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कालीन (अरबी : क़ालीन) अथवा गलीचा (फारसी : ग़लीच:) उस भारी बिछावन को कहते हैं जिसके ऊपरी पृष्ठ पर आधारणत: ऊन के छोटे-छोटे किंतु बहुत घने तंतु खड़े रहते हैं। इन तंतुओं को लगाने के लिए उनकी बुनाई की जाती है, या बाने में ऊनी सूत का फंदा डाल दिया जाता है, या आधारवाले कपड़े पर ऊनी सूत की सिलाई कर दी जाती है, या रासायनिक लेप द्वारा तंतु चिपका दिए जाते हैं। ऊन के बदले रेशम का भी प्रयोग कभी-कभी होता है परंतु ऐसे कालीन बहुत मँहगे पड़ते हैं और टिकाऊ भी कम होते हैं। कपास के सूत के भी कालीन बनते हैं, किंतु उनका उतना आदर नहीं होता। कालीन की पीठ के लिए सूत और पटसन (जूट) का उपयोग होता है। ऊन के तंतु में लचक का अमूल्य गुण होने से यह तंतु कालीनों के मुखपृष्ठ के लिए विशेष उपयोगी होता है। फलस्वरूप जूता पहनकर भी कालीन पर चलते रहने पर वह बहुत समय तक नए के समान बना रहता है। यानी जल्दी मैला (गन्दा) नहीं होता।
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ताने के लिए कपास की डोर का ही उपयोग किया जाता है, परंतु बाने के लिए सूत अथवा पटसन का। पटसन के उपयोग से कालीन भारी और कड़ा बनता है, जो उसका आवश्यक तथा प्रशंसनीय गुण है। अच्छे कालीनों में सूत की डोर के साथ पटसन का उपयोग किया जाता है।
कालीन बुनने के पहले ही ऊन को रँग लिय जाता है। इसके लिए ऊन की लच्छियों को बाँस के डंडों में लटकाकर ऊन को रंग के गरम घोल में डाल दिया जाता है और रंग चढ़ जाने पर उन्हें निकाल लिया जाता है। आधुनिक रँगाई मशीन द्वारा होती है। कुछ मशीनों में रँगाई प्राय: हाथ की रँगाई के समान ही होती है, किंतु रंग के घोल को पानी की भाप द्वारा गरम किया जाता है और लच्छियाँ मशीन के चलने से चक्कर काटती जाती हैं। दूसरी मशीनों में ऊन का धागा बहुत बड़ी मात्रा में ठूँस दिया जाता है और गरम रंग का घोल समय-समय पर विपरीत दिशाओं में पंप द्वारा चलता रहता है। ऐसी मशीनें हाल में ही चली हैं। कालीन में प्रयुक्त होनेवाले ऊन के धागे की रँगाई तभी संतोषजनक होती है जब रंग प्रत्येक तंतु के भीतर बराबर मात्रा में प्रवेश करे। इसका अनुमान तंतु के बाहरी रंग से सदैव नहीं हो पाता और अच्छी रँगाई के लिए कुछ धागों की गुच्छी काटकर देख ली जाती है। अच्छे कालीन के लिए संतोषजनक रँगाई उतनी ही आवश्यक है जितनी पक्की और ठोस बुनाई। कीमती कालीनों के लिए पूर्णतया पक्के रंगों का उपयोग आवश्यक होता है। साधारण कालीनों के लिए रंग को प्रकाश के लिए तो अवश्य ही पक्का होना चाहिए और धुलाई के लिए जितना ही पक्का हो उतना ही अच्छा।
ऊन के ऊपर प्राकृतिक चर्बी रहती है जिससे रंग भली भाँति नहीं चढ़ता। इसलिए ऊन को साबुन और गरम पानी में पहले धो लिया जाता है। साबुन के कुछ दुर्गुणों के कारण संकलित प्रक्षालकों (synthetic detergents) का प्रयोग अब ऊन की धुलाई में अधिक होने लगा है।
संसार भर में हाथ की बुनाई प्राय: एक ही रीति से होती है। ताने ऊर्ध्वाधर दिशा में तने रहते हैं। ऊपर वे एक बेलन पर लपेटे रहते हैं जो घूम सकता है। नीचे वे एक अन्य बेलन पर बँधे रहते हैं। जैसे-जैसे कालीन तैयार होता जाता है, वैसे-वैसे उसे नीचे के बेलन पर लपेटा जाता है, जैसा साधारण कपड़े की बुनाई में होता है। ताने के आधे तार (अर्थात डोरे) आगे पीछे हटाए जा सकते हैं और उनके बीच बाना डाला जाता है। इस प्रकार गलीचे की बुनाई उसी सिद्धांत पर होती है जिसपर साधारणत: कपड़े की होती है, परंतु एक बार बाना डालने के बाद ताने के तारों पर ऊन का टुकड़ा बाँध दिया जाता है। टुकड़ा काटकर बाँधना और लंबे धागे का एक सिरा बाँधकर काटना, दोनों प्रथाएँ प्रचलित हैं। बँधा हुआ टुकड़ा लगभग दो इंच लंबा होता है और अगल बगल के तारों में फंदे द्वारा फँसाया जाता है। फंदा डालने की दो रीतियाँ हैं। एक तुरकी और एक फारसी जो चित्र ३ से स्पष्ट हो जाएँगी। ऊन के फंदों की एक पंक्ति लग जाने के बाद बाने के दो तार (अर्थात् डोरे) बुन दिए जाते हैं। तब फिर ऊन के फंदे बाँधे जाते हैं और बाने के तार डाले जाते हैं। प्रत्येक बार बाने के तार पड़ जाने के बाद लोहे के पंजे से ठोककर उनको बैठा दिया जाता है, जिससे कालीन की बुनाई गफ हो। बाना डालने की रीति में थोड़ा बहुत परिवर्तन हो सकता है जिससे कालीन के गुणों में कुछ परिवर्तन आ जाता है। आजकल साधारणत: कालीन बहुत चौड़े बुने जाते हैं। इसलिए इनको बुनते समय तानों के सामने कई एक कारीगर बैठते हैं और प्रत्येक लगभग दो फुट की चौड़ाई में ऊन के फंदे लगाता है। कारीगर अपने सामने आलेखन रखे रहते हैं और उसी के अनुसार रंगों का चुनाव करते हैं। फंदे लगाने की रीति से स्पष्ट है कि ऊन के गुच्छे कालीन के पृष्ठ से समकोंण पर नहीं उठे रहते, कुछ ढालू रहते हैं। हाथ के बुने कालीनों का यह विशेष लक्षण है
कालीन बुने जाने के बाद ऊन के गुच्छे के छोरों को कैंची से काटकर ऊन की ऊँचाई बराबर कर दी जाती है। आवश्यकतानुसार तंतुओं को न्यूनाधिक ऊँचाई तक काटकर उभरे हुए। बेलबूटे आलेखन के अनुसार बनाए जा सकते हैं। ऐसे कालीनों में यद्यपि ऊन की हानि हो जाती है तथापि सुंदरता बढ़ जाती है और ये अधिक पसंद किए जाते हैं।
कुछ कालीन दरी के समान, किंतु ऊनी बाने से, बुने जाते हैं। इनका प्रचलन कम है।
हाथ से बने प्रथम श्रेणी के कालीन मशीन से बने कलीनों की अपेक्षा बहुत अच्छे होते हैं। हाथ से प्रत्येक कालीन विभिन्न आलेखन के अनुसार और विभिन्न नाप, मेल अथवा आकृति का बुना जा सकता है। ये सब सुविधाएँ मशीन से बने कालीनों में नहीं मिलतीं। कालीन में प्रति वर्ग इंच ऊन के ९ से लेकर ४०० तक गुच्छे डाले जा सकते हैं। साधारणत: २०-२५ गुच्छे रहते हैं। भारत, ईरान, मिस्र, तुर्की और चीन हाथ के बने कालीनों के लिए प्रसिद्ध हैं। भारत में मिर्जापुर, भदोही (वाराणसी), कश्मीर, मसूलीपट्टम आदि स्थान कालीनों के लिए विख्यात हैं और इन सब कालीनों में फारसी गाँठ का ही प्रयोग किया जाता है।
मशीन की बुनाई कई प्रकार की होती है। सबसे प्राचीन ब्रुसेल्स कालीन है। इसमें कालीन के पृष्ठ पर ऊन के धागों का कटा सिरा नहीं रहता, दोहरा हुआ धागा रहता है। बुनावट ऐसी होती हैं कि यदि ऊन पर्याप्त पुष्ट हो तो एक सिरा खींचने पर एक पंक्ति का सारा ऊन एक समूचे टुकड़े में खिंच जाएगा। फिर कई रंगों का आलेखन रहने पर कई रंगों के ऊन का उपयोग किया जाता है और जहाँ आलेखन में किसी रंग का अभाव रहता है वहाँ उन रंगों के धागे कालीन की बुनावट में दबे रहते हैं। केवल उसी रंग के धागे के फंदे बनते हैं जो कालीन के पृष्ठ पर दिखलाई पड़ते हैं। इन कारणों से पाँच से अधिक रंगों का उपयोग एक ही कालीन में कठिन हो जाता है। बारंबार एक ही प्रकार के बेलबूटे डालने के लिए छेद की हुई दफ्तियों का प्रयोग किया जाता है, जैसे सूती कपड़े में बेलबूटे बनाते समय।
ऊन का सिरा कटा न रहने के कारण ये कालीन बहुत अच्छे नहीं लगते। ऊनी धागों का अधिकांश बुनाई के बीच दबा रहता है। इस प्रकार भार बढ़ाने के अतिरिक्त वह किसी काम नहीं आता और कालीन का मूल्य बेकार बढ़ जाता है। इन कालीनों का प्रचलन अब बहुत कम हो गया है।
विल्टन कालीन की प्रारंभिक बुनावट वैसी ही होती है जैसी ब्रुसेल्स कालीन की, परंतु बुनते समय ऊन के फंदों के बीच धातु का तार डाल दिया जाता है जिसका सिरा चिपटा और धारदार होता है। जब इस तार को खींचा जाता है तब ऊन के फंदे कट जाते हैं और पृष्ठ वैसा ही मखमली हो जाता है जैसा हाथ से बुने कालीन का होता है। मखमली पृष्ठ देखने में सुंदर और स्पर्श करने में बहुत कोमल होता है। तार खींचने का काम स्वयं मशीन बराबर करती रहती है।
विल्टन कालीन में ऊनी मखमली पृष्ठ के गुच्छे ब्रुसेल्स कालीन के दोहरे धागे की अपेक्षा अधिक दृढ़ता से बुनाई में फँसे रहते हैं। ये कालीन बहुधा ब्रुसेल्स की अपेक्षा घने बुने जाते हैं और इनमें तौल बढ़ाने का प्रयत्न नहीं किया जाता। कोमलता और कारीगरी के कारण मूल्य अधिक होने पर भी ये कालीन पसंद किए जाते हैं। सस्ते कालीनों की खपत अधिक होने के कारण सस्ते ऊनी विल्टन बनने लगे, जिनमें सस्ते ऊनी धागे का उपयोग होता है। एकरंगे विल्टन सबसे सस्ते पड़ते हैं और उन लोगों को, जो एकरंगा कालीन पसंद करते हैं, ये कालीन बहुत अच्छे लगते हैं।
चौड़े विल्टन कालीन बनाने में तारवाली रीति से असुविधा होती है। इसलिए फंदे बनाने और उनको काटने में धातु के तार की जगह धातु के अंकुशों का उपयोग होने लगा है।
मशीन से बने कालीनों में यद्यपि ये कालीन (टफ़्टेड को छोड़कर) सबसे नए हैं, तथापि बुनावट में ये पूर्वदेशीय (ईरान, भारत, चीन इत्यादि के) कालीनों के बहुत समीप हैं। समानता इस बात में है कि ये ऊन के धागों के गुच्छों से बने होते हैं, यद्यपि गुच्छे मशीन द्वारा डाले जाते हैं और उनमें गाँठें नहीं पड़ी रहतीं। एक्समिन्स्टर कालीन की विशेषता यह है कि गुच्छे खड़ी पंक्तियों में ताने के बीच डाले जाते हैं। ये डालने से पहले या बाद में काटे जाते हैं और बाने से बुनावट में कसे रहते हैं। प्रत्येक गुच्छा कालीन की सतह पर दिखाई पड़ता है और आलेखन का अंग रहता है। गुच्छों का कोई भी भाग ब्रुसेल्स और विल्टन कालीनों की तरह छिपा नहीं रहता और इस प्रकार व्यर्थ नहीं जाता। फंदे का कम से कम भाग बाने से दबा रहता है।
इंग्लैंड में इनके बुनने की कला १९वीं शताब्दी के अंत में अमरीका से आई और तब से दिनों दिन इसका विकास होता गया। इस कालीन की बुनावट में खर्च कम पड़ता है और सामान (ऊनी, सूती, पटसनी धागा) भी कम लगता है। बुनावट विशेष सघन सुंदर जान पड़ती है और ऐसे कालीनों के बनाने में असंख्य आलेखनों और रंगों के समावेश की संभावना रहती है। अन्य कालीनों के समान इनमें भी कई मेल होते हैं, परंतु बुनावट में विशेष भेद नहीं होता। भेद केवल गुच्छों के तंतुओं की अच्छाई, सघनता और उनको फँसाने की विधि में होता है।
एक्समिन्स्टर कालीनों की बनावट चित्र ८ में प्रदर्शित की गई है। अलग-अलग कंपनियों के कालीनों में थोड़ा बहुत भेद होते हुए भी साधारणतया दोहरे लिनेन का या सूती ताना, सूती भराऊ बाना और पटसन का दोहरा बाना प्रयुक्त किया जाता है।
पहले मशीन से बने कालीन बहुत चौड़े नहीं होते थे। चौड़े कालीनों के लिए दो या अधिक पट्टियों को जोड़ना पड़ता था, किंतु अब बहुत चौड़े कालीन भी मशीन पर बुने जा सकते हैं। प्राय: सब प्राचीन आलेखनों की प्रतिलिपि बनाई जा सकती है और इस प्रकार समय-समय पर कभी एक, कभी दूसरा आलेखन फैशन में आता रहता है।
इसके अतिरिक्त कालीन बनाने की मशीन, कालीन की बनावट और धागों को रँगने की विधि में दिनोंदिन उन्नति हो रही है। नियत समय में अधिक से अधिक माल तैयार करना और कम से कम श्रम के साथ तैयार करना, यही ध्येय रहता है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के कुछ बाद ही संयुक्त राष्ट्र (अमरीका) के दक्षिणी भाग में सिलाई द्वारा कालीन बनाने की मशीन का आविष्कार हुआ। इनसे "गुच्छित' कालीन बनते हैं। दिन प्रति दिन गुच्छित कालीनों की मशीनों में उन्नति हो रही है। इस समय अमरीका के बाजार में ये कालीन बहुत बड़ी मात्रा में बिकते हैं। गुच्छित कालीनों की मशीनों की माल तैयार करने की क्षमता बहुत अधिक होती है और मशीन लगाने का प्रारंभिक खर्च अधिक होते हुए भी सस्ते कालीन तैयार होते हैं।
इन कालीनों के मुखपृष्ठ और पीठ को एक साथ नहीं बनाया जाता। मुखपृष्ठ के फंदे या तो सिलाई द्वारा पहले से बनी हुई पीठ पर टाँक दिए जाते हैं या गुच्छे रासायनिक लेप द्वारा पीठ के कपड़े पर चिपका दिए जाते हैं। द्वितीय विधि में तप्त करने की कुछ क्रिया के अनंतर चिपकानेवाला पदार्थ पक्का हो जाता है और गुच्छे दृढ़ता से पीठ पर चिपक जाते हैं। ऊन के फंदों के दोनों ओर एक-एक पीठ चिपकाकर और फंदों को बीचोबीच काटकर एक ही समय में दो कालीन भी तैयार किए जा सकते हैं।
कालीन बनते समय ही आलेखनों का बन जाना, या कालीन बन जाने के बाद मुखपृष्ठ का रँगा जाना, या छपाई द्वारा आलेखन उत्पन्न करना, इन सब दिशाओं में भी गुच्छित कालीनों में बहुत प्रगति हुई है।
ऊपर कई वर्गो के कालीनों का वर्णन किया गया है। किसी भी वर्ग के कालीन के विषय में यदि कोई अकेला शब्द है जिससे उसके संपूर्ण गुण, दोष, श्रेणी और मूल्य का ज्ञान होता है तो वह कालीन की क्वालिटी है। क्वालिटी प्रधानत: कालीन के मुखपृष्ठ पर ऊनी गुच्छों के घनेपन पर निर्भर रहती है। इस प्रकार ऊँची क्वालिटी, मध्य क्वालिटी, नीची क्वालिटी, कालीन के व्यापार में साधारण शब्द हैं। घने बुने हुए कालीन के लिए साधारणतया बढ़िया और लंबी ऊन का पतला धाग आवश्यक होता है। कीमती ऊन के अधिक मात्रा में लगने के साथ उच्च श्रेणी का ताना बाना आवश्यक होता है। बढ़िया पतले धागे के उपयोग और गाँठों के पास-पास होने से कालीन तैयार होने में समय अधिक लगता है। इस प्रकार ऊँची क्वालिटी के कालीन का मूल्य अधिक होता है।
कालीन की क्वालिटी एक वर्ग इंच में गाँठों की संख्या से प्रदर्शित की जाती है। यद्यपि यह प्रथा तब तक संतोषजनक नहीं होती जब तक यह भी निश्चय न कर लिया जाए कि गाँठें इकहरे धागे से डाली गई हैं या दोहरे अथवा तिहरे धागे से। उदाहरणत:, तिहरे धागे से बना कालीन दोहरे धागे से बने कालीन की अपेक्षा, प्रति वर्ग इंच कम गाँठों का होने पर भी, घना हो सकता है।
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