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जीवाणुओं के कारण होने वाली एक दीर्घकालिक बीमारी विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
कुष्ठरोग (Leprosy) या हैन्सेन का रोग (Hansen’s Disease) (एचडी) (HD), चिकित्सक गेरहार्ड आर्मोर हैन्सेन (Gerhard Armauer Hansen) के नाम पर, माइकोबैक्टेरियम लेप्री (Mycobacterium leprae) और माइकोबैक्टेरियम लेप्रोमेटॉसिस (Mycobacterium lepromatosis) जीवाणुओं के कारण होने वाली एक दीर्घकालिक बीमारी है।[1][2] कुष्ठरोग मुख्यतः ऊपरी श्वसन तंत्र के श्लेष्म और बाह्य नसों की एक ग्रैन्युलोमा-संबंधी (granulomatous) बीमारी है; त्वचा पर घाव इसके प्राथमिक बाह्य संकेत हैं।[3] यदि इसे अनुपचारित छोड़ दिया जाए, तो कुष्ठरोग बढ़ सकता है, जिससे त्वचा, नसों, हाथ-पैरों और आंखों में स्थायी क्षति हो सकती है। लोककथाओं के विपरीत, कुष्ठरोग के कारण शरीर के अंग अलग होकर गिरते नहीं, हालांकि इस बीमारी के कारण वे सुन्न तथा/या रोगी बन सकते हैं।[4][5]
कुष्ठरोग ने 4,000 से भी अधिक वर्षों से मानवता को प्रभावित किया है,[6] और प्राचीन चीन, मिस्र और भारत की सभ्यताओं में इसे बहुत अच्छी तरह पहचाना गया है।[7] पुराने येरुशलम शहर के बाहर स्थित एक मकबरे में खोजे गये एक पुरुष के कफन में लिपटे शव के अवशेषों से लिया गया डीएनए (DNA) दर्शाता है कि वह पहला मनुष्य है, जिसमें कुष्ठरोग की पुष्टि हुई है।[8] 1995 में, विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन) (डब्ल्यूएचओ) (WHO) के अनुमान के अनुसार कुष्ठरोग के कारण स्थायी रूप से विकलांग हो चुके व्यक्तियों की संख्या 2 से 3 मिलियन के बीच थी।[9] पिछले 20 वर्षों में, पूरे विश्व में 15 मिलियन लोगों को कुष्ठरोग से मुक्त किया जा चुका है।[10] हालांकि, जहां पर्याप्त उपचार उपलब्ध हैं, उन स्थानों में मरीजों का बलपूर्वक संगरोध या पृथक्करण करना अनावश्यक है, लेकिन इसके बावजूद अभी भी पूरे विश्व में भारत (जहां आज भी 1,000 से अधिक कुष्ठ-बस्तियां हैं),[10] चीन,[11] रोमानिया,[12] मिस्र, नेपाल, सोमालिया, लाइबेरिया, वियतनाम[13] और जापान[14] जैसे देशों में कुष्ठ-बस्तियां मौजूद हैं। एक समय था, जब कुष्ठरोग को अत्यधिक संक्रामक और यौन-संबंधों के द्वारा संचरित होने वाला माना जाता था और इसका उपचार पारे के द्वारा किया जाता था- जिनमें से सभी धारणाएं सिफिलिस (syphilis) पर लागू हुईं, जिसका पहली बार वर्णन 1530 में किया गया था। अब ऐसा माना जाता है कि कुष्ठरोग के शुरुआती मामलों से अनेक संभवतः सिफिलिस (syphilis) के मामले रहे होंगे.[15] अब यह ज्ञात हो चुका है कि कुष्ठरोग न तो यौन-संपर्क के द्वारा संचरित होता है और न ही उपचार के बाद यह अत्यधिक संक्रामक है क्योंकि लगभग 95% लोग प्राकृतिक रूप से प्रतिरक्षित होते हैं[16] और इससे पीड़ित लोग भी उपचार के मात्र 2 सप्ताह बाद ही संक्रामक नहीं रह जाते.
कुष्ठरोग के उन्नत रूपों से जुड़ा सदियों पुराना सामाजिक-कलंक, दूसरे शब्दों में कुष्ठरोग का कलंक,[17] अनेक क्षेत्रों में आज भी मौजूद है और यह अभी भी स्व-सूचना और जल्द उपचार के प्रति एक बड़ी बाधा बना हुआ है। 1930 के दशक के अंत में डैप्सोन (dapsone) और इसके व्युत्पन्नों की प्रस्तुति के साथ ही कुष्ठरोग के लिये प्रभावी उपचार प्राप्त हुआ। शीघ्र ही डैप्सोन (dapsone) के प्रति प्रतिरोधी कुष्ठरोग दण्डाणु विकसित हो गया और डैप्सोन (dapsone) के अति-प्रयोग के कारण यह व्यापक रूप से फैल गया। 1980 के दशक के प्रारंभ में बहु-औषधि उपचार (मल्टीड्रग थेरपी) (एमडीटी) (MDT) के आगमन से पूर्व तक समुदाय के भीतर इस बीमारी का निदान और उपचार कर पाना संभव नहीं हो सका था।[18]
बहु-दण्डाणुओं के लिये एमडीटी (MDT) 12 माह तक ली जाने वाली राइफैम्पिसिन (rifampicin), डैप्सोन (dapsone) और क्लोफैज़िमाइन (clofazimine) से मिलकर बना होता है। बच्चों और वयस्कों के लिये उपयुक्त रूप से समायोजित खुराकें सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में ब्लिस्टर के पैकेटों के रूप में उपलब्ध हैं।[18] एकल घाव वाले कुष्ठरोग के लिये एकल खुराक वाला एमडीटी (MDT) राइफैम्पिसिन (rifampicin), ऑफ्लॉक्सैसिन (ofloxacin) और माइनोसाइक्लाइन (minocycline) से मिलकर बना होता है। एकल खुराक वाली उपचार रणनीतियों की ओर बढ़ने के कारण कुछ क्षेत्रों में इस बीमारी के प्रसार में कमी आई है क्योंकि इसका प्रसार उपचार की अवधि पर निर्भर होता है।
कुष्ठरोग और इसके पीड़ितों के प्रति जागरुकता बढ़ाने के लिये विश्व कुष्ठरोग दिवस (वर्ल्ड लेप्रसी डे) की स्थापना की गई।
कुष्ठरोग के वर्गीकरण के अनेक विभिन्न तरीके हैं, लेकिन वे एक दूसरे के समानांतर हैं।
पॉसीबैसीलरी (Paucibacillary) | ट्युबरक्युलॉइड (“टीटी”) ("TT"), बॉर्डरलाइन ट्युबरक्युलॉइड (“बीटी”) ("BT") | A30.1, A30.2 | ट्युबरक्युलॉइड | इसे त्वचा पर उपरंजकयुक्त (hypopigmented) एक या अधिक धब्बों व असंवेदक धब्बों के द्वारा पहचाना जाता है, जहां त्वचा की संवेदनाएं समाप्त हो जाती हैं क्योंकि मानवीय मेजबान की प्रतिरक्षी कोशिकाओं द्वारा आक्रमण किये जाने के कारण सतही नसें क्षतिग्रस्त हो गईं हैं। | सकारात्मक | दण्डाणु (टीएच1) (Th1) |
मल्टिबैसीलरी | मिड-बॉर्डरलाइन या बॉर्डरलाइन (“बीबी”) ("BB") | A30.3 | बॉर्डरलाइन | बॉर्डरलाइन कुष्ठरोग की तीव्रता मध्यम होती है और यह सबसे आम रूप है। त्वचा के धब्बे ट्युबरक्युलॉइड कुष्ठरोग के समान दिखाई देते हैं, लेकिन वे बहुत अधिक संख्या में और अनियमित होते हैं; बड़े धब्बे पूरे अंग को प्रभावित कर सकते हैं और कमजोरी तथा संवेदना में कमी के साथ सतही नसों का शामिल होना आम है। यह प्रकार अस्थिर होता है और लेप्रोमेटस (लेप्रोमेटस) कुष्ठरोग जैसा बन सकता है या इसमें एक प्रतिवर्ती प्रतिक्रिया हो सकती है, जिसके कारण यह ट्युबरक्युलॉइड रूप जैसा बन सकता है। | ||
मल्टीबैसीलरी | बॉर्डरलाइन लेप्रोमेटस (“बीएल”) ("BL") और लेप्रोमेटस (“एलएल”) ("LL") | A30.4, A30.5 | लेप्रोमेटस | यह त्वचा के सममित घावों, ग्रंथियों, प्लाक, आंतरिक त्वचा (dermis) की मोटाई बढ़ने और नाक के श्लेष्म की नियमित सहभागिता, जिसके परिणामस्वरूप नाक में रक्त का जमाव और एपिस्टैक्सिस (नाक से खून आना) की समस्या हो जाती है, से जुड़ा होता है, लेकिन विशिष्ट रूप से नसों की क्षति को पहचान पाने में देर लगती है। | नकारात्मक | दण्डाणु के भीतर स्थित प्लाज्मिड (टीएच2) (Th2) |
ट्युबरक्युलॉइड और लेप्रोमेटस रूपों के विरुद्ध प्रतिरक्षी प्रतिक्रियाओं में अंतर होता है।[22]
हैन्सेन रोग को निम्नलिखित प्रकारों में भी बांटा जा सकता है:[23]
यह बीमारी केवल नसों की सहभागिता के साथ भी हो सकती है, जिसमें त्वचा पर कोई घाव नहीं होते.[7][24][25][26][27][28] इस बीमारी को हैन्सेन का रोग भी कहा जाता है।
त्वचा पर घाव प्राथमिक बाह्य संकेत हैं।[3] यदि इसे अनुपचारित छोड़ दिया जाए, तो कुष्ठरोग बढ़ सकता है, जिससे त्वचा, नसों, हाथ-पैरों और आंखों में स्थायी क्षति हो सकती है। लोककथाओं के विपरीत, कुष्ठरोग के कारण शरीर के अंग अलग होकर गिरते नहीं, हालांकि इस बीमारी के कारण वे सुन्न तथा/या रोगी बन सकते हैं।[4][29]
माइकोबैक्टेरियम लेप्री (Mycobacterium leprae) और माइकोबैक्टेरियम लेप्रोमैटॉसिस (Mycobacterium lepromatosis) कुष्ठरोग का कारण बनने वाले एजेंट हैं। एम. लेप्रोमेटॉसिस (M. lepromatosis) पहचाना गया अपेक्षाकृत नया माइकोबैक्टेरियम है, जिसे 2008 में विकीर्ण लेप्रोमेटस कुष्ठरोग के एक जानलेवा मामले से पृथक किया गया था।[2][3]
एक अंतर्कोशिकीय, अम्ल-तीव्र बैक्टेरियम, एम. लेप्री (M. leprae) वायुजीवी और दण्ड के आकार का होता है और यह माइकोबैक्टेरियम प्रजातियों की मोम-जैसी कोशिका झिल्ली आवरण विशेषता से घिरा होता है।[30]
स्वतंत्र विकास के लिये आवश्यक जीन की अत्यधिक हानि के कारण, एम. लेप्री (M. leprae) और एम. लेप्रोमेटॉसिस (M. lepromatosis) को प्रयोगशाला में निर्मित नहीं किया जा सकता, एक ऐसा कारक जो कोच की अभिधारणा की एक दृढ़ व्याख्या के अंतर्गत निर्णायक रूप से इस जीव की पहचान करने में कठिनाई उत्पन्न कर देता है।[2][31] गैर-संवर्धन-आधारित तकनीकों, जैसे आण्विक आनुवांशिकी ने कारण-कार्य-संबंध की वैकल्पिक स्थापना की अनुमति दी है।
हालांकि, अभी तक इसके उत्पादक जीवों को प्रयोगशाला में संवर्धित कर पाना असंभव रहा है, लेकिन उन्हें पशुओं में विकसित कर पाना संभव हुआ है। यूनाइटेड स्टेट्स लेप्रसी पैनल (United States Leprosy Panel) के चेयरमैन, चार्ल्स शेपर्ड (Charles Shepard) ने 1960 में चूहों के पैरों के पंजों में इन जीवों को सफलतापूर्वक विकसित किया। 1970 में जोसेफ कॉल्सन (Joseph Colson) और रिचर्ड हिल्सन (Richard Hilson) ने सेंट जॉर्ज हॉस्पिटल, लंदन में जन्मजात रूप से बाल्यग्रंथि-हीन चूहे (‘नग्न चूहे’) के प्रयोग द्वारा इस विधि में सुधार किया।
एक अन्य पशु मॉडल एलीनॉर स्टॉर्स (Eleanor Storrs) द्वारा गल्फ साउथ रिसर्च इंस्टीट्यूट (Gulf South Research Institute) में विकसित किया गया। डॉ॰ स्टॉर्स ने अपनी पीएचडी (PhD) के लिये नौ-धारियों वाले वर्मी (armadillos) पर कार्य किया था क्योंकि इस पशु के शरीर का तापमान मनुष्यों के शरीर के तापमान से कम था और इसलिये यह एक उपयुक्त पशु मॉडल हो सकता था। यह कार्य 1968 में वाल्डेमर किर्शीमर (Waldemar Kirchheimer) द्वारा प्रदान की गई सामग्री के साथ कारविल (Carville), लुइज़ियाना (Louisiana) में यूनाइटेड स्टेट्स पब्लिक हेल्थ लेप्रोसैरियम (United States Public Health Leprosarium) में प्रारंभ हुआ। ये प्रयोग असफल सिद्ध हुए, लेकिन लियोनार्ड’स वुड मेमोरियल (Leonard's Wood Memorial) के चिकित्सीय निदेशक चैपमैन बिनफोर्ड (Chapman Binford) द्वारा 1970 में प्रदान की गई सामग्री के साथ किया गया अतिरिक्त कार्य सफल रहा. इस मॉडल का वर्णन करने वाले शोध-पत्रों के परिणामस्वरूप प्राथमिकता पर एक विवाद छिड़ गया। जब इस बात की खोज हुई कि लुइज़ियाना में पाये जाने वाले जंगली वर्मी प्राकृतिक रूप से ही कुष्ठरोग से संक्रमित थे, तो आगे एक और विवाद का जन्म हुआ।
प्राकृतिक रूप से होने वाला संक्रमण गैर-मानवीय वानरों में भी प्राप्त हुआ है, जिनमें अफ्रीकी चिंपांज़ी (African chimpanzee), सूटी मैंगेबी (sooty mangabey) और साइनोमॉल्गस मकैक (cynomolgus macaque) शामिल हैं।
अनेक जीन कुष्ठरोग के प्रति संवेदनशीलता से जुड़े हुए हैं।
कुष्ठरोग के संचरण की क्रियाविधि लंबा निकट संपर्क और अनुनासिक बूंदों द्वारा संचरण है।[7] मानवों के अतिरिक्त जिस एकमात्र जीव में कुष्ठरोग होने की जानकारी मिली है, वह नौ-धारियों वाला वर्मी है।[32] चूहे के पैरों के पंजों में प्रविष्ट करके इस जीवाणु को प्रयोगशाला में भी विकसित किया जा सकता है।[33] इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि एम. लेप्री से संक्रमित सभी लोगों में कुष्ठरोग विकसित नहीं होता और लंबे समय यह माना जाता रहा है कि इसमें आनुवांशिक कारकों की भी एक भूमिका होती है क्योंकि कुछ विशिष्ट परिवारों में कुष्ठरोग का गुच्छन देखा गया है और यह समझ पाने में सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है कि क्यों कुछ लोगों में लेप्रोमेटस कुष्ठरोग विकसित हो जाता है, जबकि अन्य लोगों में कुष्ठरोग के दूसरे प्रकार विकसित होते हैं।[34] ऐसा अनुमान है कि आनुवांशिक कारकों के कारण केवल 5% लोगों में ही कुष्ठरोग होने का खतरा होता है।[35] अधिकांशतः इसका कारण यह है कि शरीर इस जीवाणु के प्रति प्राकृतिक रूप से प्रतिरक्षी होता है और जो लोग इससे संक्रमित हो जाते हैं, वे इस बीमारी के प्रति एक तीव्र एलर्जी भरी प्रतिक्रिया का अनुभव कर रहे हैं। हालांकि इस चिकित्सीय व्याख्या के निर्धारण में आनुवांशिक कारकों की भूमिका पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। इसके अतिरिक्त, कुपोषण और संक्रमित व्यक्ति के साथ लंबे समय तक संपर्क भी इस प्रकट बीमारी के विकास में भूमिका निभा सकता है।
यह विश्वास सबसे व्यापक तौर पर प्रचलित है कि यह बीमारी संक्रमित व्यक्ति और स्वस्थ व्यक्ति के बीच संपर्क के द्वारा संचरित होती है।[36] सामान्यतः संपर्क की निकटता संक्रमण की मात्रा पर निर्भर होती है, जो कि स्वतः ही बीमारी के होने पर निर्भर है। निकट संपर्क को प्रोत्साहित करने वाली विभिन्न स्थितियों में से घर के भीतर होने वाला संपर्क ही वह एकमात्र स्थिति है, जिसे सरलता से पहचाना जा सकता है, हालांकि संपर्कों की घटनायें और उनसे संबंधित जोखिम के बीच विभिन्न अध्ययनों में बहुत अधिक अंतर दिखाई देता है। विस्तार अध्ययनों में, लेप्रोमेटस कुष्ठरोग के संपर्कों के लिये संक्रमण की दरें सेबु, फिलीपीन्स में 6.2 प्रति 1000 प्रति वर्ष[37] से लेकर दक्षिणी भारत के कुछ भागों में 55.8 प्रति 1000 प्रति वर्ष तक रही हैं।[38]
मानव शरीर से एम. लेप्री के दो निकास मार्गों के रूप में अक्सर त्वचा व अनुनासिक श्लेष्म का वर्णन किया जाता है, हालांकि उनका सापेक्ष महत्व स्पष्ट नहीं है। लेप्रोमेटस के मामले अंतर्त्वचा में गहराई तक जीवों की बड़ी मात्रा को दर्शाते हैं, लेकिन इस बात में संदेह है कि क्या वे पर्याप्त मात्रा में त्वचा की सतह तक पहुंचते हैं। हालांकि उतरी हुई त्वचा (त्वचा की ऊपरी सतह का उतरना) में अम्ल-तीव्र दण्डाणुओं के पाये जाने की खबरें मिली हैं, लेकिन 1963 में वेडेल व अन्य (Weddell et al.) ने बताया कि मरीजों और उनके संपर्क में आने वाले लोगों से बहुत बड़ी मात्रा में लिये गये नमूनों के परीक्षण के बावजूद भी उन्हें उपकला में कोई अम्ल-तीव्र दण्डाणु प्राप्त नहीं हुए थे।[39] एक हालिया अध्ययन में, जॉब व अन्य (Job et al.) ने लेप्रोमेटस कुष्ठरोग के रोगियों की त्वचा की ऊपरी केराटिन परत में एम. लेप्री (M. leprae) पर्याप्त मात्रा प्राप्त करने की जानकारी देते हुए यह सुझाव दिया कि संभव है कि इस जीवाणु की निकासी वसामय स्रावों के साथ होती हो.[40]
अनुनासिक श्लेष्म, विशेष रूप से व्रण-युक्त श्लेष्म, का महत्व शैफेर (Schäffer) द्वारा 1898 में ही पहचान लिया गया था।[41] लेप्रोमेटस कुष्ठरोग में अनुनासिक श्लेष्मक घावों से दण्डाणु की मात्रा का प्रदर्शन शेपर्ड द्वारा बड़े पैमाने पर किया गया था और उनकी संख्या 10,000 से 10,000,000 के बीच थी।[42] पेडले (Pedley) ने बताया कि अधिकांश लेप्रोमेटस मरीजों की बहती हुई नाक से लिये गये अनुनासिक स्रावों में कुष्ठरोग दण्डाणु प्राप्त हुए.[43] डैवे (Davey) और रीस (Rees) ने संकेत दिया कि लेप्रोमेटस मरीजों के अनुनासिक स्राव में प्रतिदिन 10 मिलियन विकासक्षम जीव उत्पन्न हो सकते हैं।[44]
मानव शरीर में एम. लेप्री (M. leprae) के प्रवेश का मार्ग भी निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है: त्वचा और ऊपरी श्वसन तंत्र सबसे संभावित मार्ग हैं। पुराने अनुसंधान जहां त्वचा मार्ग का अध्ययन कर रहे थे, वहीं हालिया अनुसंधान द्वारा श्वसन तंत्र का समर्थन बढ़ता जा रहा है। रीस (Rees) और मैकडॉगाल (McDougall) ने प्रतिरक्षा-प्रतिबन्धित चूहों में एम. लेप्री (M. leprae) युक्त के माध्यम से कुष्ठरोग का प्रयोगात्मक संचरण कर पाने में सफलता प्राप्त की, जिससे मनुष्यों में भी इसी तरह की संभावना व्यक्त की गई।[45] नग्न चूहों के साथ किये गये उन परीक्षणों के सफल परिणाम मिलने की जानकारी प्राप्त हुई है, जिनमें एम. लेप्री (M. leprae) को सामयिक अनुप्रयोग के द्वारा अनुनासिक छिद्र से प्रविष्ट किया गया था।[46] संक्षेप में, श्वसन तंत्र के माध्यम से प्रवेश सर्वाधिक संभावित मार्ग है, हालांकि अन्य मार्ग, विशेष रूप से टूटी हुई त्वचा, की उपेक्षा नहीं की जा सकती. सीडीसी (CDC) ने इस बीमारी के संचरण के बारे में निम्नलिखित धारणा व्यक्त की है: "हालांकि हैन्सेन के रोग के संचरण का मार्ग अनिश्चित बना हुआ है, लेकिन अधिकांश शोधकर्ता मानते हैं कि सामान्यतः एम. लेप्री (M. leprae) श्वसन बूंदों के द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलता है। "[47]
कुष्ठरोग में, उष्मायन काल और संक्रमण के समय तथा बीमारी की शुरुआत के मापन दोनों के ही लिये सन्दर्भ बिंदु परिभाषित कर पाना कठिन है; पहला वाला पर्याप्त प्रतिरक्षात्मक उपकरणों के कारण और दूसरा बीमारी की धीमी शुरुआत के कारण. इसके बावजूद, विभिन्न शोधकर्ताओं ने कुष्ठरोग के लिये उष्मायन काल का मापन करने का प्रयास किया है। न्यूनतम उष्मायन काल कुछ सप्ताहों जितना संक्षिप्त होने की जानकारी मिली है और यह नवजात शिशुओं में कुष्ठरोग की अक्सर होने वाली घटनाओं पर आधारित है।[48] अधिकतम उष्मायन काल 30 वर्ष, या उससे अधिक, लंबा होने की जानकारी मिली है, जैसा कि युद्ध के उन पुराने सिपाहियों में देखा गया है, जिनके बारे में यह ज्ञात है कि वे थोड़े समय के लिये वे संक्रमण के स्थानीय क्षेत्रों के संपर्क में आये थे, लेकिन अन्यथा वे गैर-स्थानीय क्षेत्रों में रह रहे थे। सामान्यतः इस बात पर सहमति है कि औसत उष्मायन काल तीन से पांच वर्षों का होता है।
वेनेज़ुएला के डॉ॰ जैसिन्टो कॉन्विट (Dr. Jacinto Convit) ने तपेदिक के टीके और माइटोकॉन्ड्रियम लैप्री (Mycobacterium leprae) से एक टीके का संश्लेषण किया, एक असाधारण कार्य, जिसके लिये उन्हें 1990 के दशक के अंत में चिकित्सा के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार के लिये नामांकन प्राप्त हुआ।
हालिया परीक्षणों में, राइफैम्पिसिन (rifampicin) की एकल खुराक ने बीमारी से संपर्क के दो वर्ष बाद कुष्ठरोग विकसित होने की दर को 57% कम कर दिया; इस अवधि में राइफैम्पिसिन (rifampicin) के साथ किये गये 265 उपचारों ने कुष्ठरोग के एक मामले को रोका.[49] एक गैर-यादृच्छिकृत अध्ययन में पाया गया कि राइफैम्पिसिन (rifampicin) तीन वर्ष बाद कुष्ठरोग के नये मामलो की संख्या 75% घटा दी.[50]
बीसीजी (BCG) कुष्ठरोग तथा साथ ही तपेदिक के खिलाफ सुरक्षा की एक परिवर्तनीय मात्रा प्रस्तावित करती है।[51][52]
इस बीमारी को मिटाने की राह में आ रही स्थायी बाधाओं से निपटने के प्रयासों में पहचान में सुधार, मरीजों और लोगों को इसके कारणों के बारे में शिक्षित करना और इस बीमारी, जिसके मरीजों को ऐतिहासिक रूप से “अस्वच्छ” या “ईश्वर द्वारा शापित” मानकर बहिष्कृत किया जाता रहा है, से जुड़ी सामाजिक वर्जनाओं से लड़ना शामिल है। कुष्ठरोग आनुवंशिक बीमारी नहीं है। जहां वर्जनाएं मज़बूत हैं, उन क्षेत्रों में मरीजों पर अपनी स्थिति को छिपाने (और उपचार ढूंढने से बचने) पर बाध्य किया जा सकता है, ताकि भेद-भाव से बचा जा सके. हैन्सेन के रोग के बारे में जागरुकता के अभाव के चलते लोग यह विश्वास (गलत ढंग से) कर सकते हैं कि यह बीमारी अत्यधिक संक्रामक और असाध्य है।
इथियोपिया का अलर्ट (ALERT) अस्पताल और अनुसंधान केंद्र पूरे विश्व के चिकित्सा कर्मियों को कुष्ठरोग के उपचार का प्रशिक्षण प्रदान करता है और साथ ही अनेक स्थानीय मरीजों का उपचार भी करता है। शल्य-चिकित्सीय तकनीकें, जैसे अंगूठों की गतिविधि के नियंत्रण की पुनर्प्राप्ति के लिये, विकसित की जा चुकी हैं।
1993 में कुष्ठरोग की कीमोथेरपी (Chemotherapy of Leprosy) पर डब्ल्यूएचओ (WHO) के अध्ययन-दल ने दो प्रकार के मानक एमडीटी (MDT) परहेज नियमों को अपनाए जाने की अनुशंसा की.[53] पहला मल्टिबैसीलरी (multibacillary) (एमबी (MB) या लेप्रोमेटस) के मामलों के लिये राइफैम्पिसिन (rifampicin), क्लोफैज़िमाइन (clofazimine) और डैप्सोन (dapsone) के प्रयोग द्वारा 24-माह का एक उपचार था। दूसरा पॉसिबैसीलरी (paucibacillary) (पीबी (PB) or ट्युबरक्युलॉइड) के मामलों के लिये राइफैम्पिसिन (rifampicin) और डैप्सोन (dapsone) का प्रयोग करके छः माह का एक उपचार था। एक सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में कुष्ठरोग को मिटाने पर पहले अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (First International Conference on the Elimination of Leprosy as a Public Health Problem), जो कि अगले वर्ष हनोई में आयोजित किया गया था, में वैश्विक रणनीति को प्रोत्साहन दिया गया और सभी स्थानिक देशों तक एमडीटी (MDT) का प्रबंध और आपूर्ति करने के लिये डब्ल्यूएचओ (WHO) को फंड प्रदान किया गया।
1995 और 1999 के बीच, डब्ल्यूएचओ (WHO) ने, निप्पॉन फाउंडेशन (Nippon Foundation) (चेयरमैन योहेई सासाकावा (Yōhei Sasakawa), कुष्ठरोग मिटाने के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन के सद्भावना दूत (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन Goodwill Ambassador for Leprosy Elimination)) की सहायता से, सभी स्थानिक देशों में ब्लिस्टर पैक में एमडीटी (MDT) का मुफ्त वितरण किया, जिसकी वितरण व्यवस्था स्वास्थ्य मंत्रालयों के माध्यम से की गई। एमडीटी (MDT) के उत्पादक नोवार्टिस (Novartis) द्वारा दिये गये दान के बाद वर्ष 2000 में मुफ्त-वितरण के इस प्रावधान को आगे बढ़ा दिया गया और अब यह कम से कम 2010 के अंत तक जारी रहेगा. राष्ट्रीय स्तर पर, राष्ट्रीय कार्यक्रमों से जुड़े गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) (NGOs) को सरकार के द्वारा डब्ल्यूएचओ (WHO) से प्राप्त इस एमडीटी (MDT) की आपूर्ति की जाती रहेगी.
एमडीटी (MDT) अत्यधिक प्रभावी बना हुआ है और अब पहली मासिक खुराक के बाद से ही मरीज संक्रामक नहीं रह जाते.[7] कैलेंडर ब्लिस्टर पैक में इसकी प्रस्तुति के कारण वास्तविक स्थितियों में इसका प्रयोग करना सुरक्षित और सरल है।[7] पुनरावर्तन की दरें निम्न बनी हुई हैं और संयोजित दवाओं के प्रति कोई प्रतिरोध ज्ञात नहीं हुआ है।[7] कुष्ठरोग पर डब्ल्यूएचओ की सातवीं विशेषज्ञ समिति (सेवंथ डब्ल्यूएचओ एक्सपर्ट कमिटी ऑन लेप्रसी),[54] ने 1997 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते समय, ये निष्कर्ष दिया कि उपचार की एमबी (MB) अवधि—जो उस समय 24 माह थी— को “प्रभावोत्पादकता से कोई उल्लेखनीय समझौता किये बिना” सुरक्षित रूप से कम करके 12 माह किया जा सकता है।
प्राचीन ग्रीक में यह रोग श्लीपद (elephantiasis graecorum) के नाम से जाना जाता था। बाइबिल (मैथ्यू 11,5) के अनुसार कुष्ठरोग को अलौकिक साधनों और हाथों को या इससे विकसित अवशेषों को दफना देने की पद्धति के द्वारा कुष्ठरोग का उपचार किया जा सकता है। सेंट गाइल्स, सेंट मार्टिन, सेंट मैक्सिलियन और सेंट रोमन इस पद्धति से जुड़े हुए थे। अनेक शासक भी इस पद्धति से जुड़े हुए थे: इनमें इंग्लैंड के रॉबर्ट प्रथम, एलिज़ाबेथ प्रथम, हेनरी तृतीय और शार्लेमैग्ने (Charlemagne) शामिल थे।
विभिन्न कालों में रक्त को एक पेय-पदार्थ या स्नान के रूप में एक उपचार माना जाता था। कुंवारी स्रियों या बच्चों के रक्त को विशेष रूप से प्रभावी समझा जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस पद्धति का उदगम प्राचीन मिस्र निवासियों से हुआ, लेकिन चीन में भी इसका पालन किये जाने की जानकारी मिली है, जहां लोगों के रक्त के लिये उनकी हत्या कर दी गई थी। यह पद्धति 1790 में डी सेक्रेटिस नैचुरी (De Secretis Naturae) में कुत्ते के रक्त के प्रयोग का उल्लेख किये जाने तक जारी थी। पैरासेल्सस (Paracelsus) ने मेमने के रक्त के प्रयोग की अनुशंसा की और मृत शरीरों के रक्त का प्रयोग भी किया जाता था।
पलाइनी (Pliny), एरेशियस ऑफ कैपाडोसिया (Areteus of Capadocia) तथा थियोडोरस (Theodorus) के अनुसार सांपों का प्रयोग भी किया जाता था। गॉशर (Gaucher) ने कोबरा के ज़हर से उपचार करने की अनुशंसा की. 1913 में, बॉइनेट (Boinet) ने मधुमक्खियों के डंक की बढ़ती हुई मात्रा को बढ़ाते हुए (4000 तक) परीक्षण किया। सांपों के स्थान पर कभी-कभी बिच्छुओं और मेंढकों का प्रयोग किया जाता था। एनाबास (Anabas) (चढ़नेवाली मछली) के मल का भी परीक्षण किया गया।
वैकल्पिक उपचारों में आर्सेनिक और हेलेबोर (hellebore) सहित जलन उत्पन्न करने वाले अन्य तत्वों के प्रयोग के साथ या उनके बिना दागना शामिल था। मध्य-काल में का वंध्यकरण (Castration) का पालन भी किया जाता था।
चालमुगरा (Chaulmoogra) का तेल कुष्ठरोग का एक पूर्व-आधुनिक उपचार था। एक भारतीय दन्तकथा के अनुसार श्रीराम को कुष्ठरोग हो गया था और कलव (हाइड्नोकार्पस (Hydnocarpus) वंश की एक प्रजाति) वृक्ष के फल खिलाकर उनका उपचार किया गया। इसके बाद उसी फल से उन्होंने राजकुमारी पिया का उपचार किया और फिर इस जोड़े ने बनारस लौटकर अपनी इस खोज के बारे में दुनिया को बताया.
भारत में इस तेल का प्रयोग लंबे समय से कुष्ठरोग और त्वचा की विभिन्न अवस्थाओं के उपचार के लिये एक आयुर्वेदिक दवा के रूप में किया जाता रहा है। इसका प्रयोग चीन और बर्मा में भी होता रहा है और बंगाल मेडिकल कॉलेज के एक प्रोफेसर फ्रेडरिक जॉन मॉट (Frederic John Mouat) ने पश्चिमी विश्व को इससे परिचित करवाया. उन्होंने कुष्ठरोग के दो मामलों में एक मौखिक और स्थानिक एजेंट के रूप में इस तेल का प्रयोग करने का प्रयास किया और 1854 में एक शोध-पत्र में उल्लेखनीय सुधार की जानकारी दी.[55]
इस शोध-पत्र ने थोड़ा भ्रम उत्पन्न कर दिया. मॉट (Mouat) ने सूचित किया कि यह तेल चालमुगरा ओडोराटा (Chaulmoogra odorata) वृक्ष का एक उत्पाद है, जिसका वर्णन 1815 में विलियम रॉक्सबर्ग (William Roxburgh), एक शल्य-चिकित्सक और प्रकृतिवादी, द्वारा किया गया था, जब वे कलकत्ता में ईस्ट इंडिया कम्पनी के बॉटनिकल गार्डन में वनस्पतियों का सूचीकरण कर रहे थे। इस वृक्ष को गाइनोकार्डिया ओडोराटा (Gynocardia odorata) नाम से जाना जाता है। 19वीं सदी के शेष भाग में इस वृक्ष को ही इस तेल का स्रोत माना जाता रहा. 1901 में सर डेविड प्रेन (Sir David Prain) ने कलकत्ता बाज़ार और पेरिस और लंदन के औषधिकारों के सच्चे चालमुगरा बीजों की पहचान टारक्टोजीनस कुर्ज़ी (Taraktogenos kurzii) से प्राप्त होने वाले बीजों के रूप में की, जो की बर्मा और उत्तरी भारत में पाया जाता है। आयुर्वेदिक ग्रंथों में जिस तेल का उल्लेख है वह हाइड्नोकार्पस विगिताना (Hydnocarpus wightiana) वृक्ष से प्राप्त होता है, जिसे संस्कृत में तुवकार और हिंदी व फारसी में चालमुगरा कहा जाता है।
पहला आन्त्रेतर प्रबंध मिस्र के चिकित्सक टॉर्टोलिस बे (Tortoulis Bey), सुल्तान हुसैन कामेल (Hussein Kamel) के व्यक्तिगत चिकित्सक, द्वारा दिया गया था। वे तपेदिक के लिये क्रियोसाइट के प्रत्युपयाजक इंजेक्शन का प्रयोग करते आ रहे थे और 1894 में उन्होंने मिस्र के एक 36-वर्षीय कॉप्ट, जो मौखिक उपचार को सह पाने में असमर्थ रहा था, में चालमुगरा के प्रत्युपयाजक इंजेक्शन का प्रबंध किया। 6 वर्षों और 584 इंजेक्शनों के बाद घोषित किया गया कि वह मरीज ठीक हो चुका था।
इस तेल का एक प्रारंभिक वैज्ञानिक विश्लेषण 1904 में फ्रेडरिक बी. पॉवर (Frederick B. Power) द्वारा लंदन में किया गया। उन्होंने और उनके साथियों ने इन बीजों से एक नये असंतृप्त वसायुक्त-अम्ल को पृथक किया, जिसे उन्होंने ‘चालमुगरिक अम्ल (chaulmoogric acid)’ नाम दिया. उन्होंने दो निकट संबंद्ध प्रजातियों का भी परीक्षण किया: हाइड्नोकार्पस एन्थेल्मिंटिका (Hydnocarpus anthelmintica) और हाइड्नोकार्पस विग्टियाना (Hydnocarpus wightiana) . इन दो वृक्षों से उन्होंने चालमुगरिक अम्ल और एक निकट संबंद्ध यौगिक, हाइड्नोकार्पस अम्ल (hydnocarpus acid), दोनों को अलग किया। उन्होंने गाइनोकार्डिया ओडोराटा (Gynocardia odorata) का परीक्षण भी किया और पाया कि यह इनमें से कोई भी अम्ल उत्पन्न नहीं करता था। बाद में किये गये अनुसंधानों ने यह दर्शाया कि ‘टाराक्टोगेनॉस (taraktogenos)' (हाइड्नोकार्पस कुर्ज़ी (Hydnocarpus kurzii)) भी चालमुगरिक अम्ल उत्पन्न करता था।
इस तेल के प्रयोग से जुड़ी एक अन्य समस्या इसके प्रबंध को लेकर है। मुंह से लिये जाने पर यह अत्यधिक मिचली उत्पन्न करता है। वस्ति से दिये जाने पर यह गुदा-द्वार के आस-पास छाले और दरारें उत्पन्न कर सकता है। इंजेक्शन के द्वारा दिये जाने पर इस दवा ने बुखार और अन्य स्थानीय प्रतिक्रियाएं उत्पन्न कीं. इन कठिनाइयों के बावजूद 1916 में राल्फ हॉपकिन्स (Ralph Hopkins), जो कि कारविल (Carville), लुइज़ियाना (Louisiana) स्थित लुइज़ियाना लेपर होम (Louisiana Leper Home) के उपस्थायी चिकित्सक थे, द्वारा 170 मरीजों की एक श्रृंखला का वर्णन किया गया। उन्होंने मरीजों को दो समूहों में विभाजित किया- 'आरंभिक' और 'विकसित'. विकसित मामलों में, अधिकतम एक चौथाई ने अपनी स्थिति में कोई सुधार या रोक प्रदर्शित की. आरंभिक मामलों में, उन्होंने 45% मरीजों में बीमारी की स्थिति में सुधार या स्थिरता की जानकारी दी; 4% की मृत्यु हो गई और 8% की मृत्यु हो गई। शेष मरीज होम से फरार हो गए जो कि संभवतः उन्नत स्थिति में थे।
इस एजेंट की स्पष्ट उपयोगिता को देखते हुए, इसके उन्नत सूत्रीकरण की खोज शुरु हुई. विक्टर हेज़र (Victor Heiser), मनीला में कुष्ठरोगियों के लिये बने सैन लैज़ारो अस्पताल के व्यवस्थापक चिकित्सक मनीला और एलिडोरो मर्केडोथो के लिये मुख्य संगरोध अधिकारी और स्वास्थ्य निदेशक, ने चालमुगरा और रेसॉर्सिन के नुस्खे में कपूर को शामिल करने का निर्णय लिया, जो कि जर्मनी में मर्क एन्ड कम्पनी (Merck and Company) द्वारा विशिष्ट तौर पर मौखिक रूप से दिया जाता था, जिनसे हेज़र ने संपर्क किया था। उन्होंने पाया कि यह नया यौगिक किसी भी प्रकार की मिचली, जिससे पूर्व में तैयार दवाओं को लेने में समस्या उत्पन्न हो रही थी, के बिना तुरंत अवशोषित कर लिया जाता था।
इसके बाद 1913 में हेज़र (Heiser) और मर्सेडो (Mercado) ने दो मरीजों, जो कि इस बीमारी से उबर चुके लगते थे, में इंजेक्शन के द्वारा इस तेल का निरीक्षण किया। चूंकि इस उपचार का परीक्षण अन्य पदार्थों के साथ किया गया था, अतः इसके परिणाम स्पष्ट नहीं थे। इसके बाद पुनः दो मरीजों का उपचार इसी तेल के साथ इंजेक्शन के द्वारा और किसी भी अन्य उपचार के बिना किया गया और पुनः ऐसा प्रतीत हुआ कि वे इस बीमारी से ठीक हो गए हैं। अगले वर्ष हेज़र (Heiser) ने और 12 मरीजों का निरीक्षण किया, लेकिन इसके मिश्रित परिणाम प्राप्त हुए.
इस तेल के कम विषैले रूपों की खोज भी की गई जिन्हें इंजेक्शन के द्वारा शरीर में प्रविष्ट किया जा सके. इन तेलों के रासायनिक यौगिकों का वर्णन करने वाले शोध-पत्रों की एक श्रृंखला 1920 और 1922 के बीच प्रकाशित की गई। ये एलिस बॉल (Alice Ball) के कार्य पर आधारित रहे हो सकते हैं- इस बिंदु पर रिकॉर्ड स्पष्ट नहीं है और 1916 में ही सुश्री बॉल की मृत्यु हो गई। 1921 में इन रासायनिक यौगिकों के परीक्षण किये गये और वे उपयोगी परिणाम देने वाले प्रतीत हुए.
इन प्रयासों के पूर्व अन्य लोगों द्वारा भी प्रयास किये गये थे। मर्क ऑफ डार्म्सटाड (Merck of Darmstadt) ने 1891 में सोडियम लवणों का एक संस्करण उत्पन्न किया था। उन्होंने इस सोडियम का नाम गाइनोकार्डेट (gynocardate) रखा, जिसका कारण यह भ्रांत धारणा थी कि इस तेल का मूल-स्रोत गाइनोकार्डिया ओडोराटा (Gynocardia odorata) था। 1908 में बेयर ने ‘एंटिलेप्रोल (Antileprol)’ नाम से इन रासायनिक यौगिकों के एक वाणिज्यिक संस्करण का विपणन किया।
इसकी आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिये एजेंट जोसेफ रॉक (Joseph Rock), कॉलेज ऑफ हवाई में सुव्यवस्थित वनस्पति-शास्र (Systematic Botany) के प्रोफेसर, ने बर्मा की यात्रा की. स्थानीय ग्रामीणों ने बीज में पेड़ों के एक झुरमुट की स्थापना की, जिसका प्रयोग करके उन्होंने 1921 और 1922 के बीच ओहाउ द्वीप, हवाई (Island of Oahu, Hawaii) में 2,980 वृक्ष लगाए.
इसके आम दुष्प्रभावों के बावजूद यह तेल 1940 के दशक में सल्फोन (sulfone) के आगमत तक लोकप्रिय बना रहा. इसकी प्रभावोत्पादकता के बारे में बहस तब तक जारी रही, जब तक कि इसका प्रयोग बंद नहीं कर दिया गया।
प्रोमिन (Promin) को पहली बार 1908 में फ्रीलबर्ग इम ब्रिस्गाउ (Freiburg im Breisgau), जर्मनी स्थित एल्बर्ट-लुडविग यूनिवर्सिटी (Albert-Ludwig University) में रसायन-शास्र के प्रोफेसर एमिल फ्रोम (Emil Fromm) द्वारा संश्लेषित किया गया। उसकी स्ट्रेप्टोकॉल-विरोधी गतिविधि की पड़ताल ग्लैडस्टोन बटल (Gladstone Buttle) द्वारा बोरो वेलकम (Burroughs Wellcome) में और अर्नेस्ट फॉर्नियु (Ernest Fourneau) द्वारा इंस्टीट्युट पास्टियुर (Institut Pasteur) में की गई थी।
1940 के दशक में प्रोमिन (promin) का विकास होने तक, कुष्ठरोग के लिये कोई प्रभावी उपचार उपलब्ध नहीं था। प्रोमिन की प्रभावोत्पादकता की खोज सबसे पहले गाय हेनरी फैगेट (Guy Henry Faget) और उनके सह-कर्मियों द्वारा 1943 में कारविल, लुइज़ियाना में की गई। 1950 के दशक में, डॉ॰ आर. जी. कॉकार्न ने कारविल में डैप्सोन (dapsone) को प्रस्तुत किया। यह एम. लेप्री (M. leprae) के विरुद्ध जीवाणुओं की वृद्धि को सीमित करके संक्रमण को रोक पाने में कमजोर है और मरीजों के लिये अनिश्चित काल तक इस दवा का सेवन करते रहना आवश्यक माना गया। जब केवल डैप्सोन (dapsone) का प्रयोग किया जाता था, तो एम. लेप्री (M. leprae) की जनसंख्या ने बहुत जल्दी ही इस एंटीबायोटिक प्रतिरोध विकसित कर लिया; 1960 के दशक तक, विश्व की एक मात्र ज्ञात कुष्ठरोग-विरोधी दवा वास्तव में अनुपयोगी हो चुकी थी।
कुष्ठरोग-विरोधी अधिक प्रभावी दवाओं की खोज के परिणामस्वरूप 1960 के दशक और और 1970 के दशक में क्लोफैज़िमाइन (clofazimine) और राइफैम्पिसिन (rifampicinin) का प्रयोग शुरु हुआ।[56] इसके बाद, भारतीय वैज्ञानिक शांताराम यावलकर (Shantaram Yawalkar) और उनके सहयोगियों ने राइफैम्पिसिन (rifampicin) और डैप्सोन (dapsone) का प्रयोग करके एक संयुक्त उपचार का सूत्रण किया, जिसका लक्ष्य जीवाण्विक प्रतिरोध को घटाना था।[57] इस संयुक्त उपचार के प्रारंभिक परीक्षण 1970 के दशक में माल्टा में किये गये।
1981 में डब्ल्यूएचओ (WHO) की विशेषज्ञ समिति द्वारा पहली बार इन तीनों दवाओं के संयोजन से निर्मित बहु-औषधि उपचार (मल्टीड्रग थेरपी) (एमडीटी) (MDT) की अनुशंसा की गई। इन तीन कुष्ठरोग-विरोधी दवाओं का प्रयोग आज भी मानक (एमडीटी) (MDT) पथ्यों में किया जाता है। प्रतिरोध विकसित हो जाने के जोखिम के कारण इनमें से किसी को भी अकेले प्रयोग नहीं किया जाता.
यह उपचार काफी महंगा था और अधिकांश स्थानिक देशों में इसे शीघ्र नहीं अपनाया गया। 1985 में, कुष्ठरोग को अभी भी 122 देशों में एक सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या माना जाता था। 1991 में जेनेवा (Geneva) में आयोजित 44वीं विश्व स्वास्थ्य सभा (वर्ल्ड हेल्थ असेम्बली) (डब्ल्यूएचए) (WHA) ने वर्ष 2000 तक एक सार्वजनिक-स्वास्थ्य समस्या के रूप में कुष्ठरोग को मिटाने का एक प्रस्ताव पारित किया-जिसे इस बीमारी के वैश्विक प्रसार को 1 मामला प्रति 10,000 से भी कम मात्रा तक घटाने के रूप में परिभाषित किया गया था। इस सभा में, इसके सदस्य राज्यों द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन) (डब्ल्यूएचओ) (WHO) को एक निर्मूलन रणनीति विकसित करने का जनादेश दिया गया, जो कि एमडीटी (MDT) की भौगोलिक कार्यक्षेत्र-व्याप्ति बढ़ाने और मरीजों तक उपचार की अभिगम्यता को बढ़ाने पर आधारित था।
ऐसा अनुमान है कि कुष्ठरोग के कारण वैश्विक स्तर पर दो से तीन मिलियन लोग स्थायी रूप से विकलांग हो गए हैं।[9] भारत में इसके मामलों की संख्या सबसे ज्यादा है, जिसके बाद ब्राज़ील दूसरे और बर्मा तीसरे स्थान पर है।
ऐसा अनुमान है कि 1999 में पूरे विश्व में हैन्सेन के रोग की घटनाओं की संख्या 640,000 थी। वर्ष 2000 में, 738,284 मामलों की पहचान हुई.[59] वर्ष 2000 में, विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन) (डब्ल्यूएचओ) (WHO) ने 91 ऐसे देशों को सूचीबद्ध किया, जिनमें हैन्सेन का रोग स्थानिक है। कुल मामलों में से 70% भारत, म्यांमार और नेपाल से थे। विश्व-भर से मिलने वाले कुष्ठरोग के मामलों में 50% से अधिक केवल भारत में प्राप्त होते हैं।[60] वर्ष 2002 में, वैश्विक स्तर पर 763,917 नए मामलों की पहचान हुई और उसी वर्ष डब्ल्यूएचओ (WHO) ने ब्राज़ील, मेडागास्कर, मोज़ाम्बिक, तंज़ानिया और नेपाल को हैन्सेन के कुल मामलों में से 90% मामलों की उपस्थिति वाले देशों के रूप में सूचीबद्ध किया।
डब्ल्यूएचओ (WHO) से प्राप्त हालिया आंकड़ों के अनुसार, 2003 से 2004 तक पूरे विश्व में पहचाने गए मामलों की संख्या में लगभग 107,000 मामलों (या 21%) की कमी आई है। गिरावट की ओर यह झुकाव पिछले तीन वर्षों से लगातार जारी रहा है। इसके अतिरिक्त, वैश्विक स्तर पर एचडी (HD) का पंजीकृत प्रसार 286,063 मामलों पर था; 2004 के दौरान 407,791 नए मामलों की पहचान हुई.
संयुक्त राज्य अमरीका में, हैन्सेन के रोग का निरीक्षण सेंटर्स फॉर डिसीज़ कण्ट्रोल एण्ड प्रिवेंशन (Centers for Disease Control and Prevention) (सीडीसी) (CDC) द्वारा किया जाता है, जिसने वर्ष 2002 में कुल 92 मामले प्राप्त होने की जानकारी दी.[61] हालांकि वैश्विक स्तर पर मामलों की संख्या में गिरावट जारी है, लेकिन कुछ विशेष क्षेत्रों जैसे ब्राज़ील, दक्षिण एशिया (भारत, नेपाल), अफ्रीका के कुछ भागों (तंज़ानिया, मेडागास्कर, मोज़ाम्बिक) और पश्चिमी प्रशांत में उच्च प्रसार बना हुआ है।
अपर्याप्त बिस्तरों, दूषित जल और अपर्याप्त भोजन, जैसी बुरी स्थितियों या प्रतिरोधी कार्य को घटाने वाली अन्य बीमारियों (जैसे एचआईवी (HIV)) वाले स्थानिक क्षेत्रों में जी रहे लोगों के लिये जोखिम सबसे ज्यादा होता है। हालिया शोधों का सुझाव है कि कोशिका की मध्यस्थता से प्राप्त होने वाले प्रतिरोध में एक कमी है, जिसकी वजह से इस बीमारी के प्रति अतिसंवेदनशीलता उत्पन्न होती है। विश्व की कुल जनसंख्या के दस प्रतिशत से भी कम लोग ही इस बीमारी को ग्रहण कर पाने में सक्षम हैं।[62] डीएनए (DNA) का जो क्षेत्र इस परिवर्तनीयता के लिये ज़िम्मेदार है, वही पार्किंसन्स रोग में भी शामिल होता है,[उद्धरण चाहिए] जिससे इस वर्तमान अनुमान को बल मिलता है कि जैव-रासायनिक स्तर पर ये दो विकार किसी न किसी प्रकार आपस में जुड़े हुए हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त, पुरुषों में कुष्ठरोग होने की संभावना महिलाओं की तुलना में दोगुनी होती है।[उद्धरण चाहिए] द लेप्रसी मिशन, कनाडा (The Leprosy Mission Canada) के अनुसार अधिकांश लोग –लगभग 95% जनसंख्या –प्राकृतिक रूप से प्रतिरक्षित होते हैं।[62]
यद्यपि संचरण के एक मापन के रूप में वार्षिक विस्तार—प्रतिवर्ष मिलने वाले कुष्ठरोग के नए मामलों की संख्या—महत्वपूर्ण है, लेकिन कुष्ठरोग के लंबे उष्मायन काल, बीमारी की शुरुआत के बाद इसके निदान में होने वाली देर और बहुत शुरुआती चरणों में कुष्ठरोग की पहचान कर पाने के लिये प्रयोगशाला उपकरणों की कमी के कारण कुष्ठरोग का मापन कर पाना कठिन है। इसके बजाय, पंजीकृत प्रसार का प्रयोग किया जाता है। पंजीकृत प्रसार इस बीमारी के बोझ का एक उपयोगी प्रतिनिधि सूचक है क्योंकि यह समय के किसी भी बिंदु पर इस बीमारी के साथ निदान किये गये और एमडीटी (MDT) का उपचार प्राप्त कर रहे कुष्ठरोग के सक्रिय मामलों की संख्या दर्शाता है। पुनः प्रसार की दर को समय के किसी भी बिंदु पर जिस जनसंख्या में मामले प्राप्त हुए हों, उसमें एमडीटी (MDT) के लिये पंजीकृत मामलों की संख्या के रूप में परिभाषित किया जाता है।[63]
नए मामलो की पहचान इस बीमारी का एक अन्य सूचक है, जिसकी जानकारी देशों द्वारा सामान्यतः एक वार्षिक आधार पर दी जाती है। उस वर्ष बीमारी की शुरुआत के रूप में निदान किये गये मामलों की संख्या (वास्तविक विस्तार) और पिछले वर्ष शुरु हुए मामलों का एक बड़ा अनुपात (जिसे पहचाने न गए मामलों का संचित प्रसार कहा जाता है) इसमें शामिल होता है।
स्थानिक देश भी पहचान के समय स्थापित विकलांगता के नए मामलों की संख्या की जानकारी देते हैं, जो कि संचित प्रसार का एक सूचक है। इस बीमारी की शुरुआत के समय का निर्धारण कर पाना सामान्यतः अविश्वसनीय होता है, बहुत श्रम-साध्य होता है और शायद ही कभी इन आंकड़ों की रिकॉर्डिंग में किया जाता है।
क्षेत्र | पंजीकृत प्रसार (दर/10,000 जन.) |
वर्ष के दौरान नए मामलों की पहचान | ||||
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2006 का प्रारंभ | 2001 | 2002 | 2003 | 2004 | 2005 | |
अफ्रीका | 40,830 (0.56) | 39,612 | 48,248 | 47,006 | 46,918 | 42,814 |
अमरीका | 32,904 (0.39) | 42,830 | 39,939 | 52,435 | 52,662 | 41,780 |
दक्षिण-पूर्वी एशिया | 133,422 (0.81) | 668,658 | 520,632 | 405,147 | 298,603 | 201,635 |
पूर्वी भूमध्यसागरीय | 4,024 (0.09) | 4,758 | 4,665 | 3,940 | 3,392 | 3,133 |
पश्चिमी प्रशांत | 8,646 (0.05) | 7,404 | 7,154 | 6,190 | 6,216 | 7,137 |
कुल | 219,826 | 763,262 | 620,638 | 514,718 | 407,791 | 296,499 |
देश | पंजीकृत प्रसार (दर/10,000 जन.) |
नए मामलों की पहचान (दर/100,000 जन.) | ||||
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2004 का प्रारंभ | 2005 का प्रारंभ | 2006 का प्रारंभ | 2003 के दौरान | 2004 के दौरान | 2005 के दौरान | |
ब्राज़ील | 79,908 (4.6) | 30,693 (1.7) | 27,313 (1.5) | 49,206 (28.6) | 49,384 (26.9) | 38,410 (20.6) |
मोज़ाम्बीक | 6,810 (3.4) | 4,692 (2.4) | 4,889 (2.5) | 5,907 (29.4) | 4,266 (22.0) | 5,371 (27.1) |
नेपाल | 7,549 (3.1) | 4,699 (1.8) | 4,921 (1.8) | 8,046 (32.9) | 6,958 (26.2) | 6,150 (22.7) |
तंज़ानिया | 5,420 (1.6) | 4,777 (1.3) | 4,190 (1.1) | 5,279 (15.4) | 5,190 (13.8) | 4,237 (11.1) |
कुल | एनए (NA) | एनए (NA) | एनए (NA) | एनए (NA) | एनए (NA) | एनए (NA) |
2006 में 115 देशों और क्षेत्रों द्वारा डब्ल्यूएचओ (WHO) को दी गई जानकारी और वीकली एपिडेमियोलॉजिकल रिकार्ड (Weekly Epidemiological Record) में प्रकाशित खबर के अनुसार उस वर्ष के प्रारंभ में कुष्ठरोग का वैश्विक पंजीकृत प्रसार 219,826 मामलों पर था।[64] पिछले वर्ष (2005- वह अंतिम वर्ष, जिसके लिये देशों की पूरी जानकारी उपलब्ध थी) के दौरान पहचाने गए नए मामलों की संख्या 296,499 थी। इस वार्षिक पहचान की संख्या उस वर्ष के अंत में इसके प्रसार से अधिक होने का कारण इस तथ्य के द्वारा समझाया जा सकता है कि नए मामलों के एक भाग ने एक वर्ष के भीतर अपना उपचार पूरा कर लिया और अतः वे अब रजिस्टर में नहीं रहे. वैश्विक स्तर पर पहचाने जाने वाले नए मामलों की संख्या में गिरावट जारी है और 2005 में इसमें पिछले वर्ष की तुलना में 110,000 मामलों (27%) की कमी आई.
सारणी 1 दर्शाती है कि 2001 से वैश्विक वार्षिक पहचान दर में गिरावट जारी है। अफ्रीका क्षेत्र में 2004 की तुलना में नए मामलों की संख्या में 8.7% की गिरावट देखी गई। अमरीकियों के लिये तुलनीय आंकड़े 20.1%, दक्षिण-पूर्व एशिया के लिये 32% और पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र के लिये 7.6% थे। हालांकि, पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र ने इसी अवधि में 14.8% की वृद्धि दर्शाई.
सारणी 2 उन चार प्रमुख देशों में कुष्ठरोग की स्थिति दर्शाती है, जो अभी भी राष्ट्रीय स्तर पर निर्मूलन लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सके हैं। इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिये कि: क) निर्मूलन को प्रति 10,000 जनसंख्या में 1 से कम मामलों के प्रसार के रूप में परिभाषित किया जाता है; ख) मेडागास्कर ने सितंबर 2006 में राष्ट्रीय स्तर पर निर्मूलन का लक्ष्य प्राप्त कर लिया; ग) नेपाल में पहचाने गए मामलों की संख्या मध्य-नवंबर 2004 से मध्य-नवंबर 2005 की जानकारी पर आधारित है; और घ) डी. आर. कांगो (D.R. Congo) ने 2008 में आधिकारिक रूप से डब्ल्यूएचओ (WHO) को यह जानकारी दी कि राष्ट्रीय स्तर पर उसने 2007 के अंत में निर्मूलन का लक्ष्य हासिल कर लिया था।
इस अनुभाग में सन्दर्भ या स्रोत नहीं दिया गया है। कृपया विश्वसनीय सन्दर्भ या स्रोत जोड़कर इस लेख में सुधार करें। स्रोतहीन सामग्री ज्ञानकोश के लिए उपयुक्त नहीं है। इसे हटाया जा सकता है। (March 2010) स्रोत खोजें: "कुष्ठरोग" – समाचार · अखबार पुरालेख · किताबें · विद्वान · जेस्टोर (JSTOR) |
चीन के जनवादी गणतंत्र (पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना) में कुष्ठरोग से उबर चुके ऐसे अनेक मरीज हैं, जिन्हें शेष समाज से पृथक कर दिया गया था। 1950 के दशक में चीन की साम्यवादी सरकार ने इस बीमारी से उबर चुके लोगों के लिये दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में "उबर चुके ग्रामों (रिकवर्ड विलेज्स)" की स्थापना की. हालांकि बहु-औषधि उपचार के आगमन साथ ही अब कुष्ठरोग का इलाज संभव है, लेकिन ये ग्रामीण वहीं बसे हुए हैं क्योंकि बाहरी विश्व द्वारा उन पर इस बीमारी का कलंक लगा दिया गया है। चीन में जॉय इन एक्शन (Joy in Action) जैसे स्वास्थ्य एनजीओ (NGO) उभरे हैं, जो विशेष रूप से इन “उबर चुके ग्रामों” की स्थिति सुधारने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
कुष्ठरोग के लिये अंग्रेजी भाषा में प्रयुक्त लेप्रसी (Leprosy) शब्द प्राचीन ग्रीक भाषा के शब्द λέπρα [léprā], "एक बीमारी, जो त्वचा को छिलकेदार बना देती है”, से निर्मित है, जो कि स्वयं λέπω [lépō], "छीलना, निकालना " का एक संज्ञात्मक व्युत्पन्न है। यह शब्द लैटिन और प्राचीन फ्रेंच भाषा से होता हुआ अंग्रेजी भाषा में आया। अंग्रेजी में इसका पहला प्रमाणित प्रयोग एन्क्रीन विसे (Ancrene Wisse), 13वीं सदी में ननों के लिये बनी एक नियमपुस्तिका में है ("मॉयसेसेस हॉन्ड..बिसेम्डे ओ पे स्पाइटेल ऊएल एंड लेप्रुस” (("Moyseses hond..bisemde o þe spitel uuel & þuhte lepruse"). द मिडिल इंग्लिश डिक्शनरी, एस.वी., “लेप्रस” (The Middle English Dictionary, s.v., "leprous"). एक मोटे तौर पर समकालीन प्रयोग सेंट ग्रेगरी के वार्तालाप (Dialogues of Saint Gregory) एंग्लो-नॉर्मन में साक्ष्यांकित है, "एस्मॉन्डेज़ आई सॉन्ट लि लीप्रस (Esmondez i sont li lieprous)" (एंग्लो-नॉर्मन शब्दकोश, एस.वी., “लेप्रस”) (Anglo-Norman Dictionary, s.v., "leprus").
ऐतिहासिक रूप से, हैन्सेन के रोग से ग्रस्त लोगों के कुष्ठरोगी (lepers) कहा जाता रहा है; हालांकि, कुष्ठरोग के मरीजों की घट रही संख्या और इस शब्दावली के निन्दात्मक संकेतार्थ के कारण यह शब्दावली प्रयोग से बाहर होती जा रही है।[उद्धरण चाहिए] मरीजों पर लगने वाले कलंक के कारण, कुछ लोग “कुष्ठरोग (leprosy)” शब्द के प्रयोग को वरीयता नहीं देते, हालांकि यू. एस. सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (U.S. Centers for Disease Control and Prevention) तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन) द्वारा इसी शब्द का प्रयोग किया जाता है।[उद्धरण चाहिए]
ऐतिहासिक रूप से, हिब्रू बाइबिल से मिली ज़ार्थ (Tzaraath) शब्दावली का अनुवाद, गलती से, आमतौर पर लेप्रसी (leprosy) के रूप में किया जाता था, हालांकि ज़ार्थ (Tzaraath) के लक्षण कुष्ठरोग के साथ पूरी तरह संगत नहीं थे और इसके बजाय इसका प्रयोग अनेक प्रकार के विकारों का उल्लेख करने के लिये किया जाता था, जो कि हैन्सेन के रोग से अलग थे।[65] लेप्रसी (leprosy) शब्द के उल्लेख का पहला रिकॉर्ड लेविटिकस 13:2 (Leviticus 13:2) में मिलता है - "जब किसी पुरुष के मांस की त्वचा में, कोई उभार, कोई पपड़ी, या कोई चमकीला दाग़ होगा और मांस की त्वचा में यह कुष्ठरोग (leprosy) की महामारी के समान होगा; तो उसे पुजारी आरोन (Aaron the priest) के पास या उनके पुजारी पुत्रों में से किसी एक के पास तक लाया जाएगा." बाइबिल में भी सीरियाई नामन (Naaman) की एक प्रसिद्ध कथा है, “सीरिया के राजा का कप्तान (कैप्टन ऑफ़ द होस्ट ऑफ़ द किंग ऑफ़ सीरिया)" (2 किंग्ज़ 5:1) (2 Kings 5:1), जो त्वचा की यह और भीषण बीमारी से ग्रस्त था।
विशिष्ट रूप से, डर्मेटोफाइट (dermatophyte) कवक ट्राइकोफिटॉन वायोलीसम (Trichophyton violaceum) के कारण टीनिया कैपिटिस (tinea capitis) (सिर की त्वचा का कवकीय संक्रमण) और शरीर के अन्य भागों में होने वाले संबंधित संक्रमण वर्तमान में पूरे मध्य-पूर्व में और उत्तरी अफ्रीका में अत्यधिक हैं और शायद वे बाइबिल के समय भी बहुत आम रहे होंगे. इसी प्रकार, ऐसा प्रतीत होता है कि कुरूप बना देने वाला त्वचा-रोग फेवस (favus), ट्राइकोफिटॉन स्कोएन्लेनी (Trichophyton schoenleinii), आधुनिक दवाओं के आगम से पूर्व पूरे यूरेशिया और अफ्रीका में आम था। तीव्र फेवस (favus) और इसी प्रकार की अन्य कवकीय बीमारियों से ग्रस्त (और संभवतः वे भी, जो तीव्र सोरियासिस (psoriasis) और अन्य बीमारियों, जो सूक्ष्मजीवों के कारण नहीं होतीं, से ग्रस्त थे) लोगों को यूरोप में 17वीं शताब्दी तक कुष्ठरोग से ग्रस्त के रूप में ही वर्गीकृत किया जाता था।[66] यह 1667 में जैन डी ब्रे (Jan de Bray) द्वारा हार्लेम में द रेजेंट्स ऑफ द लेपर हॉस्पिटल (The Regents of the Leper Hospital) में प्रदर्शित एक चित्र में स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है (फ़्रांस हाल्स संग्रहालय, हार्लेम, नीदरलैंड्स) (Frans Hals Museum, Haarlem, the Netherlands), जहां एक स्पष्ट रूप से सिर की त्वचा में हुए संक्रमण, जो कि लगभग निश्चित रूप से कवक के कारण हुआ है, से ग्रस्त एक युवा डच पुरुष का उपचार भी कुष्ठरोग से ग्रस्त लोगों के लिये बने एक धर्मार्थ चिकित्सालय के तीन अधिकारियों द्वारा ही किया जा रहा है।[उद्धरण चाहिए] 19वीं सदी के मध्य काल, जब चिकित्सीय निदान के लिये त्वचा के सूक्ष्मदर्शीय परीक्षण का पहली बार विकास हुआ, से पूर्व तक, “लेप्रसी (leprosy)" शब्द के प्रयोग को शायद ही हैन्सेन के रोग के साथ उतने विश्वसनीय रूप से जोड़ा जा सकता है, जैसा कि इसे हम आज समझते हैं।[उद्धरण चाहिए]
17वीं सदी की समाप्ति के बाद, पश्चिमी यूरोप में केवल नॉर्वे और आइसलैंड ही ऐसे देश थे, जिनमें कुष्ठरोग के गंभीर समस्या थी। 1830 के दशक के दौरान, नॉर्वे में कुष्ठरोगियों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई, जिससे इस स्थिति के संबंध में चिकित्सीय शोध भी बढ़ा और यह बीमारी एक राजनैतिक मुद्दा बन गई। 1854 में नॉर्वे ने कुष्ठरोग के लिये एक चिकित्सीय अधीक्षक की नियुक्ति की और 1856 में कुष्ठरोगियों के लिये एक राष्ट्रीय रजिस्टर की स्थापना की, जो कि पूरे विश्व में मरीजों का पहला राष्ट्रीय रजिस्टर था।[67]
1873 में, जी. एच. आर्मर हैन्सेन (G. H. Armauer Hansen) द्वारा नॉर्वे में कुष्ठरोग के कारणात्मक एजेंट, माइकोबैक्टेरियम लेप्री (Mycobacterium leprae), की खोज की गई, जिससे यह मनुष्यों में इस बीमारी का कारण बनने वाला पहला ज्ञात जीवाणु बन गया।[68][69]
हैन्सेन ने दाग़रहित ऊतकों वाले अनेक क्षेत्रों से अनेक छोटे गैर-अपवर्तक दण्डाणुओं का अवलोकन किया। ये दण्डाणु पोटेशियम के जल में घुलनशील नहीं थे और वे अम्ल तथा अल्कोहल के प्रति तीव्र थे। 1879 में वे ज़िएल की विधि के द्वारा इन जीवों को चिह्नित करने में सक्षम हुए और कोच के दण्डाणु (माइटोबैक्टेरियम ट्युबरक्युलॉसिस) (Mycobacterium tuberculosis) के साथ इसकी समानता का उल्लेख भी किया गया। इन जीवों में तीन उल्लेखनीय अंतर थे: (1) कुष्ठरोग के घावों में उपस्थित दण्डाणुओं की संख्या अत्यधिक थी (2) उन्होंने अंतर्कोशिकीय संग्रहणों (ग्लॉबी) की रचना की, जो कि उनकी एक विशेषता है और (3) इन दण्डाणुओं में शाखाओं और सूजन के साथ अनेक प्रकार के आकार थे। इन अंतरों ने यह सुझाव दिया कि कुष्ठरोग किसी ऐसे जीव के कारण उत्पन्न होता था, जो माइकोबैक्टेरियम ट्युबरक्युलॉसिस (Mycobacterium tuberculosis) से संबंधित तो था, लेकिन उससे भिन्न था।
उन्होंने बर्गेन (Bergen) में सेंट जॉर्जेन्स अस्पताल (St. Jørgens Hospital) मे कार्य किया, जिसकी स्थापना पंद्रहवीं सदी के प्रारंभ में हुई थी। आज सेंट जॉर्जेन एक संग्रहालय, लेप्राम्युसीट (Lepramuseet) है, जो संभवतः उत्तरी यूरोप में सर्वश्रेष्ठ रूप से संरक्षित कुष्ठरोग चिकित्सालय है।[70]
पश्चिम में, कुष्ठरोग का सबसे प्राचीन ज्ञात विवरण रोमन विश्वकोश के रचयिता ऑलस कॉर्नेलियस सेल्सस (Aulus Cornelius Celsus) (25 ईसा पूर्व से – 37 ईस्वी) ने अपनी डी मेडिसिना (De Medicina) में दिया; उन्होंने कुष्ठरोग को “श्लीपद (elephantiasis) ” कहा.[71] रोमन लेखक प्लाइनी द एल्डर (Pliny the Elder) (23–79 ईस्वी) ने भी इसी बीमारी का उल्लेख किया।[71] हालांकि, 5वीं सदी ईस्वी के वल्गेट (Vulgate) में लेविटिकस के “सारा’ट ” ("sara't " of Leviticus) (पुराना करार) का अनुवाद “लेप्रा (lepra) ” के रूप में किया गया है, लेकिन सारा’ट (sara’t) का लेवाइटिकस (Leviticus) में मिलने वाला मूल रूप सेल्सस (Celsus) व प्लाइनी (Pliny) द्वारा वर्णित श्लीपद (elephantiasis) नहीं था; वस्तुतः सारा’ट (sara't) का प्रयोग एक ऐसी बीमारी का वर्णन करने के लिये किया जाता था, जो घरों और वस्रों को प्रभावित कर सकती थी।[71] कैटरीना सी. डी. मैक्लॉयड (Katrina C. D. McLeod) और रॉबिन डी. एस. येट्स (Robin D. S. Yates) के अनुसार सारा’ट (sara't) "रस्मी अशुद्धि की एक स्थिति या त्वचा के रोग के एक अस्थायी रूप का द्योतक है।"[71]
मुस्लिम विश्व में, फारसी बहुश्रुत एविसेना (Avicenna) (सी. (c.) 980–1037) कुष्ठरोग से ग्रस्त लोगों में अनुनासिक पट के विनाश का वर्णन करने वाला चीन के बाहर का पहला ग्रंथ था।[71]
मध्य-युग में विभिन्न लेप्रोसारिया (leprosaria), या कुष्ठरोग चिकित्सालय, उभर आए; मैथ्यू पेरिस (Matthew Paris), एक बेनेडिक्ट-अनुयायी संन्यासी (Benedictine Monk), का आकलन है कि तेरहवीं सदी के प्रारंभिक काल में पूरे यूरोप में इनकी संख्या 19,000 थी।[72] पहली दर्ज की गई कुष्ठरोग कॉलोनी हार्ब्लेडाउन (Harbledown) में थी। ये संस्थाएं आश्रमों की तर्ज पर चलाई जातीं थीं और हालांकि कुष्ठरोगियों को इन आश्रम-जैसे स्थानों पर रहने के लिये प्रोत्साहित किया जाता था, लेकिन ऐसा उनके स्वयं के स्वास्थ्य व संगरोध के लिये था। वस्तुतः कुछ मध्ययुगीन स्रोत इस विश्वास की ओर संकेत करते हैं कि जो लोग कुष्ठरोग से ग्रस्त थे, उनके बारे में यह माना जाता था कि वे इस धरती पर ही पापशोधन की प्रक्रिया से गुज़र रहे थे और इसी कारण उनके कष्टों को सामान्य व्यक्ति के कष्टों से अधिक पवित्र माना जाता था। अधिक आमतौर पर, कुष्ठरोगियों को जीवन और मृत्यु के बीच के एक स्थान पर निवास करने वालों के रूप में देखा जाता था: वे अभी भी जीवित थे, लेकिन फिर भी उनमें से अधिकांश ने सांसारिक अस्तित्व से या तो स्वयं ही खुद को रस्मी रूप से अलग कर लिया था या फिर उन्हें ऐसा करने पर बाध्य किया गया था।[73] सेंट लाज़ारस (Saint Lazarus) की परंपरा एक सन्यासियों की एक अस्पताल संचालित करने वाली और सैन्य संचालन वाली परंपरा थी, जिसकी शुरुआत बारहवीं सदी में येरुशलम में हुई और अपने पूरे इतिहास के दौरान यह कुष्ठरोग से जुड़ी रही. इस परंपरा के पहले संन्यासी कुष्ठरोग के योद्धा थे और मूल रूप से उनमें कुष्ठरोग के महागुरू (grand masters) हुआ करते थे, हालांकि सदियां बीतने के साथ-साथ इस परंपरा के ये पहलू परिवर्तित हो गए।
रैडगुंड (Radegund) को कुष्ठरोगियों के पैर धोने के लिये जाना जाता है। ऑर्डरिक वाइटेलिस (Orderic Vitalis) ने एक सन्यासी, राल्फ (Ralf) के बारे में लिखा है, जो कुष्ठरोगियों के कष्टों को देखकर इतने द्रवित हो गए कि उन्होंने कुष्ठरोग पाने की प्रार्थना की (जो कि अंततः उन्होंने प्राप्त भी किया). अपने आगमन की सूचना देने के लिये कुष्ठरोगी अपने साथ एक टुनटुना और घंटी रखा करता था और इसके उद्देश्य लोगों को दान देने के लिये आकर्षित करने के साथ ही इस बात की चेतावनी देना भी था कि एक रोगी व्यक्ति आस-पास ही है।
द ऑक्सफोर्ड इलस्ट्रेटेड कम्पेनियन टू मेडिसिन (The Oxford Illustrated Companion to Medicine) का मत है कि कुष्ठरोग का उल्लेख और साथ ही इसका उपचार, हिंदुओं की धार्मिक पुस्तक अथर्व-वेद में पहले से ही वर्णित है।[74] एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका 2008 (Encyclopedia Britannica 2008) में लिखते हुए, कीर्न्स (Kearns) व नैश (Nash) कहते हैं कि कुष्ठरोग का प्रथम उल्लेख भारतीय चिकित्सा पुस्तक सुश्रुत संहिता (6वीं सदी ईसा पूर्व) में मिलता है।[75] द कैम्ब्रिज एन्साइक्लोपीडिया ऑफ ह्युमन पैलियोपैथोलॉजी (The Cambridge Encyclopedia of Human Paleopathology) (1998) के अनुसार: "भारत की सुश्रुत संहिता 600 सदी ईसा पूर्व से ही इस स्थिति का काफी अच्छी तरह वर्णन करती है और यहां तक कि इसके लिये उपचारात्मक सुझाव भी प्रदान करती है".[76] शल्य-चिकित्सक सुश्रुत 6वीं सदी ईसा पूर्व में भारत के नगर काशी में निवास करते थे,[77] और चिकित्सीय पुस्तक सुश्रुत संहिता —उन्हें समर्पित—ने ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी के दौरान अपनी उपस्थिति दर्ज की.[75] सुश्रुत के कार्य का उत्खनन में प्राप्त सबसे प्राचीन सुरक्षित लिखित सामग्री बोवर पाण्डुलिपी —चौथी सदी ईस्वी में लिखित, है, जो कि मूल रचना के लगभग एक सहस्राब्दी बाद लिखी गई।[78] इन प्राचीन कार्यों की उपस्थिति के बावजूद इस बीमारी का पहला सामान्यतः अचूक माना जाने वाला वर्णन 150 ईस्वी में गैलेन ऑफ पेरागमम (Galen of Pergamum) का था।
2009 में, भारत में 4000-वर्षों पुराना एक नर-कंकाल मिला, जिस पर कुष्ठरोग के चिह्न दिखाई दे रहे थे।[79] यह खोज बालाथाल (Balathal) नामक स्थान पर हुई, जो कि वर्तमान में राजस्थान का एक भाग है और ऐसा माना जाता है[by whom?] कि यह इस बीमारी का अभी तक प्राप्त सबसे पुराना मामला है।[80] इससे इस बीमारी के पिछले सबसे प्राचीन ज्ञात मामले की तिथि, जो कि छठी-सदी के मिस्र की थी, 1,500 वर्ष पीछे चली गई।[81] ऐसा विश्वास है कि खुदाई में मिला नर-कंकाल किसी पुरुष का है, जो अपनी आयु के तीसरे दशक में था और अहार कैल्कोलिथिक (Ahar Chalcolithic) संस्कृति का सदस्य था।[81][82] पुरातत्वविदों का कथन है कि यह नर-कंकाल न केवल कुष्ठरोग का अब तक प्राप्त सबसे प्राचीन मामला है, बल्कि यह इस प्रकार का पहला उदाहरण भी है, जो कि प्रागैतिहासिक भारत तक पीछे जाता है।[83] यह खोज इस बीमारी के उदगम से संबंधित एक सिद्धांत का समर्थन करती है, जिसका मानना है कि सिकंदर महान की सेनाओं के माध्यम से यूरोप में फैलने से पूर्व इसका उदगम भारत या अफ्रीका में हुआ।[80]
1881 में, भारत में कुष्ठरोग के लगभग 120,000 मरीज थे। केंद्र सरकार ने 1898 का लेपर्स एक्ट (Lepers Act of 1898) पारित किया, जिसने भारत में कुष्ठरोग से ग्रस्त व्यक्तियों के बलपूर्वक परिरोध के लिये कानूनी प्रावधान प्रदान किया।[84]
प्राचीन चीन के सन्दर्भ में, कैटरीना सी. डी. मैक्लॉइड (Katrina C. D. McLeod) और रॉबिन डी. एस. येट्स (Robin D. S. Yates) ने निम्न-प्रतिरोध वाले कुष्ठरोग के लक्षणों के सबसे प्राचीन ज्ञात स्पष्ट वर्णन प्रदान करने वाले के रूप में, 266-246 ईसा पूर्व के स्टेट ऑफ क्विन’स फेंग ज़ेन शी (State of Qin's Feng zhen shi 封診式) (सीलबंदी और पड़ताल के मॉडलों) की पहचान की, हालांकि इसे लि (li 癘), त्वचा के विकार के लिये एक सामान्य चीनी शब्द, के अंतर्गत सूचीबद्ध किया गया था।[71] 1975 में हुबेई क्षेत्र के शुइहुदी, युनमेंग की खुदाई में प्राप्त बांस की पट्टी पर लिखा तीसरी सदी ईसा पूर्व का यह चीनी अवतरण न केवल “नाक के स्तंभ” के नष्ट होने का, बल्कि “भौहों में सूजन, बालों के झड़ना, अनुनासिक उपास्थि के अवशोषण, घुटनों और कोहनियों में पीड़ा, कठिनाईपूर्ण और बेसुरे श्वसन तथा साथ ही असंवेदनता” का भी वर्णन करती है।[71]
जापान में कुष्ठरोग की रोकथाम के लिये 1907, 1931 और 1953 में बनाए गए नियमों के आधार पर आरोग्य-निवास में मरीजों के पृथक्करण का एक अद्वितीय इतिहास रहा है और इस कारण इसने कुष्ठरोग के कलंक को और गहरा कर दिया है। 1953 के कानून को 1996 में निरस्त कर दिया गया। 2008 तक प्राप्ति जानकारी के अनुसार अभी भी 13 राष्ट्रीय आरोग्य-निवासों और 2 निजी चिकित्सालयों में 2717 पूर्व-मरीज रह रहे हैं। वर्ष 833 में लिखित एक दस्तावेज में, कुष्ठरोग का वर्णन इस प्रकार किया गया है: “शरीर के पांच अंगों को खा लेने वाले एक परजीवी के कारण होने वाली एक बीमारी. इसमें भौहें और पलकें निकलकर अलग हो जाती हैं और नाक का आकार विकृत हो जाता है। यह बीमारी स्वर में कर्कशता उत्पन्न करती है और आवश्यक रूप से इसमें अंगुलियों और पंजों के शामिल होते हैं। इसके मरीजों के साथ न सोएं क्योंकि यह बीमारी आस-पास के लोगों तक भी फैल सकती है।" यह संक्रामकता के प्रति चिंता व्यक्त करनेवाला पहला दस्तावेज था।[85]
1947 में, पुर्तगाल में हॉस्पिटल-कॉलोनिया रोविस्को पैस (Hospital-Colónia Rovisco Pais) (रोविस्को पैस अस्पताल-कॉलोनी) की स्थापना कुष्ठरोग के उपचार के लिये एक राष्ट्रीय केंद्र के रूप में की गई। 2007 में इसका नाम बदलकर सेंट्रो डी मेडिसिना डी रिएबिलिटाकाओ डा रेजिआओ सेंट्रो-रोविस्को पैस (Centro de Medicina de Reabilitação da Região Centro-Rovisco Pais) कर दिया गया। यह अभी भी एक कुष्ठरोग सेवा प्रदान करता है, जिसमें 25 पूर्व-मरीज रहते हैं। 1988 और 2003 के बीच पुर्तगाल में कुष्ठरोग के 102 मरीजों का उपचार किया गया।[86]
स्पेन में द सैनेटोरियो डी फॉन्टिलेस (The Sanatorio de Fontilles) (फॉन्टिलेस आरोग्य-निवास) की स्थापना 1902 में की गई और 1909 में इसमें पहला मरीज भर्ती हुआ। 2002 में इस सैनेटोरियो (Sanatorio) में आरोग्य निवास में 68 निवासी मरीज थे और 150 अधिक बाहरी मरीज उपचार प्राप्त कर रहे थे। बहुत थोड़ी संख्या में अभी भी मामलों की जानकारी मिलती रहती है।[87]
2009 में ग्रीस से दो देशज मामलों की जानकारी मिली थी।[88]
2009 में फ्रांस से एक मामले की जानकारी मिली थी।[89]
सन 1700 तक यूरोप के अधिकांश भाग से कुष्ठरोग को लगभग मिटा दिया गया था, लेकिन सन 1850 के कुछ समय बाद रूसी साम्राज्य से आने वाले लिथुआनियाई आप्रवासियों कर्मियों के माध्यम से पूर्वी प्रुशिया में कुष्ठरोग का पुनः आगमन हुआ। 1800 में मेमेल (Memel) (अब लिथुआनिया (Lithuania) में क्लाइपेडा (Klaipėda) में पहले कुष्ठरोग आरोग्य-निवास (leprosarium) की स्थापना की गई। 1900 और 1904 में ऐसे विधेयक पारित किये गये, जिन्होंने मरीजों का पृथक्करण करना और उन्हें दूसरों के साथ कार्य करने की अनुमति न देना आवश्यक बना दिया.
ग्रेट ब्रिटेन में अंतिम ज्ञात मामला 1901 में शेटलैंड द्वीप (Shetland Islands) में मिला था।
माल्टा में कुष्ठरोग (अर्गा कॉर्पोर मॉर्बी लेप्री) (erga corpore morbi leprae) का पहला लेखबद्ध मामला 1492 में एक गोज़िटन महिला (गैरिता ज़ेज्बैस (Garita Xejbais)) का था, लेकिन यह निश्चित है कि यह बीमारी इस समय से पूर्व भी इस द्वीप पर मौजूद थी।[90] अगला दर्ज मामला 1630 में डोमिनिक के एक तपस्वी का था। वर्ष 1687 की एक रिपोर्ट में पांच मामले दर्ज थे। इसके बाद 1808 में तीन मामलों की जानकारी मिली. 1839 और 1858 के बीच सात अतिरिक्त मामले दर्ज किये गए। 1890 में एक जनसंख्या सर्वेक्षण में कुल 69 मामले दर्ज हुए. 1957 में एक सर्वेक्षण के बाद 151 कुष्ठ रोग से संक्रमित लोगों की पहचान की.
जून 1972 में, एक निर्मूलन कार्यक्रम प्रारंभ किया गया। यह परियोजना हैम्बर्ग स्थित बॉर्सल इंस्टीट्यूट (Borsal Institute) के निदेशक एनो फ्रीर्कसेन (Enno Freerksen) के कार्य पर आधारित थी। डॉ फ्रीर्कसेन द्वारा इससे पूर्व किये गये परीक्षणों में राइफैपिसिन (rifampacin), आइज़ोनियाज़िड (izoniazid), डैप्सोन (dapsone) और प्रोथियोनामाइड (prothionamide) का प्रयोग किया गया था। माल्टा परियोजना में राइफैम्पिसिन (rifampacin), डैप्सोन (dapsone) और क्लोफैमाज़ाइन (clofamazine) का प्रयोग हुआ। लगभग 300 मरीजों के उपचार के बाद 1999 में यह परियोजना आधिकारिक रूप से बंद कर दी गई।
यूरोप में कुष्ठरोग की अंतिम कॉलोनी रोमानिया के टिचिलेस्टी (Tichileşti) में थी। 1991 तक, मरीजों को कॉलोनी छोड़ने की अनुमति नहीं दी जाती थी। इस कॉलोनी में मरीजों को भोजन, सोने के लिये एक स्थान, कपड़े और चिकित्सीय सुविधाएं मिलती हैं। कुछ मरीज लंबे मंडपों में और शेष सब्जियों व फलों के उद्यानों से युक्त घरों में रहते हैं। इस कॉलोनी में दो चर्च – ऑर्थोडॉक्स (Orthodox) तथा बैप्टिस्ट (Baptist) – एवं एक खेत है, जहाँ कॉलोनी स्वयं के लिये मक्के का उत्पादन करती है।
19वीं सदी के अंत में अटलांटिक कनाडा में कुष्ठरोग के मामले मिले थे। इसके मरीजों को पहले मिरामिची नदी में शेल्ड्रेक द्वीप पर रखा गया था और बाद में इनको स्थानांतरित कर दिया गया।Tracadie [disambiguation needed] कैथलिक साध्वियां (Catholic nuns) (रिलीजियुसेस हॉस्पिटलीयरेस डी सेन्ट-जोसेफ (religieuses hospitalières de Saint-Joseph), आरएचएसजे (RHSJ)) रोगियों की देखभाल के लिये आईं. उन्होंने न्यू-ब्रुन्सविक (New-Brunswick) में फ्रांसीसी भाषा का पहला अस्पताल (French-language hospital) खोला और इसके बाद अनेक अन्य अस्पताल खुले. आरएचएसजे (RHSJ) की साध्वियों द्वारा खोले गए अस्पतालों में से अनेक का प्रयोग आज भी किया जाता है। ट्रैकेडि (Tracadie) में कुष्ठरोगों को रखने वाला अंतिम अस्पताल 19991 में तोड़ दिया गया। इसका कुष्ठरोग व संक्रामक रोगों के रोगियों के लिये निर्मित भाग (lazaretto section) 1965 से ही बंद कर दिया गया था। अपने अस्तित्व की एक सदी की अवधि में इसने न केवल बीमारी के एकाडियन (Acadian) पीड़ितों को बल्कि पूरे कनाडा से आने वाले लोगों तथा साथ ही आइसलैंड, रूस और चीन सहित अन्य देशों से आने वाले बीमार आप्रवासियों को भी शरण दी.[91]
प्रतिवर्ष 150-200 के बीच नए मामलों का निदान होता है। 1999 में 108 मामलों की जानकारी प्राप्त हुई. कुष्ठरोग सबसे ज्यादा मात्रा में टेक्सास और लुइज़ियाना में मिलता है, जिसका कारण शायद इन राज्यों में नौ धारियों वाले वर्मी की उपस्थिति है।
इस द्वीप पर कुष्ठरोग की शुरुआत की तिथि को लेकर विवाद है। सबसे आम तौर पर माना जाने वाला दृष्टिकोण यह है कि इसका आगमन 1850 के दशक के मध्य में आए चीनी आप्रवासियों के द्वारा हुआ, लेकिन कुछ ऐतिहासिक रिकॉर्ड सुझाव देते हैं कि यह बीमारी उससे भी पूर्व समुद्री-नाविकों के माध्यम से आई होगी.
इस section में सत्यापन हेतु अतिरिक्त संदर्भ अथवा स्रोतों की आवश्यकता है। कृपया विश्वसनीय स्रोत जोड़कर इस section में सुधार करें। स्रोतहीन सामग्री को चुनौती दी जा सकती है और हटाया भी जा सकता है। (April 2010) स्रोत खोजें: "कुष्ठरोग" – समाचार · अखबार पुरालेख · किताबें · विद्वान · जेस्टोर (JSTOR) |
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