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पेशियों में क्रम से अरीय-सममित संकुचन (contraction) एवं विश्रांति (relaxation) होती रहती है जो तरंग की तरह आगे बढती रहती है। आँत| आतों]] में यह गति क्रमाकुंचन (=क्रम + आकुंचन / Peristalsis) कहलाती है। यह गति सारे पाचक नाल में, ग्रासनली से लेकर मलाशय तक, होती रहती है, जिससे खाया हुआ या पाचित आहार निरंतर अग्रसर होता जाता है। अन्य आशयों में तथा वाहिकाओं में भी यह गति होती है।
आंत्रनाल में श्लेष्मल स्तर के बाहर वृत्ताकार और उनके बाहर अनुदैर्ध्य पेशीसूत्रों के स्तर स्थित हैं। वृत्ताकार सूत्रों के संकोच से नाल की चौड़ाई संकुचित हो जाती है। अतएव संकोच से आगे के आहार का भाग पीछे को नहीं लौट सकता। तभी अनुदैर्ध्य सूत्र संकोच करके नाल के उस भाग की लंबाई कम कर देते हैं। अतएव आहार आगे को बढ़ जाता है। फिर आगे के भाग में इसी प्रकार की क्रिया से वह और आगे बढ़ता है। यही आंत्रगति कहलाती है। दूसरी खंडीभवन (segmentation) गति भी नाल की भित्ति में होती रहती है। ये गतियाँ आहार को आगे बढ़ाने में सहायता देने के अतिरिक्त, भली प्रकार से काइम को मथ सा देती हैं, जिससे पाचक रस और आहार के कणों का घनिष्ठ संपर्क हो जाता है।
प्रकृति ने ऐसा प्रबंध किया है कि आहार पदार्थों के सब अवयव, जो जांतव शरीर में भी उपस्थित रहते हैं, व्यर्थ न जाने पाएँ। उनका जितना भी अधिक से अधिक हो सके, शरीर में उपयोग हो। उनसे शरीर के टूटे फूटे भागों का निर्माण हो, नए ऊतक (tissues) भी बनें और काम करने की ऊर्जा उत्पन्न हो। आहार का यही प्रयोजन है और आहार के भिन्न अवयवों का उनके अत्यंत सूक्ष्म तत्वों में विभंजन कर देना, जिससे उनका अवशोषण हो जाय और शरीर की कोशिकाएँ उनसे अपनी आवश्यक वस्तुएँ तैयार कर लें, यही पाचन का प्रयोजन है। वास्तव में जिसको साधारण बोलचाल में पाचन कहा जाता है, उसमें दो क्रियाओं का भाव छिपा रहता है, पाचन और अवशोषण। पाचन केवल आहार के अवयवों का अपने घटकों में टूट जाना है, जो पाचक रसों की क्रिया का फल होता है। उनका अवशोषण होकर रक्त में पहुँचना दूसरी क्रिया है, जो क्षुदांत्र के रसांकुरों का विशेष कर्म है।
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