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शब्दकोश निर्माण से सम्बन्धित सकल कार्यों का समुच्चय कोशकर्म या कोशविद्या (Lexicography) कहलाती है। इस कार्य में प्रवीण लोग कोशकार (lexicographer) कहलाते हैं।
विषयों की दृष्टि से शब्दकोशों के वर्ग या विभाग बनाना कठिन है। अलग-अलग कोशकर अपनी समझ के अनुसार इस प्रकार के विषयविभाग बनाया करते थे। उनका न तो कोई निश्चित क्रम होता था और न हो ही सकता था। इसलिए लोगों को प्रायः सारा कोश कंठस्थ करना पड़ता था। इसी कारण पाश्चात्य देशों में शब्दकोश अक्षरक्रम से बनने लगे। ऐसे कोश रटने नहीं पड़ते थे और आवश्यकतानुसार जब जिसका जी चाहता था, तब वह उसका उपयोग कर सकता था। आजकल प्रायः सभी देशों और सभी भाषाओं में कोश के क्षेत्र मे इसी क्रम को प्रयोग होने लगा है : जो जिज्ञासु की दृष्टि से सबसे अधिक सुभीते का होता हैं। इसीलिए कोश के जितने प्रकार होते हैं, उन सब में प्रायः अक्षरक्रम का ही प्रयोग किया जाता है।
यों तो कोश के अनेक प्रकार होते हैं, पर अर्थ के विचार से वे दो भागों में बाँटे जा सकते हैं। एक तो वे जिनमें किसी भाषा के शब्दों के अर्थ और विवेचन उसी भाषा में होते है और दूसरे वे जिनमें एक भाषा के शब्दों के अर्थ दूसरी भाषा या भाषाओं मे दिए जाते हैं। विषय के विचार से कोश अनेक प्रकार के हो सकते हैं, जैसे-गणित कोश, विधिक कोश, वैद्यक कोश, साहित्य कोश आदि। ऐसे कोशों की गिनती प्राय: शब्दावलियों में होती है, जैसे कृषि शब्दावली, दार्शनिक शब्दावली, भौगोलिक शब्दावली आदि। इनके सिवा कुछ विशिष्ट कवियों, बोलियों आदि के भी अलग अलग कोश होते हैं, जैसे-तुलसी कोश, सूर कोश, अवधी कोश, ब्रजभाषा कोश आदि। किसी विशिष्ट विषय के महत्वपूर्ण ग्रंथ में आए हुए मुख्य प्रतीकों, विषयों या शब्दों के जो कोश या तालिकाएँ होती है, उन्हें क्रमात् प्रतीकानुक्रमणिका, विषयानुक्रमणिका या शब्दानुक्रमणिका कहते हैं।
कोशरचना एक कला है। इस कला का ज्ञान वर्तमान युग की परम उन्नत भाषाओं के शब्दकोशों का सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करने पर प्राप्त हो सकता है। अच्छे और प्रामाणिक कोशों का संपादन तब तक केवल विद्वता के बल पर नहीं हो सकता, जब तक कोशरचना की कला का भी पूरा पूरा ज्ञान न हो और इस कला का ज्ञान कोशों के जीवनव्यापी अध्ययन से ही हो सकता है।
सभी प्रकार के कोश किसी विशेष उद्देश्य तथा किसी विशेष क्षेत्र की आवश्यकता की पूर्ति के लिये ही बनाए जाते हैं। अत: कोशरचना में मुख्यत: इसी उद्देश्य या आवश्यकता का ध्यान रखना पड़ता हैं। दूसरे, इस बात का भी बराबर ध्यान रखना पड़ता है कि उसका सारा कलेवर सभी दृष्टियों से संतुलित रहे; ऐसा न हो कि कोई अंग तो आवश्यकता या औचित्य से अधिक बढ़ जाए और कोई उसकी तुलना में क्षीणकाय या हीन जान पड़े। शब्दों का विवेचन भी और उस विवेचन के अंगों का क्रम भी सदा एक सा रहना चाहिए। शब्दों की भी जातियाँ या वर्ग होते हैं, अत: एक जाति या वर्ग के सब शब्दों का सारा विवेचन एक सा होना चाहिए। यदि प्रामाणिक ग्रंथों अथवा लेखकों के उदाहरण लिए जाए, तो उनका उतना ही अंश लेना चाहिए, जितने में आशय स्पष्ट हो सके और जिज्ञासु का समाधान हो जाए।
अच्छे कोशों में सभी प्रकार के क्षेत्रों और विषयों के पारिभाषिक शब्द भी रहते हैं। इसलिये संपादक का अधिक से अधिक विषयों का सामान्य ज्ञान या बोध होना चाहिए। आवश्यकता होने पर किसी अनजाने या नए विषय के अच्छे और प्रामाणिक ग्रंथ से या उसके अच्छे ज्ञाता से भी सहायता लेना आवयश्क होता है। कोशरचना के कार्य में दृष्टि बहुत व्यापक रखना चाहिए और वृत्ति मधुकारी होनी चाहिए। दृष्टि इतनी पैनी और सूक्ष्म होनी चाहिए जो सहज में नीर क्षीर का विवेक कर सकें और पुरानी त्रुटियों, दोषों, भूलों आदि को ढूँढकर सहज में उनका संशोधन तथा सुधार कर सके। कोशकार में पक्षपात या रोगद्वेष नाम को भी नहीं रहना चाहिए। उसका एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए भाषा तथा साहित्य की सेवा। कोशों में प्रधानता अर्थों और विवेचनों की ही होती है, अत: उनमें कहीं व्याप्ति या अतिव्याप्ति नहीं रहनी चाहिए। सभी बातें नपी तुली, मर्यादित और यथासाध्य संक्षिप्त होनी चाहिए। कोश में अधिक से अधिक और ठोस जानकारी कम से कम शब्दों में प्रस्तुत करके ही जानी चाहिए। फालतू या भरती की बातों के लिये कोश में स्थान नहीं होता।
शब्दों के कुछ रूप तो मानक होते हैं और बहुत से रूप स्थानिक या प्रांतीय होते हैं। जिन स्थानिक या प्रांतीय शब्दों के मानक रूप प्राप्त हों, उनका सारा विवेचन उन्हीं मानक शब्दों के अंतर्गत रहना चाहिए और उनके स्थानिक या प्रांतीय रूपों के आगे उनके मानक रूपों का अभिदेश मात्र होना चाहिए। इससे बहुत बड़ा लाभ यह होता है कि अन्य भाषा-भाषियों को सहज में शब्दों के मानक रूप का पता चल जाता है और भाषा का मानक रूप स्थिर होने में सहायता मिलती है-अपरिचितों के द्वारा भाषा का रूप सहसा बिगड़ने नहीं पाता। यही बात ऐसे संस्कृत शब्दों के संबंध में भी होनी चाहिए जिसके बहुत से पर्याय हों। जैसे कमल, नदी, पर्वत, समुद्र आदि। शब्दों के आगे उनके पर्याय देते समय भी इस बात का ध्यान रहना चाहिए कि पर्याय वही दिए जाए जो मूल शब्द का ठीक आशय या माप बतानेवाले हों। जिन पर्यायों के कारण कुछ भी भ्रम उत्पन्न हो सकता हो, उन पर्यायों का ऐसे प्रसंगों में परित्याग करना ही श्रेयस्कर होगा।
कोशकारों के सामने इधर हाल में वेब्स्टर की न्यू वर्ल्ड डिक्शनरी ने एक नया आदर्श रखा है जो बहुत ही उपयोगी तथा उपादेय होने के कारण शब्दकोशों के लिये विशेष अनुकरणीय है। उसमें अनेक शब्दों के अंतर्गत उनसे मिलते जुलते पर्यायों के सूक्ष्म अंतर भी दिखलाए गए हैं, यथा - फीयर (Fear) के अंतर्गत ड्रेड (Dread), फ्राइट (Fright), एलार्म (Alarm), डिस्मे (Dismay), टेरर (Terror) और पैनिक (Panic) के सूक्ष्म अंतर भी बतला दिए गए हैं। ऐसा यह सोच का किया गया है कि कोशकार का काम शब्दों के अर्थ बतला देने से ही समाप्त नहीं हो जाता, वरन् इससे भी आगे बढ़कर उसका काम लोगों को शब्दों के ठीक प्रयोग बतलाना होता है। हमारे यहाँ ऐसे सैकड़ों हजारों शब्द मिलेंगे, जिनके पारस्परिक सूक्ष्म अंतर बतलाए जा सकते हैं और इस प्रकार जिज्ञासुओं को शब्दों पर नए ढंग से विचार करने का अभ्यास कराया जा सकता है।
हाल के अच्छे और बड़े अँगरेजी कोशों में एक और नई तथा उपयोगी परिपाटी चली है जो भारतीय भाषाओं के कोशों के लिये विशेष रूप से उपयोगी हो सकती है। प्राय: सभी भाषाओं में बहुत से ऐसे यौगिक शब्द होते हैं जो उपसर्ग लगाकर बना लिए जाते हैं। कनिष्ठ से अकनिष्ठ, करणीय से अकरणीय, अपेक्षित से अनपेक्षित, आवश्यक से अनावश्यक, मंत्री से उपमंत्री, समिति से उपसमिति, पालन से परिपालन, भ्रमण से परिभ्रमण, कर्म से प्रतिकर्म, विधान से प्रतिविधान आदि। उपसर्गों के योग से बननेवाले ऐसे शब्दों की संख्या बहुत अधिक होती है। ऐसे शब्दों दो वर्गों में बँटे होते हैं अथवा बाँटे जा सकते हैं। एक तो ऐसे शब्द जिनके शब्द पूर्व पद तथा उत्तर पद मिल कर भी किसी नए या विशिष्ट अर्थ से युक्त नहीं होते और इसी लिये साधारण शब्दों के अंतर्गत रहते हैं। ऐसे शब्दों और उनके अर्थों से कोश का कलेवर बहुत बढ़ जाता है। इस प्रकार के व्यर्थ विस्तार से बचने के लिये वेब्स्टर के नए कोशों में यह नई पद्धति अपनाई गई है कि उन्हें स्वतंत्र शब्द नहीं मानते और इसी लिये उनके अर्थ भी नहीं लिए गए हैं। पृष्ठ के अंत में एक रेखा के नीचे ऐसे शब्दों की सूची मात्र दे दी गई है, यथा-अन्-डिज़ायर्ड, अन्-डिस्टर्ब्ड, अन्-फ्री, अन्-हर्ट, अन्-इनवाइटेड आदि। हाँ, इनके विपरीत दूसरे वर्ग के कुछ ऐसे शब्द अवश्य होते हैं जिनमें उपसर्गों के योग से कुछ नए अर्थ निकलते हैं। जैसे विशेषण रूप में अकच का रूप बिना बालोंवाला तो है ही, पर संज्ञा रूप में वह केतु ग्रह का भी एक नाम है। अनागार (विशेषण) का अर्थ बिना घर-बारवाला तो है ही, पर संज्ञा रूप में वह संन्यासी का भी वाचक है। इसलिये ऐसे शब्द लेना आवश्यक होता है। जिन शब्दों के अर्थ पूर्वपद और उत्तरपद के योग से स्वत: नष्ट हो जाते हों, उन्हें कोशों में अर्थसहित लेना व्यर्थ ही समझा जाने लगा है। अत: पृष्ठांत में ऐसे शब्दों की सूची मात्र दे देना यथेष्ट होगा। हाँ, जिन यौगिक शब्दों में दोनों पदों के योग से कोई नया और विशेष अर्थ निकलता हो, उन्हें यथास्थान अर्थसहित लेना तो आवश्यक है ही।
भारत में पुराने संस्कृत कोशों की पद्धति यह रही है कि अति, प्रति, सह आदि के योग से बननेवाले शब्द अपने पूर्व पदवाले शब्द के अंतर्गत एक ही शीर्षक में एक साथ दे दिए जाते है। हिंदी के कुछ कोशों ने भी इस प्रथा का अनुकरण किया है। यद्यपि संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से यह पद्धति युक्तिसंगत होती है, फिर भी संस्कृत कोशों तक में इनका पूरा पूरा पालन होता हुआ नहीं दिखाई देता। इसमें स्थान की कुछ बचत अवश्य होती है, पर असाधारण पाठकों के लिये शब्द ढूँढना बहुत कठिन हो जाता है। कभी कभी तो ऐसे लोगों के लिये भी इस पद्धति से शब्द ढूँढना कठिन होता है जो इसके नियमों और सिद्धांतों से बहुत कुछ परिचित होते हैं।
प्रत्येक भाषा में कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो अलग अलग अर्थों के विचार से अव्यय, क्रियाविशेषण, विशेषण, प्रत्यय, संज्ञा आदि भी होते हैं और अलग अलग मूलों से भी व्युत्पन्न होते हें, यथा हिन्दी का 'आन' शब्द संज्ञा भी है, विशेषण भी और प्रत्यय भी। अपने संज्ञा रूप में भी वह अपने कई अर्थों में कुछ अलग अलग मूलों से व्युत्पन्न है। ऐसे शब्द आधुनिक और श्रेष्ठ अँगरेजी कोशों में अलग और स्वतंत्र शब्द माने जाते हैं और उनके अलग अलग शीर्षक रखकर उनका विवेचन किया जाता है, यथा-अँगरेजी में वाइज़ (Wise) विशेषण भी है, संज्ञा भी और प्रत्यय भी और तीनों रूपों में उसके शीर्षक अलग अलग रखे गए हैं। यदि भारतीय भाषाओं के कोशों में भी इनका अनुकरण किया जाय तो कई दृष्टियों से बहुत अच्छा होगा।
समितियाँ (Societies)
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