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भारत के पहले सेनाध्यक्ष एवं फील्ड मार्शल विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
कोडंडेरा मडप्पा करिअप्पा (अंग्रेज़ी: Kodandera Madappa Cariappa) ओबीई (28 जनवरी 1899 - 15 मई 1993) एक भारतीय सैन्य अधिकारी और राजनयिक थे। करिअप्पा भारतीय सेना के पहले भारतीय सेनाध्यक्ष (चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ) थे। उन्होंने 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय सेना का नेतृत्व किया था। 1949 में उन्हें भारतीय सेना का सेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया। वे आजाद भारत के फील्ड मार्शल बनने वाले पहले सैन्य अधिकारी हैं।
फील्ड मार्शल[1] कोडंडेरा मडप्पा करिअप्पा[2] ओबीई | |
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उपनाम | किपर[3] |
जन्म |
28 जनवरी 1899 शनिवारसंथे, कूर्ग प्रांत, ब्रिटिश भारत (वर्तमान में कोडगु, कर्नाटक, भारत) |
देहांत |
15 फ़रवरी 1993 94 वर्ष) बंगलौर, कर्नाटक, भारत | (उम्र
निष्ठा |
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सेवा/शाखा | |
सेवा वर्ष |
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उपाधि | फील्ड मार्शल |
दस्ता | राजपूत रेजिमेंट |
नेतृत्व |
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युद्ध/झड़पें | |
सम्मान |
करिअप्पा का प्रतिष्ठित सैन्य करियर लगभग तीन दशकों तक था। मडिकेरी, कोडगु में जन्मे करिअप्पा प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद ब्रिटिश भारतीय सेना में शामिल हो गए। उन्हें 2/88 कर्नाटक इन्फैंट्री में अस्थायी प्रथम लेफ्टिनेंट के रूप में नियुक्त किया गया। 1/7 राजपूत में शामिल होने से पहले उन्हें उनके करियर के शुरुआत में कई रेजिमेंटों के बीच स्थानांतरित किया गया था। राजपूत रेजिमेंट उनका स्थायी रेजिमेंट बन गया था।
वह स्टाफ कॉलेज, क्वेटा में भाग लेने वाले पहले भारतीय सैन्य अधिकारी थे तथा बटालियन की कमान संभालने वाले पहले भारतीय थे। करिअप्पा कैम्बरली के इंपीरियल डिफेंस कॉलेज में प्रशिक्षण लेने के लिए चुने गए पहले दो भारतीयों में से एक थे। उन्होंने विभिन्न कर्मचारी पदों पर कई यूनिटों, कमांड मुख्यालय तथा जनरल मुख्यालय, नई दिल्ली में कार्य किया। भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभालने से पहले, करिअप्पा ने भारतीय सेना के पूर्वी और पश्चिमी कमान के कमांडर के रूप में कार्य किया।
करिअप्पा का जन्म 28 जनवरी 1899 को कर्नाटक के कूर्ग प्रांत (वर्तमान में कोडगु जिला) के शनिवारसंथे में कोडव कबीले से संबंधित किसानों के एक परिवार में हुआ था। करिअप्पा के पिता मडप्पा राजस्व विभाग में काम करते थे। चार बेटों और दो बेटियों वाले परिवार में करिअप्पा उनकी दूसरी संतान थे।[4]
वह अपने रिश्तेदारों के बीच "चिम्मा" के नाम से जाने जाते थे। 1917 में मदिकेरी के सेंट्रल हाई स्कूल में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए चेन्नई के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया।[4] कॉलेज के दौरान उन्हें पता चला कि भारतीयों को सेना में भर्ती किया जा रहा है, और उन्हें भारत में प्रशिक्षित किया जाना है। वह एक सैनिक के रूप में सेवा करना चाहते थे इसलिए उन्होंने प्रशिक्षण के लिए आवेदन किया।[5] कुल 70 आवेदकों में से 42 आवेदकों को डेली कैडेट कॉलेज, इंदौर में प्रवेश दिया गया था। करिअप्पा उनमें से एक थे। करिअप्पा ने अपने प्रशिक्षण के सभी पहलुओं में अच्छे अंक प्राप्त किये। वह अपनी कक्षा में सातवें स्थान पर स्नातक हुए।[5]
करिअप्पा ने 1 दिसंबर 1919 को स्नातक की उपाधि प्राप्त की और उन्हें एक अस्थायी कमीशन प्रदान किया गया। 9 सितंबर 1922 को (17 जुलाई 1920 से प्रभावी) करिअप्पा को एक स्थायी कमीशन प्रदान किया गया। ऐसा करियप्पा के पद को रॉयल मिलिट्री कॉलेज, सैंडहर्स्ट से 16 जुलाई 1920 को उत्तीर्ण (स्नातक) होने वाले अधिकारियों से कनिष्ठर बनाने के लिए किया गया था।[6][5] उन्हें बॉम्बे (मुंबई) में 88वीं कर्नाटक पैदल सेना (इन्फैंट्री) की दूसरी बटालियन में अस्थायी सेकंड लेफ्टिनेंट के रूप में नियुक्त किया गया था।[7] 1 दिसंबर 1920 को उन्हें अस्थायी लेफ्टिनेंट के रूप में पदोन्नत किया गया।[8] बाद में उन्हें ब्रिटिश भारतीय सेना की पैदल सेना पलटन 2/125 नेपियर राइफल्स में स्थानांतरित कर दिया गया। यह पलटन मई 1920 में मेसोपोटामिया (वर्तमान इराक) में स्थानांतरित हो गया था। 17 जुलाई 1921 को उन्हें लेफ्टिनेंट के रूप में पदोन्नत किया गया।[9] जून 1923 में करियप्पा को 1/7 राजपूत में स्थानांतरित कर दिया गया, जो उनका स्थायी रेजिमेंट बन गया।[10]
1925 में करिअप्पा यूरोप के साथ-साथ संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान और चीन के विश्व दौरे पर गये। उन्होंने विभिन्न देशों में बड़ी संख्या में सैनिकों और नागरिकों से मुलाकात की। यह दौरा उनके लिए शिक्षाप्रद साबित हुआ। इसके बाद वह सुव्यवस्थित हो पाये। फतेहगढ़ में उनकी सेवा के दौरान उन्हें एक ब्रिटिश अधिकारी की पत्नी द्वारा "किपर" उपनाम दिया गया। ब्रिटिश अधिकारी की पत्नी को करिअप्पा नाम का उच्चारण करना मुश्किल हो रहा था।[10] 1927 में करिअप्पा को कैप्टन के रूप में पदोन्नत किया गया था,[11] लेकिन नियुक्ति को 1931 तक आधिकारिक तौर पर राजपत्रित नहीं किया गया था।[12]
करिअप्पा को 1931 में पेशावर जिले के मुख्यालय में उप सहायक क्वार्टर मास्टर जनरल (डीएक्यूएमजी) के रूप में नियुक्त किया गया था। मुख्यालय से प्राप्त अनुभव, 1932 में रॉयल यूनाइटेड सर्विसेज इंस्टीट्यूट में उनकी कोचिंग और स्मॉल आर्म्स स्कूल (एसएएस) तथा रॉयल स्कूल ऑफ आर्टिलरी (आरएसए) में उनके द्वारा किए गए पाठ्यक्रमों से उन्हें क्वेटा स्टाफ कॉलेज की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने में सहायता मिली। वह इस पाठ्यक्रम में भाग लेने वाले पहले भारतीय सैन्य अधिकारी थे।[13] हालाँकि अधिकारियों को आम तौर पर पाठ्यक्रम पूरा होने के बाद स्टाफ की नियुक्ति दी जाती थी, लेकिन करिअप्पा को दो साल बाद तक स्टाफ की नियुक्ति नहीं दी गई थी। इस दौरान उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत पर अपनी इकाई के साथ रेजिमेंटल सेवा प्रदान की। मार्च 1936 में उन्हें दक्कन क्षेत्र का स्टाफ कैप्टन नियुक्त किया गया।[14] 1938 में करिअप्पा को मेजर के पद पर पदोन्नत किया गया।,[15] उन्हें उप सहायक एडजुटेंट और क्वार्टर मास्टर जनरल (डीएए और क्यूएमजी) नियुक्त किया गया।[14]
1939 में, भारतीय सेना के अधिकारी रैंकों के भारतीयकरण के विकल्पों की जांच करने के लिए स्कीन समिति की स्थापना की गई थी। करिअप्पा लगभग 19 वर्षों की सेवा के साथ सबसे वरिष्ठ भारतीय अधिकारियों में से एक थे। समिति ने उनके साथ कई चर्चाएँ कीं। उन्होंने सेना में भारतीय अधिकारियों के साथ हो रहे व्यवहार पर नाराजगी जताई। उन्होंने नियुक्तियों, पदोन्नति, लाभों और भत्तों के मामले में भारतीय अधिकारियों के प्रति दिखाए जाने वाले भेदभाव पर जोर दिया। इन सब सुविधाओं के हकदार सिर्फ यूरोपीय अधिकारी थे, भारतीय अधिकारी नहीं।[16]
द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के बाद, करिअप्पा को देराजात में मौजूद 20वीं भारतीय ब्रिगेड में ब्रिगेड प्रमुख के रूप में तैनात किया गया था। बाद में उन्हें 10वें भारतीय डिवीजन (जो इराक़ में तैनात था) के उप सहायक क्वार्टर मास्टर जनरल (डीएक्यूएमजी) के रूप में नियुक्त किया गया। उन्होंने जनरल (बाद में फील्ड मार्शल) विलियम स्लिम के 10वें डिवीजन के डीएए और क्वार्टरमास्टर जनरल के रूप में मेन्शंड इन डिस्पैचैस अर्जित किया। उन्होंने 1941-1942 में इराक़, ईरान और सीरिया में तथा 1943-1944 में बर्मा में अपनी सेवा प्रदान की। मार्च 1942 में भारत वापस आने पर उन्हें फ़तेहगढ़ में नवगठित 7वीं राजपूत मशीनगन बटालियन के सेकेंड-इन-कमांड के रूप में तैनात किया गया। 15 अप्रैल 1942 को उन्हें कार्यवाहक लेफ्टिनेंट कर्नल के रूप में पदोन्नत किया गया और उसी बटालियन का कमांडिंग ऑफिसर नियुक्त किया गया। 15 जुलाई को उन्हें अस्थायी लेफ्टिनेंट-कर्नल के रूप में पदोन्नति मिली।[17] इस नियुक्ति के साथ वह भारतीय सेना में बटालियन[lower-alpha 2] की कमान संभालने वाले पहले भारतीय बन गए।[18] करिअप्पा नई गठित बटालियन को प्रशासन, प्रशिक्षण और हथियारों के संचालन के मामले में स्थिर करने में सफल रहे। यूनिट को बाद में 52वें राजपूत के रूप में पुनः नामित किया गया और 43वें भारतीय बख्तरबंद विभाग के अंतर्गत रखा गया। कुछ महीनों की अवधि के भीतर, यूनिट ने दो परिवर्तन और दो चालें देखीं। सबसे पहले, बटालियन को बख्तरबंद रेजिमेंट में बदलने के लिए उसकी मशीनगनों को टैंकों से बदल दिया गया। लेकिन जल्द ही बटालियन को पैदल सेना में वापस कर दिया गया और 17/7 राजपूत के रूप में पुनः नामित किया गया। बटालियन को इसके बाद सिकंदराबाद ले जाया गया। इस कदम से यूनिट के सैनिकों में अशांति फैल गई जिसे करिअप्पा ने सफलतापूर्वक संभाला।[19]
1 मई 1945 को, करियप्पा को ब्रिगेडियर के रूप में पदोन्नत किया गया, वह पूरी तरह से रैंक हासिल करने वाले पहले भारतीय अधिकारी बन गए।[20] आख़िरकार, नवंबर में, करिअप्पा को वज़ीरिस्तान में बन्नू फ्रंटियर ब्रिगेड का कमांडर बनाया गया। इसी समय के दौरान कर्नल अयूब खान - बाद में फील्ड मार्शल और पाकिस्तान के राष्ट्रपति (1962-1969) - ने उनके अधीन काम किया।
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