ‘भैंस चुमान’ कहते हैं। भैंस चुमान तीन वर्षों के अन्तराल में होता है। जब पूर्णिमा आता है तब गाय-बैलों का त्योहार ‘बन्दई’ मनाया जाता है।
भाषा परिवार के अनुसार खड़िया भाषा भारत के आग्नेय कुल के मुंडा वर्ग में आती है। इसी वर्ग में संताली, हो, मुंडारी आदि जनजातीय भाषाएँ भी आती हैं। खड़िया भाषा ध्वनि प्रधान भाषा है। उच्चारण-प्रधान होने के कारण कई ध्वनियों का संकेत लिखित शब्दों में नहीं मिलता है। इस कारण बोलने और लिखने के शब्दों में मेल नहीं खाता है। इसका दूसरा कारण है कि इसकी अपनी लिपि नहीं है। लिखने के लिए देवनागरी लिपि का सहारा लिया जाता है। देवनागरी लिपि सभी लिपियों से अधिक वैज्ञानिक होने के बावजूद आग्नेय परिवार की भाषाओं को पूर्णतः प्रकट नहीं कर सकती। खड़िया के साथ भी ऐसी ही बात है।
खड़िया भाषा बोली छत्तीसगढ़ में तथा उड़ीसा में अधिकतर बोली जाती है I लेकिन खड़िया भाषा का ज्ञान केवल बुजुर्गों को है, प्रचालन में बहुत काम प्रयोग होने से खड़िया भाषा बोली का काम प्रयोग किया जाता हैI
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