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विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
कृष्ण प्रसाद भट्टराई (13 दिसम्बर, 1924 – 4 मार्च, 2011) नेपाल के वरिष्ठ प्रजातन्त्रवादी नेता थे। ये नेपाल के पहले संसद के पहले सभामुख तथा बहुदलीय व्यवस्था की पुनर्स्थापना के बाद के के पहले प्रधानमन्त्री थे।
वि॰सं॰ २००३ में नेपाली कांग्रेस गठन गर्दा देखि नै राजनीतिमा संलग्न हुए भट्टराई २००७ सालको सशस्त्र क्रान्तिमा जनकपुर―उदयपुर कब्जा गर्ने मुक्ति सेनाको कमाण्डरके रूपमे काम किये थे। ये वि॰सं॰ २०१५ सालमे संसदके छोटे सदनके प्रतिनिधि सभाके सभामुख हुए थे।
कृष्णप्रसाद भट्टराईका जन्म पिता संकटाप्रसाद और माता ललितादेवीके छोटे लडकेके रूपमे वि॰सं॰ १९८१ पौष कृष्ण द्वादशीके दिन भारत में बनारसमे हुआ था। गोर्खा दरबारमे पुरोहित यज्ञेश्वर भट्टराईके बेटे पति भट्टराई पृथ्वीनारायण शाहके साथ काठमाडौं आकर दरबारमे हि पुरोहित बनके बैठे रहे। यिनके सन्तति परम्परामे क्रमशः विष्णुहरि, कृष्णलाल, मेदिनीधर, कमलकान्त, विश्वनाथ होते हुये पिछले पुस्तेमे संकटाप्रसाद हुये। संकटाप्रसादके चार भाइ लडके― बटुकप्रसाद, नारायणप्रसाद, गोपालप्रसाद और कृष्णप्रसाद थे। ये चार मध्येके छोटे बेटे कृष्णप्रसाद भट्टराई थे।
भट्टराई वि॰सं॰ २०४६ के जनआन्दोलन के बाद गठित अन्तरिम मन्त्रीपरिषदमा पहलि बार प्रधानमन्त्री बने थे। नेपाल अधिराज्यका संविधान २०४७ (१९२४-२०११) निर्माण कर लागू करवाने और बहुदलीय प्रतिस्पर्धाके आधारमे संसदीय चुनाव करानेके महत्त्वपूर्ण दायित्त्व ये सफलता पूर्वक बहन कर रहे थे। पर जब वे प्रधानमन्त्री थे और यिनके नेत्रित्व में २०४८ के आम निर्वाचनमे ये खुद काठमाण्डौंसे पराजित हुये थे। उसके वाद जब ये २०५६ के आम निर्वाचनमे विजयी हुये तब ये पुनः प्रधानमन्त्री बने थे।[1]
भट्टराईको गान्धीवादी सन्त नेता माना जाता था और ये दृढ अठोट और संकल्पके धनी व्यक्तित्व माना जाता था। ये स्पष्टवक्ता और सिद्धान्तनिष्ठ नेताके रूपमे भी जाना जाता है। हरदम मुस्कुराते रहने वाले भट्टराईका सेन्स अफ ह्युमर उच्च रहता था। गम्भीर समस्याओको हल्के रूपमे लेकर पचानेके क्षमता यिनमे रहता था। पदमे बैठते समय व्यक्तिगत लाभमे नापडनेके कारण यिनको स्वच्छ छवि वाले नेताके रूपमे लिया जाता है।
राणा प्रधानमन्त्री वीर समशेरके वक्रदृष्टिमे पडे हुये पं॰ विश्वनाथ भट्टराई (कृष्णप्रसाद भट्टराईके दादा) सपरिवार बनारस निर्वासनमे जानेके बाद ये वहिंसे बिहारके रामनगर राज्यके राजाके पुरोहित बन्ने पहुँचे। उनके बेटे संकटाप्रसाद भि तिनौ रामनगर रामराजाके पुरोहित थे। यिनके चारौ भाइ बेटे तो बनारसमे बैठके अध्ययन करते थे। वहींसे ये चारौ जन भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलनमे सक्रिय हुये थे। बड़े भैयाओके प्रभावसे छोटे कृष्णप्रसाद राजनीतिमे और आगे पहुँचे।
भट्टराई सन १९४२ के अंग्रेज भारत छोडो स्वतन्त्रता आन्दोलनमे सक्रिय सहभागी होकर पहलि बार अंग्रेज सरकार द्धारा पकडे गए थे। सन् १९४५ में बनारस हिन्दू युनिभर्सिटी स्थित नेपाल छात्र संघके उपाध्यक्षके रूपमे रहकर नेपाली विद्यार्थीओं बीच राजनीतिक चेतना जगानेके काममे भट्टराई सक्रिय रहे। उसके बाद नेपालका निरंकुशतन्त्र हटानेके लिए आन्दोलन करने के सम्बन्धमे छलफल होने लगा। बीपी कोइराला और अन्य केही तात्कालीन युवाओं पहिलेस् हि संगठनमे लगे हुये थे। नेपालके १०४ वर्ष लम्बा निरंकुश राणातन्त्र समाप्त करके संवैधानिक राजतन्त्रात्मक प्रजातन्त्र स्थापना करने के उद्देश्यसे पहलि बार वि॰सं॰ २००३ मा बनारसमे अखिल भारतीय नेपाली राष्ट्रिय कांग्रेस नामक संस्था गठन हुआ। देवीप्रसाद सापकोटाके सभापतित्वमे बना उक्त संस्थाके महामन्त्री रहे भट्टराईने वि॰सं॰ २००३ माघमे कलकत्तामे स्थापित नेपाली राष्ट्रिय कांग्रेसमे संगठन मन्त्रीका पद सम्हाला था।
नेपाली राष्ट्रिय कांग्रेस र नेपाल प्रजातन्त्र कांग्रेस मिलकर वि॰सं॰ २००६ चैत्रमे नेपाली कांग्रेस गठन पश्चात ये सहमहामन्त्रीके पदमा पहुँचे। ये वि॰सं॰ २००७ सालके सशस्त्र क्रान्तिमे जनकपुर―उदयपुर कब्जा करने के लिए मुक्ति सेनाके कमाण्डरके रूपमे काम किये थे। प्रजातन्त्र स्थापना के बाद २००८ में पहेले बार गठित सल्लाहकार सभाके अध्यक्ष बने भट्टराईने २०१६ सालमे प्रतिनिधिसभाके सभामुखका पदका दायित्व वहन किये थे।
पार्टीके आन्तरिक कलह बढ्कर २०५८ में जब शेरबहादुर देउवा प्रधानमन्त्री हुये थे तब यिनके हि नेतृत्वमे पार्टी विभाजित होकर नेपाली कांग्रेस प्रजातान्त्रिकका रूपमे एक अलग पार्टी गठन हुआ था। इससे भट्टराई बहुत चिन्तित बने। पार्टी विभाजनका उस घटनाके बाद एक प्रकार से ये मौन रहे। २ खेमाओंमे विभाजित नेपाली काँग्रेसको एकिकरण करने कार्यमे इनहोंने बड़ा भूमिका निभाया था।
राजतन्त्रबारे में तो उनका अलग मत रहता था। जनआन्दोलनके बाद भि ये तत्कालमे राजा हटानेके पक्षमे नहीं थे। यद्यपि गणतन्त्रके स्थापना पश्चात् ये इस विषयमे मौन हि रहे।
आजीवन अविवाहित रहे ओर सन्त प्रवृत्तिके होने के कारणसे कुछ लोग यिनको सन्त नेता कहकर भि सम्वोधन करते हैं। राजनीतिक बृत्तमे तो यिनको बुलानेका नाम किशुनजी है।
हालहिमे यिनका 'मेरो म' नामका आत्मबृत्तान्त पुस्तकाकारमे प्रकाशित हुआ है।[2] २०६७ फागुन २० गते शुक्रबार रात ११ बजे और २६ मिनटमे काठमाडौंके नर्भिक अस्पतालमे कृष्णप्रसाद भट्टराईका मृत्यु हुआ।
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